कैसे तो कैसे बीत जाता है ये कमबख़्त वक़्त और हम खर्च होते रहते हैं इसके इस बीतते जाने में...नामालूम से | पता भी नहीं चला और इस ब्लौग पर लिखते-लिखते छ साल हो गए | तो "पाल ले इक रोग नादां..." की छठी पर एक पुरानी ग़ज़ल :-
उफ़ ये कैसी कशिश ! बेबसी ? हाँ वही !
बेख़ुदी ? बेक़सी ? हाँ वही ! हाँ वही !
करवटों ने सुनी फिर कहानी कोई
रतजगों से जो लिक्खी गई ? हाँ वही !
एक सिगरेट-सी दिल में सुलगी कसक
अधजली,
अधबुझी, अधफुकी
? हाँ
वही !
रात की हाय ये दिल्लगी ? हाँ वही !
फोन पर बात तो होती है खूब यूँ
तिश्नगी फोन से कब बुझी ? हाँ वही !
सैकड़ों ख़्वाहिशें सर पटकती हैं रोज़
देख कर जेब की मुफ़लिसी ? हाँ वही !
ज़िंदगी जैसे हो इक अधूरी ग़ज़ल
काफ़ियों में ही उलझी हुई ? हाँ वही !
('लफ़्ज़' , 'गुफ़्तगू' और 'अभिनव प्रयास' में प्रकाशित)