अब ग़ज़ल की बारी है। विगत कुछ प्रविष्टियों में इधर-उधर की सुनाने के बाद अब एक ग़ज़ल। पुरानी है, मेरे चंद साथियों के लिये जो श्री पंकज सुबीर जी के ब्लौग के नियमित पाठक हैं| पुरानी ग़ज़ल नये लिबास में कि मतले में बदलाव है और चंद अशआर नये जोड़े हैं। जानता हूँ कि मेरे कुछ कवि-मित्र और कुछ एक बुद्धिजीवी साथी नाक-भौं सिकोड़ेंगे इन सस्ते रूमानी शेरों पर। जानता हूँ...फिर भी खास उन्हीं बंधुओं को समर्पित ये ग़ज़ल कि प्रेम-चतुर्दशी का फ्लेवर उतरा नहीं है...कि प्रेम से ज्यादा शाश्वत और प्रेम से ज्यादा सामयिक कुछ भी नहीं है...कि भटकी सामाजिकता और छिछली राजनीति में डगमगाते मानवीय-संतुलन के लिये ये सस्ते रुमानी हुस्नो-इश्क वाली ग़ज़ल भी बीच-बीच में सही बटखरे लेकर आती है...कि तल्ख और तीखे तेवरों के मध्य तनिक जायका बदलने के लिये इन शेरों की उपस्थिति आवश्यक है।...तो इन तमाम "कि" की खातिर पेश है ये ग़ज़ल:-
ये बाजार सारा कहीं थम न जाये
न गुजरा करो चौक से सर झुकाये
कोई बंदगी है कि दीवानगी ये
मैं बुत बन के देखूँ, वो जब मुस्कुराये
समंदर जो मचले किनारे की खातिर
लहर-दर-लहर क्यों उसे आजमाये
सितारों ने की दर्ज है ये शिकायत
कि कंगन तेरा, नींद उनकी उड़ाये
मचे खलबली, एक तूफान उट्ठे
झटक के जरा जुल्फ़ जब तू हटाये
हवा जब शरारत करे बादलों से
तो बारिश की बंसी ये मौसम सुनाये
हवा छेड़ जाये जो तेरा दुपट्टा
जमाने की साँसों में साँसें न आये
हैं मगरूर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
भला ऐसे में कौन किसको मनाये
उफनता हो ज्वालामुखी जैसे कोई
तेरा हुस्न जब धूप में तमतमाये
...और ग़ज़ल के बाद हमेशा की तरह इस बहरो-वजन पर आधारित कुछ प्रसिद्ध फिल्मी गीतों का जिक्र। इस बहरो-वजन(मुतकारिब की चार रुक्नी बहर) पर ढ़ेरों फिल्मी गीत याद आते हैं। महेन्द्र कपूर का गाया मेरा सर्वकालीन पसंदीदा गाना "मेरा प्यार वो है कि मरकर भी तुमको"...फिल्म मासूम का "हुजूर इस कदर भी न इतरा के चलिये"...किशोर कुमार का गाया "हमें और जीने की चाहत न होती"....और रफ़ी साब के उस प्रसिद्ध युगल-गीत "वो जब याद आये बहुत याद आये " का मुखड़ा(सिर्फ मुखड़ा, अंतरे किसी और बहर में हैं)। अरे हाँ, जगजीत सिंह की गायी वो जबरदस्त हिट नज़्म "वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी " भी इसी बहरो-वजन पे तो है। किंतु इस बहरो-वजन का जिक्र फिल्म मुगले-आज़म के गीत "मुहब्बत की झूठी कहानी पे रोये " के बगैर पूरा नहीं हो सकता है। ऊपर वर्णित तमाम गानों को "मुहब्बत की झूठी कहानी पे रोये" की धुन पे गाकर देखिये एक बार- बस मजे के लिये। इस बहरो-वजन पर लिखी गयी किसी भी ग़ज़ल को आराम से इन धुनों पर गुनगुनाया जा सकता है।
इसी जमीन पर मशहूर शायर भभ्भड़ भौंचक्के जी की एक बेहतरीन ग़ज़ल और होली का मूड लाती एक जबरदस्त हज़ल के लिये यहाँ क्लीक करें। शायर का असली नाम जानने के लिये उस पोस्ट की टिप्पणियों को गौर से पढ़ें। फिलहाल इतना ही। होली की आपसब को अग्रिम रंगभरी शुभकामनायें!
समंदर जो मचले किनारे की खातिर
ReplyDeleteलहर-दर-लहर क्यों उसे आजमाये
क्यों क्यों क्यों
nice
ReplyDeleteवाह वाह!
ReplyDeleteहैं मगरुर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
ReplyDeleteभला ऐसे में कौन किसको मनाये....
ग़ज़ल और इस बहरो -वजन का कहना ही क्या ...!!
चमकता है अब भी मेरे माथे पर चाँद
ReplyDeleteजो उस रात तूने लबों से उगाये
सुबह सुबह....फरवरी के इन मौसमो में ...जिसे दुनिया बसंत कहते है ....रूमानी हो रहे हो......ओर कर रहे हो....खैर ऊपर वारे शेर को पढ़कर किसी का एक शेरयाद आ गया.......
उस माथे को चूमे कितने दिन बीते
जिस माथे पर उगता था एक चाँद
सुमन साहब को तुम्हारी ग़ज़ल बहुत पसंद आई है ...वैसे अगर वो nice को "Nice"लिखे तो ज्यादा खूबसूरत लगेगा ......नहीं....
हैं मगरुर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
ReplyDeleteभला ऐसे में कौन किसको मनाये
अह्हा!!वाह!! आनन्द आया.
सुंदर वासंती ग़ज़ल! बधाई!
ReplyDeleteहुम्म्म्म्म्म्म्म तो खास उन्हीं बंधुओं को समर्पित ये ग़ज़ल कि प्रेम-चतुर्दशी का फ्लेवर उतरा नहीं है।
ReplyDeleteलेकिन ये भी कहते हो कि प्रेम शाश्वत है तो फिर ये गज़ल सब के लिये हुयी कि नही?????????
अब आपकी गज़ल के लिये मैं तो कुछ कहने की स्थिति मे नही मगर गज़ल को बार बार पढ रही हूँ और आशीर्वाद पर आशीर्वाद दिये जा रही हूँ
हैं मगरुर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
भला ऐसे में कौन किसको मनाये....
समंदर जो मचले किनारे की खातिर
लहर-दर-लहर क्यों उसे आजमाये
वैसे मुझे पूरी गज़ल ही लाजवाब लगी कुछ अशआर पर् बहुत कुछ कहना चाहती हूँ ---- मगर अब इतना ही कहूँगी कि इसी तरह हंसते मुस्कुराते रहो। और ऐसी ही नायाब गज़लें लिखते रहो आशीर्वाद्
बुद्दिजीवी - बुद्धिजीवी
ReplyDeleteरुमानी - रूमानी
समाजिकता - सामाजिकता
मगरुर - मगरूर
सर्वकालिन - सर्वकालीन, सार्वकालिक
अग्रीम - अग्रिम
इतनी उम्दा शायरी के बाद होली के लिए इतने एडवांस में बधाई देकर क्यों भाग रहे हैं ? रंग और फाग से डरते हैं क्या ?
झटक के जरा जुल्फ़ जब तू हटाये (मरहब्बा !)
हवा छेड़ जाये जो तेरा दुपट्टा (दुपट्टा अब सिर्फ 'लापतागंज' में दिखता है :)
@ हैं मगरुर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
भला ऐसे में कौन किसको मनाये
चमकता है अब भी मेरे माथे पर चाँद
जो उस रात तूने लबों से उगाये
उफनता हो ज्वालामुखी जैसे कोई
तेरा हुस्न जब धूप में तमतमाये
कमाल है! उस्ताद कमाल !!
ग़जल की मन लगा कर पढ़ाई की है।
आखिरी शेर पर तो सचमुच वो याद आ गई जिसके हम बचपन में दीवाने थे।
बुद्धिजीवी कवि भले नाक सिकोड़ें, मुझ जैसे जोड़ुवा तुकबन्दों को तो ये ग़जल बहुत पसन्द आएगी।
ये गजल पहले पढ़ चुका हूँ.फिर पढ़कर उतना ही आनंद आया...मैं तीन शेरों का जिक्र करना चाहूंगा जो काफी दिनों तक याद रहेंगे...
ReplyDeleteसमंदर जो मचले किनारे की खातिर
लहर-दर-लहर क्यों उसे आजमाये
हैं मगरुर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
भला ऐसे में कौन किसको मनाये
उफनता हो ज्वालामुखी जैसे कोई
तेरा हुस्न जब धूप में तमतमाये
''चमकता है चाँद ..'' वाले शेर में वचन दोष है...या मुझे ही लग रहा है..???
बहुत अच्छी गज़ल है. कुछ शेर पहले भी पढ़ा था. जब कभी फिर पढूंगा इतनी ही अच्छी लगेगी. कुछ अशआर ऐसे होते हैं जो हमेश जवां होते हैं.
ReplyDeleteअच्छी गज़ल है गौतम, पर गौतम की गज़ल जैसी नहीं है...
ReplyDeleteआखिर उस्तादी प्रयोग, आपने दिखा ही दिया.
ReplyDeleteपर मैं इस शे'र पर क्या बोलूं...
उफनता हो ज्वालामुखी जैसे कोई
तेरा हुस्न जब धूप में तमतमाये
उठा लूँ यहाँ से... (मुझे भी तो हक़ किया है मेरे अग्रज ने )
गज़लों की इतनी समझ नहीं है.. वरना दो चार बात लिख ही डालता
ReplyDeleteक्या....... मेजर..........कहाँ कहाँ से ख्याल निकल लेते हैं आप.....अच्छे प्रतीकों में रच पली ग़ज़ल है यह......दो शेर तो मुझे बहुत जानदार
ReplyDeleteलगे.....
कोई बंदगी है कि दीवानगी ये
मैं बुत बन के देखूँ, वो जब मुस्कुराये
चमकता है अब भी मेरे माथे पर चाँद
जो उस रात तूने लबों से उगाये
नयी ग़ज़ल का बेसब्री से इन्तिज़ार है.....दोस्त!
उधर प्रशंसा कर आई थी...! इधर बस Nice से काम चलाइये....!
ReplyDeleteकोई बंदगी है कि दीवानगी ये
ReplyDeleteमैं बुत बन के देखूँ, वो जब मुस्कुराये
इस ग़ज़ल का हर शे’र ज़िन्दगी की ख़ूबसूरती तथा रिश्तों (प्रेम) की पाक़ीज़गी का अहसास मन को गहरे भिंगो देता है।
समंदर जो मचले किनारे की खातिर
ReplyDeleteलहर-दर-लहर क्यों उसे आजमाये
बहुत सुन्दर यह शेर विशेष रूप से पसंद आया बेहतरीन लिखते हैं आप शुक्रिया
चमकता है अब भी मेरे माथे पर चाँद
ReplyDeleteजो उस रात तूने लबों से उगाये
जिस ग़ज़ल में ऐसे एक से बढ़ कर एक खूबसूरत शेर हों उस ग़ज़ल को पढ़ कर अगर कोई नाक भौं सिकोड़े तो समझिये उसके नाक और भौं सही नहीं हैं...डिफेक्टिव हैं और इलाज़ मांगते हैं...ऐसे डिफेक्टिव लोगों की चिंता किये बगैर आप प्रेम की चाशनी में लिपटी ग़ज़लें लिखिए और खूब लिखिए....रोने धोने वाली ग़ज़लों को लिखने वालों की कोई कमी थोड़ी न है दुनिया में...इसे जितनी बार पढो हर बार पहले से अधिक आनंद आता है...
नीरज
सितारों ने की दर्ज है ये शिकायत
ReplyDeleteकि कंगन तेरा, नींद उनकी उड़ाये ..
मेजर साहब ये शेर कब से सस्ता हो गया ..... अच्छे अच्छों का पसीना छूट जाए इसको लिखने में ... नये शेर पुराने शेरॉन से आगे हैं कमाल के हैं .... आपको पूरे काशमीर के साथ होली की मुबारक ............
गौतम जी, आदाब
ReplyDeleteतरही की ये ग़ज़ल और इसका हर शेर....वाह
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हैं मगरुर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
भला ऐसे में कौन किसको मनाये
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हैं मगरुर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
भला ऐसे में कौन किसको मनाये
.............फ़िर से मुबारकबाद
गौतम जी सितारों ने की दर्ज शिकायत हमें इतनी बेहतरीन लगी कि हमने तो अपनी डायरी में लिख डाली जी। सच आप गजब की गज़लें लिखते हैं जी।
ReplyDeleteGazlon ke taur tarike to pata nahi ..par bahut achche lage aapke sher
ReplyDeleteचमकता है अब भी मेरे माथे पर चाँद
जो उस रात तूने लबों से उगाये
wah kya bat hai
हैं मगरुर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
ReplyDeleteभला ऐसे में कौन किसको मनाये...
waah,waah
'समंदर जो मचले किनारे की खातिर
ReplyDeleteलहर-दर-लहर क्यों उसे आजमाये'
सुंदर ग़ज़ल!
"कोई बंदगी है कि दीवानगी ये
ReplyDeleteमैं बुत बन के देखूँ, वो जब मुस्कुराये
कोई बंदगी है कि दीवानगी ये
मैं बुत बन के देखूँ, वो जब मुस्कुराये"-
ऐसे कुछ शेरों पर तो हम भी लहरिया गये ! बेहतरीन हैं गौतम भाई !
@गिरिजेश जी, @"बुद्धिजीवी कवि भले नाक सिकोड़ें, मुझ जैसे जोड़ुवा तुकबन्दों को तो ये ग़जल बहुत पसन्द आएगी।"
कौन बुद्धिजीवी ? चलिये आपको भी गज़ल पसन्द आयी, आप भी तुकबन्द हुए !
मचे खलबली, एक तूफान उट्ठे
ReplyDeleteझटक के जरा जुल्फ़ जब तू हटाये
पटना में जब ऐसे शेर कहते थे तो दोस्त दिल पर कटारी चलते कहते थे : "आये - हाए रज्जजा ! जियो " उसी फ्लेवर से साथ :):):)
@गिरिजेश जी,
ReplyDeleteनवाजिश करम, शुक्रिया, मेहरबानी...!!! तमाम अशुद्धियाँ सुधार दी गयी हैं। अपनी पारखी नजरों का करम यूं ही बनायें रखें सर्वदा-सर्वदा।
@कंचन,
दो नये जोड़े गये अशआरों पे, अब तुम्हारी टिप्पणी पढ़ लेने के बाद, लगता है कि खामखां इतरा रहा था।
चमकता है अब भी मेरे माथे पर चाँद
ReplyDeleteजो उस रात तूने लबों से उगाये !!!
लाजवाब !!! लाजवाब !!! लाजवाब !!!
सचमुच , प्रेम मौसम का मुहताज थोड़े न होता है....
यह तो कभी भी कहीं भी किसी भी मौसम में umad ghumad कर dil को dubo sakta है aur इस tarak shabdon में utar prawahit हो sakta है....
सुन्दर है ..बहुत सुन्दर नही :-)
ReplyDelete..अभी पटना में ही हैं की वापस घाटी में?
Roomaniyat se parhez to nahin par wo lutf nahin aaya jiske aadi ho chuke hain
ReplyDeletedilchisp...
ReplyDeleteमजेदार है...
ReplyDeleteजानता हूँ कि मेरे कुछ कवि-मित्र और कुछ एक बुद्धिजीवी साथी नाक-भौं सिकोड़ेंगे इन सस्ते रूमानी शेरों पर
ReplyDeleteमैं वीनस केशरी अपने पूरे होशोहवास में (बिना भांग खाए) ये मांग करता हूँ की इन शब्दों को वापस लिया जाए
ये शेर अगर सस्ते रूमानी शेर हैं तो मुझे शायद आज तक पढ़े साहित्य का गला घोटना होगा
"प्रेम से ज्यादा शाश्वत और प्रेम से ज्यादा सामयिक कुछ भी नहीं है.."
ReplyDeleteबिलकुल! .... ग़ज़ल पढ़ कर ठीक ऐसा ही लगा ...
हैं मगरूर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
ReplyDeleteभला ऐसे में कौन किसको मनाये
बहुत खूब
''nice''
ReplyDeleteमैं आजकल खुद ही रूमानियत की छोटी शिखर पर हूँ और ऊपर से ऐसे खुमारी वाले शे'र uffffffffffff वाली बात है आपके लहजे में ही ...शिकायत और लबों का चाँद ... चोरी कर लूँ तो कोई शिकायत ना न करना ... बधाई हो इन दो खुबसूरत अश'आर के लिए...वेसे ..nice sundar word hai ... magar har jagah naa lagayen bahan ji ko kahunga ...
ReplyDeleteअर्श
कोई बंदगी है कि दीवानगी ये
ReplyDeleteमैं बुत बन के देखूँ, वो जब मुस्कुराये
walllllllllllllah
हैं मगरूर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
भला ऐसे में कौन किसको मनाये
happy holi
देर से आने के लिए करबद्ध क्षमा चाहूगीं.
ReplyDeleteहैं मगरूर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
भला ऐसे में कौन किसको मनाये
चमकता है अब भी मेरे माथे पर चाँद
जो उस रात तूने लबों से उगाये
उफनता हो ज्वालामुखी जैसे कोई
तेरा हुस्न जब धूप में तमतमाये
बहुत लाजवाब. हर एक शेर वजन दार है
राज साहब
ReplyDeleteबहुर सुन्दर गजल
हर मिसरा उम्दा जितनी भी
तारीफ की जाये कम है
आभार
कोई बंदगी है कि दीवानगी ये
ReplyDeleteमैं बुत बन के देखूँ, वो जब मुस्कुराये
aha kya baat kahi hai
हवा छेड़ जाये जो तेरा दुपट्टा
जमाने की साँसों में साँसें न आये
waah ji bahut sachchi baat
चमकता है अब भी मेरे माथे पर चाँद
जो उस रात तूने लबों से उगाये
meetha sher hai
bahut meethi gazal
aisi gazal zarurat hai kuch kadwi teekhi baaton ke beech dhyaan rakhne ke liye ki ehsaas zinda hai
कोई बंदगी है कि दीवानगी ये
ReplyDeleteमैं बुत बन के देखूँ, वो जब मुस्कुराये
-awesome विरोधाभास कि पूजा करने वाला देवता हो गया.
सितारों ने की दर्ज है ये शिकायत
कि कंगन तेरा, नींद उनकी उड़ाये
-My favorite ! Since my type.
मचे खलबली, एक तूफान उट्ठे
झटक के जरा जुल्फ़ जब तू हटाये
-Normal kinda Duplate.
हवा जब शरारत करे बादलों से
तो बारिश की बंसी ये मौसम सुनाये.
-मुक़र्रर !! पूरे मानसून की प्रक्रिया कितनी काव्यात्म हो गयी है
हैं मगरूर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
भला ऐसे में कौन किसको मनाये
-बात तो सही, attitude भी अच्छा मगर....
मनाने रूठने के खेल में हम,
बिछड़ जायेंगे ये सोचा नहीं था,
चमकता है अब भी मेरे माथे पर चाँद
जो उस रात तूने लबों से उगाये..
oye hoye!!Masha allah...
कशिश"{दर्पण सुन रहे हो?} भरी आवाज में।
ReplyDelete:(
abhi tak savadhikaar surakshit??
galat baat !!
savadhikaar =Sarvaadhikaar.
ReplyDelete"हैं मगरूर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
ReplyDeleteभला ऐसे में कौन किसको मनाये"
वाह वाह करते हुए अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा हूँ.
गौतम जी, यूँ लगता है कि आप गाते अच्छा होंगे, और किताबों की तरह गानों का भी काफी शौक है आपको...और सबसे बड़ी बात..लगता है कि गा-गा के लिखते हैं गजल आप, तभी इतनी लय में होती है...
ReplyDeleteये जो आप गाने लिखते हैं अंत में एक दिन बैठकर ऐसे १००-१५० गाने लिख डालिए. मुझे वेरीफाई करना है सारे मेरे आईपॉड में हैं या नहीं :) और चतुर्दशी वाला फ्लेवर इतनी जल्दी थोड़े उतरेगा... आप ऐसे गजलें पढवाओगे तब तो उतरने से रहा... चढ़ और जाएगा.
ReplyDeleteगौतम जी,
ReplyDeleteये शेर विशेष रूप से अच्छे लगे।
कोई बंदगी है कि दीवानगी ये
मैं बुत बन के देखूँ, वो जब मुस्कुराये
समंदर जो मचले किनारे की खातिर
लहर-दर-लहर क्यों उसे आजमाये
चमकता है अब भी मेरे माथे पर चाँद
ReplyDeleteजो उस रात तूने लबों से उगाये..
आपके इस एक शे'र के लिए बार बार आता हूँ, कहानी का प्लाट बन गया है एक. आपकी नज़र:
एक भिखारी था .जवान था, एक देहरी पे बार बार जाता था भीख मांगने, देने वाली खूबसूरत थी, उसे उससे भीख मांगना अच्छा नहीं लगता था, पर मिलने की यही तो एक सूरत थी.
What say?
Gazab kee gazal pesh kee hai!
ReplyDeleteHoli mubarak ho!
आपको व आपके परिवार को होली की हार्दिक शुभकामनाएँ
ReplyDeleteक्या उपमायें हैं, ज्वालामुखी = हुस्न. गरमी का अहसास होने लगा है.
ReplyDeleteदेर से आने पर कहने को कुछ बचता ही नहीं ...
ReplyDeleteआप सबको पढ़ते पढ़ते लग रहा है कि
गजल लिखना बड़ी गोकि बड़ी श्रमसाध्य क्रिया है !
@चमकता है अब भी मेरे माथे पर चाँद
जो उस रात तूने लबों से उगाये ...
-------- यहाँ दिमाग की गरारी सही न फिटिया रही है , का पता
हमारा व्यक्तिगत लोचा ही हो !
@उफनता हो ज्वालामुखी जैसे कोई
तेरा हुस्न जब धूप में तमतमाये ....
----------- इसे कहते है कमाल ! भाव को गजब उतारा है आपने ! फ़िदा हूँ यहाँ !
इस बार रंग लगाना तो.. ऐसा रंग लगाना.. के ताउम्र ना छूटे..
ReplyDeleteना हिन्दू पहिचाना जाये ना मुसलमाँ.. ऐसा रंग लगाना..
लहू का रंग तो अन्दर ही रह जाता है.. जब तक पहचाना जाये सड़कों पे बह जाता है..
कोई बाहर का पक्का रंग लगाना..
के बस इंसां पहचाना जाये.. ना हिन्दू पहचाना जाये..
ना मुसलमाँ पहचाना जाये.. बस इंसां पहचाना जाये..
इस बार.. ऐसा रंग लगाना...
(और आज पहली बार ब्लॉग पर बुला रहा हूँ.. शायद आपकी भी टांग खींची हो मैंने होली में..)
होली की उतनी शुभ कामनाएं जितनी मैंने और आपने मिलके भी ना बांटी हों...
दिल निकल के रख दिया सर जी . हम तो बड़े दिनों से आपको ढूंढ रहे थे . कल ही आपका ब्लॉग मिला पढ़ कर मन को बड़ा सुकून मिला और अच्छा लगा कभी हंसा तो कभी रो भी दिया . आप जैसा बढ़िया तो नहीं लिखता हूँ पर अच्छा लिखने वाले लोगों के ब्लॉग ज़रूर पढता हूँ . मैं आपका शुक्रिया करना चाहता हूँ की आपने भारतीय सेना के बारे में वो सभी बातें हमें बताई जो हम कभी नहीं जान पाते . एक सेल्युट हमारी तरफ से आपको और भारतीय सेना के हर उस जवान को जिसकी वजह से बाकि देश चैन की नींद सोता है .
ReplyDeleteजानता हूँ कि मेरे कुछ कवि-मित्र और कुछ एक बुद्धिजीवी साथी नाक-भौं सिकोड़ेंगे इन सस्ते रूमानी शेरों पर। जानता हूँ...फिर भी खास उन्हीं बंधुओं को समर्पित
ReplyDelete:)
:)
shukr hai ke ham aapke UATNE khaas nahin hain...
kyunki.....
प्रेम से ज्यादा शाश्वत और प्रेम से ज्यादा सामयिक कुछ भी नहीं .........
सहमत...
सहमत.....
सहमत.......
हैं मगरूर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
ReplyDeleteभला ऐसे में कौन किसको मनाये
बहुत सुन्दर गज़ल.
होली की अनन्त शुभकामनायें.
सितारों ने की दर्ज है ये शिकायत
ReplyDeleteकि कंगन तेरा, नींद उनकी उड़ाये.
मुहोब्बत को एक चाँद ही काफी था.... सुंदर शेर कहे हैं. ये महीना कुछ ऐसी व्यस्तताओं में बीता कि काम कुछ ना था रु खाट पे लेटे हुए भी ना थे. आज का कल में शायद आपकी अगली पोस्ट आती ही होगी ?
वाह क्या खूबसूरत मतला कहा है, ऐसा लग रहा है क़त्ल गुजरने वाला नहीं कहने वाला (आप) कर रहे हैं...........
ReplyDeleteऔर उसके बाद का हर शेर मोहब्बत की चाशनी में सराबोर है, जो शेर खासकर पसंद आये वो हैं,
"समंदर जो मचले किनारे की खातिर.........."
"हवा छेड़ जाये जो तेरा दुपट्टा........." वाह वाह, क्या मंज़र बना दिया है आँखों के सामने.
समंदर जो मचले किनारे की खातिर
ReplyDeleteलहर-दर-लहर क्यों उसे आजमाये
बहुत सुन्दर यह शेर विशेष रूप से पसंद आया बेहतरीन लिखते हैं आप शुक्रिया
Gazab kee gazal pesh kee hai!
ReplyDelete