22 February 2010

सितारों ने की दर्ज है ये शिकायत...

अब ग़ज़ल की बारी है। विगत कुछ प्रविष्टियों में इधर-उधर की सुनाने के बाद अब एक ग़ज़ल। पुरानी है, मेरे चंद साथियों के लिये जो श्री पंकज सुबीर जी के ब्लौग के नियमित पाठक हैं| पुरानी ग़ज़ल नये लिबास में कि मतले में बदलाव है और चंद अशआर नये जोड़े हैं। जानता हूँ कि मेरे कुछ कवि-मित्र और कुछ एक बुद्धिजीवी साथी नाक-भौं सिकोड़ेंगे इन सस्ते रूमानी शेरों पर। जानता हूँ...फिर भी खास उन्हीं बंधुओं को समर्पित ये ग़ज़ल कि प्रेम-चतुर्दशी का फ्लेवर उतरा नहीं है...कि प्रेम से ज्यादा शाश्वत और प्रेम से ज्यादा सामयिक कुछ भी नहीं है...कि भटकी सामाजिकता और छिछली राजनीति में डगमगाते मानवीय-संतुलन के लिये ये सस्ते रुमानी हुस्नो-इश्क वाली ग़ज़ल भी बीच-बीच में सही बटखरे लेकर आती है...कि तल्ख और तीखे तेवरों के मध्य तनिक जायका बदलने के लिये इन शेरों की उपस्थिति आवश्यक है।...तो इन तमाम "कि" की खातिर पेश है ये ग़ज़ल:-

ये बाजार सारा कहीं थम न जाये
न गुजरा करो चौक से सर झुकाये

कोई बंदगी है कि दीवानगी ये
मैं बुत बन के देखूँ, वो जब मुस्कुराये

समंदर जो मचले किनारे की खातिर
लहर-दर-लहर क्यों उसे आजमाये

सितारों ने की दर्ज है ये शिकायत
कि कंगन तेरा, नींद उनकी उड़ाये

मचे खलबली, एक तूफान उट्ठे
झटक के जरा जुल्फ़ जब तू हटाये

हवा जब शरारत करे बादलों से
तो बारिश की बंसी ये मौसम सुनाये

हवा छेड़ जाये जो तेरा दुपट्टा
जमाने की साँसों में साँसें न आये

हैं मगरूर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
भला ऐसे में कौन किसको मनाये

उफनता हो ज्वालामुखी जैसे कोई
तेरा हुस्न जब धूप में तमतमाये

...और ग़ज़ल के बाद हमेशा की तरह इस बहरो-वजन पर आधारित कुछ प्रसिद्ध फिल्मी गीतों का जिक्र। इस बहरो-वजन(मुतकारिब की चार रुक्नी बहर) पर ढ़ेरों फिल्मी गीत याद आते हैं। महेन्द्र कपूर का गाया मेरा सर्वकालीन पसंदीदा गाना "मेरा प्यार वो है कि मरकर भी तुमको"...फिल्म मासूम का "हुजूर इस कदर भी न इतरा के चलिये"...किशोर कुमार का गाया "हमें और जीने की चाहत न होती"....और रफ़ी साब के उस प्रसिद्ध युगल-गीत "वो जब याद आये बहुत याद आये " का मुखड़ा(सिर्फ मुखड़ा, अंतरे किसी और बहर में हैं)। अरे हाँ, जगजीत सिंह की गायी वो जबरदस्त हिट नज़्म "वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी " भी इसी बहरो-वजन पे तो है। किंतु इस बहरो-वजन का जिक्र फिल्म मुगले-आज़म के गीत "मुहब्बत की झूठी कहानी पे रोये " के बगैर पूरा नहीं हो सकता है। ऊपर वर्णित तमाम गानों को "मुहब्बत की झूठी कहानी पे रोये" की धुन पे गाकर देखिये एक बार- बस मजे के लिये। इस बहरो-वजन पर लिखी गयी किसी भी ग़ज़ल को आराम से इन धुनों पर गुनगुनाया जा सकता है।

इसी जमीन पर मशहूर शायर भभ्भड़ भौंचक्के जी की एक बेहतरीन ग़ज़ल और होली का मूड लाती एक जबरदस्त हज़ल के लिये यहाँ क्लीक करें। शायर का असली नाम जानने के लिये उस पोस्ट की टिप्पणियों को गौर से पढ़ें। फिलहाल इतना ही। होली की आपसब को अग्रिम रंगभरी शुभकामनायें!

62 comments:

  1. समंदर जो मचले किनारे की खातिर
    लहर-दर-लहर क्यों उसे आजमाये
    क्यों क्यों क्यों

    ReplyDelete
  2. हैं मगरुर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
    भला ऐसे में कौन किसको मनाये....
    ग़ज़ल और इस बहरो -वजन का कहना ही क्या ...!!

    ReplyDelete
  3. चमकता है अब भी मेरे माथे पर चाँद
    जो उस रात तूने लबों से उगाये

    सुबह सुबह....फरवरी के इन मौसमो में ...जिसे दुनिया बसंत कहते है ....रूमानी हो रहे हो......ओर कर रहे हो....खैर ऊपर वारे शेर को पढ़कर किसी का एक शेरयाद आ गया.......

    उस माथे को चूमे कितने दिन बीते
    जिस माथे पर उगता था एक चाँद


    सुमन साहब को तुम्हारी ग़ज़ल बहुत पसंद आई है ...वैसे अगर वो nice को "Nice"लिखे तो ज्यादा खूबसूरत लगेगा ......नहीं....

    ReplyDelete
  4. हैं मगरुर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
    भला ऐसे में कौन किसको मनाये

    अह्हा!!वाह!! आनन्द आया.

    ReplyDelete
  5. सुंदर वासंती ग़ज़ल! बधाई!

    ReplyDelete
  6. हुम्म्म्म्म्म्म्म तो खास उन्हीं बंधुओं को समर्पित ये ग़ज़ल कि प्रेम-चतुर्दशी का फ्लेवर उतरा नहीं है।
    लेकिन ये भी कहते हो कि प्रेम शाश्वत है तो फिर ये गज़ल सब के लिये हुयी कि नही?????????
    अब आपकी गज़ल के लिये मैं तो कुछ कहने की स्थिति मे नही मगर गज़ल को बार बार पढ रही हूँ और आशीर्वाद पर आशीर्वाद दिये जा रही हूँ
    हैं मगरुर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
    भला ऐसे में कौन किसको मनाये....

    समंदर जो मचले किनारे की खातिर
    लहर-दर-लहर क्यों उसे आजमाये
    वैसे मुझे पूरी गज़ल ही लाजवाब लगी कुछ अशआर पर् बहुत कुछ कहना चाहती हूँ ---- मगर अब इतना ही कहूँगी कि इसी तरह हंसते मुस्कुराते रहो। और ऐसी ही नायाब गज़लें लिखते रहो आशीर्वाद्

    ReplyDelete
  7. बुद्दिजीवी - बुद्धिजीवी
    रुमानी - रूमानी
    समाजिकता - सामाजिकता
    मगरुर - मगरूर
    सर्वकालिन - सर्वकालीन, सार्वकालिक
    अग्रीम - अग्रिम

    इतनी उम्दा शायरी के बाद होली के लिए इतने एडवांस में बधाई देकर क्यों भाग रहे हैं ? रंग और फाग से डरते हैं क्या ?

    झटक के जरा जुल्फ़ जब तू हटाये (मरहब्बा !)
    हवा छेड़ जाये जो तेरा दुपट्टा (दुपट्टा अब सिर्फ 'लापतागंज' में दिखता है :)

    @ हैं मगरुर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
    भला ऐसे में कौन किसको मनाये

    चमकता है अब भी मेरे माथे पर चाँद
    जो उस रात तूने लबों से उगाये

    उफनता हो ज्वालामुखी जैसे कोई
    तेरा हुस्न जब धूप में तमतमाये

    कमाल है! उस्ताद कमाल !!
    ग़जल की मन लगा कर पढ़ाई की है।
    आखिरी शेर पर तो सचमुच वो याद आ गई जिसके हम बचपन में दीवाने थे।

    बुद्धिजीवी कवि भले नाक सिकोड़ें, मुझ जैसे जोड़ुवा तुकबन्दों को तो ये ग़जल बहुत पसन्द आएगी।

    ReplyDelete
  8. ये गजल पहले पढ़ चुका हूँ.फिर पढ़कर उतना ही आनंद आया...मैं तीन शेरों का जिक्र करना चाहूंगा जो काफी दिनों तक याद रहेंगे...
    समंदर जो मचले किनारे की खातिर
    लहर-दर-लहर क्यों उसे आजमाये

    हैं मगरुर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
    भला ऐसे में कौन किसको मनाये

    उफनता हो ज्वालामुखी जैसे कोई
    तेरा हुस्न जब धूप में तमतमाये

    ''चमकता है चाँद ..'' वाले शेर में वचन दोष है...या मुझे ही लग रहा है..???

    ReplyDelete
  9. बहुत अच्छी गज़ल है. कुछ शेर पहले भी पढ़ा था. जब कभी फिर पढूंगा इतनी ही अच्छी लगेगी. कुछ अशआर ऐसे होते हैं जो हमेश जवां होते हैं.

    ReplyDelete
  10. अच्छी गज़ल है गौतम, पर गौतम की गज़ल जैसी नहीं है...

    ReplyDelete
  11. आखिर उस्तादी प्रयोग, आपने दिखा ही दिया.
    पर मैं इस शे'र पर क्या बोलूं...

    उफनता हो ज्वालामुखी जैसे कोई
    तेरा हुस्न जब धूप में तमतमाये

    उठा लूँ यहाँ से... (मुझे भी तो हक़ किया है मेरे अग्रज ने )

    ReplyDelete
  12. गज़लों की इतनी समझ नहीं है.. वरना दो चार बात लिख ही डालता

    ReplyDelete
  13. क्या....... मेजर..........कहाँ कहाँ से ख्याल निकल लेते हैं आप.....अच्छे प्रतीकों में रच पली ग़ज़ल है यह......दो शेर तो मुझे बहुत जानदार
    लगे.....
    कोई बंदगी है कि दीवानगी ये
    मैं बुत बन के देखूँ, वो जब मुस्कुराये
    चमकता है अब भी मेरे माथे पर चाँद
    जो उस रात तूने लबों से उगाये
    नयी ग़ज़ल का बेसब्री से इन्तिज़ार है.....दोस्त!

    ReplyDelete
  14. उधर प्रशंसा कर आई थी...! इधर बस Nice से काम चलाइये....!

    ReplyDelete
  15. कोई बंदगी है कि दीवानगी ये
    मैं बुत बन के देखूँ, वो जब मुस्कुराये
    इस ग़ज़ल का हर शे’र ज़िन्दगी की ख़ूबसूरती तथा रिश्तों (प्रेम) की पाक़ीज़गी का अहसास मन को गहरे भिंगो देता है।

    ReplyDelete
  16. समंदर जो मचले किनारे की खातिर
    लहर-दर-लहर क्यों उसे आजमाये
    बहुत सुन्दर यह शेर विशेष रूप से पसंद आया बेहतरीन लिखते हैं आप शुक्रिया

    ReplyDelete
  17. चमकता है अब भी मेरे माथे पर चाँद
    जो उस रात तूने लबों से उगाये

    जिस ग़ज़ल में ऐसे एक से बढ़ कर एक खूबसूरत शेर हों उस ग़ज़ल को पढ़ कर अगर कोई नाक भौं सिकोड़े तो समझिये उसके नाक और भौं सही नहीं हैं...डिफेक्टिव हैं और इलाज़ मांगते हैं...ऐसे डिफेक्टिव लोगों की चिंता किये बगैर आप प्रेम की चाशनी में लिपटी ग़ज़लें लिखिए और खूब लिखिए....रोने धोने वाली ग़ज़लों को लिखने वालों की कोई कमी थोड़ी न है दुनिया में...इसे जितनी बार पढो हर बार पहले से अधिक आनंद आता है...

    नीरज

    ReplyDelete
  18. सितारों ने की दर्ज है ये शिकायत
    कि कंगन तेरा, नींद उनकी उड़ाये ..

    मेजर साहब ये शेर कब से सस्ता हो गया ..... अच्छे अच्छों का पसीना छूट जाए इसको लिखने में ... नये शेर पुराने शेरॉन से आगे हैं कमाल के हैं .... आपको पूरे काशमीर के साथ होली की मुबारक ............

    ReplyDelete
  19. गौतम जी, आदाब
    तरही की ये ग़ज़ल और इसका हर शेर....वाह
    *****************************
    हैं मगरुर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
    भला ऐसे में कौन किसको मनाये
    *****************************
    हैं मगरुर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
    भला ऐसे में कौन किसको मनाये

    .............फ़िर से मुबारकबाद

    ReplyDelete
  20. गौतम जी सितारों ने की दर्ज शिकायत हमें इतनी बेहतरीन लगी कि हमने तो अपनी डायरी में लिख डाली जी। सच आप गजब की गज़लें लिखते हैं जी।

    ReplyDelete
  21. Gazlon ke taur tarike to pata nahi ..par bahut achche lage aapke sher
    चमकता है अब भी मेरे माथे पर चाँद
    जो उस रात तूने लबों से उगाये
    wah kya bat hai

    ReplyDelete
  22. हैं मगरुर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
    भला ऐसे में कौन किसको मनाये...
    waah,waah

    ReplyDelete
  23. 'समंदर जो मचले किनारे की खातिर
    लहर-दर-लहर क्यों उसे आजमाये'

    सुंदर ग़ज़ल!

    ReplyDelete
  24. "कोई बंदगी है कि दीवानगी ये
    मैं बुत बन के देखूँ, वो जब मुस्कुराये
    कोई बंदगी है कि दीवानगी ये
    मैं बुत बन के देखूँ, वो जब मुस्कुराये"-

    ऐसे कुछ शेरों पर तो हम भी लहरिया गये ! बेहतरीन हैं गौतम भाई !
    @गिरिजेश जी, @"बुद्धिजीवी कवि भले नाक सिकोड़ें, मुझ जैसे जोड़ुवा तुकबन्दों को तो ये ग़जल बहुत पसन्द आएगी।"
    कौन बुद्धिजीवी ? चलिये आपको भी गज़ल पसन्द आयी, आप भी तुकबन्द हुए !

    ReplyDelete
  25. मचे खलबली, एक तूफान उट्ठे
    झटक के जरा जुल्फ़ जब तू हटाये

    पटना में जब ऐसे शेर कहते थे तो दोस्त दिल पर कटारी चलते कहते थे : "आये - हाए रज्जजा ! जियो " उसी फ्लेवर से साथ :):):)

    ReplyDelete
  26. @गिरिजेश जी,

    नवाजिश करम, शुक्रिया, मेहरबानी...!!! तमाम अशुद्धियाँ सुधार दी गयी हैं। अपनी पारखी नजरों का करम यूं ही बनायें रखें सर्वदा-सर्वदा।

    @कंचन,
    दो नये जोड़े गये अशआरों पे, अब तुम्हारी टिप्पणी पढ़ लेने के बाद, लगता है कि खामखां इतरा रहा था।

    ReplyDelete
  27. चमकता है अब भी मेरे माथे पर चाँद
    जो उस रात तूने लबों से उगाये !!!

    लाजवाब !!! लाजवाब !!! लाजवाब !!!

    सचमुच , प्रेम मौसम का मुहताज थोड़े न होता है....
    यह तो कभी भी कहीं भी किसी भी मौसम में umad ghumad कर dil को dubo sakta है aur इस tarak shabdon में utar prawahit हो sakta है....

    ReplyDelete
  28. सुन्दर है ..बहुत सुन्दर नही :-)

    ..अभी पटना में ही हैं की वापस घाटी में?

    ReplyDelete
  29. Roomaniyat se parhez to nahin par wo lutf nahin aaya jiske aadi ho chuke hain

    ReplyDelete
  30. जानता हूँ कि मेरे कुछ कवि-मित्र और कुछ एक बुद्धिजीवी साथी नाक-भौं सिकोड़ेंगे इन सस्ते रूमानी शेरों पर


    मैं वीनस केशरी अपने पूरे होशोहवास में (बिना भांग खाए) ये मांग करता हूँ की इन शब्दों को वापस लिया जाए
    ये शेर अगर सस्ते रूमानी शेर हैं तो मुझे शायद आज तक पढ़े साहित्य का गला घोटना होगा

    ReplyDelete
  31. "प्रेम से ज्यादा शाश्वत और प्रेम से ज्यादा सामयिक कुछ भी नहीं है.."
    बिलकुल! .... ग़ज़ल पढ़ कर ठीक ऐसा ही लगा ...

    ReplyDelete
  32. हैं मगरूर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
    भला ऐसे में कौन किसको मनाये
    बहुत खूब

    ReplyDelete
  33. मैं आजकल खुद ही रूमानियत की छोटी शिखर पर हूँ और ऊपर से ऐसे खुमारी वाले शे'र uffffffffffff वाली बात है आपके लहजे में ही ...शिकायत और लबों का चाँद ... चोरी कर लूँ तो कोई शिकायत ना न करना ... बधाई हो इन दो खुबसूरत अश'आर के लिए...वेसे ..nice sundar word hai ... magar har jagah naa lagayen bahan ji ko kahunga ...



    अर्श

    ReplyDelete
  34. कोई बंदगी है कि दीवानगी ये
    मैं बुत बन के देखूँ, वो जब मुस्कुराये

    walllllllllllllah

    हैं मगरूर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
    भला ऐसे में कौन किसको मनाये

    happy holi

    ReplyDelete
  35. देर से आने के लिए करबद्ध क्षमा चाहूगीं.

    हैं मगरूर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
    भला ऐसे में कौन किसको मनाये

    चमकता है अब भी मेरे माथे पर चाँद
    जो उस रात तूने लबों से उगाये

    उफनता हो ज्वालामुखी जैसे कोई
    तेरा हुस्न जब धूप में तमतमाये

    बहुत लाजवाब. हर एक शेर वजन दार है

    ReplyDelete
  36. राज साहब

    बहुर सुन्दर गजल

    हर मिसरा उम्दा जितनी भी

    तारीफ की जाये कम है

    आभार

    ReplyDelete
  37. कोई बंदगी है कि दीवानगी ये
    मैं बुत बन के देखूँ, वो जब मुस्कुराये

    aha kya baat kahi hai



    हवा छेड़ जाये जो तेरा दुपट्टा
    जमाने की साँसों में साँसें न आये

    waah ji bahut sachchi baat


    चमकता है अब भी मेरे माथे पर चाँद
    जो उस रात तूने लबों से उगाये

    meetha sher hai

    bahut meethi gazal
    aisi gazal zarurat hai kuch kadwi teekhi baaton ke beech dhyaan rakhne ke liye ki ehsaas zinda hai

    ReplyDelete
  38. कोई बंदगी है कि दीवानगी ये
    मैं बुत बन के देखूँ, वो जब मुस्कुराये
    -awesome विरोधाभास कि पूजा करने वाला देवता हो गया.

    सितारों ने की दर्ज है ये शिकायत
    कि कंगन तेरा, नींद उनकी उड़ाये
    -My favorite ! Since my type.

    मचे खलबली, एक तूफान उट्ठे
    झटक के जरा जुल्फ़ जब तू हटाये
    -Normal kinda Duplate.

    हवा जब शरारत करे बादलों से
    तो बारिश की बंसी ये मौसम सुनाये.
    -मुक़र्रर !! पूरे मानसून की प्रक्रिया कितनी काव्यात्म हो गयी है

    हैं मगरूर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
    भला ऐसे में कौन किसको मनाये
    -बात तो सही, attitude भी अच्छा मगर....
    मनाने रूठने के खेल में हम,
    बिछड़ जायेंगे ये सोचा नहीं था,

    चमकता है अब भी मेरे माथे पर चाँद
    जो उस रात तूने लबों से उगाये..
    oye hoye!!Masha allah...

    ReplyDelete
  39. कशिश"{दर्पण सुन रहे हो?} भरी आवाज में।

    :(

    abhi tak savadhikaar surakshit??
    galat baat !!

    ReplyDelete
  40. "हैं मगरूर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
    भला ऐसे में कौन किसको मनाये"
    वाह वाह करते हुए अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा हूँ.

    ReplyDelete
  41. गौतम जी, यूँ लगता है कि आप गाते अच्छा होंगे, और किताबों की तरह गानों का भी काफी शौक है आपको...और सबसे बड़ी बात..लगता है कि गा-गा के लिखते हैं गजल आप, तभी इतनी लय में होती है...

    ReplyDelete
  42. ये जो आप गाने लिखते हैं अंत में एक दिन बैठकर ऐसे १००-१५० गाने लिख डालिए. मुझे वेरीफाई करना है सारे मेरे आईपॉड में हैं या नहीं :) और चतुर्दशी वाला फ्लेवर इतनी जल्दी थोड़े उतरेगा... आप ऐसे गजलें पढवाओगे तब तो उतरने से रहा... चढ़ और जाएगा.

    ReplyDelete
  43. गौतम जी,
    ये शेर विशेष रूप से अच्छे लगे।
    कोई बंदगी है कि दीवानगी ये
    मैं बुत बन के देखूँ, वो जब मुस्कुराये

    समंदर जो मचले किनारे की खातिर
    लहर-दर-लहर क्यों उसे आजमाये

    ReplyDelete
  44. चमकता है अब भी मेरे माथे पर चाँद
    जो उस रात तूने लबों से उगाये..

    आपके इस एक शे'र के लिए बार बार आता हूँ, कहानी का प्लाट बन गया है एक. आपकी नज़र:
    एक भिखारी था .जवान था, एक देहरी पे बार बार जाता था भीख मांगने, देने वाली खूबसूरत थी, उसे उससे भीख मांगना अच्छा नहीं लगता था, पर मिलने की यही तो एक सूरत थी.
    What say?

    ReplyDelete
  45. Gazab kee gazal pesh kee hai!
    Holi mubarak ho!

    ReplyDelete
  46. आपको व आपके परिवार को होली की हार्दिक शुभकामनाएँ

    ReplyDelete
  47. क्या उपमायें हैं, ज्वालामुखी = हुस्न. गरमी का अहसास होने लगा है.

    ReplyDelete
  48. देर से आने पर कहने को कुछ बचता ही नहीं ...
    आप सबको पढ़ते पढ़ते लग रहा है कि
    गजल लिखना बड़ी गोकि बड़ी श्रमसाध्य क्रिया है !
    @चमकता है अब भी मेरे माथे पर चाँद
    जो उस रात तूने लबों से उगाये ...
    -------- यहाँ दिमाग की गरारी सही न फिटिया रही है , का पता
    हमारा व्यक्तिगत लोचा ही हो !
    @उफनता हो ज्वालामुखी जैसे कोई
    तेरा हुस्न जब धूप में तमतमाये ....
    ----------- इसे कहते है कमाल ! भाव को गजब उतारा है आपने ! फ़िदा हूँ यहाँ !

    ReplyDelete
  49. इस बार रंग लगाना तो.. ऐसा रंग लगाना.. के ताउम्र ना छूटे..
    ना हिन्दू पहिचाना जाये ना मुसलमाँ.. ऐसा रंग लगाना..
    लहू का रंग तो अन्दर ही रह जाता है.. जब तक पहचाना जाये सड़कों पे बह जाता है..
    कोई बाहर का पक्का रंग लगाना..
    के बस इंसां पहचाना जाये.. ना हिन्दू पहचाना जाये..
    ना मुसलमाँ पहचाना जाये.. बस इंसां पहचाना जाये..
    इस बार.. ऐसा रंग लगाना...
    (और आज पहली बार ब्लॉग पर बुला रहा हूँ.. शायद आपकी भी टांग खींची हो मैंने होली में..)

    होली की उतनी शुभ कामनाएं जितनी मैंने और आपने मिलके भी ना बांटी हों...

    ReplyDelete
  50. दिल निकल के रख दिया सर जी . हम तो बड़े दिनों से आपको ढूंढ रहे थे . कल ही आपका ब्लॉग मिला पढ़ कर मन को बड़ा सुकून मिला और अच्छा लगा कभी हंसा तो कभी रो भी दिया . आप जैसा बढ़िया तो नहीं लिखता हूँ पर अच्छा लिखने वाले लोगों के ब्लॉग ज़रूर पढता हूँ . मैं आपका शुक्रिया करना चाहता हूँ की आपने भारतीय सेना के बारे में वो सभी बातें हमें बताई जो हम कभी नहीं जान पाते . एक सेल्युट हमारी तरफ से आपको और भारतीय सेना के हर उस जवान को जिसकी वजह से बाकि देश चैन की नींद सोता है .

    ReplyDelete
  51. जानता हूँ कि मेरे कुछ कवि-मित्र और कुछ एक बुद्धिजीवी साथी नाक-भौं सिकोड़ेंगे इन सस्ते रूमानी शेरों पर। जानता हूँ...फिर भी खास उन्हीं बंधुओं को समर्पित

    :)
    :)

    shukr hai ke ham aapke UATNE khaas nahin hain...


    kyunki.....



    प्रेम से ज्यादा शाश्वत और प्रेम से ज्यादा सामयिक कुछ भी नहीं .........



    सहमत...
    सहमत.....
    सहमत.......

    ReplyDelete
  52. हैं मगरूर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
    भला ऐसे में कौन किसको मनाये
    बहुत सुन्दर गज़ल.
    होली की अनन्त शुभकामनायें.

    ReplyDelete
  53. सितारों ने की दर्ज है ये शिकायत
    कि कंगन तेरा, नींद उनकी उड़ाये.

    मुहोब्बत को एक चाँद ही काफी था.... सुंदर शेर कहे हैं. ये महीना कुछ ऐसी व्यस्तताओं में बीता कि काम कुछ ना था रु खाट पे लेटे हुए भी ना थे. आज का कल में शायद आपकी अगली पोस्ट आती ही होगी ?

    ReplyDelete
  54. वाह क्या खूबसूरत मतला कहा है, ऐसा लग रहा है क़त्ल गुजरने वाला नहीं कहने वाला (आप) कर रहे हैं...........
    और उसके बाद का हर शेर मोहब्बत की चाशनी में सराबोर है, जो शेर खासकर पसंद आये वो हैं,
    "समंदर जो मचले किनारे की खातिर.........."
    "हवा छेड़ जाये जो तेरा दुपट्टा........." वाह वाह, क्या मंज़र बना दिया है आँखों के सामने.

    ReplyDelete
  55. समंदर जो मचले किनारे की खातिर
    लहर-दर-लहर क्यों उसे आजमाये
    बहुत सुन्दर यह शेर विशेष रूप से पसंद आया बेहतरीन लिखते हैं आप शुक्रिया

    ReplyDelete

ईमानदार और बेबाक टिप्पणी दें...शुक्रिया !