सिसकता हुआ ये २००८...निरीह बना हुआ...२००९ के लिये बिछा हुआ राह बनाता-सा !!!
नये साल में हम सब की इतनी कोशिश तो रहनी ही चाहिये कि हम २६/११/२००८ वाली मुंबई को न भूलें.सब "कारगिल" भूल चुके हैं,लेकिन वो चलता है.क्योंकि कारगिल में सैनिकों ने जान दी थी.हम सैनिकों का काम है ये.इसीलिये हमें सरकार तनख्वाह देती है.मगर मुंबई ....???
वर्ष के इन आखिरी दिनों में मेरे घर में परमपिता परमेश्वर सर्वशक्तिशाली भगवान पे बड़ी उलझन आन पड़ी है.मेरी माँ ,दुर्गा-भक्त, हर रोज सिंहवाहिनी से ये प्रार्थना करती है कि युद्ध के ये उमड़ते-घुमड़ते बादल छँट जाये ताकि उसके इकलौते (सु)पुत्र को वर्षों बाद मिले इस शांत-सुकुन भरी पोस्टिंग को छोड़कर सीमा पर न जाना पड़े.लेकिन दुसरी तरफ मैं ,उसका ये (कु)पुत्र,अपने इष्ट देवों के देव महादेव से ये मनाता रहता हूं कि ये बादल न सिर्फ उमड़े-घुमड़े,बल्कि जोर-जोर से गरजे और फिर खूब-खूब बरसे.
अब आप ही बताइये अपना ईश्वर किसकी सुने...और-तो-और महादेव और माँ दुर्गा की छोटी मुर्तियाँ एक ही कमरे के एक ही तक्खे पे विराजित हैं.
इन उमड़ते "बादलों" पर और भी बहुत कुछ लिखना चाहता हूँ,किंतु इस हरी वर्दी को पहनते समय ली गयी शपथ रोकती है हमें कुछ और कहने से...
आईये, आप सब मेरे मित्र-गण मेरे लिये और अपने इस हिंदुस्तान के आत्म-सम्मान के लिये प्रार्थना करे इस "बादल" के बरसने की ताकि इस सिसकते २००८ की इस आखिरी बेला में लहुलुहान-सा ये मुल्क अपना .खोया आत्म-सम्मान वापस ले और २००९ एक नया सबेरा लेकर आये.
फिलहाल एक मतला और दो शेर मुखातिब हैं :-
दूर क्षितिज पर सूरज चमका,सुब्ह खड़ी है आने को
धुंध हटेगी,धूप खिलेगी,साल नया है छाने को
प्रत्यंचा की टंकारों से सारी दुनिया गुंजेगी
देश खड़ा अर्जुन बन कर गांडिव पे बाण चढ़ाने को
साल गुजरता सिखलाता है,भूल पुरानी बातें अब
साज नया हो,गीत नया हो,छेड़ नये अफ़साने को
...पूरी गज़ल अगले वर्ष सुनाऊँगा.तब तक के लिये विदा.आप सब को २००९ की ढ़ेर सारी शुभकामनायें और "मुंबई" को न भूलते हुए मेरी प्रार्थना में शामिल रहियेगा...!!!!
29 December 2008
युद्ध के बादल,ईश्वर की उलझन और देश खड़ा अर्जुन बन कर गांडिव पे बाण चढ़ाने को...
हलफ़नामा-
एक फौजी की डायरी से...
वो कौन हैं जिन्हें तौबा की मिल गयी फ़ुरसत / हमें गुनाह भी करने को जिंदगी कम है...
23 December 2008
तू जो गया तो अहसासों का,मन अब इक खाली बटुआ है...
...वो कहते हैं न कि पुराने का मोह नहीं छुटता.तो अपनी एक पुरानी रचना को बहर में लाने का प्रयास कुछ यूं बना है:-
जब से मुझको तू ने छुआ है
रातें पूनम दिन गिरुआ है
इक बीज पड़ा है इश्क का तो
नस-नस में पनपा महुआ है
तू जो गया तो अहसासों का
मन अब इक खाली बटुआ है
टूटा है तो दर्द भी होगा
दिल तो शीशम ना सखुआ है
तेरे चेहरे की रंगत से
मेरा हर मौसम फगुआ है
फेरो ना यूं नजरें मुझसे
बहने लगेगी फिर पछुआ है
हँस के तू ने देख लिया तो
जग ये सारा हँसता हुआ है
...कहीं-कहीं कमजोर रह गयी है,जानता हूं.आप सब मशवरा दें और सुधारने का.
(मासिक पत्रिका "वर्तमान साहित्य" के अगस्त 09 अंक में प्रकाशित)
जब से मुझको तू ने छुआ है
रातें पूनम दिन गिरुआ है
इक बीज पड़ा है इश्क का तो
नस-नस में पनपा महुआ है
तू जो गया तो अहसासों का
मन अब इक खाली बटुआ है
टूटा है तो दर्द भी होगा
दिल तो शीशम ना सखुआ है
तेरे चेहरे की रंगत से
मेरा हर मौसम फगुआ है
फेरो ना यूं नजरें मुझसे
बहने लगेगी फिर पछुआ है
हँस के तू ने देख लिया तो
जग ये सारा हँसता हुआ है
...कहीं-कहीं कमजोर रह गयी है,जानता हूं.आप सब मशवरा दें और सुधारने का.
(मासिक पत्रिका "वर्तमान साहित्य" के अगस्त 09 अंक में प्रकाशित)
हलफ़नामा-
ग़ज़ल,
बहरे मुतदारिक,
मासिक वर्तमान साहित्य
वो कौन हैं जिन्हें तौबा की मिल गयी फ़ुरसत / हमें गुनाह भी करने को जिंदगी कम है...
15 December 2008
जरा-सा मुस्कुरा कर जब मेरी बेटी मुझे देखे...
अभी उसी दिन तोरूपम जी ने अपने ब्लौग पर एक बड़ी ही प्यारी गज़लनुमा कविता सुनायी थी अपनी नन्हीं बेटी की बाल-कारगुजारियों पर.पढ़ कर एक अपना शेर याद आया.सुनाना चाहता हूँ.लेकिन साथ में शेष गज़ल भी सुननी होगी.
बहर है:- बहरे हज़ज मुसमन सालिम
वजन है:- १२२२-१२२२-१२२२-१२२२
उठेंगी चिलमनें अब तो यहाँ तू देख किस-किस की
चलो खोलो किवाड़ें,दब न जाये कोई भी सिसकी
जलूँ जब मैं, जलाऊँ संग अपने लौ मशालों की
जलाये दीप जैसे जब जले इक तीली माचिस की
सितारे उसके भी,हाँ,गर्दिशों में रेंगते देखा
कभी थी सुर्खियों में हर अदा की बात ही जिस की
उसी के नाम का दावा यहाँ हाकिम की गद्दी पर
फ़सादें जो सदा बोता रहा है, यार चहुँ दिस की
हवाओं के परों पर उड़ने की यूँ तो तमन्ना थी
पड़ा जब सामने तूफां,जमीं पैरों तले खिसकी
अगर जाना ही है तुमको,चले जाओ,मगर सुन लो
तुम्हीं से है दीये की रौशनी औ’ हुस्न मजलिस की
...और अंत में मेरी बेटी तनया{मेरी इकलौती मुकम्मल गज़ल} के लिये
जरा-सा मुस्कुरा कर जब मेरी बेटी मुझे देखे
थकन सारी मैं भूलूँ यक-ब-यक दिन भर के आफिस की
{मासिक पत्रिका "आजकल" के जून 2010 वाले अंक में प्रकाशित}
बहर है:- बहरे हज़ज मुसमन सालिम
वजन है:- १२२२-१२२२-१२२२-१२२२
उठेंगी चिलमनें अब तो यहाँ तू देख किस-किस की
चलो खोलो किवाड़ें,दब न जाये कोई भी सिसकी
जलूँ जब मैं, जलाऊँ संग अपने लौ मशालों की
जलाये दीप जैसे जब जले इक तीली माचिस की
सितारे उसके भी,हाँ,गर्दिशों में रेंगते देखा
कभी थी सुर्खियों में हर अदा की बात ही जिस की
उसी के नाम का दावा यहाँ हाकिम की गद्दी पर
फ़सादें जो सदा बोता रहा है, यार चहुँ दिस की
हवाओं के परों पर उड़ने की यूँ तो तमन्ना थी
पड़ा जब सामने तूफां,जमीं पैरों तले खिसकी
अगर जाना ही है तुमको,चले जाओ,मगर सुन लो
तुम्हीं से है दीये की रौशनी औ’ हुस्न मजलिस की
...और अंत में मेरी बेटी तनया{मेरी इकलौती मुकम्मल गज़ल} के लिये
जरा-सा मुस्कुरा कर जब मेरी बेटी मुझे देखे
थकन सारी मैं भूलूँ यक-ब-यक दिन भर के आफिस की
{मासिक पत्रिका "आजकल" के जून 2010 वाले अंक में प्रकाशित}
हलफ़नामा-
ग़ज़ल,
तनया,
बहरे हज़ज,
मासिक आजकल
वो कौन हैं जिन्हें तौबा की मिल गयी फ़ुरसत / हमें गुनाह भी करने को जिंदगी कम है...
08 December 2008
उसने खद्दर पहना साहिब...
..आक्रोश दबता हुआ...लोग फिर से लौटते हुये अपनी सामान्य क्रिया-कलापों की ओर...एक बार फिर से झकझोरे जाने के लिये निकट भविष्य में ऐसे ही किसी घृणित और कायरतापूर्ण आतंकवादी कारवाई से-चंद और "उन्नियों" के शहीद हो जाने तक.
एक पुराने और प्रचलित रदीफ़ पे मेरा ये प्रयास देखें और देख कर त्रुटियों से अवगत कराना न भूलें.
२२-२२-२२-२२ के वजन पर:-
सीखो आँखें पढ़ना साहिब
होगी मुश्किल वरना साहिब
सम्भल कर इल्जामें देना
उसने खद्दर पहना साहिब
तिनके से सागर नापेगा
रख ऐसे भी हठ ना साहिब
दीवारें किलकारी मारे
घर में झूले पलना साहिब
पूरे घर को महकाता है
माँ का माला जपना साहिब
सब को दूर सुहाना लागे
ढ़ोलों का यूँ बजना साहिब
कितनी कयनातें ठहरा दे
उस आँचल का ढ़लना साहिब
(नैनिताल से निकलने वाली द्विमासिक पत्रिका "आधारशिला" के जनवरी-फरवरी 09 अंक में प्रकाशित)
एक पुराने और प्रचलित रदीफ़ पे मेरा ये प्रयास देखें और देख कर त्रुटियों से अवगत कराना न भूलें.
२२-२२-२२-२२ के वजन पर:-
सीखो आँखें पढ़ना साहिब
होगी मुश्किल वरना साहिब
सम्भल कर इल्जामें देना
उसने खद्दर पहना साहिब
तिनके से सागर नापेगा
रख ऐसे भी हठ ना साहिब
दीवारें किलकारी मारे
घर में झूले पलना साहिब
पूरे घर को महकाता है
माँ का माला जपना साहिब
सब को दूर सुहाना लागे
ढ़ोलों का यूँ बजना साहिब
कितनी कयनातें ठहरा दे
उस आँचल का ढ़लना साहिब
(नैनिताल से निकलने वाली द्विमासिक पत्रिका "आधारशिला" के जनवरी-फरवरी 09 अंक में प्रकाशित)
हलफ़नामा-
ग़ज़ल,
द्विमासिक आधारशिला,
बहरे मुतदारिक
वो कौन हैं जिन्हें तौबा की मिल गयी फ़ुरसत / हमें गुनाह भी करने को जिंदगी कम है...
01 December 2008
मेजर उन्नीकृष्णन की यादें और तिरंगा अनमना निकला...
तमाम मिडिया,अखबारों और हिंदी ब्लौग पर / से उभरता ये आक्रोश...मेरे होंठों पे एक विद्रुप-सी हँसी फैल जाती है.एक विचित्र-सी उदासीन भरी तल्लीनता के साथ सारे पोस्ट पढ़े और एक पर भी टिप्पणी करने की इच्छा नहीं हुई.
"उन्नी" करीब था.जुनियर था,मगर करीब था मेरे.वो भी अन्य कितने ही सिपाहियों की तरह कहीं कश्मीर या असम-नागालैंड के सुदूर जंगलों में लड़ता धराशायी होता तो शायद किसी मेहरबान अखबार के तीसरे पन्ने के एक कोने में जगह पाता या कीड़ॊं की तरह गिजमिजाये खबरिया चैनल के स्क्रीन में नीचे दौड़ते टिक्कर पे जगह पाता.शुक्र है उसे अपनी बहादुरी और भारतीय सेना का जौहर दिखाने का मौका मुल्क के सबसे बड़े होटल में एक स्वप्न समान आपरेशन में मिला...कमबख्त फ़ौजियों को ढ़ंग से शोक तक मनाना नहीं आता.
चलिये एक गज़ल सुन लिजिये.आज ही मुकम्मल हुई है.
बहर है--> बहरे हज़ज मुसमन सालिम
वजन है--> १२२२-१२२२-१२२२-१२२२
परों का जब कभी तूफ़ान से यूँ सामना निकला
कि कितने ही परिंदों का हवा में बचपना निकला
गली के मोड़ तक तो संग ही दौड़े थे हम अक्सर
मिली चौड़ी सड़क जब,अजनबी वो क्यूं बना निकला
न जाने कह दिया क्या धूप से दरिया ने इतरा कर
कि है पानी का हर कतरा उजाले में छना निकला
मसीहा-सा बना फिरता था जो इक हुक्मरां अपना
मुखौटा हट गया,तो कातिलों का सरगना निकला
जरा खिड़की से छन कर चांद जब कमरे तलक पहुँचा
दिवारों पर तिरी यादों का इक जंगल घना निकला
दिखे जो चंद अपने ही खड़े दुश्मन के खेमे में
नसों में दौड़ते-फिरते लहू का खौलना निकला
....और अंत में एक शेर "उन्नी" तेरे लिये
चिता की अग्नि ने बढ़ कर छुआ था आसमां को जब
धुँयें ने दी सलामी,पर तिरंगा अनमना निकला
(जोधपुर से निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका "शेष" के जुलाई-सितंबर ०९ अंक में प्रकाशित)
"उन्नी" करीब था.जुनियर था,मगर करीब था मेरे.वो भी अन्य कितने ही सिपाहियों की तरह कहीं कश्मीर या असम-नागालैंड के सुदूर जंगलों में लड़ता धराशायी होता तो शायद किसी मेहरबान अखबार के तीसरे पन्ने के एक कोने में जगह पाता या कीड़ॊं की तरह गिजमिजाये खबरिया चैनल के स्क्रीन में नीचे दौड़ते टिक्कर पे जगह पाता.शुक्र है उसे अपनी बहादुरी और भारतीय सेना का जौहर दिखाने का मौका मुल्क के सबसे बड़े होटल में एक स्वप्न समान आपरेशन में मिला...कमबख्त फ़ौजियों को ढ़ंग से शोक तक मनाना नहीं आता.
चलिये एक गज़ल सुन लिजिये.आज ही मुकम्मल हुई है.
बहर है--> बहरे हज़ज मुसमन सालिम
वजन है--> १२२२-१२२२-१२२२-१२२२
परों का जब कभी तूफ़ान से यूँ सामना निकला
कि कितने ही परिंदों का हवा में बचपना निकला
गली के मोड़ तक तो संग ही दौड़े थे हम अक्सर
मिली चौड़ी सड़क जब,अजनबी वो क्यूं बना निकला
न जाने कह दिया क्या धूप से दरिया ने इतरा कर
कि है पानी का हर कतरा उजाले में छना निकला
मसीहा-सा बना फिरता था जो इक हुक्मरां अपना
मुखौटा हट गया,तो कातिलों का सरगना निकला
जरा खिड़की से छन कर चांद जब कमरे तलक पहुँचा
दिवारों पर तिरी यादों का इक जंगल घना निकला
दिखे जो चंद अपने ही खड़े दुश्मन के खेमे में
नसों में दौड़ते-फिरते लहू का खौलना निकला
....और अंत में एक शेर "उन्नी" तेरे लिये
चिता की अग्नि ने बढ़ कर छुआ था आसमां को जब
धुँयें ने दी सलामी,पर तिरंगा अनमना निकला
(जोधपुर से निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका "शेष" के जुलाई-सितंबर ०९ अंक में प्रकाशित)
हलफ़नामा-
एक फौजी की डायरी से...,
ग़ज़ल,
त्रैमासिक शेष,
बहरे हज़ज
वो कौन हैं जिन्हें तौबा की मिल गयी फ़ुरसत / हमें गुनाह भी करने को जिंदगी कम है...
19 November 2008
फिर रोयी है क्यूं शहनाई, लिख...
अपनी एक पुरानी गज़ल पेश कर रहा हूँ.मीटर पर कहीं-कहीं कसाव ढ़ीला हो गया है.फिलहाल जैसा भी है,आपके समक्ष है:-
आईनों पे जमी है काई, लिख
झूठे सपनों की सच्चाई, लिख
जलसे में तो सब खुश थे वैसे
फिर रोयी है क्यूं शहनाई, लिख
रेतों पर और कभी पानी पर
जो भी लिक्खे है पुरवाई, लिख
तेरी यादों में धुली-धुली-सी
अब के भीगी है तन्हाई, लिख
तारे शबनम के मोती फेंकें
हुई चांद की मुँह-दिखाई, लिख
क्या कहा रात ने जाते-जाते
क्यूं सुबह खड़ी है शर्माई, लिख
रूहों में उतरे बात करे जो
अब ऐसी भी इक रूबाई, लिख
{मासिक पत्रिका कादम्बिनी के अक्टूबर 08 अंक में प्रकाशित}
और अंत में ये एक और शेर...
पोथी पढ़-पढ़ कर पंडित बन ले
फिर तू प्रेम के अक्षर ढ़ाई, लिख
....ये आखिरी शेर की जमीन विख्यात शायर और बालकवि श्री शेरजंग गर्ग जी ने एक पोस्ट-कार्ड पर लिख भेज सुझाया है.
शेष आप सब पाठकों पर है.त्रुटियां----और हो सके तो दाद भी...
आईनों पे जमी है काई, लिख
झूठे सपनों की सच्चाई, लिख
जलसे में तो सब खुश थे वैसे
फिर रोयी है क्यूं शहनाई, लिख
रेतों पर और कभी पानी पर
जो भी लिक्खे है पुरवाई, लिख
तेरी यादों में धुली-धुली-सी
अब के भीगी है तन्हाई, लिख
तारे शबनम के मोती फेंकें
हुई चांद की मुँह-दिखाई, लिख
क्या कहा रात ने जाते-जाते
क्यूं सुबह खड़ी है शर्माई, लिख
रूहों में उतरे बात करे जो
अब ऐसी भी इक रूबाई, लिख
{मासिक पत्रिका कादम्बिनी के अक्टूबर 08 अंक में प्रकाशित}
और अंत में ये एक और शेर...
पोथी पढ़-पढ़ कर पंडित बन ले
फिर तू प्रेम के अक्षर ढ़ाई, लिख
....ये आखिरी शेर की जमीन विख्यात शायर और बालकवि श्री शेरजंग गर्ग जी ने एक पोस्ट-कार्ड पर लिख भेज सुझाया है.
शेष आप सब पाठकों पर है.त्रुटियां----और हो सके तो दाद भी...
हलफ़नामा-
ग़ज़ल,
मासिक कादम्बिनी
वो कौन हैं जिन्हें तौबा की मिल गयी फ़ुरसत / हमें गुनाह भी करने को जिंदगी कम है...
13 November 2008
एक और वर्षा वन...
उस दिन
>पारुल जी की एक खुबसुरत रचना "वर्षा वन" जाने कई यादें ताजा कर गयीं.कुछ तस्वीरों को उकेरने की कोशिश.ये कहीं से भी कविता नहीं.सच पूछिये तो इन छंद-मुक्त रचनाओं को कविता कहने का हक बस इनके सुत्रधार महाकवि निराला या फिर उनके समकक्ष के धुमिल,मुक्तिबोध,शमशेर..इन जैसे नामों को ही जाता है.फिलहाल एक तस्वीर किसी सुदूर वर्षा-वन की...
वर्षा-वन की तस्वीर कुछ यूं दिखाई
तुम ने उस दिन,
मन मेरा गया भटकने
एक और वर्षा-वन...
मौन निःशब्द
वन की निरवता को बरकरार रखने की चेष्टा में
कुछ भारी जुतों की पदचापें
आशंकित हृदय और नसों में
एड्रेनलिन की थापें
स्याह रातों का अंधेरा
जल-मग्न झाड़ियों में बसेरा
महसूस किया है तुमने कभी
चुभना पानी का भी
कभी भीगे हो तुम
बारिश और पसीने में संग-संग
जलाया है कभी तुमने
अपने बदन पे लिपटे
काले घिनौने जोंक को
अपनी सुलगती सिगरेट से...
झिंगुड़ों की झांय-झांय में
मच्छरों का कबिलाई राग
तीन दिनों की सूखी पुरियां
आह! वो अलौकिक स्वाद
चौथे दिन का ढ़लता सूरज
और गंध फ़िजा में बारूद की
चंद जिस्मों की मोक्ष-प्राप्ति
फिर वो उल्लास विजय की
...कुछ ऐसे ही रंग उभरते हैं
मेरे वर्षा-वन की तस्वीरों में...
विदा.जल्द ही मिलते हैं फिर
>पारुल जी की एक खुबसुरत रचना "वर्षा वन" जाने कई यादें ताजा कर गयीं.कुछ तस्वीरों को उकेरने की कोशिश.ये कहीं से भी कविता नहीं.सच पूछिये तो इन छंद-मुक्त रचनाओं को कविता कहने का हक बस इनके सुत्रधार महाकवि निराला या फिर उनके समकक्ष के धुमिल,मुक्तिबोध,शमशेर..इन जैसे नामों को ही जाता है.फिलहाल एक तस्वीर किसी सुदूर वर्षा-वन की...
वर्षा-वन की तस्वीर कुछ यूं दिखाई
तुम ने उस दिन,
मन मेरा गया भटकने
एक और वर्षा-वन...
मौन निःशब्द
वन की निरवता को बरकरार रखने की चेष्टा में
कुछ भारी जुतों की पदचापें
आशंकित हृदय और नसों में
एड्रेनलिन की थापें
स्याह रातों का अंधेरा
जल-मग्न झाड़ियों में बसेरा
महसूस किया है तुमने कभी
चुभना पानी का भी
कभी भीगे हो तुम
बारिश और पसीने में संग-संग
जलाया है कभी तुमने
अपने बदन पे लिपटे
काले घिनौने जोंक को
अपनी सुलगती सिगरेट से...
झिंगुड़ों की झांय-झांय में
मच्छरों का कबिलाई राग
तीन दिनों की सूखी पुरियां
आह! वो अलौकिक स्वाद
चौथे दिन का ढ़लता सूरज
और गंध फ़िजा में बारूद की
चंद जिस्मों की मोक्ष-प्राप्ति
फिर वो उल्लास विजय की
...कुछ ऐसे ही रंग उभरते हैं
मेरे वर्षा-वन की तस्वीरों में...
विदा.जल्द ही मिलते हैं फिर
हलफ़नामा-
कविता
वो कौन हैं जिन्हें तौबा की मिल गयी फ़ुरसत / हमें गुनाह भी करने को जिंदगी कम है...
07 November 2008
वो टाँके थे बटन जो तू ने मेरी कुछ कमीजों पर...
मन की हालत कुछ अजीब-सी.अचानक से छुट्टी लेकर गांव आना पड़ा है.बराय मेहरबानी इस रिलायंस नेट-कनेक्ट के कि बिहार के इस सुदूर कोने में भी आप सब हिंदी प्रेमियों से जुड़ा हूँ.कोसी की विभिषिका अपना निशान चहुँ ओर छोड़े हुये है. माँ-पापा की छठ यहीं मनाने की जिद जब उन्हें यहाँ ले आयी तो पापा का अचानक बीमार पड़ना और इसलिये मेरी ये अचानक की छुट्टी.फ़ौज त्योहारों के लिये बेशक छुट्टी न दे,किन्तु परिजनों के हित की खातिर एक पल की भी देरी नहीं करती.मेरा ब्लौग चूंकि गज़लों-कविताओं को समर्पित है और ये सब बातें बस अपने विचलित मन की शांति के लिये आप सब के साथ बाँट रहा था.तो एक गज़ल पेश है.गुरू जी खुश नहीं थे मेरी इस गज़ल से:-
बहर है--> हजज मुसमन सालिम
वजन है--> १२२२-१२२२-१२२२-१२२२
अभी जो कोंपलें फूटी हैं छोटे-छोटे बीजों पर
कहानी कल लिखेंगी ये समय की देहलीजों पर
किताबों में हैं उलझे ऐसे अब कपड़े नये कोई
जरा ना माँगते बच्चे ये त्योहारों व तीजों पर
हैं देते खुश्बू अब भी तेरी हाथों वाली मिहदी की
वो टाँके थे बटन जो तू ने मेरी कुछ कमीजों पर
न पूछो दास्तां महलों में चिनवायी मुहब्बत की
लुटे हैं कितने तख्तो-ताज यां शाही कनीजों पर
वो नजदीकी थी तेरी या थी मौसम में ही कुछ गर्मी
तु ने जो हाल पूछा तो चढ़ा तप और मरीजों पर
लेगा ये वक्त करवट फिर नया इक दौर आयेगा
हंसेगी ये सदी तब चंद लम्हों की तमीजों पर
भला है जोर कितना एक पतले धागे में देखो
टिकी है मेरी दुनिया मां की सब बाँधी तबीजों पर
(त्रैमासिक पत्रिका " नयी ग़ज़ल" के जुलाई-सितम्बर 09 अंक में प्रकाशित)
बहर है--> हजज मुसमन सालिम
वजन है--> १२२२-१२२२-१२२२-१२२२
अभी जो कोंपलें फूटी हैं छोटे-छोटे बीजों पर
कहानी कल लिखेंगी ये समय की देहलीजों पर
किताबों में हैं उलझे ऐसे अब कपड़े नये कोई
जरा ना माँगते बच्चे ये त्योहारों व तीजों पर
हैं देते खुश्बू अब भी तेरी हाथों वाली मिहदी की
वो टाँके थे बटन जो तू ने मेरी कुछ कमीजों पर
न पूछो दास्तां महलों में चिनवायी मुहब्बत की
लुटे हैं कितने तख्तो-ताज यां शाही कनीजों पर
वो नजदीकी थी तेरी या थी मौसम में ही कुछ गर्मी
तु ने जो हाल पूछा तो चढ़ा तप और मरीजों पर
लेगा ये वक्त करवट फिर नया इक दौर आयेगा
हंसेगी ये सदी तब चंद लम्हों की तमीजों पर
भला है जोर कितना एक पतले धागे में देखो
टिकी है मेरी दुनिया मां की सब बाँधी तबीजों पर
(त्रैमासिक पत्रिका " नयी ग़ज़ल" के जुलाई-सितम्बर 09 अंक में प्रकाशित)
हलफ़नामा-
ग़ज़ल,
त्रैमासिक नयी ग़ज़ल,
बहरे हज़ज
वो कौन हैं जिन्हें तौबा की मिल गयी फ़ुरसत / हमें गुनाह भी करने को जिंदगी कम है...
05 September 2008
ओ मेरे एकाकी मन....
...बहुत पहले एक कविता-सा गीत या कुछ ऐसा ही लिखा था। शायद दसवीं कक्षा में था मैं उस वक्त और किसी मित्र ने उठाकर "कादम्बिनी" में भेज दिया जो संपादक की मेहरबानी से छप भी गया था । खूब इतराया था उन दिनों। आज सोचा फिर इतराऊँ....बस छंद वगैरह का अनुशासन ना दिखे तो ठीक-ठाक सी ही बन पड़ी थी। शेष तो सुधि पाठकगण हैं ही कमी-बेसी निकालने के लिये। तो पेश है...
दूर क्षितिज पे जमीं को
छूता हुआ नील गगन-
तुझ जैसा ही तो है वो
ओ मेरे एकाकी मन
क्यों इतना उदास है तू
क्यों बना है अकिंचन
डूबा है तू किस सोच में
किस बात का है चिंतन
प्राची से आती हुई
सूर्य की प्रथम किरण
तू ही तो है वों
ओ मेरे एकाकी मन
मुर्झाई है हर कली यहाँ
कि ये कैसा है उपवन
अजनबी बन गया है आज
क्यों तेरा वो अपनापन
भाव-पुष्प कर दूँ तुझपे
मैं सारा का सारा अर्पण
बस जरा सा हँस ले गा ले
ओ मेरे एकाकी मन
नियती बन गयी है आज
क्यों आज तेरी दुश्मन
खो गया है आज कहाँ
तेरा वो परिचय नूतन
इस जगत की व्यथा से
खंडित हुआ कोई दर्पण
तू युग-पावक युगद्रष्टा है
ओ मेरे एकाकी मन
.......तो ये थी वो मेरी करीब ग्यारह साल पहले की रचना।
दूर क्षितिज पे जमीं को
छूता हुआ नील गगन-
तुझ जैसा ही तो है वो
ओ मेरे एकाकी मन
क्यों इतना उदास है तू
क्यों बना है अकिंचन
डूबा है तू किस सोच में
किस बात का है चिंतन
प्राची से आती हुई
सूर्य की प्रथम किरण
तू ही तो है वों
ओ मेरे एकाकी मन
मुर्झाई है हर कली यहाँ
कि ये कैसा है उपवन
अजनबी बन गया है आज
क्यों तेरा वो अपनापन
भाव-पुष्प कर दूँ तुझपे
मैं सारा का सारा अर्पण
बस जरा सा हँस ले गा ले
ओ मेरे एकाकी मन
नियती बन गयी है आज
क्यों आज तेरी दुश्मन
खो गया है आज कहाँ
तेरा वो परिचय नूतन
इस जगत की व्यथा से
खंडित हुआ कोई दर्पण
तू युग-पावक युगद्रष्टा है
ओ मेरे एकाकी मन
.......तो ये थी वो मेरी करीब ग्यारह साल पहले की रचना।
वो कौन हैं जिन्हें तौबा की मिल गयी फ़ुरसत / हमें गुनाह भी करने को जिंदगी कम है...
10 August 2008
हरा सूट और हरी वर्दी...
एक गीतनुमा कविता।किसी हरे सूट की याद में....कश्मिर की एक ठंढ़ी बर्फिली शाम कहीं सुदूर किसी छोटे से पहाड़ी टीले पर~~~कुछ तीन-चार वर्ष पहले।
हरे रंग का सूट तेरा वो और हरे रंग की मेरी वर्दी
एक तो तेरी याद सताये उसपे मौसम की सर्दी
सोया पल है सोया है क्षण
सोयी हुई है पूरी पलटन
इस पहर का प्रहरी मैं
हर आहट पे चौंके मन
मिलने तुझसे आ नहीं पाऊँ,उफ!ये ड्युटी की बेदर्दी
एक तो तेरी याद सताये उसपे मौसम की सर्दी
क्षुब्ध ह्रिदय है आँखें विकल
तेरे वियोग में बीते पल
यूँ तो जीवन-संगिनी तू
संग अभी किन्तु राईफल
इस असह्य दूरी ने हाय क्या हालत मेरी है कर दी
एक तो तेरी याद सताये उसपे मौसम की सर्दी
.....बस शब्दों का जोड़-तोड़ है और हरी वर्दी वालों का एक छोटा सच!!!
वो कौन हैं जिन्हें तौबा की मिल गयी फ़ुरसत / हमें गुनाह भी करने को जिंदगी कम है...
31 July 2008
मेरे शब्द
ब्लौग की शुरूआत...पहली कोशिश...उमड़ते-उफ़नते विचारों को शब्दों में बांध लेना आसान तो नहीं होता,फिर भी कोशिश करता रहता हूँ....कुछ ऐसा ही प्रयास ये.व्याकरण,बहर,छंद,शास्त्र और उस्ताद-विशारद शायद खारिज कर दें मेरे इस प्रयास को,जो मैं इन्हें गज़ल कहने की जुर्रत करूँ...तो ये जो कुछ भी है,जैसा भी है-मेरी बात है,मेरे कहने का अन्दाज है।
आइनों पे जमी है काई,लिख
झूठे सपनों की सच्चाई लिख
जलसे में तो सब खुश थे वैसे
फिर रोयी क्यों शहनाई,लिख
कभी रेत और कभी पानी पे
जो भी लिखे है पूरवाई,लिख
तेरी यादों में धुली-धुली-सी
अबके भिगी है तन्हाई,लिख
तारे शबनम के मोती फेंके
हुई चांद की मुँहदिखाई,लिख
क्या कहा रात ने जाते-जाते
क्यों सुबह खड़ी है शरमाई,लिख
कदम-कदम पे मुझको टोके है
कौन सांवली-सी परछाई,लिख
रुह में उतरे और बात करे
अब ऐसी भी इक रुबाई लिख
.....और इसी सिलसिले में एक ये भी कि:-
जबसे तुमने मुझको छुआ है
रात चांदनी दिन गेरुआ है
इक बीज पड़ा है इश्क का जबसे
उगा नसों में मानो महुआ है
तुम क्या गये कि ये मन अपना
अहसासों का खाली बटुआ है
अब टूटा है तो दर्द भी होगा
ये दिल तो शीशम न सखुआ है
तुम्हारे चेहरे की रंगत से
मेरा मौसम-मौसम फगुआ है
फेरो ना यूं अब नजरें हमसे
कि बहने लगी फिर से पछुआ है
....अपने अन्य प्रयासों के साथ जल्द ही लौटता हूँ...आप सब की हौसला अफ़जाई हिम्मत देगी अपनी इस ब्लौग-यात्रा को आगे बढ़ाने में...शुक्रिया~~~
हलफ़नामा-
ग़ज़ल
वो कौन हैं जिन्हें तौबा की मिल गयी फ़ुरसत / हमें गुनाह भी करने को जिंदगी कम है...
Subscribe to:
Posts (Atom)