कई दिनों से अपनी कोई ग़ज़ल नहीं लगायी थी मैंने ब्लौग पर, तो आज मूड-सा बना ग़ज़ल का। पुरानी ग़ज़ल है, जिसे शायद कुछ सुधि पाठकों ने कोलकाता से निकलने वाली मासिक पत्रिका वागर्थ के अक्टूबर 09 वाले अंक में पढ़ा होगा और कुछ पाठकों ने साहित्य-शिल्पी पर भी पढ़ा होगा। एक बचपन से मुझे हिंदी-साहित्य के कुछ कहानिकारों ने अजब मोह-पाश में बाँध रखा है। कुछ नाम जैसे कि गुलेरी, मोहन राकेश, कमलेश्रर, मंटो, मन्नु भंडारी, अमृता प्रीतम और प्रेमचंद...उनके रचे चरित्र अजीबो-गरीब ढ़ंग से जुड़ आते थे(हैं) मेरी रोजमर्रा की जिंदगी में। दो साल पहले इन्हीं कुछ चरित्रों को लेकर ग़ज़ल के कुछ अशआर बुनने शुरु किये, जो बाद में गुरुजी के आशिर्वाद से मुक्कमल हुई। पेश है वही ग़ज़ल:-
जल गई है फ़स्ल सारी पूछती अब आग क्या
राख पर पसरा है "होरी", सोचता निज भाग क्या
ड्योढ़ी पर बैठी निहारे शह्र से आती सड़क
"बन्तो" की आँखों में सब है, जोग क्या बैराग क्या
खेत सारे सूद में देकर "रघू" आया नगर
देखता है गाँव को मुड़-मुड़, लगी है लाग क्या
चांद को मुंडेर से "राधा" लगाये टकटकी
इश्क के बीमार को दिखता है कोई दाग क्या
क्लास में हर साल जो आता था अव्वल "मोहना"
पूछता रिक्शा लिये, ’चलना है मोतीबाग क्या’
किरणों के रथ से उतर क्या आयेगा कोई कुँवर
सोचती है "निर्मला", देहरी पे कुचड़े काग क्या
जब से सीमा पर हरी वर्दी पहन कर वो गये
घर में "सूबेदारनी" के क्या दिवाली फाग क्या
...कुछ गुरुजन लोग आपत्ति उठायेंगे ग़ज़ल के चौथे और पाँचवें शेर के काफ़ियों पर। कायदे से इन दोनों काफ़ियों को नुक्ते के साथ आने चाहिये और इस लिहाज से ये अशआर खारिज हो जाते हैं। गुरुजनों की तमाम आपत्तियाँ सर-आँखों पर, किंतु इन काफ़ियों को प्रचलित हिन्दुस्तानी उच्चारणों को ध्यान में रखकर अशआर बुने गये हैं।
इस बहरो-वजन पे खूब प्यारी ग़ज़लों और गीतों को लिखा गया है बड़े-बड़े शायरों और कवियों द्वारा। मेरे इस ब्लौग के नाम के लिये प्रयुक्त हुआ फ़िराक गोरखपुरी का ये शेर "पाल ले इक रोग नादां..." इसी बहर में है। इस बहर पे कुछ अन्य लोकप्रिय ग़ज़लें जो याद आ रही हैं "चुपके-चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है" और "होश वालों को खबर क्या जिंदगी क्या चीज है" या फिर "हमको किस के ग़म ने मारा ये कहानी फिर सही" और एक-दो फिल्मी गीत जो इसी बहरो-वजन पर लिखे गये हैं और जो मुझे इस वक्त याद आ रहे हैं...लता दी का गाया "आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे" और किशोर दा का युगल-गीत "आपकी आँखों में कुछ महके हुये से राज हैं" और फिर रफ़ी साब का गाया "दर्दे-दिल दर्दे ज़िगर दिल में जगाया आपने"...।
फिलहाल इतना ही...जल्द ही मिलता हूँ अपनी अगली पोस्ट के संग।
(हंस के मार्च २०१० अंक में भी प्रकाशित)
जब से सीमा पर हरी वर्दी पहन कर वो गये
ReplyDeleteघर में "सूबेदारनी" के क्या दिवाली फाग क्या
बहुत बढ़िया समा बाँधा है जी!
कितना साहित्य समेट लिया !
ReplyDeleteवाह !
पहला कमेन्ट..
ReplyDeleteअपना जीमेल एकाउंट खोलने के लिए था मेजर साब.....
ग़ज़ल....उस के बाद कई बार सुनी है....
क्लास में हर साल जो आता था अव्वल मोहना...
सभी तो फिदा हो गए थे इस शेर पर....रुक कर कहा था मुक़र्रर....
एक इमेज बन गयी थी...दर्पण के मन में...
जब से सीमा पर हरी वर्दी पहन कर वो गये
घर में "सूबेदारनी" के क्या दिवाली फाग क्या
किसी विरहन के लिए त्यौहार पर ऐसा शेर पहले कभी नहीं सुना.....अर्श ने कहा था...
खेत सारे सूद में देकर "रघू" आया नगर
देखता है गाँव को मुड़-मुड़, लगी है लाग क्या
चांद को मुंडेर से "राधा" लगाये टकटकी
इश्क के बीमार को दिखता है कोई दाग क्या
हम रघु पर कितने ठिठक गए थे....
सभी ने तो इश्क के बीमार का दाग़ ...उस दिन ओके कर दिया था मेजर साब...
अब काहे कि फ़िक्र....??
और अंत में मुफलिस जी ने पूरी ग़ज़ल कि तारीफ़ हम सब से ज्यादा कि थी...
ये बात आज भी जलाती है हमें..
:(
:(
..........................................
......................................................
:)
:::::::::)))))))))
::::::))))))))))))))))))))))
कितना दूर दूर तक निकले आप हर शेर के साथ...अद्भुत!!
ReplyDeleteबस इतना कह सकते हैं-बहुत खूब!!
क्लास में हर साल जो आता था अव्वल "मोहना",
ReplyDeleteपूछता रिक्शा लिये, ’चलना है मोतीबाग क्या’...
मेजर साहब, अल्टीमेट...इसके आगे सुनने-कहने को कुछ रह जाता है क्या...
जय हिंद...
अब आप के शैर बंदिश से ऊपर उठ रहे हैं।
ReplyDeleteगौतम जी आदाब
ReplyDeleteये तो अलग ही अंदाज देखने को मिला आपका
हर किरदार की कहानी दो मिसरों में समेट दी
वो भी इतनी खूबसूरती के साथ
आपके फन को सलाम.!!
और हां, आज 'जज्बात' पर 'आपका' ही ज़िक्र है
तशरीफ लाईयेगा
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
खूबसूरत ग़ज़ल
ReplyDeleteशेर अपने सरोकारों से जुड़े हैं. जीवन के विविध रंगों का समावेश हैं, चिंता है, दुविधा है और प्रेम भी.
गौतम जी
ReplyDeleteमहान साहित्य शिल्पियों के महान पात्रों पर क्या ताना बना बुना है आपने.......चौथे पांचवें शेर में जो कमी है वो छुप जाती है वजह यह कि उच्चारण (फोनेटिक) के लिहाज़ से तो यह और भी फब रहा है.......हुज़ूर क्या खूब कलेजा पाया है आपने......इतने मुश्किल प्लाट पर क्या बेहतरीन लिखा है...........प्रोज को पढ़ कर पोएट्री में यह ख़ूबसूरत तब्दीली....यह आपकी ही कुव्वत है मेजर साब...... ........! एक बात खटकी है वोह फ़ोन पर करूंगा.......!
होरी ,बन्तो, रघु, निर्मला.......सब के सब जेहन में बसे हुए है.........उसी शिद्दत से !
ग़ज़ल से संबंधित अन्य जो बातें जानने को मिलती हैं वो बहुत अच्छा लगता है
ReplyDeleteवाह हम भी पढ़ और सीख रहे हैं, गजल ।
ReplyDeletegautam ji ,
ReplyDeletenamaskar.. bahut der se aapki is gazal ko padhraha hoon aur un saare charitro ko yaad kar raha hoon jo ki hamaare amar sahityakaaro ne racha hai .. aapki is naayab koshish ko salaam, padhkar hi bahut kuch yaad ho aaya .. saari gazal ke kya kahne ..lekin ek sher man me jaakar baith gaya hai ...
जब से सीमा पर हरी वर्दी पहन कर वो गये
घर में "सूबेदारनी" के क्या दिवाली फाग क्या
main ab aur kuch na kah sakunga ji..
aapka
vijay
ये है हिंदी ग़ज़ल का नया अंदाज़ और क्या ख़ूब अंदाज़ है....गौतम प्यारे ! हिंदी कविता से चरित्रों के गायब होते जाने की टीस सी हमेशा मेरे मन में रहती है...तुमने तो एक पूरा ताना बाना बुन दिया...उन चरित्रों का जो अब अपने वर्ग के स्थायी प्रतिनिधि बन चुके हैं.
ReplyDeleteगौतम जी जब साहित्य शिल्पी पर ये ग़ज़ल पढ़ी थी तो पढ़ कर अवाक रह गया था...आपकी इस सोच को सलाम...साहित्य में हमेशा जिन्दा रहने वाले इन किरदारों को आपने बहुत ख़ूबसूरती से पिरोया है अपनी ग़ज़ल में...इसकी जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है...
ReplyDeleteनीरज
क्लास में हर साल जो आता था अव्वल "मोहना"
ReplyDeleteपूछता रिक्शा लिये, ’चलना है मोतीबाग क्या’
विडम्बना नहीं तो और क्या है ये है ओह !!!!!!!!!!!!!!!
जब से सीमा पर हरी वर्दी पहन कर वो गये
घर में "सूबेदारनी" के क्या दिवाली फाग क्या
पति में ही अपनी दुनिया बसाती है हमारे देश की हर स्त्री
"तुम प्रेम गीत मैं एक कविता
तुम निर्बाध संगीत मैं सुर सरिता
तुम निर्भीक व्योम मैं ध्रुव तारा
तुम चंचल चपला मैं अम्बर सारा
तुम पुण्य प्रसून मैं वरमाला
तुम गीत विरह का मैं पांव का छाला
तुम मदिरा मैं मय का प्याला
तुम जीवन संध्या मैं सानिध्य तुम्हारा
तुम अंतिम साँसें मैं तुलसी दल बेचारा
तुम सात जनम मैं साथ तुम्हारा"
बहुत कुछ कह गए आप अपनी इस कविता में हर शब्द हमेशा की तरह बोलता हुआ और दिल को गहराई तक छूता हुआ. जानकारी तो उससे भी अच्छी है
खेत सारे सूद में देकर "रघू" आया नगर
ReplyDeleteदेखता है गाँव को मुड़-मुड़, लगी है लाग क्या
kahaniyon ke naykon ke aadhar par gazal ke she'r ......touba .....kuch chodenge ya नहीं आप .....??
"क्लास में हर साल जो आता था अव्वल "मोहना"
ReplyDeleteपूछता रिक्शा लिये, ’चलना है मोतीबाग क्या’"
पढ़ने आया हूँ और पढ़ लिया.
ग़ज़ल के व्याकरण ज्ञान में तो हम डब्बा हैं ,पर भाव और रवानगी स्वतः ही ह्रदय भूमि का स्पर्श कर मन आह्लादित कर , झूम कर ...वाह !!!...कहने को विवश कर देता है... !!!
ReplyDeleteसचमुच लाजवाब रचना है !!! हर शेर झूमने को मजबूर करता हुआ....
क्लास में हर साल जो आता था अव्वल "मोहना"
ReplyDeleteपूछता रिक्शा लिये, ’चलना है मोतीबाग क्या’
ये शेर तो जैसे मोहना की एक तस्वीर सी भी दिखा गया
बहुत खूब गौतम जी
ReplyDeleteअपने तो कहर ही ढा दिया
बेहतरीन ग़ज़ल का खुबसूरत शेर
जब से सीमा पर हरी वर्दी पहन कर वो गये
घर में "सूबेदारनी" के क्या दिवाली फाग क्या
बहुत बहुत आभार
कितने सारे किरदारों को समेट लिया इस ग़ज़ल में....और सभी किरदारों की आत्मा भी जीवित रखी...बहुत खूब
ReplyDeleteफिर से एक बार इन सारे चरित्रों से इतनी खूबसूरती से रु-ब-रु कराने का शुक्रिया...
चांद को मुंडेर से "राधा" लगाये टकटकी
ReplyDeleteइश्क के बीमार को दिखता है कोई दाग क्या
.............
जब से सीमा पर हरी वर्दी पहन कर वो गये
घर में "सूबेदारनी" के क्या दिवाली फाग क्या
.........bahut kuch samet liya hai isme
आज आपने दिल को गमजदा कर दिया ...
ReplyDeleteमीत
जब से सीमा पर हरी वर्दी पहन कर वो गये
ReplyDeleteघर में "सूबेदारनी" के क्या दिवाली फाग क्या ...
बहुत ही खूब मेजर साहब ........ दिलकश ग़ज़ल है ... किताबों में बिखरे पात्र जैसे बोलने लगे हैं ....... इस बाहर में इतने सारे गीत हैं ये जान कर और भी अच्छा लगता है ..... आपकी ग़ज़ल भी गीत के बोलों पर गाने का मान करता है .......
लाजवाब ,कमाल का हर लफ्ज़ है सब चरित्र जैसे सामने घुमने लग गए ...बहुत खूब ..आपकी कलम को सलाम ..शुक्रिया
ReplyDeleteकविता बनते बनते गजब बन जाती है ,,,
ReplyDeleteसहज और प्रभावोत्पादक ...
यहाँ तो यह बात बखूबी दिखती है ---
'' क्लास में हर साल जो आता था अव्वल "मोहना"
पूछता रिक्शा लिये, ’चलना है मोतीबाग क्या’ ''
.......... आभार साहब
गौतम जी.... आप अद्भुत हैं सच में.....
ReplyDeleteक्या मुझे चेला बनाना पसंद करेंगे? मैंने तो गुरु मान लिया है.....
bahut achcha laga is sunder gazal ko padhkar.
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण -शुक्रिया !
ReplyDeleteहोरी, बंतो, रघू, राधा, निर्मला जैसे कालजयी पात्रों का संदर्भ न भी लिया जाय तो भी प्रत्येक शेर अपनी कहानी स्वयं कहने में पूरी तरह समर्थ है. यदि पात्रों को ध्यान में रखा जाय तो इसे गजल में नया प्रयोग समझा जाना चाहिए.
ReplyDeleteइस शेर को पढकर तो अवाक हुए बिना नहीं रहा जाता..
-क्लास में हर साल जो आता था अव्वल "मोहना"
पूछता रिक्शा लिये, ’चलना है मोतीबाग क्या’
...आपका आभारी हूँ ..इस गजल को पढाने के लिए.
इस गज़ल को जितनी बार पढ़ा है, उतनी बार कायल हुआ हूं आपका। इस शेर की सहजता और मार्मिकता दोनों अंदर तक बेधती है-
ReplyDeleteक्लास में हर साल जो आता था अव्वल "मोहना"
पूछता रिक्शा लिये, ’चलना है मोतीबाग क्या’
आह! वैसे आया तो था मैं पिछली पोस्ट पर कमेंट करने, बोनस में ये गज़ल मिल गई।
गौतम ,
ReplyDeleteमैं बस इतना कहूँगी लाजवाब !!
तुमको दीदी का ढेर सारा आशीर्वाद . तुम सदा ऐसे ही लिखते रहो !!
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteमैने जब पिछली बार सुनी थी, तभी अद्भुत लगी थी। चूँकि मैं खुद भी पात्रों को जब पढ़ती हूँ तो डूब जाती हूँ। उन्हे फील कर के फिर इस तरह उनके भावों को शेर का रूप देना...... मुझे तो चमत्कृत ही करता है....!!
ReplyDeleteघर में "सूबेदारनी" के क्या दिवाली फाग क्या
ReplyDeleteवाह वाह गौतम जी मजा आगया बहुत सुन्दर और मेह्नत से लिखी गई गजल है
रही बात बहर की तो ये मेरी प्रिय बहर है और इस बहर की सभी उपबहर पर लिखना मुझे बहुत भाता है
वीनस
बहरो-वजन तो हमारे लिए काले अक्षर भैंस बराबर है :) पर इस गजल के साथ आपने जितने भी गजलों का नाम लिया है वो खूब पसंद है. और इस गजल में छुपी भावनाओं पर मुग्ध हूँ.
ReplyDeleteइस लाजवाब ग़ज़ल का हर शेर अपने आप में एक कहानी कह रहा है.
ReplyDeleteकिस एक शेर के बारे में कहूँ..सभी खुद में पूरे और शब्द चित्र की भाँति लगे.
बहुत उम्दा!
राजऋषिजी,
ReplyDelete'कोई बांधना चाहे, बांध ले आकाश सारा,
हमें तो बस परवाज़ से मतलब रहा है !'
ग़ज़ल के गणित से बेफिक्र होकर लिखते रहिये ऐसी ही नायाब गज़लें ! साहित्य के अमर पत्रों को बड़ी खूबी और सूझ-बूझ से पिरोया है आपने ग़ज़ल में ! अनूठी ग़ज़ल है--प्रयोगधर्मी भी! बधाई !!
जब से पटना छूटा, 'वागर्थ' देखना भी छूट गया !
सप्रीत--आ.
क्या बात है! एक -एक शेर आस-पास गुजरी
ReplyDeleteकहानी सुना रहा है ..पन्ने और अध्याय बिना ..
बिलकुल ! कई बार पढ़ी गयी गज़ल !
ReplyDeleteअपनी गजल के बहर से जुड़ती दूसरी गजलों के उदाहरण हम जैसे अज्ञानियों के लिये जरूरी हैं । यही कारण है कि हम यहाँ गज़ल पढ़ते हुए आश्वस्त रहते हैं ।
बनतो, रघु , राधा , मोहना , निर्मला और सूबेदारनी के माध्यम से अकुलाहट और वेदना को प्रकट कर दिया है ...बहुत खूब ...!!
ReplyDeleteसाहित्य शिल्पी वाली टिप्पणी यहाँ भी पेस्ट कर दी है
Awessome attempt ! Too good !!
ReplyDeletethis one was "zara hatke" and I love such Poetry !
God bless!
RC
Bahut badhiya. Keep it up.
ReplyDeleteनमस्ते भैय्या,
ReplyDeleteमज़ा आ गया.............
हर शेर एक कहानी कह रहा है, एक अद्भुत प्रयोग और सफल प्रयोग.
जितनी बार ये ग़ज़ल पढ़ रहा हूँ सारी कहानियां आँखों के सामने से गुज़र रही है.
पहले भी इस अनूठी गज़ल को पढा था लेकिन आज गुरुआना अन्दाज़ मे चौथे और पाँचवें पहरे को समझाने का जो प्रयास किया है वो हम जैसे अनजानों के लिये बहुत अच्छा है। आपकी गज़लें हमेशा चकित कर देती हैं लाजवाब प्रस्तुति मोहने को। बधाई और आशीर्वाद्
ReplyDeleteएक दम टकाटक, धडाधड पोस्ट ....
ReplyDeleteक्लास में हर साल जो आता था अव्वल "मोहना"
पूछता रिक्शा लिये, ’चलना है मोतीबाग क्या’
किरदार सारे अच्छे हैं... कहीं सुधा भी होती तो...
adbhut.\// lajvaab.
ReplyDeletechakit hu goutamji..., aapke is hunar par..kamaal he aap.
एक उपन्यास और एक कहानी ,समेट ली हर इक शेर में। पुराना पढना अच्छा लगता है,कभी कभी तो बरसों पुरानी कहानी के वाक्य याद आजाते है ,जैसे ही सूवेदारनी शब्द पढा "तेरी कुड्माई होगई-धत्त...........हां होगई देखते नही ये रेशम से कढा हुआ शालू याद आया । आपने भी कितना अध्ययन किया हुआ है,आश्चर्य होता है ।शास्त्र और शस्त्र का संगम है आप
ReplyDeleteजल गई है फ़स्ल सारी पूछती अब आग क्या
ReplyDeleteराख पर पसरा है "होरी", सोचता निज भाग क्या
ड्योढ़ी पर बैठी निहारे शह्र से आती सड़क
"बन्तो" की आँखों में सब है, जोग क्या बैराग क्या
खेत सारे सूद में देकर "रघू" आया नगर
देखता है गाँव को मुड़-मुड़, लगी है लाग क्या
चांद को मुंडेर से "राधा" लगाये टकटकी
इश्क के बीमार को दिखता है कोई दाग क्या
क्लास में हर साल जो आता था अव्वल "मोहना"
पूछता रिक्शा लिये, ’चलना है मोतीबाग क्या’
किरणों के रथ से उतर क्या आयेगा कोई कुँवर
सोचती है "निर्मला", देहरी पे कुचड़े काग क्या
जब से सीमा पर हरी वर्दी पहन कर वो गये
घर में "सूबेदारनी" के क्या दिवाली फाग क्या
waah kis sher ki tarif karun
padh kar stabdh hun
aapki kalam ko salaam
क्लास में हर साल जो आता था अव्वल "मोहना"
ReplyDeleteपूछता रिक्शा लिये, ’चलना है मोतीबाग क्या’
जब से सीमा पर हरी वर्दी पहन कर वो गये
घर में "सूबेदारनी" के क्या दिवाली फाग क्या
मैं भी सूबेदारनी के साथ हूँ. काफिये के नीचे नुक्ता तलाशने वालों के नहीं.
जय हो....
यही अगर यही अपना खास रंग न हो तो फिर लिखने से क्या फायदा.
बहुत अच्छी गजल है....
Waah is terah ka prayog kisi ghazal mein pehli baar dekha. In patron ko charitrik jhanki is ghazal ke madhyam se dikhane ka shukriya...
ReplyDeletelajawab... specially
ReplyDeleteक्लास में हर साल जो आता था अव्वल "मोहना"
पूछता रिक्शा लिये, ’चलना है मोतीबाग क्या’
क्लास में हर साल जो आता था अव्वल "मोहना"
ReplyDeleteपूछता रिक्शा लिये, ’चलना है मोतीबाग क्या’
...कुदरत के आगे किसी की नहीं चलती, हुनर-तो-बस-हुनर है.... वो कहते हैं खुदा ने बहुत सारे गधों को पहलवान बना रखा है और बिचारा 'मोहना' रिक्शा लेकर ...... बहुत ही सुन्दर शेर !!!!
जब से सीमा पर हरी वर्दी पहन कर वो गये
घर में "सूबेदारनी" के क्या दिवाली फाग क्या
.....इस मर्म की कोई दवा नही.... बेहतरीन शेर, बधाईंया !!!!!
gautam ji,namaskar ,
ReplyDeleteखेत सारे सूद में देकर "रघू" आया नगर
देखता है गाँव को मुड़-मुड़, लगी है लाग क्या
bahut sundar ,apni mitti ki ahmiyat aap se zyada kaun samajh sakta hai...
जब से सीमा पर हरी वर्दी पहन कर वो गये
घर में "सूबेदारनी" के क्या दिवाली फाग क्या
is sher ko bhi itne bhav pporn tareeqe se aap hi likh sakte hain ,kyonki shayeri ehsas mangti hai ,sachche jazbat mangti hai .bahut bahut badhai
salam hai aik veer ki shayerana salahiyat ko .
वाह वाह, बिलकुल एक नंबर की ग़ज़ल.. बहुत अच्छी लगी. :)
ReplyDeleteइस ग़ज़ल को जीतनी बार भी पढता हूँ नयी सी लगती है... अगर आपको ..
ReplyDeleteमैं ग़ज़ल के दूसरी तरफ से देखता हूँ तो मोहना पर बात अटकती है... बधाई .. और
बसंत पंचमी की ढेरो शुभकामनाएं...
अर्श
हाँ जी तो गेस्ट इंट्री होती है हमारी अब..अपने चीफ़-गेस्ट वाले टाइम पर ;-)
ReplyDeleteपिछले दो दिनों मे कई बार पढ़ी थी यह ग़ज़ल..और कहूँगा कि एक जो नयी और ज्यादा जरूरी जमीन देखने को मिलती है आपकी गज़लों मे और कुछ समकालीन गज़लकारों मे..वो इसे ज्यादा जमीनी और सामयिक बनाती है..रवायती गज़लों के शराब-शबाब, शम्अ-परवानों मे रचे-पगे हमारे सौन्दर्यबोध को थोड़ा असहज लग सकता है..मगर इस सौन्दर्यबोध का परिष्कृत होना जरूरी है..और बकौल पाश साहित्य का यह फ़ूल राजा के बाग के बजाय गाँव की चौपाल के पेड़ या किसी छप्पर पर खिलना ज्यादा समीचीन होता है..
आपकी गज़ल पे कुछ कहना मेरे सामर्थ्य मे नही रहा है..न आपके नुक्तों पे नुक्ताचीनी करने की हिम्मत ;-)
..मगर इस शेर पर अटका रहा बार-बार
खेत सारे सूद में देकर "रघू" आया नगर
देखता है गाँव को मुड़-मुड़, लगी है लाग क्या
लगता नही कि हम सबमे भी कुछ हिस्सा है रघु का?..एक हवा-पानी-मिट्टी के कर्जदार पेड़ के तरह अपने तने, पत्तियाँ, फल-फूल सूद सहित अपने अतीत को दे देते हैं..बस अदृश्य जड़ें छूटे जाती हैं..दूर किसी जमीन मे..और जिन्हे खोजने-संजोने की कवायद शेष जिंदगी खा लेती है.....कुछ तो होता है कहीं..जिसे मुड़-मुड़ के देखना होता है..सब कुछ लुटा देने के बाद भी!!
..काश बाकी शेरों पर भी बात कर पाता..
आपकी कल्पना की उडान के कायल हैं हम.. लफ़्जों शेरों और गजलों में जो कशिश आप भर देते हैं... वो काविले तारीफ़ है... लिखते रहिये
ReplyDeleteवागर्थ मे यह गज़ल पढ़ी थी अच्छी गज़ल है ।
ReplyDeleteवाह गौतम जी क्या बात है। एक नया ही लेखन जिसमें पात्रों का जिक्र कितनी सुन्दरता से किया है। ऐसा वही लिख सकता जिसने पढते वक्त उन पात्रों के साथ खुद भी जीया हो। हर शेर पर मुँह से वाह निकल रही है। और अपन इसे अपनी डायरी में उतार रहे है आपकी बगैर अनुमति के जी। वैसे हम भी इन कहानीकारों के बडे फेन है।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteआपकी इस गजल को पहले भी पढ़ चुका हूँ....साहित्य के अमर होचुके पात्रों से एक दुर्लभ बिम्ब का सृजन यहाँ दिखाई देता है...खासियत यह है कि अभिव्यंजना किसी कालविशेष की सीमा से प्रतिबंधित नहीं होती है वरन सार्वकालिक सार्वदेशिक सन्देश देती सी लगती है.
ReplyDeleteबहुत देर से प्रतिक्रिया देना चाह रहा था पर नामुमकिन हीं रहा मेरे लिए तो...
ReplyDeleteकई कई बार आ चुका हूँ. इस विधा में किसी भी रचना पर कुछ लिखना मेरे लिए कभी आसान नहीं रहा है.अपने ज्ञान की सीमाओं के कारण.पर इतना ज़रूर कहूँगा कि बिलकुल नए तेवर में हिंदी ग़ज़ल आ रही है जिसके आप प्रमुख हस्ताक्षर है.हिंदी साहित्य के कुछ अमर और कालजयी पात्रों के माध्यम से आपने अपनी बात को अनंत अर्थ-विस्तार दे दिया है.
ReplyDeleteटिप्पणियों ने इस रचना के भाष्य में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है.गदगद हूँ.
Wish you a very Happy Republic day!
ReplyDeleteक्लास में हर साल जो आता था अव्वल "मोहना",
ReplyDeleteपूछता रिक्शा लिये, ’चलना है मोतीबाग क्या’
ये शेर नहीं हक़ीकत है...!!
ग़ज़ब बात करते हैं आप..!!
मेजर साहब क्या लिखा है ।
ReplyDeleteजब से सीमा पर हरी वर्दी पहन कर वो गये
घर में "सूबेदारनी" के क्या दिवाली फाग क्या
बहुत ही बढिया ।
इतनी शानदार-जानदार गजल के बाद ये सफाई देना कुछ समझ में नहीं घुसा. गाँव की भाषा में गजल है, अब गाँव वाले अपना 'शीन-क़ाफ़' दुरुस्त करने के लिए किस मौलवी या उस्ताद शायर की खिदमात हासिल करें.
ReplyDeleteमैं जरा काम के सिलसिले में एक से दूसरे शहर भटकता रहता हूँ. ये गजल छूट गयी.
अब तो नहीं छूटी रह गयी ना!