भूल तो नहीं गये आपलोग मोहित शर्मा को, ऋषिकेश रमानी को, आकाशदीप को या फिर...या फिर सुरेश सूरी को ??? घबड़ाइये मत, मैं नहीं भूलाने दूँगा। इस छब्बीस जनवरी को भव्य परेड के दौरान महामहीम के हाथों मोहित की पत्नि ऋषिमा को तो देखा ही होगा आपसब ने अपने पति की शहादत पर अशोकचक्र का मेडल पाते हुये। कश्मीर के इन सुदूर चीड़ के जंगलों में भी मेजर मोहित की शहादत, उसकी बहादुरी को पहचाना गया ये मेरे लिये सुखद आश्चर्य था। शांतिकाल में अपने देश में दिया जाने वाला सर्वोच्च वीरता-पदक है अशोकचक्र। इसी क्रम में दूसरे, तीसरे और चौथे स्थान पर क्रमशः कीर्तिचक्र, शौर्यचक्र और सेना-मेडल आते हैं।
अपने इसी ब्लौग पर ही पहले कभी लिखा था मैंने कि कोई कितना बहादुर होता है ये इस बात पर भी निर्भर करता है कि उसे अपनी बहादुरी दिखाने का अवसर कहाँ मिलता है। वर्तमान परिपेक्ष्य में "जगह" ज्यादा महत्वपूर्ण हो गयी है एक जांबाज की बहादुरी की डिग्री को निर्धारित करने के लिये। दिल्ली के संसद-भवन के समक्ष या फिर मुम्बई के ताज होटल या नरीमन प्वाइन्ट पर दी गयी शहादत अचानक से बड़ी हो जाती है बनिस्पत कश्मीर के इन सघन चीड़ के वनों में दिखाई गयी शहादत से। मेजर सुरेश सूरी को कीर्तिचक्र, मेजर आकाशदीप को शौर्यचक्र और मेजर ऋषिकेश रमानी को सेनामेडल से नवाजा गया है- तीनों के तीनों मरणोपरांत। ईश्वर जाने कौन-से इंच-टेप द्वारा इन तीन जांबाजों की बहादुरी को नापा गया...!!! वहीं दूसरी तरफ एक नौटंक, जो किसी करीना नामक बाला से इश्क लड़ाने के बाद बचे हुये समय में एक विदेशी कंपनी के बने आलू-चिप्स के नये फ्लेवर को तलाशने में गुजारता है, पद्मश्री ले जाता है।
...इधर इन समस्त विसंगतियों की वजह से ये अचानक मेरे बाँयें हाथ में टीस क्यों बढ़ आती है? जाने क्यों...??
जिस दिन मेजर ऋषिकेश शहीद हुआ था, एक ग़ज़ल की पैदाइश हुई थी मेरी चोट खायी लेखनी से। एक मिस्रा उछाला गया था गुरुदेव द्वारा "रात भर आवाज देता है कोई उस पार से", जो बाद में उन्हीं के ब्लौग पर मुशायरे में शामिल हुआ था। पेश है वही ग़ज़ल:-
चीड़ के जंगल खड़े थे देखते लाचार से
गोलियाँ चलती रहीं इस पार से उस पार से
मिट गया इक नौजवां कल फिर वतन के वास्ते
चीख तक उट्ठी नहीं इक भी किसी अखबार से
कितने दिन बीते कि हूँ मुस्तैद सरहद पर इधर
बाट जोहे है उधर माँ पिछले ही त्योहार से
अब शहीदों की चिताओं पर न मेले सजते हैं
है कहाँ फुरसत जरा भी लोगों को घर-बार से
मुट्ठियाँ भीचे हुये कितने दशक बीतेंगे और
क्या सुलझता है कोई मुद्दा कभी हथियार से
मुर्तियाँ बन रह गये वो चौक पर, चौराहे पर
खींच लाये थे जो किश्ती मुल्क की मझधार से
बैठता हूँ जब भी "गौतम" दुश्मनों की घात में
रात भर आवाज देता है कोई उस पार से
...इस बहरो-वजन पर कई सारी ग़ज़लों और गीतों की चर्चा मैं कर ही चुका था अभी अपनी पिछली ग़ज़ल जब पढ़वायी थी आपसब को। इसी बहर पर दुष्यंत कुमार की एक विषयानुकूल ग़ज़ल सुनवाता हूँ आपसब को। सुनिये:-
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
सभी जाबांज शहीदों को सलाम...वाकई पद्मश्री सम्मान आदि के साथ मजाक हुआ है..कहीं चटवाल तो कही सैफ....
ReplyDeleteगज़ल जबरदस्त है. आज फिर पढ़ी और वही आग नजर आई.
सलाम आपको भी.
गौतम जी मन फिर क्लांत हुआ यह पढ़ आज ....
ReplyDeleteगजल बढ़िया हैं .
गौतम जी,
ReplyDeleteमैंने गणतंत्रता दिवस पर राष्ट्रपति महोदया के हाथों सम्मान लेते हुए वीरों को या वीरों के परिवार को देखा था, अचानक ही मेरी आँखें भर आईं, और वह लम्हा अचानक ही मेरे लिये बहुत ही भारी हो गया। वीरों की पत्नियाँ सम्मान के लिये आयी थीं, उनके चेहरे पर अगर अपने को खोने का गम था तो देश के लिये बलिदानी होने का गौरव भी था।
सभी शहीदों को नमन जो पहचाने गये और जो न पहचाने गये उनको भी नमन।
नबाबों की जूतियाँ सिर पर रखने की तो हमारी लोकतांत्रिक परंपरा है। अफ़सोस है हमें भी...
पोस्ट कि पहली लाईन पढ़ते ही सीधा इसी ग़ज़ल का मतला कौंधा था मन में..
ReplyDeleteआप क्या..ये ग़ज़ल ही नहीं भूलने देगी उन्हें...
उस वक्त इस का आखिरी शे'र मक्ता नहीं था...ये भी याद है...
बैठता इस पार हूँ जब दुश्मनों कि घात में....
रात भर आवाज़ देता है कोई उस पार से..
ऐसे सुना था ये शे'र तब....
रमानी के बारे में ज़िक्र आते ही बाहर मेट्रो से बेवजह झाँकतीं आखें भी याद हैं.....झांकती नहीं..नजरें चुराती हुयी..
सब याद है साब...
योद्धा कवि !
ReplyDeleteआग जीवित है। कुछ सिविलियंस अपने ढंग की लड़ाई लड़ रहे हैं और जब थकते हैं तो आसमान की ओर देख हिमालय और उसकी बर्फ पर गुजरते बूटों को सैल्यूट कर लेते हैं। फिर से लड़ने लगते हैं ... जय हिन्द।
ग्लैमर के इस युग में माल कम रैपर अधिक देखा जाता है। हर जगह एलीटिसिज्म हाबी है। .. टीबी और कुपोषण के उपर एड्स हाबी है। बहने लगूँगा तो ऑफिस को लेट हो जाऊँगा। लेकिन नौटंक को पद्मश्री मिलना मुझे भी नहीं सुहाया। वैसे क्या सोचना इन सब बातों पर?
ये पद्म नहीं 'दम' पुरस्कार हैं.. इस जमाने में नंगई की कदर वर्दी से अधिक है मित्र, समझो। ..
वीरगति पाए हमारे योद्धा हम लोगों के मन में सीना ताने खड़े हैं ।
मैं समझता हूँ कि मेरा सैल्यूट हजारों 'दम पुरस्कारों' पर भारी है... ग़ज़ल को क्या कहें, गूँगे का गुड़।
जय हिन्द।
bahut sachcha aur samyik lekh, aur dil ko chhoota gazal ka ek ek sher,
ReplyDeleteshaheedon ko salam aur shradhanjali.
सच कहा है गौतम कि लोग बहुत ही जल्द भूल जाते हैं सब कुछ । कल किसी जगह सुना था कि ''देश लक्ति के लिये तैयार थे हम भी मगर, पेट भर खाना जो खाया नींद हमको आ गई'' । तुम जानते हो कि मैं कई बार तुमसे कह चुका हूं कि देश के लिये मरने वालों को श्रद्धांजलि देना अब एक फैशन हो गया है । लोग मोमबत्तियां लेकर तब ही निकलते हैं जब ये पता चल जाये कि कोई टीवी चैनल उनकी मोमबत्तियों को कवर करने आ रहा है । उधर टीवी चैनल वाले भी कवर करने तब ही निकलते हैं जब उनको पता चल जाता है कि कोई न कोई सेलिब्रिटी आ रही है मोमबत्ती लेकर । या फिर कोई आम आदमी खास तरीके से मोमबत्ती लेकर आ रहा है । हम कृतघ्न समाज में जी रहे हैं । ये समाज हमें तब तक ही याद रखता है जब तक कि उसे हमारी ज़ुरूरत है । सीमा पर युद्ध होने के समय देश में भावनाओं का जो ज्वार आता है वो कोई देशभक्ति नहीं होती है । वो तो बस हम सीमा पर खड़े जवान को ये बताना चाहते हैं कि हम देशभक्त हो चुके हैं । अब तुम सीमा पर डटे रहना । गोली खाते रहना, मरते रहना किन्तु देखना कहीं दुश्मन शहरी इलाकों में हमारे घर तक नहीं पहुंच जाए । हम रात को चैन से सोना चाहते हैं सो तुम सीमा पर रात भर जागते रहना । औश्र चिंता बिल्कुल मत करना । अगर तुम सीमा पर गोली खा कर मर गए तो हम तुमको कम से कम दस पन्द्रह दिन तक तो याद करेंगें ही । और मेडल का तो भूलो ही मत, वो भी तो मिलेगा तुमको । लेकिन सीमा पर खड़े सैनिक जब तुम्हारे सीने के आर पार दुश्मन की गोली हो रही हो तब तुम अपने परिवार के बारे में बिल्कुल मत सोचना । तुम सैनिक हो तुमको अपने परिवार के बारे में सोचना भी नहीं है । तुम्हें तो हमारे बारे में सोचना है । विश्वास करो यदि तुम शहीद हो गये तो हम तुम्हारे परिवार को एक सिलाई मशीन तो अवश्य दे देंगें ताकि तुम्हारी पत्नी कपड़े सिल कर परिवार चला सके । देखो कितने महान हैं हम । सीमा पर खड़े सैनिक तुम जानते हो कि हम तो देश भक्त तभी बनते हैं जब ज़रूरत होती है यू नो बाकी समय तो हमारे पास वक्त ही नहीं होता । सुना सैनिक जैसा कि सरकार ने निर्धारित किया है हम उस अनुसार ही देशभक्त होते हैं । सरकार ने देशभक्त होने के लिये बाकायदा दो दिन निर्धारित किये हैं । एक तो पन्द्रह अगस्त और दूसरा छब्बीस जनवारी । ट्रेफिक सिग्नल पर खड़े बच्चे से हम दो रुपये का चिंदी टाइप का तिरंगा खरीदते हैं और उसे अपनी गाड़ी पर लगा लेते हैं । मेरे खयाल से देशभक्त होने के लिये इतना तो ठीक है ना । यू नो इससे ज्यादा खर्च हम देशभक्ति के लिये अफोर्ड भी नहीं कर सकते । और हां दिन भर के लिये रिंगटोन और डायलर टोन भी तो देशभक्ति टाइप की कर लेते हैं । और जो एसएमएस हम दिन भर करते हैं वो क्या देशभक्ति नहीं है । तो सीमा पर खड़े सैनिक देखा तुमने हम कितना कुछ करते हैं देशभक्ति के लिये । ठीक सत्ताईस जनवरी और सोलह अगस्त को हम अपनी ये भेड़ की खाल उतार देते हैं । दरअसल में डाक्टर ने बताया है कि साल भर देशभक्त रहने से समस्या आ सकती है । और फिर हे सीमा पर खड़े सैनिक तुम तो हो साल भर देश भक्त बने रहने के लिये । साल भर जब तुम करते हो देशभक्ति तो फिर हम क्यों करें आखिर । सुनो हे सीमा पर खड़े सैनिक सत्ताइस जनवरी और सोलह अगस्त को जब हम अपनी गाड़ी पर लगा वो दो रुपये वाला झंडा निकाल कर फैंकते हैं तो दुख तो होता है पर क्या करें निकालना तो है ही । और उस झंडे को घर में भी तो नहीं रखा जा सकता ना । कहीं उसको देख देख कर बच्चे बिगड़ गये, देशभक्त हो गये तो फिर क्या होगा । बस यही सोच कर हम उसको निकालने के बाद कचरे में फैंक देते है ताकि झाड़ू वाला हमारी उस टेम्प्रेरी देश भक्ति को हमारे घर से दूर ले जाये । और फिर झंडा दो रुपये का ही तो है, लहर कुरकुरे या अंकल चिप्स की तरह पंद्रह रुपये का तो है नहीं । अगले साल से खरीद लेंगें । घर में रखकर कर बच्चों को बिगाड़ने का जाखिम कौन उठायेगा । खैर तो कुल मिलाकर बात ये है कि हे सैनिक तुम सीमा पर मरते रहो, गोली खाते रहो, इधर तो हम हैं ना । भरोसा रखो अगर तुम हमारे शहर के हुए और सीमा पर शहीद हो गये तो हम एक श्रद्धांजलि की प्रेस विज्ञप्ति ज़रूर जारी कर देंगें जिसमें शहर के सारे नेताओं के नाम होंगें और अगर जगह बची तो तुम्हारा नाम भी दे दिया जायेगा । विश्वास रखो हम ऐसा करेंगें । तो ठीक है देते रहो शहादत खाते रहो गोली, अब छब्बीस जनवरी तो बीत गई मिलते हैं पंद्रह अगस्त को । जय हिंद
ReplyDeleteमार्मिक पोस्ट...मार्मिक गज़ल. पढ़कर न जाने मन क्यों दुखी हो गया.
ReplyDeleteबैठता हूँ जब भी "गौतम" दुश्मनों की घात में
रात भर आवाज देता है कोई उस पार से
..इस शेर में जो दर्द है उसे इतनी दूर आराम से बैठा मैं क्या समझ पाउँगा! हाँ, प्रयास कर रहा हूँ.
..आदरणीय पंकज सुबीर जी की तीखी टिप्पणी के बाद कुछ भी कहने को शेष नहीं रह जाता..
पंक्तियां ग़लत टाइप हो गई हैं वो इस प्रकार हैं ।
ReplyDeleteदेशभक्ति के लिये तैयार हम भी थे मगर
पेट भर खाना जो खाया नींद हमको आ गई
किसकी हैं नहीं जानता ये पंक्तियां ।
लेकिन सर,
Deleteअसली शेर ये है
फुर्सत तो मुझे भी थी बहुत वतन के लिए
पर जब पेट भर गया तो मुझे नींद आ गई।
भाई गौतम, आपकी भावनाओं को समझ सकता हूं मैं. पर यह बात भी तय है कि सरकारें चाहें जो करें पर मुझ-सा हर आम-भारतीय हमेशा आपने सैनिक के साथ खड़ा मिलेगा, जिसे आप पर असीम गर्व है.
ReplyDeleteजी हाँ ...अब नहीं लगते हैं शहीदों की चिताओं पर मेले ...कितनी बार मन दुखी हुआ ....ये कमउम्र नौजवान किसके लिए शहीद हुए ...क्यों हो जाते हैं ....वैभव विलासिता का जीवन क्या उनके लिए नहीं है ....अपने घर परिवार से प्रेम उन्हें नहीं है ...?
ReplyDeleteसब कुछ भुला कर बस अपनी मातृभूमि की सेवा का जज्बा ...ख्वाहिशों , उमंगो वाली उम्र में परिजनों को पथराई आँखों से देखते छोड़ जाना ...किसके लिए ....?
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
ReplyDeleteमेरा मकसद है कि ये सूरत बदलनी चाहिए ...
हो चुकी है पीर पर्वत सी इस हिमालय से
अब कोई गंगा निकालनी चाहिए ......!!
ग़ज़ल के बार में कहने को कुछ बचा क्या ....!!
गौतम जी,
ReplyDeleteमन तो अवसाद से भर गया है..लेकिन सर्वोच्च पुरस्कार दिए जाने से मन में कहीं ठहराव आया है...
बाकी जो सरकारी सम्मान हैं आज कल उनके बारे में अगर सोचते रहे तो जिंदा रहना मुश्किल हो जाएगा..इसलिए उसके बारे में सोचना ही क्यूँ ?
आपकी ग़ज़ल का हर हर्फ़ उस माहौल का वो मंजर दिखा रहा है....
आभार..
क्या कहूँ...??? बहुत कुछ कहने को है लेकिन भावनाओं को शब्द नहीं मिल रहे...ग़ज़ल बेहद खूबसूरत थी है और रहेगी...सलाम आपको.
ReplyDeleteनीरज
सुनो मेजर गौतम, जब तक कहीं दूर बैठा एक भी छोटा बच्चा अपने छोटे से, अबोध मन में देश भक्ति के भाव रखता है ... कहीं भी, कोई भी बच्ची अपने देश के राष्ट्र-गान को सुन कर विदेशियों की घूरती भीड़ को नज़रंदाज़ कर के 'सावधान' में खड़ी हो जाती है और सिर उठा के सलाम करती है "जयहिंद!" ... तब तक आपको ये कहने का अधिकार नहीं कि शहीदों की चिताओं पे न मेले सजते हैं ... तब तक आपको ये कहना होगा कि शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले ...
ReplyDelete...और तब तक हम सब को अपना-अपना काम ईमानदारी से करना होगा...पूरी इमानदारी से...
मन आहत है.
ReplyDeleteजब आपकी ग़ज़ल तरही में पढ़ा था तब इसके दर्द को शायद समझ नहीं पाया था. आज आपने सारे मंजर दिखा दिए. सब बयाँ कर दिया.
पद्म श्री जैसे कुछ सर्वोच्च सम्मान के बारे में अब दिमाग लगाना बेकार लगता है. मुझे याद है बचपन के दिन जब हम गर्व और ख़ुशी से सभी पुरस्कार की सूची और इसको पाने वाले व्यक्तियों के नाम नोट कर याद करते थे.
आज सब बेमानी लगता है. अब किसे याद रखने की जरुरत है, किसे लिखने की जरुरत है. नए सिरे से सोचना होगा. आपने याद दिलाया इसके लिए आभार. आगे मुझसे जो भी बन पड़ेगा. एक वेबसाइट बनाकर शहीदों, जवानो के संघर्ष सम्बन्धी दस्तावेज सहेजने की कोशिश करूँगा.
एक शे'र अर्ज करता हूँ... रेवरी खिलाए हैं जिसने राजाओं को; पिछे पिछे उनके पुरस्कार चले. शहीदों के खून का कर्ज है कलम पर; लो आज इन्कलाब हम पुकार चले.
- सुलभ
राजऋषिजी,
ReplyDeleteबहुत कचोट्नेवाले तल्ख़ अहसासों को आवाज़ दी है आपने ! पढ़कर आँखें धुंआ गईं !
और ये ग़ज़ल मारक पीड़ा से गुज़र कर लिखी है आपने ! शब्द-शब्द मर्मवेधी है !
दैत्याकार प्रश्न जो आलेख से उत्पन्न होकर मुंह बाए खड़े हैं--जाने कब तक खड़े रहेंगे ! मैंने ही कहीं लिखा था--'इस बड़े जनतंत्र में सारी हदें बढ़ने लगी हैं !' आपकी बात से इत्तफाक रखता हूँ, सहमत हूँ और उन वीर शहीदों को नमन करता हूँ, श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ !
एक सैल्यूट मेरा भी !
--आ.
बैठता हूँ जब भी "गौतम" दुश्मनों की घात में
ReplyDeleteरात भर आवाज देता है कोई उस पार से
सच कहा है आपने...
उत्तम रचना है...
मीत
बैठता हूँ जब भी "गौतम" दुश्मनों की घात में
ReplyDeleteरात भर आवाज देता है कोई उस पार से
पता नहीं कितनी आवाजों की पुकार सुनते होंगे,आप...और कैसी हलचल होती होगी मन में...हम लोग तो यहाँ उनकी कहानी सुन और २६ जनवरी को उनके परिवारजनों को टी.वी.पर देखकर ही विचलित हो जाते हैं....
मन की छटपटाहट और बेबसी को बहुत ही अच्छी तरह से पिरोया है,शब्दों में....हर पढ़नेवालों ने महसूस किया इसे...पर इतना जरूर कहूँगी,भले ही हर बरस मेले नहीं लगते,इनकी चिताओं पर ,लेकिन आमलोगों के दिल में हमेशा रहते हैं ये और पूरी शिद्दत से याद किया जाता है इन्हें.
सरकार के पुरस्कारों के पीछे तो पता नहीं कितनी सारी लॉबी,कितनी राजनीति,गुटबाजी काम करती है...किसको यकीन है अब उनकी विश्वसनीयता पर..हाँ एक तमाशे की तरह सब देख लेते हैं वो सारी कवायद.
gautam ji
ReplyDeleteaapki gazal ki tarif nhi karungi kyunki wo to hamesha hi lajawaab hoti hai baat aapke us jazbe ki hai aur jo aap is post mein kehna chahte hain ---------baat uski hai..........kitne log yaad rakhte hain us jazbe ko aur kitne din? sirf ek din aur uske baad sab apne gharon mein aaram se sote hain aur jab koi ghatna ho jati hai to desh ko , netaon ko kos kar apne kartavyon ki itishri kar lete hain..........magar kya kabhi kisi ne bhi jo seema par ya desh ke kisi bhi kone mein aur kisi bhi wajah se shaheed huye hain unke bare mein socha hai.........unke pariwar par kya biti kabhi jana hai kya........nhi , bas kuch shabd kaho aur ho gaya...........kya isiliye hamare jawaan apne pariwar ko chodkar hamari chinta mein shaheed hote hain? bahut se prashna hain magar sabhi anuttaruit.
kuch din pahle kuch likha tha unke liye bas usi se meri bhavnayein samajhne ka prayas kijiyega.
kaise karoon naman?
शहीदों को नमन किया
श्रद्धांजलि अर्पित की
और हो गया कर्तव्य पूरा
ए मेरे देशवासियों
किस हाल में है
मेरे घर के वासी
कभी जाकर पूछना
हाल उनका
बेटे की आंखों में
ठहरे इंतज़ार को
एक बार कुरेदना तो सही
सावन की बरसात
तो ठहर भी जाती है
मगर इस बरसात का
बाँध कहाँ बाँधोगे
कभी बिटिया के सपनो में
झांकना तो सही
उसके ख्वाबों के
बिखरने का दर्द
एक बार उठाना तो सही
कुचले हुए
अरमानों की क्षत-विक्षत
लाश के बोझ को
कैसे संभालोगे
कभी माँ के आँचल
को हिलाना तो सही
दर्द के टुकड़ों को
न समेट पाओगे
पिता के सीने में
जलते अरमानो की चिता में
तुम भी झुलस जाओगे
कभी मेरी बेवा के
चेहरे को ताकना तो सही
बर्फ से ज़र्द चेहरे को
एक बार पढ़ना तो सही
सूनी मांग में
ठहरे पतझड़ को
एक बार देखना तो सही
होठों पर ठहरी ख़ामोशी को
एक बार तोड़ने की
कोशिश करना तो सही
भावनाओं का सैलाब
जो आएगा
सारे तटबंधों को तोड़ता
तुम्हें भी बहा ले जाएगा
तब जानोगे
एक ज़िन्दगी खोने का दर्द
तब शायद समझ पाओगे
कर्तव्य सिर्फ़ नमन तक नही होता
सिर्फ़ नमन तक नही होता
पोस्ट पढ़ते पढ़ते बहुत कुछ लिखने वाली थी मगर अब गुरु जी की टिप्पणी पढ़ कर कुछ नही लिखा जा रहा
ReplyDeleteमुझे बस आप चाहिये, अपने लिये, माँ पिताजी के लिये, संजीता भाभी के लिये और पिहू के लिये।
हाँ मै स्वार्थी हो कर बोल रही हूँ कि मुझे आपके लिये कोई तमगा नही चाहिये। आप खुद अपने अपनों के लिये एक अवार्ड हो n all of them including me love you n need you...! AND ALWAYS FEEL PROUD FOR YOU
चक्रों की जानकारे हुई और चक्र-भेदन की भी !
ReplyDelete'' ... कौन-से इंच-टेप द्वारा इन तीन जांबाजों की बहादुरी को नापा गया.. ..'' , पर
ठहर गया ..
टीस तो आयेगी ही , जब तब संवेदना बची हुई है ...
.
'' पर न मेले सजते हैं '' की जगह ' पर न मेले सज रहे ' ज्यादा लय पकड़ रहा है , पता
नहीं बहर क्या कहती है , आप ही जानें !
यहाँ भी खटका है --- '' मुर्तियाँ बन रह गये वो ... ''
.
आख़िरी शेर पर मोहित हूँ ... आभार ,,,
अब शहीदों की चिताओं पर न मेले सजते हैं
ReplyDeleteहै कहाँ फुरसत जरा भी लोगों को घर-बार से ...
बहुत मार्मिक .... दिल के जख्म कुरेद कुरेद कर लिखा है आपने ...... वेदना है आपके मन में ..... और गुरुदेव का कमेंट भी इसी वेदना को दर्शा रहा है ...... शहीदों की शाहादत को हम बहुत जल्दी भूल जाते हैं ........ संवेदनहीन हो चुका है समाज ....
पुनश्च :
ReplyDeleteअपने मनोभाव लिख भेजने के बाद और अपनी गृहलक्ष्मी को विद्यालय छोड़ने के पहले जब मैंने उन्हें आपका आलेख और ग़ज़ल सुनाई तो वह फफक कर रो पडीं (मेरी तो सिर्फ आखें नाम हुई थीं); जाते-जाते कह गईं कि उन्हें लिख दीजिये कि 'सैन्य वीरों की पीड़ा, शौर्य और आत्म-बलिदान (शहादत) से ही रक्षित है देश का कण-कण ! हम नत-मस्तक हो उन बलिदानियों को नमन करते हैं !'
सच में, मर्मंतुद पीड़ा का ऐसा बयान और इतनी मार्मिक ग़ज़ल है ये कि अपनी भावनाएं बांधे नहीं बंधतीं !
जाने वे दिन कब आयेंगे जब ज़मीन नहीं, जज्बे को पूजा जाएगा.... वे दिन आयेंगे भी या... ?
संवेदना का सहभागी--आ.
गौतम जी आदाब
ReplyDeleteमिट गया इक नौजवां कल फिर वतन के वास्ते
चीख तक उट्ठी नहीं इक भी किसी अखबार से
आपकी नाराज़गी अपनी जगह है...
वैसे देश भक्ति का जज्बा पैदा करने में
और अमर शहीदों को याद करने में, मीडिया की भूमिका को
इतनी 'बेदर्दी' के साथ खारिज किये जाने से
शायद सब सहमत न हो पाये...
मुर्तियाँ बन रह गये वो चौक पर, चौराहे पर
खींच लाये थे जो किश्ती मुल्क की मझधार से
ये शेर ऐसी हक़ीक़त बयान कर रहा है, जिसका जवाब
अवाम और रहनुमाओं को ढूंढना होगा.
अमर शहीदों को सलाम.
गज़ल जबरदस्त है.
ReplyDeleteसच कहा है आपने...
ReplyDeleteउत्तम रचना है...
जब तक कोई बात या घटना हमें छु के नहीं गुज़रती हम उसे याद नहीं रखते, ये कह लीजिये मनुष्य की आदत है या संवेदनाओं की ओर उसकी संवेदनहीनता. हम देशभक्ति को किसी पर्व की तरेह मनाते हैं और उसे उस तरेह भी शायद ढंग से नहीं बना पाते. ये जज़्बा भी तब जगता है जब हम थोडा फुर्सत में होते है, हम सब ही तो ज़िम्मेदार हैं इसके लिए...............
ReplyDeleteआपने सही कहा है की "बहादुरी का पैमाना आज ये हो गया है की वो कहाँ पर दिखाई गयी है", उसके लिए हमारी मीडिया सबसे ज्यादा दोषी है ऐसा मेरा मानना है फिर उसके बाद तो हम हैं ही, वो जो परोसे रहे हैं हम खा रहे हैं, हम जो खाना चाह रहे हैं वो वे परोसे रहे हैं.
शहादत को किसी मेडल से नापना कहाँ तक न्यायसंगत है ये मैं नहीं जानता मगर मैं इतना जानता हूँ की जो भी शहीद हुए हैं उनमे से किसी एक का भी देश के प्रति जज़्बा दुसरे से कमतर नहीं था.
system ko bdlne me vqt lgega.
ReplyDeletedukh hota hai sb dekh kr ,pr.......
maine shahidon ki patniyo ko office office bhatkte dekha hai,shaheed ke pariwarke haal
baad ke haalat koi dekh le to ...........
shayad........
दिल्ली के संसद-भवन के समक्ष या फिर मुम्बई के ताज होटल या नरीमन प्वाइन्ट पर दी गयी शहादत अचानक से बड़ी हो जाती है बनिस्पत कश्मीर के इन सघन चीड़ के वनों में दिखाई गयी शहादत से।
ReplyDeleteअसली रोना ही तो इसी बात का है.. सोये हुए देश की सर्कार भी तो सोयी हुई रहेगी.. मैंने तो २६ जनवरी की परेड ही नहीं देखी.. मुझे नहीं पता किसे कौनसा मेडल मिला.. २६ जनवरी के दिन तो मैं छुट्टी मना रहा था.. क्या गलती मेरी ही है.. ? देश भर के न्यूज चैनलों पर सैफ को मिले पुरस्कार की चर्चा होती रही.. पर किसी भी चैनल पर मैंने शहीदों को मिले सम्मान का दिन भर प्रसारण नहीं देखा.. पर मिडिया दिखा भी दे तो देखेगा कौन? जनता तो ये देखना चाहती है कि राखी सावंत इलेश से शादी करती है या नहीं.. या फिर बिग बॉस के घर से इस बार कौन बाहर जाएगा..
शहीद स्मारक तो सिर्फ पिकनिक स्पोट बनकर रह गए है.. लोग वहां बैठकर मुफलियाँ चबाते हुए मिल जायेंगे.. कोई सीरियस ही नहीं होता.. मालुम है क्यों ? क्योंकि वो जानता ही नहीं है.. हमें तो मेजर सूरी से आपने परिचय करवा दिया.. पर बाकियों का क्या.. उन्हें तो टी वी पर राहुल महाजन का स्वयंवर दिख रहा है...
हम लोग शायद फिर से विष्णु के अवतार का इंतज़ार कर रहे है... और तब तक टाईम पास करने के लिए जेम्स कैमरून की अवतार देख रहे है..
शहीदो को नमन भर कहने से काम बनेगा नहीं.. कुछ तो और करना पड़ेगा..
Kya kaha jaay....
ReplyDeleteAaj to yah sthiti ho gayi hai ki RAAJNITI shabd dhyan me aate hi ubkaai aane lagti hai...isse kisi bhi prakaar ke ethics ya velue system ki apeksha rakhna hi moorkhta ho gayi hai...
Inhone swayan hi apne haathon uchch padakon kee is tarah aisi taisi ki hai ki bahut samay nahi lagega,jab ye poorntah uphaaspoorn ban jayenge...keemat padak ki nahi hoti,balki use sahi vyakti ko dene se hi uska maan mahatv aur pratishtha banta hai...
Aapki gazal un sabhi shahidon ko sachchi shrddhanjali hai aur usme ham sab apna swar milate hain...
जब हम दिल्ली में चैन की नीद सो रहे होते है
ReplyDeleteतो हमारे सैनिक भाई अपनी नीद, सुख त्यागकर सीमाओं की रक्षा करते है
सभी "धरती के बेटों" कॊ हमारा कोटि-कोटि नमन
गौतम जी क्या कहें इस देश मे किसी की योग्यता और कुर्बानी को मापने का पैमाना बिलकुल वैसा हो गया है जैसा एक बेईमान सब्जी बेचने वाला अपनी तकडी मे नी भार चिपका लेता है या दूध वाला अपने माप के बर्तन को नीचे से टेढा कर लेता है इसी तरह हमारे नेता कुर्सी के नीचे से सिफारिश देख कर ही सब फैसले लेते हैं। सही मे जो लोग दिन रात सरहद पर पहरा देते हैं विकट परिस्थितिओं मे काम करते हैं वो पीछे छूट जाते हैं और ये अभिनेता जो उम्र भर ऐश करते हैं नोट कमाते हैं उन्हें पुरुस्कारों से नवाज़ा जाता है और वो भी जिनकी कोई उपल्ब्धि भी नहीं है शर्म की बात है आपकी गज़ल के लिये तो निशब्द ही हूँ। मगर फिर भी देश वासियों की सब आशायें देश को बचाने की आप लोगों पर ही हैं शत शत नमन है इन शहीदों को। फिर भी सब जवानो से इतना ही कहूँगी
ReplyDeleteजला तू आग सीने मे बने अंगार जज़्बा यूँ
सिवा तेरे बता तू देश तेरा अब बचाये कौन
सलाम है उन्हें जो अपने देश की रक्षा के लिये अपनी जान की बाजी लगने को तैयार बैठे रहते हैं। बहुत बहुत आशीर्वाद
....इस छब्बीस जनवरी को...___ लाल किले की प्राचीर पे.._______ महामहीम के हाथों मोहित की पत्नि ऋषिमा को तो देखा ही हो....
ReplyDeleteमित्र,
आपकी भावनायें एवं विचार सुन्दर तथा सम्मानीय हैं.
तत्थायत्मक भूल को इंगित कर रहा हूं छिमा प्राथी हूं,आशा है इत्तेफ़ाक करेंगें के महामहिम 26 जनवरी को लाल किला किंचित ही जाते है.अपने आप को रोक न सका क्यों कि एक पुरानी सिखलाई याद आई,"जोश के साथ होश’
आशा है अन्यथा नहीं लेगें.
"ईश्वर जाने कौन-से इंच-टेप द्वारा इन तीन जांबाजों की बहादुरी को नापा गया...!!! वहीं दूसरी तरफ एक नौटंक, जो किसी करीना नामक बाला से इश्क लड़ाने के बाद बचे हुये समय में एक विदेशी कंपनी के बने आलू-चिप्स के नये फ्लेवर को तलाशने में गुजारता है, पद्मश्री ले जाता है।"
ReplyDelete"मिट गया इक नौजवां कल फिर वतन के वास्ते
चीख तक उट्ठी नहीं इक भी किसी अखबार से
मुर्तियाँ बन रह गये वो चौक पर, चौराहे पर
खींच लाये थे जो किश्ती मुल्क की मझधार से"
सलाम मेजर साहब
अभी सिर्फ पढ़कर गुजर रहा हूँ......फौरी टिप्पणी नहीं करना चाहता .....कल टिप्पणी करूंगा ....मेजर मोहित का नाम मैंने न्यूज़ में जब देखा था बरबस तुम्हारी याद आयी थी .....यहाँ लोगो की याददाश्त भी बहुत कम रहती है ...खैर....
ReplyDeleteनतमस्तक हूँ सर जी..पूर्ण दंडवत..और कुछ कहने के लायक नही हूँ बस!! हाँ सुबीर सर की बात मानता हूँ..कि हम कृतघ्न समाज मे जी रहे हैं..बल्कि हम खुद अपनी कृतघ्नता की ईंटों और स्वार्थ के गारे से इस समाज की रचना करते हैं..और क्या कहूँ!
ReplyDeleteGautam jee,aaj pahlee baar aapke
ReplyDeleteblog par aane kaa suavsar mujhko
milaa hai.Ise meraa achchha bhagya
samjhiye.Aapke vichaaron ne bahut
ziada prabhavit kiya hai.Darasl
sachche arthon mein sachche
desh bhakt seemaaon kee raksha
karne waale sainaanee hain.Unkaa
koee saanee nahin.Shesh to haathee ke daant dikhaane ko aur ,khaane ko aur.
ham napunsak se hi hai . kuch karne kee iccha bhee nahi rakhate . shaheedo kee chitaayo par mele nahi lagrahe hai yah sach hai
ReplyDeleteउस दिन गणतंत्र दिवस समारोह देख रहा था तो वीरता की गाथाओं को देख कर यही सोच रहा था कि इन्हें महाविर या परमवीर चक्र से क्यूँ नहीं नवाज़ा जा रहा. अब समझ आया कि शांति काल में ये पुरस्कार नहीं मिलते। बहादुरी का पैमाना तो सेना के वरिष्ठ अधिकारी ही तय करते होंगे। इनमें पारदर्शिता लाने के लिए सेना के लोगों को ही पहल करनी चाहिए।
ReplyDeleteग़ज़ल तो आपके दिल की आवाज़ कह ही रही है।
हम चुप हैं कि दिल सुन रहे हैं...
ReplyDeletezabardast nautanki chalti hai....zindgi kya maut bhi political hai.....Media kam nahi .....lekin inka coverage kaun karein....Dil mein aag lag jaati hai.... ye sab jaan kar.....Amar shaheedo aur sarhad ke rashko ke aage ye sar sada hi natmastak rahega. chalte-2 kuch ham bhi kah dete hai " कहलाते है निगेबाह जो मुल्क को है वो लूटते ,है नुमाइंदे जनता के जमूरियत से खेलते ,मुल्क के खैरखवा से अस्मत आज खतरे में है ,बहरूपियों को सबक सिखाने आग हर एक दिल में है"
ReplyDelete.
ReplyDelete.
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प्रिय गौतम,
गजल बहुत ही अच्छी है, आभार!
किसी वीर की वीरता का पैमाना कोई चक्र या मैडल नहीं हैं, वह तो इस बात से आंकी जाती है कि उसके साथ उस लड़ाई में लड़े बाकी योद्धा (कॉमरेड इन आर्म्स) कैसा आंकते हैं उसे।
बाकी फौज को तो आप मुझसे बेहतर ही जानते हो, Citation लिखने वाले की अंग्रेजी और माइनर एसडी भी फर्क डाल देती है अक्सर परिणाम पर।
रही बात किसी सैनिक द्वारा दिखाई बहादुरी की, तो किसी प्रकार का पुरस्कार पाने की चाहत या वीरगति के बाद मुल्क के कृतज्ञता-ज्ञापन के लिये नहीं दिखाता कोई वीरता, सैनिक लड़ता है सबसे पहले अपनी इज्जत, फिर कंपनी, बटालियन, रैजिमेन्ट(या कोर) आदि आदि की इज्जत के लिये...उसके लिये सबसे बड़ा सम्मान तब है जब उसके कॉमरेड इन आर्म्स उसके कारनामों को सम्मान से याद करते हैं...यकीन मानिये यह सम्मान सभी मेडलों या चक्रों से बड़ा है।
मार्मिक पोस्ट! गजल के भाव अच्छे हैं। इनाम-विनाम का क्या कहें? बहुत दिन पहले से कहना शुरू कर दिया था- इनाम तो छंटे हुये लोगों को मिलता है!
ReplyDeleteवर्तमान परिपेक्ष्य में "जगह" ज्यादा महत्वपूर्ण हो गयी है एक जांबाज की बहादुरी की डिग्री को निर्धारित करने के लिये। दिल्ली के संसद-भवन के समक्ष या फिर मुम्बई के ताज होटल या नरीमन प्वाइन्ट पर दी गयी शहादत अचानक से बड़ी हो जाती है
ReplyDeleteshayad aapka kahna sahi hai.Bahut pahle padhi ek kavita yaad aa rahi hai..
"Elegy Written in a Country Churchyard" (Thomas Gray)
अपनी उपस्थिती दर्ज़ कर्वा रहा हू बाकी मन मे क्या चल रहा है आप्को बता नही सकता
ReplyDeleteबस यही कहना चाह्ता हू कि २६ जन्वरी को जब ये खबर सुनी थी बडी शिद्दत् से आप्को याद किया था
हाथों कि टीस बांटना सबके बस का काम नहीं... यह सिर्फ आप ही कर सकते हैं गौतमजी ...
ReplyDeleteईश्वर जाने कौन-से इंच-टेप द्वारा इन तीन जांबाजों की बहादुरी को नापा गया...!!!
नापे जाने के लिए दुनिया से जाना जरूरी है क्या? .
आपकी बेहतरीन गजलों में से एक है कौनसा चुनु हर शेर पर दम निकलता है ...
हर बार ढरकाने को विवश करते हो कुछ बूँदे, भाई !
ReplyDeleteअजीब-सी टीस इस मन में भी उतर आती है, फिर आप जैसों के लिये अपार गौरव-भाव । सोचने लगता हूँ उस शील के बारे में जिसने गढ़ा है आपको !
आपके प्राण-सौरभ को भर लेना चाहता हूँ अपनी चेतना में, संयुक्त कर देना चाहता हूँ बहुतों की प्राण-चेतना से जिससे सब जान/समझ लें कि अव्यक्त रहना, वेदना को मूक-मृत छोड़ना, सहानुभूति को कण्ठ में अवरुद्ध कर देना और स्वगत का भ्रूण-मात्र बन जाना काव्य और जीवन में अत्यल्प मूल्य के कर्म हैं ।
कर्मोन्मुख और सजग-सहज प्राण-सौरभ युक्त गौतम-शील को मेरा अभिवादन !
gautam ji,
ReplyDeleteचीड़ के जंगल खड़े थे देखते लाचार से
गोलियाँ चलती रहीं इस पार से उस पार से
मिट गया इक नौजवां कल फिर वतन के वास्ते
चीख तक उट्ठी नहीं इक भी किसी अखबार से
मुर्तियाँ बन रह गये वो चौक पर, चौराहे पर
खींच लाये थे जो किश्ती मुल्क की मझधार से
बैठता हूँ जब भी "गौतम" दुश्मनों की घात में
रात भर आवाज देता है कोई उस पार से
kamaal ke ash'aar hain ,bahut khoob
is post ne ankhen nam na ki hon aisa ho nahin sakta ,janbazon ke liye jazbai aqeedat aur badh jata hai ,salaam hai sainikon ko ,rakshakon ko jo itni visham paristhitiyon men bhi desh ki raksha men jute hain.veer sainik to apni kadi pareekshaon men kamyaab hain lekin sochna hamen hai ki hamare kartavya kya hain aur ham use nibhane men kahan tak saksham hain .
@ktheleo jee,
ReplyDeleteयहाँ "महामहीम" विशेषण राष्ट्रपति के लिये इस्तेमाल होता है...और हर साल छब्बीस जनवरी को राष्ट्रपति ही देते हैं अवार्ड लाल किले की प्राचीर पे।
please get YOUR facts straight!
कल रात को जोश साहब को पढ़ रहा था, क्या हिंद का ज़िन्दा...
ReplyDeleteकितनी अजीब बात है ना कि हालात अभी भी बदले नहीं है चालीस के दशक में हिंदुस्तान जिस तरीके से पुकार रहा था कमोबेश वही पुकार अब भी है. विजय अकेला की कविता अब कोई आवाज़ नहीं उठाता और कहो ना प्यार है फिल्म के गीत एक पल का जीना... को सुनते हुए एक सामान्यअनजान युवा के ख़राब हो जाने को चिन्हित करता हुआ मैं अपनी खराबी को राष्ट्रीय खराबी का हिस्सा बता कर मुक्त होने का प्रयास करता हूँ, आप हैं कि फिर से दुष्यंत के शेर याद दिलाते हैं.
किसे सलाम कहें और किसे लानतें भेजें ? एक बाजू उखड गया है जब और ज्यादा वजन उठाता हूँ... कितने ही सैन्य अधिकारी, सिपाही, जनसेवक और जनवादी प्रगतिशील आन्दोलनकारी अपने सम्मुख बैठ कर हंसते हुए दोस्तों को व्यवस्था के हाथों खो देने के बाद संवेदना के अतिरेक में पहुँच जाते हैं इसका कोई हिसाब नहीं है.
हम बेहद मजबूत लोकतंत्र में हैं और सम्प्रदायों की राजनीति के घटाटोप उभार और उसके फिर से मिट्टी में मिल जाने के बाद कई नयी समस्याओं से जूझने के लिए तैयार हैं. किसी को कोसना हमारा एक जरूरी शगल है इस काम से कईयों की रोजी रोटी चलती है उन्हें जयहिंद भी उपहास भरा शब्द लगता है इसलिए कि वे एक खोल में जीये हैं और चंद तारीफ के लफ़्ज़ों से गुजर की है. आज साठ गणतंत्र वर्ष बिताने के बाद भी हम दुनिया की कई सामान्य सुविधाओं से वंचित हैं किन्तु ये विविध संस्कृति का और असामान्य भौगोलिक परिस्थितियों वाला देश, इनकी थू थू के बाद भी राजी ख़ुशी है यानि कि सब जाया नहीं हुआ है अभी तक... अपने आप को संभालिये.
साल भर पहले एक मित्र कि पोस्ट देखी थी उसमे पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को व्यतिरेक अलंकार में प्रस्तुत किया हुआ था. पहली नज़र में ये बेहद क्रांतिकारी लगता है लेकिन जब इस रूप में राष्ट्रीय पर्वों का सामान्यीकरण करते हुए उन पर सवाल उठाये जाते हैं तो मुझे कई आशंकाएं घेर लेती है कि ये वाकई इस मिट्टी के चाहने वाले हैं या फिर भेष बदले हुए लोग हैं जिस वतन का खा रहे हैं उसी के राष्ट्रीय पर्वों को कोस रहे हैं. किसने रोका है जनता के बीच जाईये और व्यवस्था में बढ़ रहे खोट के प्रति सावचेत कीजिये... मगर वे ऐसा नहीं करते सिर्फ कोस कर मुस्कुराते हुए सो जाते हैं. हमारे देखते हुए कितने देश बरबाद हो गए हैं मगर हम हैं और रहेंगे इसलिए ये बहुरूपिये... खैर जाने दीजिये.
किसी का त्याग और बलिदान व्यर्थ नहीं जाता सीमा पर गोली खा कर मरने वाले के गीत गा कर कोई राष्ट्र को बचाता है तो कोई रोटी कमाता है. कारखाने में काम करने वाले मजदूर की जान की कीमत सिपाही की जान से कम नहीं होती है. आप क्रांतिकारी परिवर्तन के रोमांटिसिज्म में जा रहे हैं . अपने आस पास के लोगों को पहचानिए और ना भी पहचाने तो कुछ ना हुआ तो आपको भी जावेद साहब के शब्दों में तजुर्बा तो होगा ही. मेरे लिए मेजर राजरिशी एक बड़ा योद्धा है, बना रहे...
मेजर साब,
ReplyDeleteग़ज़ल अच्छी थी. आपकी भावना को सलाम करता हूँ. जहाँ तक बात शहीदों को याद रखने की है तो ये विश्वास रखिये कि सोमनाथ शर्मा से ले कर मोहित तक हर शहादत, जो देश की रखवाली का रोले प्ले कर जुकी है, कहीं किसी नौजवान, किसी सिविलियन, किसी फौजी, किसी ड्राईवर, किसी बैंक अधिकारी, किसी खिलाड़ी, किसी लेखक और अलहदा 'किसियो' को प्रेरित करती रहती है. महू का रहने वाला हूँ मैं, मैने मेरे सिविलियन मित्रो को इन्दोरी हवाबाजो से बहस और मारपीट करते देखा है, देश के नाम के लिए ... इतनी आसानी से ये बात नहीं मानूंगा कि शहीदों को भुला दिया गया है. देश में हमारे रोटी-कपडे से लेकर जाती-समाज की इतनी उलझने है कि इंसान फंसा रहता है उसमे....लेकिन जब कभी मौका मिलता है तो याद करता है वो भगत को ...सोमनाथ को ...मोहित को ! आशा, हुज़ूर बरक़रार है ! और आशा में जादू होता है ! भारत जादू कर सकता है !
-नैमित्य
उस दिन लाईट ने धोखा दे दिया तो टी०वी० पर नही देख पाई थी कार्यक्रम...! मगर अखबार में मोहित और मेजर सूरी का नाम पढ़ा था।
ReplyDeleteपिंकू ने पूछा भी कि आपके वीर जी को क्यो नही मिला..मैने कंधे उचका दिये और मन में जो सोचा वो बता चुकी हूँ।
ये शेर मुझे किसे भूल सकता है
पहली बार रात का खाना खाते समय ये शेर मैसेज बॉक्स में आया था
चीड़ के जंगल खड़े थे देखते लाचार से
गोलियाँ चलती रहीं इस पार से उस पार से
थोड़ी देर को हम तीनो के हाथ निवालो के साथ रुक गये थे। मुझे याद नही कि कोई और शेर आपका मेरी ज़ुबाँ पर इससे ज्यादा आया होगा। पहली भी कह चुकी हूँ कि उस बार की तरही मे मै इसे हसिल ए मुशायरा का दर्ज़ा देना चाह रही थी।
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ReplyDeleteयहाँ "महामहीम" विशेषण राष्ट्रपति के लिये इस्तेमाल होता है...और हर साल छब्बीस जनवरी को राष्ट्रपति ही देते हैं अवार्ड लाल किले की प्राचीर पे।
please get YOUR facts straight!
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मित्र मेरे,
गलती छोटी हो और दुहराई जाये तो दुख होता है.खैर,आप यदि मानते है कि २६ जनवरी को महामहिम "लाल किले" की प्राचीर से सम्मान वितिरित करते है तो मैं आप के सामान्य Gyaan को चुनौती नहीं देना चाहता.But thats not the way we in arms react to indication of our small faults(may be oversights)एक बार पुनः कहुंगा."जोश के साथ" होश" बहुत शुभकामनाओं एवं आदर सहित.
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आपकी सूचनार्थ, गणतंत्र दिवस का सारा आयोजन 'राजपथ' एवं 'अमर जवान ज्योति' परिसर तक ही सीमित रह्ता है."लाल किला" पर कार्यक्रम का आयोजन १५ अगस्त को होता है.
Any way never mind carry on regardless!
कल रात एक बहस सुन रहा था ...आर आर एस ने कहा के पूरा देश भारत वासियों का है .कोई भी कही भी जा कर रह सकता है ....यानी ये बात भी अब कअहनी पड़ेगी....टी चैनल विषय से भटक कर इसे राजनीति पर ले आये......यानी की अगर इसी पार्टी ने अगर एक सही बात कह भी दी तो उसे समर्थन न देकर विषय से हटकर बहस......खैर कश्मीर गया तो अलग अलग प्रान्तों से आये जवानो को राइफल थामे खड़े देखा .गर वो ये सोचने लगे के मै क्यों यहाँ खड़ा रहूँ .....दरअसल राज ठाकरे जैसे लोग डंडे के यार है ...मुंबई में पच्चीस हज़ार की पोलिस फ़ोर्स है ...पांच सौ गुंडों को फेस नहीं कर सकता ....यानी कानून तो है पर उसे अमल में लाने के लिए विल पावरर की कमी है .खैर मुद्दा दूसरा है ...श्रीलंका में पोस्टेड रहे अपने कजिन से मैंने एक बार पूछा था ...आम आदमी में इतनी कृतघ्नता देखकर बुरा नहीं लगता ?उसने कहा था सब हमारे समाज की हिस्सा है ...हमारी कृतघ्नता अलग अलग चीजो के लिए अलग अलग होती है ..मसलन हमारी आर्मी भी कभी कभी शहीदों को पेट्रोल पम्प अलोट करवाने में वो तेजी नहीं दिखाती ...... .वैसे भी हिन्दुस्तानी खून में कृतघ्नता ही है ....कुछ प्रोफेशन आदमी वाह- वाही के लिए नहीं चुनता ....हाँ मिलती है तो अच्छा लगता है ....सबका अपना अपना जनून होता है ....
ReplyDeleteफिर उसने कहा ....देश भक्ति महज़ राइफल उठाकर बोर्डर पर खड़े होना नहीं है .....अगर आप अपना काम इमानदारी से करे तो वो भी देशभक्ति है.ईमानदारी से टेक्स भरे वो भी देशभक्ति है ....सरकारी संपत्ति की रक्षा करे वो भी देशभक्ति ही है......
जानते हो अब प्रायोजित देश्भाक्तिया होने लगी है ..वही जिसकी बात पंकज जी कर रहे है ...कृतघ्नता की एक बड़ी मिसाल उस वक़्त थी जब देश के एक प्लेन का अपरहण कर उसे कांधार ले जाया गया था.....प्लेन में मौजूद सवारियों के रिश्तेदारों ने पी एम् आवास के सामने उस नाजुक घडी में फूहड़ प्रर्दर्शन कर उस नाजुक घडी में सरकार को ओर मुश्किल में डाला था .....
२६ जनवरी ओर १५ अगस्त अब छुट्टी के दिन होने लगे है ....सोचो संसद पर हमला करने वाला अब भी बहसों मुबाहिसो में अटका है ...यानी जो अपराध अपराध है उसे भी धर्म के पलड़े में रखकर माप तौल की जा रही है ......कसाब जेल में बैठकर हँसता है .ओर हम खाली लफ्फाजी करते है ...
प्यारेलाल,
ReplyDeleteपहले एक हिन्दुस्तानी की तरह आई और लिख के चली गयी थी, आज दीदी बन के आयी हूँ.
वैसे तो आपसे आपकी ब्लॉग के पोस्टस के बारे में ईमेल से चिठ्ठी-पत्री हो ही जाती है, पर आज यहाँ लिखने का मन हो रहा है :)
सबसे पहली और आखिरी बात कि आप अपना और अपने साथियों का ख्याल रखियेगा ... और आप सब सदैव विजयी हों और दीर्घायु हों!
जीते रहिये, जीतते रहिये !
आमीन!
अब बात करते हैं कि ज़िंदगी कब, कितनी फेयर है ... तो बात ये है गौतम कि जो फेयर नहीं है that should not matter to us... we have no time to waste on that...at least not now...
किसी दिन लंबा ख़त लिखूंगी इसके बारे में ...
---
प्यारेलाल, अब वह जो मुझे बेहद प्रिय है... आपका लेखन...
याद नहीं है क्या बात थी पर शायद सुबीर भैया का ये वाला मुशायरा मैंने मिस कर दिया था, सो बहुत-बहुत emotional experience है आपको यहाँ पढ़ना, इस ग़ज़ल से झांकते हुए आपकी कर्मभूमि को देखना, आपके साथ सफ़र करना :
चीड़ के जंगल खड़े थे देखते लाचार से
गोलियाँ चलती रहीं इस पार से उस पार से
मिट गया इक नौजवां कल फिर वतन के वास्ते
चीख तक उट्ठी नहीं इक भी किसी अखबार से
कितने दिन बीते कि हूँ मुस्तैद सरहद पर इधर
बाट जोहे है उधर माँ पिछले ही त्योहार से
अब शहीदों की चिताओं पर न मेले सजते हैं
है कहाँ फुरसत जरा भी लोगों को घर-बार से
मुट्ठियाँ भीचे हुये कितने दशक बीतेंगे और
क्या सुलझता है कोई मुद्दा कभी हथियार से
मुर्तियाँ बन रह गये वो चौक पर, चौराहे पर
खींच लाये थे जो किश्ती मुल्क की मझधार से
बैठता हूँ जब भी "गौतम" दुश्मनों की घात में
रात भर आवाज देता है कोई उस पार से
...क्या लिखती है एक दीदी जब सीमा पे से एक छोटा भाई ऎसी ग़ज़ल लिखता है... मुझे नहीं पता ...!
राज साहब
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा ग़ज़ल लिखी है
दिल की किस गहराई से लखी है इस का सिर्फ
अनुमान ही लगाया जा सकता है|
बहुत दर्द है रचना में
हर शेर काबिले तारीफ है |
अब शहीदों की चिताओं पर न मेले सजते हैं
है कहाँ फुरसत जरा भी लोगों को घर-बार से
बिलकुल सही कहा अपने
आपको एक जोरदार सेल्यूट
itihaas ne bahut se bahaduro ko na keval nazarandaaj kiyaa he balki unhe bhulaa hi diya he..abhi pichhale dino me 'aazaadi ki kaal kothari' namak pustak padhh rahaa tha jisame asankhya veero ka koi ata pataa nahi, kintu sahi mayano me hame unhi ki shahadat se aazaadi mili. kher..ab afsos nahi kartaa me esaa hone se..yah durbhagya he is desh ka..,kintu apne star par is durbhagya ko me nahi dhhota..,jitani aoukaat he meri..us lihaaz se yaad bhi rakhataa hu aour apna kartavya bhi nibhataa hu...thik usi tarah jis tarah se gumnaam ho gaye mere vishudhdha deshpremi.
ReplyDelete....aour shaayad un purskaaro me pdam purskaar dekh kar hi me bahut jalaa..apni jalan ko kavita ke roop me prakat bhi kia he blog par, kyoki blog hi madhyam he jnhaa apni aatmaa ko utaar sakataa hoo.
aapki gazal aur aapke bhaav dono mere liye tirange ki tarah he.
@ktheleo
ReplyDeletemy sincere apology...it was a blunder.in your comment, i could see only "mahamaheem" and didn't notice the word "laal kila"...necessary amendments have been done.
thanx for tolerating me!
मरणोपरांत.......मोहित शर्मा को अशोक चक्र......!
ReplyDeleteजम्मू कश्मीर के हफरुदा जंगल चीड के पेड़ों के बीच आतंकियों के साथ एक मुठभेड़ में शहीद हुए माहित को अशोक चक्र मिलना देश की श्रद्धांजलि जरूर है.........मगर मेजर साहब आपके सवालात सीने के आर पार हो गए..........!
पैमाना तो खैर कोई क्या जाने बहदुरी के..............!
ग्लैमर का जोर है..........सो यह विषंगति यहाँ भी होगी...........मगर एक बात कहूँगा..............हमारे दिल में जो इज्ज़त सरहद पर जान को देने वालों के लिए है क्या वो कभी पापड़-चिप्स-फेयरनेस क्रीम बेचने वाले ले पाएंगे.........? कभी नहीं......!
"...इधर इन समस्त विसंगतियों की वजह से ये अचानक मेरे बाँयें हाथ में टीस क्यों बढ़ आती है? जाने क्यों...??"
समझ सकता हूँ दोस्त............!
ग़ज़ल के बोल और अभिव्यक्ति मन को छू गयी......देर तक जाने क्या क्या सोचता रहा.......! मेजर साहब आप वाकई कलम और कलेजे दोनों के धनी हैं...!
चीड़ के जंगल खड़े थे देखते लाचार से
गोलियाँ चलती रहीं इस पार से उस पार से..........
मिट गया इक नौजवां कल फिर वतन के वास्ते
चीख तक उट्ठी नहीं इक भी किसी अखबार से
सच है मेजर..........शहीद अखवारों की रीडरशिप नहीं बढ़ाते.....तो अखवार बहला उन्हें क्यों छापें ?
बैठता हूँ जब भी "गौतम" दुश्मनों की घात में
रात भर आवाज देता है कोई उस पार से
i missed you on 26 jan maj gautam its because of people like you we celebrate all these days with such pomp and show thank you
ReplyDeleteकई बार रचना इस तरह प्रभावित करती है कि तुरंत कोई भी टिप्पणी नहीं करते बनती.आँखों पे नमी भारी हो जाती है. आपकी चोट खायी लेखनी ने ऐसा असर किया कि कुछ लिखते न बना.अब बिना पोस्ट पढ़े लिख रही हूँ.या ग़ज़ल से नज़रे छुपा के लिख रही हूँ.जब चीड़ के जंगल ही नहीं भूल पाएंगे तो कोई और कैसे भूले भला.
ReplyDeleteबैठता हूँ जब भी "गौतम" दुश्मनों की घात में
रात भर आवाज देता है कोई उस पार से.
उनकी आवाज़े बेचैन सी करती है,
कैफ़ी आजमी -
हो जो मेरी तरह जिया करते है,कब मरते है.
थक गया हूँ,मुझे सो लेने दो, रोते क्यूँ हो.
सोके भी जागते रहते है,जांबाज़ ,सुनो.
व्यवस्था के प्रति आपका आक्रोश जायज़ है. ताज या नरीमन प्वाइंट के जांबाजों की शहादत महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि उस शहादत का आंखों देखा हाल मीडिया ने जनता तक पहुंचाया, लेकिन उन शहीदों को कोई जान भी नहीं पाता जो बर्फीले इलाकों में कितने कष्ट झेलते हुए देश के लिये शहादत देते हैं. लेकिन सच मानिये गौतम जी, जब यहां भीषण ठंड पड रही थी , तब मुझे कश्मीर, कारगिल और लेह जैसी सीमाओं पर तैनात जवानों की ही याद आई.
ReplyDeleteगज़ल का हर शेर तकलीफ़ बयान कर रहा है-
मुट्ठियाँ भीचे हुये कितने दशक बीतेंगे और
क्या सुलझता है कोई मुद्दा कभी हथियार से
कितने स्पष्ट भावों को सम्प्रेषित कर रही है ये गज़ल.
कल मैं कुछ तल्ख़ था, मानवीय कमजोरी समझिये... बात आपकी ग़ज़ल पर कहनी चाहिए थी. कल की रात कार्यालय की पहली मंजिल के कमरे में बैठे हुए खिड़की से बाहर देखते और लेपटोप के स्क्रीन पर झांकते हुए बीती. एक कहानी मुझे कई दिनों से गुदगुदा रही थी किन्तु आपके पोस्ट पर लिखे गए निरर्थक ने मुझे कुछ और सोचने ना दिया. अब क्षमाप्रार्थी हूँ और यही कहना चाहता हूँ कि मैं इस पीढी के बेहतरीन और उम्मीदों भरे शायर से संवाद का सौभाग्य भोग रहा हूँ. जिनके सानिध्य से आप ग़ज़ल को संवार रहे हैं उनका नाम भी दुनिया में बना रहे और आपकी ग़ज़ल इस रहती दुनिया के बाद भी आबाद रहे.
ReplyDeleteतीन दिनों से इस पोस्ट के साथ हूँ... लेकिन अब तक कोई राय नहीं बना पाया... दोनों पक्ष उतने ही उजले हैं... अँधेरे वाले भी और उम्मीद वाले भी... बेशर्मी से कहता हूँ हम नहीं रोये आपकी पोस्ट पढ़कर, और ये आदत अब हमें लगा लेनी चाहिए...
ReplyDeleteयही थी हमारी ईमानदार और बेबाक टिप्पणी
ReplyDeleteमैं कुछ भी कहना नहीं चाहता बस बहन जी की पहली टिपण्णी को अपना मान रहा हूँ ... वही आपके बारे में चाहता हूँ मैं भी स्वार्थी हूँ आपकेलिये ...और पिहू भाभी और अंकल और आंटी के लिए ...बस
ReplyDeleteअर्श
This is one of your Masterpieces, Gautam.
ReplyDeleteRC
गौतम, तुम्हारी बात सही है साथ ही यह भी सच है कि किसी जांबाज़ ने जान देते समय पुरस्कार के बारे में नहीं सोचा होगा. वीरों के पुरस्कार पीछे छूटे लोगों के लिए होते हैं देने वालों के भी और लेने वालों के भी. उनकी तुलना सिर्फ लेने-देने वाले पुरस्कार से कैसे हो सकती है?
ReplyDeleteआप लिखते रहें. जो साथ में लड़ नहीं सकते वे पढ़कर अपनापा महसूस कर सकते हैं और दूर से ही सही सैनिकों को प्रणाम तो कर ही सकते हैं.
गौतम जी , हम अपने जांबाजों को भूले नहीं हैं ... उनकी याद को दिल में रखे हुए अभी २६ जनवरी पर कार्यक्रम भी किया था ... जिसका मकसद हमेशा ही अपने बच्चों को इन बहादुर सैनिकों की शहादत को , उनकी बहादुरी को हमेशा याद रखना और उनका सम्मान करना होता है ...जिससे कि हम भी अपने बच्चों को आप जैसा बहादुर इंसान बनकर देश के लिए कुछ करने को प्रेरित कर सकें ... फिर भी अभी हमे बहुत से बदलाव कि जरूरतें हैं .... इस तरह के कार्यक्रम महज डांस और देशभक्ति गीत गा कर पूर्ण कर दिए जाते हैं ...
ReplyDeleteकई बार आपसे पूछने का सोचा कि २६ जनवरी पर दिए जाने वाले पदक किस आधार पर दिए जाते हैं .... किस तरह बहादुरी को आँका जाता है .... पदकों का क्रम तो पता था परन्तु वीरता का क्रम क्या है ...?
आपकी ग़ज़ल ने मुझे ही वो चीड का पेड बना दिया जो लाचार खड़ा गोलियों कि बोछार को देख रहा हो ... जिसमे कोई निर्दोष मारा गया ...... बदन में कंपकंपी सी उठती रही मगर आंसू धोखा दे रहे थे ....बस क्रोध की अग्नि जल रही थी
... समझ नहीं आता ये सियासती चालें कब तक हमारे भाई और बेटों का क़त्ल करवाती रहेंगी ... एक बार.. बस एक बार सब खली पीली बातें करने वाले नेताओं को अपनी वर्दी पहना कर अपनी जगह क्यूँ नहीं खड़ा कर देते हैं आप सब ... मंजर देख कर ही न उन्हें हार्ट अटैक हो जाये तो कहना .... क्यूँ बार बार ' अमन की आशा ' की पहल हम ही करें .... ताली दो हाथ से बजती है एक से नहीं ... दोस्ती करने के लिए भी कम से कम दो इंसानों का होना जरुरी है और दुश्मनी के लिए भी .,... हम ही क्यों दोस्ती की पहल करते हैं जबकि दूसरा दुश्मनी निभा रहा हो ....
बस पदक देकर और श्रधान्जली अर्पित कर हमारा कर्तव्य पूरा नहीं हो जाता ... उनके परिवार को सीने से लगाओ तो जाने ...
" सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है के ये सूरत बदलनी चाहिए ...."
आवेश में कुछ ज्यादा कह गयी हूँ तो क्षमा प्रार्थी हूँ ...
मुर्तियाँ बन रह गये वो चौक पर, चौराहे पर
ReplyDeleteखींच लाये थे जो किश्ती मुल्क की मझधार से
Aapko padhna ek alag anubhav hota hai..kab shur karti hun aur kab khatm hota hai,pata nahee chalta!
har rachna ki tarah yeh bhi behtarin hai
ReplyDeleteमेजर साहब, बलिदान देना फौजियों का काम है और उंगली कटवाकर शहीद बनना हमारे नेताओं का और हम सब भी इस पाप में भागीदार हैं। सरकारी अवार्डों की निष्पक्षता सब को मालूम है। जिन रणबांकुरों ने हंसते-हंसते प्राण न्यौछावर कर दिये, उनके परिजनों की कोई नहीं सोचता और इस आधुनिक युग के ग्लैमर के देवता हर जगह बाजी मार जाते हैं।
ReplyDeleteलौबिईंग जिंदाबाद।
जब कभी रोड पर मिलिट्री का काफिला गुजरता दिखाई देता है, बेटे को जोर से ’जय-हिंद’ बोलने के लिये कहता हूं और जब जवाब में कोई वर्दी वाला वेव करता है तो मुझे और मेरे बेटे को तो लगता है कि इससे बडा पुरस्कार हमारे लिये हो ही नहीं सकता।
जय हिंद
पोस्ट के साथ कई दिन से हूँ.कई टिप्पणियाँ जटिल सवाल खड़े करती है.मथती है.पढता हूँ बार बार.
ReplyDeleteजितना अपनी बात में कहा आपने उससे कई कई गुना ग़ज़ल कह जाती है.
फिर आये थे मेजर साब...
ReplyDeleteग़ज़ल के लिए नहीं...
ग़ज़ल तो याद है शायद आपसे भी ज्यादा.....
...पर कमेंट्स पर एक और नज़र डालनी थी...
सो डाल ली...
:)
मेजर सुरेश सूरी को कीर्तिचक्र, मेजर आकाशदीप को शौर्यचक्र और मेजर ऋषिकेश रमानी को सेनामेडल से नवाजा गया है- तीनों के तीनों मरणोपरांत। ईश्वर जाने कौन-से इंच-टेप द्वारा इन तीन जांबाजों की बहादुरी को नापा गया...!!! वहीं दूसरी तरफ एक नौटंक, जो किसी करीना नामक बाला से इश्क लड़ाने के बाद बचे हुये समय में एक विदेशी कंपनी के बने आलू-चिप्स के नये फ्लेवर को तलाशने में गुजारता है, पद्मश्री ले जाता है।
ReplyDeleteक्या कहें, मेरा भारत महान ?
गज़ल बढिया है आपकी टीस को उजागर करती हुई ।
maalum nahi kyun par pata nahi ... laptop ke keyboard par ek tapki boond dekh aankho ko chua to paya ki "nam" hai.... aascharyajanak roop se SACH par behad kasila... shukriya aise man ke bhaavon ko shabd dene ke liye... aapse ek baar baat zaroor karna chahungi... mera email id hai tandon.reetika@gmail.com.
ReplyDeleteपुरस्कार तो मज़ाक बन गये है, इनका कुछ नहीं हो सकता।
ReplyDeleteगज़ल बहुत ही जबरदस्त है. सलाम आपको!
सभी जाबांज शहीदों को सादर नमन।
saare vichar aapki rachna ki tarah marmik hai aur main ek katar se padhti jaa rahi thi sabhi ,aur gahre soch me padh gayi sach aankhe nam kar dene wali rachna hai ,is rachna ki itni tarif suni rahi ki dhoondh kar padhna padha ,main kya kahoon ?sirf mahsoos kar sakti hoon aapke saamne to yahan abhi bachchi hoon .sirf padhna aur sikhna hai .
ReplyDeletegautam bhaiya....behad umda ghazal hai... ek ek sher kah raha hai ki bhoge hue yatharth se badhkar koi khayal nahi ho sakta.... kudoz.....
ReplyDeleteswapnil