कितनी
दूरी ! दूरी...कितनी दूर ! कितना दर्द कि बस उफ़ अब ! कितना शोर कि बहरी हों आवाज़ें
और कितनी चुप्पी कि बोल उठे सन्नाटा ! कितनी थकन कि नींद को भी नींद ना आए...आह, कितनी नींद कि सारी थकन कोई भूल जाए !
कितनी उदासी कि खुशियाँ तरस
जायें अपने वजूद को...कितनी खुशियाँ कि उदासी लापता ! कितनी नफ़रत...उफ़, कितनी नफ़रत कि मुहब्बत का नाम तक लेना दुश्वार...कितनी मुहब्बत कि
नफ़रतों के होने पर हैरानी !
कितनी मुश्किलें कि सब कुछ आसान हो जैसे...कितनी आसानी
कि मुश्किलों का तूफ़ान ही हो सामने ! कितनी सिहरन कि समूचा सूर्य आगोश में लिया जा
सके...कितनी तपिश कि हिमालय तक कम पड़ जाये !
टीस सी कोई टीस...जाने कितनी टीस इन तपते
तलवों में कि लंबी गश्त के बाद इन भारी जूतों को उतारते ही आभास भी न हो कि तलवें
हैं या नहीं...कि उतर गए संग ही घंटों से भीगी-गीली जुराबों के ! कितना अनकहा सा कुछ
कि कहने का कोई औचित्य ही नहीं...कितना कहा जा चुका कि जैसे कुछ भी अनकहा शेष नहीं
अब !
कितनी बन्दूकों से निकलीं कितनी गोलियाँ कि एक मुल्क की रूह तक छलनी हुई जाती...कितनी
भटकी रूहें कि विश्व भर की बन्दूकों की गोलियाँ ख़त्म !
कितनी शहादतें कि अब ज़मीन
कम पड़ने लगी चिताओं के लिए...कितनी खाली पसरी हुई ज़मीनें कि शहादत की भूख मिटती ही
नहीं ! कितने ताबूत कि लपेटने को तिरंगा न मिले अब...कितने ही बुने जाते तिरंगे कि
ताबूतों का आना थमता ही नहीं !
कितना शौर्य कि भय का नामो-निशान तक नहीं...कितना
भय कि कैसा शौर्य !
सामने के बंकर से किसी ने आवाज़ दी...सरहद पार
से...“सो गए क्या जनाब”...इस जानिब से उपहास उठा...“चुप बे कमीनों ! बांग्लादेश से
भी हार गए, चले हैं क्रिकेट खेलने” और उठे फिर ज़ोर के ठहाके | उधर की ख़ामोशी की खिसियाहट सर्द हवाओं में अजब सी गर्माहट भरने लगी |
कितने शब्द...अहा, कितने ही सारे शब्द कि क़िस्सों का लुत्फ़ ही लुत्फ़...कितने क़िस्से कि
शब्द ढूंढें न मिलें ! कितने...कितने ही ठहाकों की गूँज कि आँसुओं के रिसने की कोई
ध्वनि ही नहीं और कितने आँसू कि डूबती जाती है सब ठहाकों की गूँज !
कितनी
सृष्टि में कितना प्रेम
कि कहना न
पड़े
मुझे
प्रेम है तुमसे !
कितना
प्रेम
कि करने
को पूरी उम्र
भी कम हो
जैसे !
कितना मैं
कि तुम आओ
कितनी तुम
कि मैं न
रहूँ !”
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