उस चौक का बचपना लौट आया था| बचपन जो एक सदी से विकल था ...चौक जो कई युगों से वहीं-का-वहीं बैठा हुआ था बुढ़ाता हुआ| बहुत कुछ बदल गया था वैसे तो...सड़कें चौड़ी हो गई थीं और बारिश का पानी ज्यादा जमने लगा था, साइकिलों-रिक्शों की जगहें चरपहिये घेरने लगे थे और कीचड़ें ज्यादा उछलने लगीं थी
धोतियों-पैजामों पर, पान की दूकानें "जा झाड़ के" बजाय "तेरे मस्त-मस्त दो नैन" बजाने लगी थीं और कैप्सटेन-पनामा के अलावा क्लासिक-ट्रिपल फाइव भी रखने लगी थीं, दो-तीन आइस-क्रीम पार्लर खुल गए थे और उनके पार्किंग स्पेस में स्कूटियों-बाइकों की दिलफ़रेब संगत टीस उठाने लगी थी सामने चाय वाले बाबा के पास जमने वाली शाम की चौपाल में| अब कायदे से इस बदलती रुत में बुढ़ाते चौक की जवानी लौटनी चाहिए थी, लेकिन लौटा कमबख्त बचपन|
हर चौक की तरह इसका कोई नाम नहीं था| बस चौक था वो| शहर तो खूब फैल गया था...बड़ी लाइन की ट्रेनें भी दिल्ली और अमृतसर से आने लगी थीं| कुछ नेताओं, कुछ शहीदों के नाम पर सड़कों तक का नामकरण हो गया था| लेकिन वो चौक बस चौक ही रहा| चौक- इसी पुकारे जाने में अपनी पूरी पहचान समेटे हुये| ...और उस रोज़ अचानक से उसका बुढ़ाना ठहर गया था| सालों बाद...नहीं, युगों बाद मिले थे वो चारों फिर से उसी चौक पर| कुछ भी पूर्वनियोजित नहीं था| बस एक संयोग बना| युगों पहले उसी चौक पर सपने देखते थे वो साथ-साथ| बड़े होने के सपने| बायोलॉजी ग्रुप की लड़कियों के सपने| दुनिया नहीं, बस अपने शहर को बदलने के सपने| साथ-साथ एक अख़बार निकालने के सपने| रणजी ट्राफी के ट्रायल के सपने| स्टेफी ग्राफ और गैब्रियला सबातीनी के सपने| ...और उन दिनों अपनी जवानी पर इतराता वो चौक, उनके सपनों में शामिल होता हर रोज़, दुआएँ करता उन सपनों के सच होने की| फिर एक दिन अपने सपनों की तलाश में वो जो अलग हुये, तब से चौक का बुढ़ाना बदस्तूर जारी था| इस बीच वो बड़े हो गए| बायोलॉजी ग्रुप की लड़कियाँ दो-तीन बच्चों वाली मम्मियाँ बन कर अपने अपने-अपने आँगनों में लापता हो गईं| दुनिया के साथ-साथ शहर भी खूब बदला और शहर से कई सारे अख़बार भी निकलने लगे| रणजी के ट्रायल सिफ़ारिशों की अर्ज़ियाँ तलाशने में जुट गए| स्टेफ़ी को अगासी ले गया और सबातीनी को उसकी अर्जेंटीनियन गर्ल-फ्रेंड|
...और उस शाम, युगों बाद उन चारों का मिलना चौक का बचपना ले आया वापस| जवानी नहीं, बचपना| ट्रिपल फाइव को आसानी से अफोर्ड कर पाने के बावजूद चौक पर फिर से कैपस्टेन ही सुलगा| "तेरे मस्त-मस्त दो नैन" को दरकिनार कर चिल्लाते हुये "जा झाड़ के" गाया गया| आइस-क्रीम पार्लर के पार्किंग स्पेस में दिखती स्कूटियों और बाइकों के बहाने बायोलॉजी ग्रुप वाली तमाम नामों पे न सिर्फ विस्तृत चर्चा हुई, बल्कि नथूने फुलाए गए, भृकुटियाँ टेढ़ी की गईं और बाँहें भी चढ़ाई गईं| बाबा की चाय में लीफ की खुशबू मिली तो बाबा को ढ़ेर सारे उलाहने दिये गए| शहर के बदलने पे खुशी और अफसोस साथ-साथ जताए गए| अखबारों की स्तरियता पर मुट्ठियाँ लहराई गईं हवा में| रणजी ट्रायल की चर्चा पे पूरी क्रिकेट टीम को एक सिरे से गलियाया गया| किन्तु सबसे श्रेष्ठ गालियों का पिटारा आन्द्रे अगासी के लिए खोला गया जो उनकी दिलरुबा स्टेफ़ी को ले भागा था...और अंत में सबातीनी के लेस्बियन निकलने की खबर पर दो मिनट का मौन रखा गया|
चौक उस सामूहिक मातम में बाकायदा शामिल था अपने बुढ़ापे को बिसराए हुये, बच्चा बना हुआ|
शाम का समापन देर रात गए हुआ, उन्हीं पुराने शेरों को गुनगुनाते हुये:-
ख़ुद को इतना भी मत बचाया कर
बारिशें हों, तो भीग जाया कर
धूप मायूस लौट जाती है
छत पे कपड़े सुखाने आया कर

धोतियों-पैजामों पर, पान की दूकानें "जा झाड़ के" बजाय "तेरे मस्त-मस्त दो नैन" बजाने लगी थीं और कैप्सटेन-पनामा के अलावा क्लासिक-ट्रिपल फाइव भी रखने लगी थीं, दो-तीन आइस-क्रीम पार्लर खुल गए थे और उनके पार्किंग स्पेस में स्कूटियों-बाइकों की दिलफ़रेब संगत टीस उठाने लगी थी सामने चाय वाले बाबा के पास जमने वाली शाम की चौपाल में| अब कायदे से इस बदलती रुत में बुढ़ाते चौक की जवानी लौटनी चाहिए थी, लेकिन लौटा कमबख्त बचपन|
हर चौक की तरह इसका कोई नाम नहीं था| बस चौक था वो| शहर तो खूब फैल गया था...बड़ी लाइन की ट्रेनें भी दिल्ली और अमृतसर से आने लगी थीं| कुछ नेताओं, कुछ शहीदों के नाम पर सड़कों तक का नामकरण हो गया था| लेकिन वो चौक बस चौक ही रहा| चौक- इसी पुकारे जाने में अपनी पूरी पहचान समेटे हुये| ...और उस रोज़ अचानक से उसका बुढ़ाना ठहर गया था| सालों बाद...नहीं, युगों बाद मिले थे वो चारों फिर से उसी चौक पर| कुछ भी पूर्वनियोजित नहीं था| बस एक संयोग बना| युगों पहले उसी चौक पर सपने देखते थे वो साथ-साथ| बड़े होने के सपने| बायोलॉजी ग्रुप की लड़कियों के सपने| दुनिया नहीं, बस अपने शहर को बदलने के सपने| साथ-साथ एक अख़बार निकालने के सपने| रणजी ट्राफी के ट्रायल के सपने| स्टेफी ग्राफ और गैब्रियला सबातीनी के सपने| ...और उन दिनों अपनी जवानी पर इतराता वो चौक, उनके सपनों में शामिल होता हर रोज़, दुआएँ करता उन सपनों के सच होने की| फिर एक दिन अपने सपनों की तलाश में वो जो अलग हुये, तब से चौक का बुढ़ाना बदस्तूर जारी था| इस बीच वो बड़े हो गए| बायोलॉजी ग्रुप की लड़कियाँ दो-तीन बच्चों वाली मम्मियाँ बन कर अपने अपने-अपने आँगनों में लापता हो गईं| दुनिया के साथ-साथ शहर भी खूब बदला और शहर से कई सारे अख़बार भी निकलने लगे| रणजी के ट्रायल सिफ़ारिशों की अर्ज़ियाँ तलाशने में जुट गए| स्टेफ़ी को अगासी ले गया और सबातीनी को उसकी अर्जेंटीनियन गर्ल-फ्रेंड|
...और उस शाम, युगों बाद उन चारों का मिलना चौक का बचपना ले आया वापस| जवानी नहीं, बचपना| ट्रिपल फाइव को आसानी से अफोर्ड कर पाने के बावजूद चौक पर फिर से कैपस्टेन ही सुलगा| "तेरे मस्त-मस्त दो नैन" को दरकिनार कर चिल्लाते हुये "जा झाड़ के" गाया गया| आइस-क्रीम पार्लर के पार्किंग स्पेस में दिखती स्कूटियों और बाइकों के बहाने बायोलॉजी ग्रुप वाली तमाम नामों पे न सिर्फ विस्तृत चर्चा हुई, बल्कि नथूने फुलाए गए, भृकुटियाँ टेढ़ी की गईं और बाँहें भी चढ़ाई गईं| बाबा की चाय में लीफ की खुशबू मिली तो बाबा को ढ़ेर सारे उलाहने दिये गए| शहर के बदलने पे खुशी और अफसोस साथ-साथ जताए गए| अखबारों की स्तरियता पर मुट्ठियाँ लहराई गईं हवा में| रणजी ट्रायल की चर्चा पे पूरी क्रिकेट टीम को एक सिरे से गलियाया गया| किन्तु सबसे श्रेष्ठ गालियों का पिटारा आन्द्रे अगासी के लिए खोला गया जो उनकी दिलरुबा स्टेफ़ी को ले भागा था...और अंत में सबातीनी के लेस्बियन निकलने की खबर पर दो मिनट का मौन रखा गया|
चौक उस सामूहिक मातम में बाकायदा शामिल था अपने बुढ़ापे को बिसराए हुये, बच्चा बना हुआ|
शाम का समापन देर रात गए हुआ, उन्हीं पुराने शेरों को गुनगुनाते हुये:-
ख़ुद को इतना भी मत बचाया कर
बारिशें हों, तो भीग जाया कर
धूप मायूस लौट जाती है
छत पे कपड़े सुखाने आया कर