25 June 2012

तुम जो नहीं होती, तो फिर ...?

यूँ ही एक पुरानी  कविता आज...या तुकबन्दी सा कुछ| कब से बस अनर्गल-सा कुछ लिखे जा रहा हूँ यहाँ, तो सोचा डायरी के पुराने पन्नों में  कुछ टटोलूँ और अपनी कोई कविता निकालूँ....ये वाली भायी :-)


तुम जो नहीं होती तो फिर   


कि तुम जो नहीं होती, तो फिर ...?


भोर लजाती ऐसे ही क्या
थामे किरणों की घूँघट ?
तब भी उठती क्या ऐसे ही 
साँझ ढ़ले की अकुलाहट ?


रातें होतीं रातों जैसी 
या दिन फिर दिन ही होता ?
यूँ ही भाती बारिश मुझको
चाँद लुभाता यूँ ही क्या ?


यूँ ही ठिठकता राहों में मैं
चलता हुआ अचानक से,
कि मीलों दूर छत पर बैठी
तुमने पुकारा हो जैसे ?


तन्हाई, तन्हाई-सी ही 
होती या कुछ होती और ?
मेरे सीने में धड़कन का
होता क्या फिर कोई ठौर ?


आवारा कदमों को क्या फिर
मिलती भी कोई मंज़िल ?
बना-ठना सा यूँ ही रहता 
या फिर रहता मैं जाहिल ?


मेरे हँसने या रोने के 
होते क्या कुछ माने भी ?
कैसा होता घर आना और 
टीस छोड कर जाने की ?


सच तो इतना-सा भर है कि 
होने को जो भी होता 
तुम जो तुम नहीं होती तो 
मैं भी कहाँ मैं ही होता 


{त्रैमासिक अनंतिम में प्रकाशित }


....और इसी कविता को सुनना चाहें  मेरी भद्दी-सी आवाज में, तो उसका भी विकल्प मौजूद है :-