...बहुत पहले एक कविता-सा गीत या कुछ ऐसा ही लिखा था। शायद दसवीं कक्षा में था मैं उस वक्त और किसी मित्र ने उठाकर "कादम्बिनी" में भेज दिया जो संपादक की मेहरबानी से छप भी गया था । खूब इतराया था उन दिनों। आज सोचा फिर इतराऊँ....बस छंद वगैरह का अनुशासन ना दिखे तो ठीक-ठाक सी ही बन पड़ी थी। शेष तो सुधि पाठकगण हैं ही कमी-बेसी निकालने के लिये। तो पेश है...
दूर क्षितिज पे जमीं को
छूता हुआ नील गगन-
तुझ जैसा ही तो है वो
ओ मेरे एकाकी मन
क्यों इतना उदास है तू
क्यों बना है अकिंचन
डूबा है तू किस सोच में
किस बात का है चिंतन
प्राची से आती हुई
सूर्य की प्रथम किरण
तू ही तो है वों
ओ मेरे एकाकी मन
मुर्झाई है हर कली यहाँ
कि ये कैसा है उपवन
अजनबी बन गया है आज
क्यों तेरा वो अपनापन
भाव-पुष्प कर दूँ तुझपे
मैं सारा का सारा अर्पण
बस जरा सा हँस ले गा ले
ओ मेरे एकाकी मन
नियती बन गयी है आज
क्यों आज तेरी दुश्मन
खो गया है आज कहाँ
तेरा वो परिचय नूतन
इस जगत की व्यथा से
खंडित हुआ कोई दर्पण
तू युग-पावक युगद्रष्टा है
ओ मेरे एकाकी मन
.......तो ये थी वो मेरी करीब ग्यारह साल पहले की रचना।