26 December 2018

कितनी तुम कि मैं न रहूँ...


कितनी दूरी ! दूरी...कितनी दूर ! कितना दर्द कि बस उफ़ अब ! कितना शोर कि बहरी हों आवाज़ें और कितनी चुप्पी कि बोल उठे सन्नाटा ! कितनी थकन कि नींद को भी नींद ना आए...आह, कितनी नींद कि सारी थकन कोई भूल जाए ! 

कितनी उदासी कि खुशियाँ तरस जायें अपने वजूद को...कितनी खुशियाँ कि उदासी लापता ! कितनी नफ़रत...उफ़, कितनी नफ़रत कि मुहब्बत का नाम तक लेना दुश्वार...कितनी मुहब्बत कि नफ़रतों के होने पर हैरानी ! 

कितनी मुश्किलें कि सब कुछ आसान हो जैसे...कितनी आसानी कि मुश्किलों का तूफ़ान ही हो सामने ! कितनी सिहरन कि समूचा सूर्य आगोश में लिया जा सके...कितनी तपिश कि हिमालय तक कम पड़ जाये !

टीस सी कोई टीस...जाने कितनी टीस इन तपते तलवों में कि लंबी गश्त के बाद इन भारी जूतों को उतारते ही आभास भी न हो कि तलवें हैं या नहीं...कि उतर गए संग ही घंटों से भीगी-गीली जुराबों के ! कितना अनकहा सा कुछ कि कहने का कोई औचित्य ही नहीं...कितना कहा जा चुका कि जैसे कुछ भी अनकहा शेष नहीं अब !

कितनी बन्दूकों से निकलीं कितनी गोलियाँ कि एक मुल्क की रूह तक छलनी हुई जाती...कितनी भटकी रूहें कि विश्व भर की बन्दूकों की गोलियाँ ख़त्म ! 

कितनी शहादतें कि अब ज़मीन कम पड़ने लगी चिताओं के लिए...कितनी खाली पसरी हुई ज़मीनें कि शहादत की भूख मिटती ही नहीं ! कितने ताबूत कि लपेटने को तिरंगा न मिले अब...कितने ही बुने जाते तिरंगे कि ताबूतों का आना थमता ही नहीं !

कितना शौर्य कि भय का नामो-निशान तक नहीं...कितना भय कि कैसा शौर्य !

सामने के बंकर से किसी ने आवाज़ दी...सरहद पार से...“सो गए क्या जनाब”...इस जानिब से उपहास उठा...“चुप बे कमीनों ! बांग्लादेश से भी हार गए, चले हैं क्रिकेट खेलने” और उठे फिर ज़ोर के ठहाके | उधर की ख़ामोशी की खिसियाहट सर्द हवाओं में अजब सी गर्माहट भरने लगी |

कितने शब्द...अहा, कितने ही सारे शब्द कि क़िस्सों का लुत्फ़ ही लुत्फ़...कितने क़िस्से कि शब्द ढूंढें न मिलें ! कितने...कितने ही ठहाकों की गूँज कि आँसुओं के रिसने की कोई ध्वनि ही नहीं और कितने आँसू कि डूबती जाती है सब ठहाकों की गूँज ! 

कितनी सृष्टि में कितना प्रेम
कि कहना न पड़े
मुझे प्रेम है तुमसे !

कितना प्रेम
कि करने को पूरी उम्र
भी कम हो जैसे !

कितना मैं
कि तुम आओ
कितनी तुम
कि मैं न रहूँ !”

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18 December 2018

हाशिये का राग

विगत डेढ़-दो महीने से लगातार मुखड़े से लेकर आख़िरी अंतरे तक “हाशिये का राग” के साथ मैं संगत मिला रहा हूँ | सुर-ताल की ज्यादा समझ नहीं मुझे, लेकिन हँसी की थपकियों से लेकर गहरी-गहरी सोच वाली गुनगुनाहट के साथ सुशील सिद्धार्थ के इस छेड़े हुए राग के साथ आलाप लेते हुये मैं एक बेहतर समझ वाले पाठक के तौर पर विकसित हुआ हूँ या कथेतर हिन्दी-साहित्य में व्यंग्य-विधा के लिए नयी मुहब्बत पाले हुए आशिक़ का अवतार धारण कर चुका हूँ या फिर दोनों ही...ये जानना मेरे लिए ख़ुद ही बहुत दिलचस्प है | बेहतर-समझ-वाले-पाठक वाली बात इसलिए की मैंने कि किताब में शामिल व्यंग्य से गुज़रते हुए जाने कितनी जगहों पर यूँ लगा कि ये तो मैं भी करता हूँ और ये कटाक्ष दरअसल मुझ पर भी(ही) तो है | अमूमन पाँच से छ दिन में एक किताब पढ़ लेने वाला मेरा ‘मैं’ इस किताब को जाने क्यों सहेज-सहेज कर थम-थम कर पढ़ता रहा...एक दिन में बस एक चैप्टर की ज़िद लिए कि एक का स्वाद दूजे में मिक्स ना हो और कोई ख़तरनाक कॉकटेल ना तैयार हो जाए !
व्यंग्य में लिपटे चुभते-गुदगुदाते-चिकोटी काटते चौवालीस आलेखों (जिसमें एक दर्जन लघु आलेख अलग से गिनती माँगते हैं) के बोझ से जहाँ इस किताब को उठाये न उठना चाहिए, वहीं उलटा, पढ़ते हुए यह किताब अपने पाठक को इतना हल्का कर देती है...कुछ इतना हल्का कि लेखक के हर चुटीले वार के बाद आह-उफ़ करते हुए एकदम से तारो-ताज़ा हो अपने शेष बचे कार्यों को पूरा करने के लिए एक तरह से रिचार्ज्ड हो जाते हैं आप |
ऐसे-ऐसे नुकीले जुमले की जिनकी नोक मोटी-सी-मोटी चर्बी वाली संवेदनाओं को भी बेधने से बाज़ ना आये...ऐसे-ऐसे तीखे फ़िक़रे कि अरसे से बंद पड़ी स्वाद-ग्रंथियाँ भी अपनी ज़ंग लगी पोरों को स्वत: खोल बैठें...ऐसी-ऐसी रंगीन टिप्पणियाँ कि सात-के-सातों रंग अपने रंगीले होने पर गुमान करना भूल जायें ! मज़े की बात ये कि लेखक ये सारा चमत्कार बिलकुल ही अनजान तरीके से करते हैं और ये बात आपको किताब पढ़ते हुए ख़ुद ही आभास होता है कि जैसे ऐसा लिखा जाना कुछ एकदम नेचुरल-सा है लेखक के लिए...उनके पर्सोना का ही एक अदृश्य सा हिस्सा जो लिखने के बाद दृष्टिगोचर होता है |
सुशील सिद्धार्थ दरअसल अपने लिक्खे से...अपने लगातार लिक्खे से और उस लगातार लिक्खे में भी कहीं दोहराव ना आने देने से...हम पाठकों को मेस्मराइज्ड करते रहे हैं | सूर्यबाला जी के कहे को उधार लूँ तो, जो इस किताब के फ्लैप पर भी उद्धृत है...”जाने कैसे इतना लिखने के बाद भी रिपीटीशन के पॉपुलर ट्रेंड से बचे रहे हैं अब तलक सुशील और एक तरह से वर्तमान में अपना ब्रांड बनाए रखने में कामयाब रहे हैं” |
व्यंग्य का ये अनूठा संकलन किताबघर प्रकाशन से आया है और महज डेढ़ सौ रुपये में आपकी किताबों वाले सिरहाने पर रखे जाने की ज़िद करता है |