31 July 2014

एक सिगरेट-सी दिल में सुलगी कसक और ब्लौगिंग के छ साल

कैसे तो कैसे बीत जाता है ये कमबख़्त वक़्त और हम खर्च होते रहते हैं इसके इस बीतते जाने में...नामालूम से | पता भी नहीं चला और इस ब्लौग पर लिखते-लिखते छ साल हो गए | तो "पाल ले इक रोग नादां..." की छठी पर एक पुरानी ग़ज़ल :- 

उफ़ ये कैसी कशिश ! बेबसी ? हाँ वही !
बेख़ुदी ? बेक़सी ? हाँ वही ! हाँ वही !

करवटों ने सुनी फिर कहानी कोई
रतजगों से जो लिक्खी गई ? हाँ वही !

एक सिगरेट-सी दिल में सुलगी कसक
अधजली, अधबुझी, अधफुकी ? हाँ वही !

सुब्ह बेचैन है, दिन परेशान है
रात की हाय ये दिल्लगी ? हाँ वही !

फोन पर बात तो होती है खूब यूँ
तिश्नगी फोन से कब बुझी ? हाँ वही !

सैकड़ों ख़्वाहिशें सर पटकती हैं रोज़
देख कर जेब की मुफ़लिसी ? हाँ वही !

ज़िंदगी जैसे हो इक अधूरी ग़ज़ल
काफ़ियों में ही उलझी हुई ? हाँ वही !
('लफ़्ज़' , 'गुफ़्तगू' और 'अभिनव प्रयास' में प्रकाशित)


04 July 2014

सरहद की लघु-कथा में युद्ध का महाकाव्य...

युद्ध बस सरहद पर ही नहीं लड़े जाते ! कई बार सैनिकों के लिए भी...युद्ध बस सरहद पर नहीं लड़े जाते | सरहद पर रातें लंबी होती हैं...अक्सर तो उम्र से भी लंबी...बेचैन, आशंकित, चौकस रतजगों में लिपटी हुईं और इन रतजगों के जाने कितने अफ़साने हैं जो लिखे नहीं जा सकते...जो सुनाये नहीं जा सकते...और सुनाये जाने पर भी इनके आम समझ से ऊपर निकल जाने का भय रहता है | ‘युद्धइन तमाम अफ़सानों का केन्द्रीय किरदार होता | कश्मीर
की इन दुर्गम, बर्फ में दबी-ढँकी ठिठुरती-सिहरती हुई सरहदों पर हर रोज़ एक युद्ध होता है | सामने पत्थर-फेंक दूरी पर खड़ा आँखों से आँखें मिलाता हुआ दुश्मन या फिर ज़मीनी बनावट और खराब मौसमों का फायदा उठाकर कथित जेहाद के नाम पर अंदर घुस आने को उतावले आतंकवादियों का दस्ता विगत तीन दशकों से लगातार युद्द जैसी स्थित ही तो उत्पन्न करता रहा हैं | आप और हम बेशक इसे “लो इंटेसिटी कंफ्लिक्ट” कह कर नकारने की कोशिश करते रहें, हर तीसरे दिन की शहादत कुछ और कहानी कहती है...कहानी, जो सौ साल पहले के उस महान प्रथम विश्व युद्ध के बनिस्पत एक लघु कथा से ज्यादा और कुछ नहीं, किन्तु यही लघु कथा रात-दिन इन ठिठुरती-सिहरती सरहदों पर निगरानी में खड़े एक भारतीय सैनिक के लिए किसी महाकाव्य या किसी मोटे उपन्यास का विस्तार देती है | पूरे मुल्क की सोचों, निगाहों में अलग-थलग कर दिया ये अकेला भारतीय सैनिक इसी अनकही कहानी के पार्श्व में एक सवाल उठाता है कि क्या वजह है कि सौ साल पहले के उस महायुद्ध के पश्चात जब
सम्पूर्ण यूरोप, अमेरिका या फिर जर्मनी भी एक मजबूत ताकत के रूप में, एक व्यवस्थित विकसित मुल्क के रूप में उभर कर आए और अपना ये मुल्क स्वतंत्रता-प्राप्ति के उपरांत पाँच-पाँच युद्ध देख चुकने के बाद भी एक चरमरायी सी, असहाय विवश व्यवस्था की छवि प्रस्तुत करता है पूरे विश्व के समक्ष ?

       युद्ध कभी भी वांछित जैसी चीज नहीं हो सकती है...और खास कर एक सैनिक के लिए तो बिलकुल नहीं | यहाँ एक बात निश्चित रूप से समझ लेनी चाहिए कि किसी भी युद्ध के दौरान एक सैनिक को मौत या दर्द या ज़ख्म से ज्यादा डर उसको अपने वर्दी की और अपने रेजीमेंट की इज्जत खोने का होता है और कोई भी युद्ध वो इन्हीं दो चीजों के लिए लड़ता है...बस ! ऐसी हर लड़ाई के बाद वो अपने मुल्क और इसके लोगों की तरफ बस इतनी-सी इच्छा लिए देखता है कि उसके इस जज़्बे को पहचान मिले...उसकी इस क़ुरबानी को सम्मान मिले | प्रथम विश्व युद्द के पश्चात उसमें शामिल हर मुल्क में सैनिकों को उसी स्नेह और सम्मान से देखा गया (देखा जा रहा है) जिसकी ज़रा सी भी अपेक्षा वहाँ के सैनिकों के मन में थी | किन्तु यहाँ इस मुल्क में अपेक्षा के विपरीत उपेक्षा का दंश लगातार झेलते रहने के बावजूद भारतीय सैनिक फिर भी हर बार हर दफ़ा जरूरत पड़ने पर यहाँ सरहद के लिये जान की बाज़ी लगाता है | वो देखता है असहाय अवाक-सा कि कैसे कुछ मुट्ठी भर उसके भाई-बंधुओं द्वारा चलती ट्रेन में की गई बदतमीजी को उसके पूरे कुनबे पर थोप दिया जाता है...कि कैसे चंद गिने-चुने उसके साथियों के हाथों उत्तर-पूर्व राज्यों या कश्मीर के इलाकों में हुई ज्यादातियों के सामने उसके पूरे युग भर की प्रतिबद्धता को नकार दिया जाता है एक सिरे से...वो तिलमिलाता है, तड़पता है, फिर भी ड्यूटी दिये जाता है | वो देखता है एक विद्रुप सी मुस्कान होठों पर लिए जब एक क्रिकेटर की कानी उँगली में लगी चोट को उसका मुल्क दिनों तक बहस का विषय बनाता है, लेकिन उसकी
शहादत को न्यूज-चैनलों के स्क्रीन पर नीचे दौड़ते पट्टों तक ही सीमित रखा जाता है या फिर अखबारों के तीसरे या चौथे पन्नों में किसी किनारे पर जगह देता है उसका ये मुल्क | यहाँ सरहद पर चीड़ और देवदार के पेड़ों से उसे ज्यादा स्नेह मिलता है, बनिस्पत अपने मुल्क के बाशिंदों से | सामने वाले दुश्मन की छुद्रता, गुपचुप वार करने वाले आतंकवादियों की धृष्ठता, मौसम की हिंसक मार, मुश्किल ज़मीनी बनावट का बर्ताव जैसे हर रोज़ के छोटे-छोटे युद्धों से लड़ता वो अपने मुल्क के इस सौतेले व्यवहार से भी एक युद्ध लड़ता है....


       ...युद्ध बस सरहद पर नहीं लड़े जाते !