क्या होता है कि अचानक से...एकदम अचानक से ही लहू की जगह कोई और दौड़ने लगता है रगों में...सरपट, अनवरत, बेकायदा, बेलौस...रातों की नक्काशियाँ एकदम से चटख रंग भर जाती हैं सुबह के कैनवास पर और कोई पुरानी ग़ज़ल फिर से सज कर मचल उठती है सुनाये जाने को ...
वो जब अपनी ख़बर दे है
जहाँ भर का असर दे है
रगों में गश्त कुछ दिन से
कोई आठों पहर दे है
चुराकर कौन सूरज से
यूं चंदा को नज़र दे है
ये रातों की है नक्काशी
जो सुबहों में कलर दे है
कहाँ है ज़ख्म औ' हाकिम
भला मरहम किधर दे है
ज़रा-सा मुस्कुरा कर वो
नयी मुझको उमर दे है
तुम्हारे हुस्न का रुतबा
मुहब्बत को हुनर दे है
{मासिक "आजकल" के जुलाई 2013 अंक में प्रकाशित}