हिंदी-साहित्य की समस्त विधाओं में चाहे वो कहानी हो, कविता हो, गीत-नवगीत हो, उपन्यास हो, लेख, यात्रा-संस्मरण या आलोचना आदि हो...इन समस्त विधाओं में ग़ज़ल हमेशा से हाशिये पर ही खड़ी नजर आती है। आप कोई भी साहित्यिक पत्रिका उठा कर देख लीजिये...हफ़्ते, पखवारे, महीने या वर्ष के अंत में होने वाले किसी भी साहित्यिक लेखे-जोखे में आप कभी भी किसी ग़ज़लकार, शायर या ग़ज़ल-संग्रह का जिक्र नहीं पायेंगे। कभी भी नहीं। हर पत्रिका में जब भी उसके अगले महीने निकलने वाले अंक का जिक्र होता है, आप हमेशा पायेंगे "फलां-फलां की कहानियाँ और अमुक-अमुक की कवितायें अगले अंक का विशेष आकर्षण" किंतु आप कभी नहीं लिखा पायेंगे फलां-फलां या अमुक-अमुक की ग़ज़लें, चाहे दो से चार ग़ज़लें नियमित रुप से छपती हों उस पत्रिका में हर महीने। इस सौतेले व्यवहार के लिये जितना दोष इन कथित साहित्य-प्लेटफार्मों{?} का बनता है, उससे कहीं अधिक दोष एकदम से उमड़ आयी हम जैसे शायरों की उस पूरी फौज का भी बनता है जो ग़ज़ल के नाम पर बगैर उसका व्याकरण जाने शेर पे शेर जोड़े जाते हैं। किंतु उसी हाशिये पर- ग़ज़लकारों की हम जैसी अधकचरी जमात से परे- चंद राजेश रेड्डियों, आलोक श्रीवास्तवों, अशोक अंजुमों, पंकज सुबीरों, विनय मिश्रों, द्विजेन्द्र द्विजों, सर्वत जमालों, कुमार विनोदों, आदि जैसे नाम जब अपनी कलम लेकर आते हैं तो फिर हाशिये को धता बताते हुये ग़ज़ल के लिये पूरे पन्ने को भी कम पड़ने का अहसास दिला जाते हैं...और इसी अहसास की बदौलत ग़ज़ल अब तलक कविता की भाँति "अ-ग़ज़ल" या "बहर-मुक्त(छंदमुक्त की तर्ज पर)ग़ज़ल" नहीं हुई है...वो सिर्फ और सिर्फ ग़ज़ल ही है।
हिंदी-साहित्य में जब भी ग़ज़ल की बात उठेगी तो दुष्यंत कुमार का नाम आना स्वभाविक है। सच पूछिये तो ट्रेड-मार्क बन गये हैं दुष्यंत। ...तो कोई भी नया शायर जब अपनी ग़ज़लों से पहचान बनाने लगता है, खासकर अपने अशआरों के तेवर से तो लोग तुरत उसकी तुलना दुष्यंत से करने लगते हैं। अभी कुछ दिनों पहले किसी पत्रिका में छपी एक ग़ज़ल पढ़ रहा था मैं...पत्रिका शायद "आधारशिला" थी या "वर्तमान साहित्य", याद नहीं आ रहा। एक ग़ज़ल के शेर ने एकदम से ध्यान खींचा। शेर कुछ यूं था:-
देखकर बाजार की कातिल अदा
ख्वाहिशों को सर उठाना आ गया
...शेर की तिलमिलाहट दिल में घर कर गयी और साथ ही शायर के नाम ने। जगह-जगह शेर को quote करने लगा मैं। कुछ शायर मित्रों को भी जब सुनाया तो एक-दो लोगों का उद्गार निकला कि "अरे, ये तो कुमार विनोद का शेर है"...बिंगो! हमने सोचा कि जनाब के हमारी तरह और भी चाहने वाले हैं।...तो साहित्यिक पत्रिकाओं पे नजर फेरने वालों मित्रों से और उन सब पाठक बंधुओं से जो ग़ज़ल को भी साहित्य की एक सशक्त विधा मानते हैं, कुमार विनोद का नाम अब अपरिचित नहीं रहा होगा। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में गणित के प्रोफेसर, कुमार विनोद साब हैरान करते हैं अपनी ग़ज़लों से। एक गणितज्ञ जब शायरी करेगा तो यकीनन सब कुछ नपा-तुला होगा। वो इंगलिश का शब्द है ना precise...बिल्कुल वही। उनके चुने काफ़िये लाजवाब करते हैं तो तनिक हटकर के लिये गये रदीफ़ अचंभित। हर शेर पढकर लगे कि उफ़्फ़्फ़! ये मैंने क्यों नहीं लिखा!! इन सब अनुभवों से गुजरने के लिये आपसब को उनकी सद्यःप्रकाशित ग़ज़ल-संग्रह "बेरंग हैं सब तितलियाँ" से रुबरु होना पड़ेगा। फिलहाल उनकी इसी ग़ज़ल-संग्रह से मैं आपसब को उनकी एक बेहतरीन ग़ज़ल पढ़वाता हूँ:-
लाख चलिये सर बचाकर, फायदा कुछ भी नहीं
हादसों के इस शहर का, क्या पता, कुछ भी नहीं
उस किराने की दुकाँ वाले को सहमा देखकर
मौल* मन ही मन हँसा, लेकिन कहा कुछ भी नहीं(*shopping mall)
काम पर जाते हुये मासूम बचपन की व्यथा
आँख में रोटी का सपना, और क्या कुछ भी नहीं
एक अन्जाना-सा डर, उम्मीद की हल्की किरण
कुल मिलाकर जिंदगी से क्या मिला, कुछ भी नहीं
एक खुद्दारी लिये आती है सौ-सौ मुश्किलें
रोग ये लग जाये तो इसकी दवा कुछ भी नहीं
वक्त से पहले ही बूढ़ा हो गया हूँ दोस्तों
तेजरफ़्तारी से अपना वास्ता कुछ भी नहीं
...है ना एक अजीब-सी तिलमिलाहट लिये ये अशआर सारे-के-सारे? उनकी कुछ रचनायें आप यहाँ और यहाँ क्लीक करके भी पढ़ सकते हैं। समस्त ग़ज़लों का लुत्फ़ उठाने के लिये और उनकी किताब के लिये कुमार साब को फोन घुमाइये। नंबर है- 09416137196| गज़ब के सौम्य-स्वभाव वाले और मृदुभाषी कुमार विनोद साब से बात करने का भी एक अलग ही मजा है। मैं जब-तब समय निकाल कर अपने ब्लौग पर आपसब को उनकी ग़ज़लों से मिलवाता रहूँगा। फिलहाल विदा दें और कुमार साब की ग़ज़ल पसंद आयी हो तो उन्हें फोन करके बताइये। अरे हाँ, मैं कुमार विनोद जैसे शेर कहने की कूबत भले ही न रखूँ, लेकिन जन्म-दिन उनके साथ ही साझा करता हूँ। सुन रहे हैं, विनोद सर...??? :-)
पुनश्चः
आधार प्रकाशन से प्रकाशित ये ग़ज़ल-संग्रह महज सौ रुपये में उपलब्ध है और किताब मँगवाने के लिये 9417267004 पर संपर्क किया जा सकता है।
kyaa baat hai mezar saab....!!!!
ReplyDeletechun ke ghazal laaye hain aap...
सच .इस एक रचना से ही हंडियां के चावल का अंदाजा हो गया -छा चुके हैं कुमार विनोद .
ReplyDeleteकिसी भी सृजन की श्रेष्ठता उसके प्रेक्षण के बारीकी और जस की तस अभिब्यक्ति से अंकी जा सकती है
कुमार विनोद खरे उतरते हैं इस कसौटी पर -आज तो आपने खुश कर दिया इस महँ हस्ती से मिलाकर मेजर -बोलो क्या मागते हो ? ..और मैं दे क्या सकता हूँ अपनी झोली देख रहा हूँ !
देखकर बाजार की कातिल अदा,
ReplyDeleteख्वाहिशों को सर उठाना आ गया...
वाकई दुष्यंत जी वाले ही तेवर है...
मेजर साहब, कुमार विनोद जी से रू-ब-रू कराने के लिए आभार...
जय हिंद...
एक बेहतरीन ग़ज़लकार से मिलवाने और उन की ग़ज़ल पढ़वाने का शुक्रिया। लेकिन मुझे लगता है कि धूमिल फिर भी धूमिल ही हैं। इसी ग़ज़ल का आखिरी शैर कुमार विनोद को एक झटके के साथ धूमिल से अलग कर देता है। इस शैर में पीड़ा है उस के बावजूद धूमिल शायद इस शैर को कभी नहीं लिखते क्यों कि ये पूरी ग़ज़ल के तेवर को एक दम नीचे ले आता है।
ReplyDeleteवक्त से पहले ही बूढ़ा हो गया हूँ दोस्तों
तेजरफ़्तारी से अपना वास्ता कुछ भी नहीं
धूमिल इस के स्थान पर कहीं न कहीं तेज रफ्तारी की बात कर रहे होते।
kumar vinod ji se parichay ke liye aabhaar.
ReplyDeleteकाम पर जाते हुये मासूम बचपन की व्यथा
ReplyDeleteआँख में रोटी का सपना, और क्या कुछ भी नहीं
-बस, इतना ही काफी है ...पूरे तेवर का अंदाजा लगाने को और फिर जब आप नाम ले< तो वैसे भी.
.
कुछ तो बात होगी वरना
मेजर यूँ ही नहीं लिखता!!
kya lajawaab gazal padhvayi hai aapne sahab. wakai dum hai.
ReplyDeleteकुछ भी नहीं ..का जवाब नहीं. वाह सभी शेर लाजवाब है. खासकर इस शेर ने तो दुष्यंत कुमार कई याद दिला दी-
ReplyDeleteकाम पर जाते हुये मासूम बचपन की व्यथा
आँख में रोटी का सपना, और क्या कुछ भी नहीं.
gautam ji ,bahut sundar ghazal padhvai apne
ReplyDeletekaam par jaate............
aik khuddari .............
ye donon sher to meri nazar men is ghazal ki jaan hain
shayer ko mubarajk bad deejiyega
shukriya
आपको पता है कि मैं गज़ल के बारे मे कुछ कहने मे असमर्थ हूँ विनोद कुमार जी से परिचय अच्छा लगा और गज़ल दिल को छू गयी । धन्यवाद और शुभकामनायें । जय हिन्द
ReplyDeleteवक्त से पहले ही बूढ़ा हो गया हूँ दोस्तों
ReplyDeleteतेजरफ़्तारी से अपना वास्ता कुछ भी नहीं
hazaron sher kurbaan is sher par vaah.vaah gautam bhaaee. aabhaar vinod ji se parichaya karvaane ke liye.
गौतम जी आदाब
ReplyDeleteसबसे पहले गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
जनाब कुमार विनोद साहब से 'मुलाकात' कराने के लिये आपका आभार
(मोबाइल न. बोनस में पाया, बात भी कर ली, बहुत मिलनसार हैं)
वाह साहब, क्या ग़ज़ब के तेवर हैं
.....एक अन्जाना-सा डर, उम्मीद की हल्की किरण
कुल मिलाकर जिंदगी से क्या मिला, कुछ भी नहीं
.....एक खुद्दारी लिये आती है सौ-सौ मुश्किलें
रोग ये लग जाये तो इसकी दवा कुछ भी नहीं
हर शेर गहरे चिन्तन और मन्थन की 'गाढ़ी कमाई' है सर
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
यह बात तो आपकी बिलकुल सही है.... ग़ज़ल आजकल हाशिये पर चली गई है.... सौतेले सुलूक के साथ.... तव्वजोह-ऐ-इनायत से भी महरूम है..... कुमार विनोद जी से मुलाक़ात कराने का शुक्रिया अदा करता हूँ.....
ReplyDeleteकई बार पेशा .... किताबत, और फितरी -सलाहियत ...का जोड़ नहीं होता....
पवन कुमार जी.... सरवर हुसैन और देवेन्द्र आर्य जी....भी..... ग़ज़ल के अरसागाह-ऐ-मेहनत-ओ-सरमाया....में बहुत उम्दा शिरकत कर रहे हैं....
विनोद जी का रचना संसार गज़ब की कशिश लिए हुए है.........गणित के अध्यापक और ग़ज़ल के जानकार दो विरोधाभाषों को एक साथ ले कर चलना दुश्वार है मगर विनोद साहब यह काम कर रहे हैं बल्कि बहुत खूबसूरती से कर रहे हैं...
ReplyDeleteदेखकर बाजार की कातिल अदा
ख्वाहिशों को सर उठाना आ गया
...क्या शेर बुना है शायर ने..............अब वाकई ग़ज़ल-संग्रह "बेरंग हैं सब तितलियाँ" से रुबरु होना ही पड़ेगा।
लाख चलिये सर बचाकर, फायदा कुछ भी नहीं
हादसों के इस शहर का, क्या पता, कुछ भी नहीं
शुभान ALLAH......
उस किराने की दुकाँ वाले को सहमा देखकर
माल मन ही मन हँसा, लेकिन कहा कुछ भी नहीं
काम पर जाते हुये मासूम बचपन की व्यथा
आँख में रोटी का सपना, और क्या कुछ भी नहीं
एक अन्जाना-सा डर, उम्मीद की हल्की किरण
कुल मिलाकर जिंदगी से क्या मिला, कुछ भी नहीं
वाह वाह क्या शेर है....
और मेजर साहब आपको भी शुक्रिया....... क्या बेहतरीन शायर से ताआर्रुफ़ कराया है......!
विनोद जी का रचना संसार गज़ब की कशिश लिए हुए है.........गणित के अध्यापक और ग़ज़ल के जानकार दो विरोधाभाषों को एक साथ ले कर चलना दुश्वार है मगर विनोद साहब यह काम कर रहे हैं बल्कि बहुत खूबसूरती से कर रहे हैं...
ReplyDeleteदेखकर बाजार की कातिल अदा
ख्वाहिशों को सर उठाना आ गया
...क्या शेर बुना है शायर ने..............अब वाकई ग़ज़ल-संग्रह "बेरंग हैं सब तितलियाँ" से रुबरु होना ही पड़ेगा।
लाख चलिये सर बचाकर, फायदा कुछ भी नहीं
हादसों के इस शहर का, क्या पता, कुछ भी नहीं
शुभान ALLAH......
उस किराने की दुकाँ वाले को सहमा देखकर
माल मन ही मन हँसा, लेकिन कहा कुछ भी नहीं
काम पर जाते हुये मासूम बचपन की व्यथा
आँख में रोटी का सपना, और क्या कुछ भी नहीं
एक अन्जाना-सा डर, उम्मीद की हल्की किरण
कुल मिलाकर जिंदगी से क्या मिला, कुछ भी नहीं
वाह वाह क्या शेर है....
और मेजर साहब आपको भी शुक्रिया....... क्या बेहतरीन शायर से ताआर्रुफ़ कराया है......!
एक खुद्दारी लिये आती है सौ-सौ मुश्किलें
ReplyDeleteरोग ये लग जाये तो इसकी दवा कुछ भी नहीं
वक्त से पहले ही बूढ़ा हो गया हूँ दोस्तों
तेजरफ़्तारी से अपना वास्ता कुछ भी नहीं
मेजर साहब विनोद जी के ताज़ा तरीन शेरॉन के साथ आपका अंदाज़ भी बहुत निराला है .......... शुक्रिया परिचय और ग़ज़ल पढ़वाने का ........ गहरी बात को विनोद जी बहुत हल्के अंदाज़ में कह गये हैं ...... शायद ये उनकी ख़ासियत है ..........
दिलचस्प.......गजल में दोहराव का खतरा बना रहता है .दूसरी विधायो की तरह यहां कम शब्दों में बात कहने की लिमिटेशनस शायर को ओर मापती है......ये शेर बहुत पसंद आया ......
ReplyDeleteउस किराने की दुकाँ वाले को सहमा देखकर
माल मन ही मन हँसा, लेकिन कहा कुछ भी नहीं
वक्त से पहले ही बूढ़ा हो गया हूँ दोस्तों
ReplyDeleteतेजरफ़्तारी से अपना वास्ता कुछ भी नहीं
dushyant ji ki bharpur ada hai
धन्यवाद इस प्रस्तुति के लिये।
ReplyDeleteकाम पर जाते हुये मासूम बचपन की व्यथा
ReplyDeleteआँख में रोटी का सपना, और क्या कुछ भी नहीं
आपका बहुत-बहुत आभार इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिये बहुत सुन्दर भावों के साथ लाजवाब रचना ।
मेजर साब......
ReplyDeleteक्या बेशकीमती हीरे से परिचय करा दिया आपने.......विनोद जी तो कमाल के शायर हैं.....कितनी आसानी से कह गए....
देखकर बाजार की कातिल अदा
ख्वाहिशों को सर उठाना आ गया
वाह वाह....
गणित के अध्यापक और गज़लगोई........दो विरोधाभाषों को कैसे संभाल रखा है मियाँ ने.......! ग़ज़ल-संग्रह "बेरंग हैं सब तितलियाँ" अब तो पढनी ही पड़ेगी.......!
क्या खूब कहा है.......
लाख चलिये सर बचाकर, फायदा कुछ भी नहीं
हादसों के इस शहर का, क्या पता, कुछ भी नहीं
वाह वाह.......
उस किराने की दुकाँ वाले को सहमा देखकर
मॉल मन ही मन हँसा, लेकिन कहा कुछ भी नहीं
शुभान अल्लाह
एक खुद्दारी लिये आती है सौ-सौ मुश्किलें
रोग ये लग जाये तो इसकी दवा कुछ भी नहीं
अब इसके बाद भी कुछ कहने को रह गया क्या......
मेजर साब ...............आपके तो हम कायल हैं हीं........शुक्रिया इतने शानदार पोस्ट के लिए....!
स्वम को गजलों के काबिल नहीं समझा लेकिन आपकी अधिकाँश पोस्ट मुझे चारों तरफ "साये में धूप" देखा रही हैं.. :-)
ReplyDeletekumar vinodji ki gazal achchi hai ...kal gulzaar sahab jaipur the...unhone is sawal ka jawab haan mein diya ki naye lafzon ka istemaal nahin kar paane ki vajah se urdu shayari zamane ke saath nahin chal pa rahi hai... jodhpur ke shayar sheen kaaf nizam sahab ne ek sher bayan kiya...
ReplyDeletesadak pe bheed lagi hai tamaashbeenon ki
mein hoon ki bijali ke taron se ulta latka hoon...
बहुत बढ़िया ..हर शेर अपनी बात कहता है शुक्रिया यह यहाँ पढवाने के लिए .
ReplyDeleteधन्यवाद ..
ReplyDeleteराजऋषिजी,
ReplyDeleteविनोद कुमारजी का हर अशार दाद का मुस्ताहिक है ! ग़ज़ल पर आपका बयान भी प्रभावित करता है; वस्तुतः हिंदी-साहित्य के हर मंच के हाशिये पर खड़ी है ग़ज़ल !
विनोदजी का नंबर डायरी में लिख लिया है, उन्हें जल्दी ही साधुवाद दूंगा स्वयं !
आभारी हूँ ! सप्रीत--आ.
gazal ka jikra nahi hota.sach he. fir bhi gazal badastoor jaari he aour apne poore andaaz me. uske premi kam nahi hue he..ab yeh baat alag he ki gazal ko jaanane-samajhne vaale kitane he? jo likhataa he shayad meri samajh me vahi jyada jaantaa he aour padhhtaa he. kher..,
ReplyDeletedushyantji ko hindi gazalo ka masiha manaa jaane lagaa he, aour jab bhi koi hindi me gazal likhataa he ham dushyantji ka naam le lete he. jabki usaki apni vidha kanhi nazarandaaj kar dete he..mujhe ynha bhi esa lagtaa he ki kuchh der ke liye ham dushyantji ko alag karke dekhe aour us bande ki gazal ka lutf le./
kumar vinodji ki gazale nissandeh sashkt he.
udan tashtri ke sameerji ne bilkul sahi likha he ki-कुछ तो बात होगी वरना
मेजर यूँ ही नहीं लिखता!!
aapke dvara likhi gazal ho yaa kisi ki samiksha ho yaa kisika parichaya ho..vo chhan kar nikaltaa he aour usame dam hota he...varna ham bhi aapki kalam me kabhi ke utar jaate.
bahut aabhaar ji apka.
कुमार विनोद साहब गणित के प्रोफ़ेसर है और हम ग्रेजुएट ,बड़ा करीबी रिश्ता है.ha ha !.सच में उनकी गजल को पढ़कर लगता है कि हमें तो गजल का क ख ग भी नहीं आता है...पढ़कर क्या आनंद आया शब्दों में बयां नहीं कर सकते... आप का गजलों के प्रति लगाव और समर्पण कि उनको न केवल खोज निकला बल्कि हमें भी उनका परिचय करवा कर अनुग्रहीत किया ..आपकी पोस्ट पढ़कर बहुत अच्छा लगा...आभार और शुक्रिया!
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteलाख चलिये सर बचाकर, फायदा कुछ भी नहीं
ReplyDeleteहादसों के इस शहर का, क्या पता, कुछ भी नहीं
... मुंबई शहर हादसों का शहर है... आज कल हर शहर है... .)
उस किराने की दुकाँ वाले को सहमा देखकर
मौल मन ही मन हँसा, लेकिन कहा कुछ भी नहीं
मुझे भी यह शेर सबसे ज्यादा पसंद आया... shukriya...
क्या गजब किया है गौतम जी...कितना धन्यवाद करूं समझ में नहीं आता. ऐसी गज़ल, कि बार-बार पढने, गुनगुनाते रहने को जी चाहे. आभार
ReplyDeleteएक खुद्दारी लिये आती है सौ-सौ मुश्किलें
रोग ये लग जाये तो इसकी दवा कुछ भी नहीं
बहुत सुन्दर. कुमार विनोद जी की कुछ और रचनायें भी उपलब्ध करायें न.
आप को गणतंत्र दिवस की मंगलमय कामना
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ReplyDeleteek baat sur sir....gantantra diwas ki shubhkaamanayen !!
ReplyDeleteएक ब्लॉग है ऐसा जो उम्दा कविताओं और गजलों का ’हॉट डेस्टिनेशन’ बनता जा रहा है..और जिस ब्लॉग पर सजती अंजुमन मे लोग भ्रमित हो जाते हैं कि मेहमान की तारीफ़ की जाय या उस ब्लॉग के अतिशय विनम्र मेजबान की ;-)
ReplyDeleteगज़ल के बारे मे जो आपने कहा है वो शायद सही हो मगर जब कुछ ’नादां’ लोग इस संक्रामक रोग को ब्लॉग-जगत पे फ़ैलाते रहेंगे..गज़लों के दीवाने कम नही होंगे..विनोद जी से और उनकी शायरी से तअर्रुफ़ कराने के लिये शुक्रिया..इससे कम उम्मीद करते भी क्या आपसे..
काम पर जाते हुये मासूम बचपन की व्यथा
आँख में रोटी का सपना, और क्या कुछ भी नहीं
क्या कल परेड की सलामी लेते वक्त कर्णधारों के जेहन मे इस सप्ने से भरी आँखें कौंधेगी क्या
और इस शे’र को अपने साथ ले जा रहा हूँ
एक खुद्दारी लिये आती है सौ-सौ मुश्किलें
रोग ये लग जाये तो इसकी दवा कुछ भी नहीं
हाँ एक जुर्रत और..आपकी बताई उम्दा शायरों की लिस्ट मे कुछ गौतम राजरिशियों को भी देखने की तमन्ना है कुछ तलबगारों की..
एक खुद्दारी लिये आती है सौ-सौ मुश्किलें
रोग ये लग जाये तो इसकी दवा कुछ भी नहीं
सर्व भाषा कवि सम्मलेन २०१० का आरम्भ ही संस्कृत ग़ज़ल के साथ होगा.
ReplyDeleteगणतंत्र दिवस की शुभकामनाओं के साथ...
ReplyDeleteकुमार विनोदजी की गज़ले यहाँ वहां पहले भी पढ़ी हैं ...और दुष्यंत तो सच ही ट्रेड मार्क रहे हैं ...
ReplyDeleteआपके मध्यम से इनसे मिलना बहुत ही अच्छा लगा ...
मगर जिस तरह से नवोदित शायरों , कवियों और कवियत्रियों की बखिया उधेड़ रहे हैं ...डर लगने लगा है ...कुछ प्रयोग उन्हें (हमें) भी कर लेने दीजिये ना ...:):)
गणतंत्र दिवस की बहुत शुभकामनायें ...!!
sometimes I think, How do you manage reading so much and also getting so much to read in a place like J&K. Is environment there is very literature friendly?
ReplyDeleteexciting presentation...
मेजर साहिब,
ReplyDeleteएक अजीमो शान फनकार से तार्रुफ़ कराया आपने..आपका शुक्रिया..
काम पर जाते हुये मासूम बचपन की व्यथा
आँख में रोटी का सपना, और क्या कुछ भी नहीं
क्या बात कही है जनाब कुमार विनोद जी ने, ख़ुदाया....!!
ये ट्रेड मार्क इसलिये बने क्योंकि लीक से हटे ।गजल माने शराब , हुश्न, इश्क ,यही लोगों को पता था और यही शायर लिखते थे- एक बात और जो हमारे इधर धारणा बन चुकी है कि पीकर ही गजल लिखी जा सकती है ,मंच पर बहुत अधिक नशा किये शायरों को पढते भी देखा । नवीनता दिखी लोग आकर्षित हुए ,एक नया पन लगा, बुद्ध मे नया पन लगा,महाबीर मे नया पन लगा ,लीक से हटे । आप तो रीतिकालीन साहित्य से दुष्यन्त के पहले वाली गजलो का मिलान करो बहुत समानता मिलेगी ।कबीर मे नया पन लगा ,। उर्दू के भारी भरकम शब्द "रोज-ए-अब्र-शबे-माहताव """"पैकर-ए-उश्शाक,साज-ए-ताले-ए-नासाज़,नाल गोया गर्दिश-ए-सैयार की आवाज़ है ""तो लोगों को जब यह पढने मिला कि यहां तक आते आते सूख जाती है सभी नदियां - क्यों ? आम सडकें बन्द है -क्यो?तो ट्रेड मार्क बन गये।
ReplyDeleteगजल संग्रह मगवाने और उनसे संपर्क के दौनो नम्बर नोट कर लिये है
एक अन्जाना-सा डर, उम्मीद की हल्की किरण
ReplyDeleteकुल मिलाकर जिंदगी से क्या मिला, कुछ भी नहीं
क्या बात है,गौतम जी आप तो एक से एक नायाब नगीने चुन कर लाते हैं...ऐसे ही मिलवाते रहें इन शख्सियतों से..ऐसे ही बेहतरीन ग़ज़लों का इंतज़ार रहेगा
waah Goutam ji
ReplyDeletekya kamaal ke nageene chun jaate ho
kaaml ke sher
puri gazal mein se koi sher kam nahi
kiraaye ki dukaan kya soch hai
haadson ka shahar
kya kahun
kitaab padhne ke liye bachain
sach kahte hain gazal gazal in sabhi ustaadon ki wajah se hi hai
मेज़र साब...
ReplyDeleteसोच रहे हैं के ग़ज़ल हाशिये पर खड़ी है या ग़ज़ल कि समझ रखने वाले....???
एक साहब ने कहा हे अमुक अखबार में अपनी ग़ज़ल भेजिए...हम ले भी गए जेब में अपनी एक ग़ज़ल रख कर...
उन सम्पादक महोदय ने हम से कहा के एक ग़ज़ल स्पेशल उनके अखबार लिए भी लिखें हम...
ऐसी ग़ज़ल जो उस अखबार को सूट करे....जो राष्ट्र से सम्बंधित ग़ज़ल हो......हमें कुछ समझ नहीं आया ...क्या ऐसी ग़ज़ल भी होती है....???
राष्ट्र पर ग़ज़ल....!
होने को होने में कोई दिक्कत नहीं...रदीफ़ काफिये और बह्र ही तो निभाना है...इसमें क्या मुश्किल है.....???
पर एक दम से जी खट्टा हो गया....जाने क्यूं...
और अपनी ग़ज़ल को अपनी जेब से निकाले बिना ही हाथ जोड़ कर नमस्ते कर वापस आ गए हम...
अब यहाँ ग़ज़ल को हाशिये पर खड़े होने कि बात देखी..तो दिमाग उलटा सोचने लगा....
यकीनन...
ग़ज़ल हाशिये पर नहीं हो सकती.....
चाहे सारा ज़माना हाशिये पर खडा हो.....
गौतम जी, शुक्रिया, विनोद जी से परिचय कराने का। नंबर नोट कर लेता हूं। ऐसी शख्सियत से मिलाना हम जैसे नौसिखुओं पर एहसान है। दिल लूट लिया इन शेरों ने जिन्हे आपने कोट किया है। और हां गज़ल के प्रति आपकी चिंता और दीवानगी को सलाम!
ReplyDeleteएक खुद्दारी लिये आती है सौ-सौ मुश्किलें
ReplyDeleteरोग ये लग जाये तो इसकी दवा कुछ भी नहीं
कुमार विनोद जी आभार और धन्यवाद् मेजर साहब.
शुक्रिया इस परिचय के लिए मेजर साब. गणित वाले भी ये सब कर लेते हैं... सुखद रहा ये जानना. कमाल हैं कुमार साब तो.
ReplyDeleteतीन गज़लें तत्सम पर पढ़ चुका हूँ. किताब का इंतज़ार है. पूरी किताब पढ़ कर कुछ कहूँगा. गज़ल का पाठक नही हूँ. मेरे लिए गज़ल का मतलब सुदर्श्न फाक़िर और क़तील शिफ़ाई है. मार्फत जगजीत सिंह और अन्य ....भाई द्विज्वेन्द्र द्विज की एक किताब भी देख रहा हूँ.
ReplyDeleteकुमार विनोद मे कुछ मिलेगा, ऐसी आशा है....
कुमार विनोद का नायाब नमूना पढ़वाने के लिए शुक्रगुज़ार हूँ. यार इतने नए कंटेंट्स, तबीयत मचली और बेसाख्ता वाह निकल पड़ा. गजल की यह तरक्की देख कर सीना कुछ और चौड़ा हुआ. गजलकारों की बाढ़ में हाशिए को मूल पृष्ठ बना देने वाले गजलकार अल्प संख्या में हैं, यही नंगी सच्चाई है.
ReplyDeleteयूनीवर्सिटी और महाविद्यालयों के प्रोफेसरों-लेक्चररों ने तो गजल को कविता से ख़ारिज करने की मुहिम ही चला रखी है एक जमाने से. इस पुनीत कार्य में में अधिकाँश पत्र-पत्रिकाओं के सम्मानीय सम्पादकगण भी कंधे से कंधे मिला कर शरीक हैं.
दुष्यंत ने उपन्यास लिखे, कहानियां लिखीं, गीत लिखे, कविताएँ लिखीं. यह सब कुछ बहुत ज्यादा लिखा. गजलें बहुत थोड़ी मात्रा में लिखीं जो 'साए में धूप'जैसी पतली सी पुस्तक में समा गईं. लेकिन इस, गजल लिखने जैसे अपराध के लिए, दुष्यंत को आज तक, किसी समीक्षक, आलोचक, विद्वान्, द्वारा महत्व नहीं दिया गया. वहीं दूसरी तरफ, कविता (फ्री वर्स) के नाम पर जो भी, जितना भी हो रहा है, सबकी नजर में है.
मैं हर लेखन का समर्थक हूँ, रचना का समर्थक हूँ लेकिन किसी एक विद्या को केवल इस नाते, हाशिए पर डाल दिया जाए क्योंकि 'डॉ. साहब' इस में जीरो हैं, इस का घोर विरोधी हूँ, निंदक हूँ. अनेक अवसरों पर, विभिन्न आयोजनों में इस मानसिकता का खुल कर विरोध कर चुका हूँ.
मैं शायद ज्यादा कडुवा हो गया. समय भी अधिक ले लिया. शुक्रिया मुझे याद रखने के लिए.
वक्त से पहले ही बूढ़ा हो गया हूँ दोस्तों
ReplyDeleteतेजरफ़्तारी से अपना वास्ता कुछ भी नहीं ।
ये शेर हम जैसों क लिये ही है . कुमार विनोद से मिलवाने का शुक्रिया . नीरज साहब के बाद आपने भी ये रोग पाल लिया समीक्षा का ।
गौतम'
ReplyDeleteतुमको बहुत बहुत आशीर्वाद !!
कुमार जी के शेर पढ़कर बहुत अच्छा लगा !!
आभार गौतम साहब का और तमाम दोस्तों का जिन्होंने अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त कीं । आप सबका प्यार पाकर मैं अभिभूत हूं। एक बार फिर आप सभी का तहेदिल से शुक्रिया।
ReplyDeleteगौतम भैय्या, कुमार विनोद जी से परिचय करवाने के लिए शुक्रिया.
ReplyDeleteग़ज़ल पढ़कर ही समझ आ गया है की किताब में कितनी अनमोल ग़ज़लें होंगी, लिंक पे जाके जब विनोद जी के अशआर पढ़े जैसे
"आस्था का जिस्म घायल रूह तक बेज़ार है
क्या करे कोई दुआ जब देवता बीमार है"
और
"कम से कम तुम तो करो ख़ुद पर यक़ीं, ऐ दोस्तो!
गर ज़माने को नहीं तुम पर यक़ीं, तो क्या हुआ ।"
तो बरबस ही मुंह से वाह वाह निकल पड़ता है.
कुमार विनोद जी से परिचित कराने का शुक्रिया ! गज़ल की जिन्दगी तो जी रहा है यह ब्लॉग !
ReplyDeleteअपूर्व भाई की बात से सहमति पूर्णतः -
"एक ब्लॉग है ऐसा जो उम्दा कविताओं और गजलों का ’हॉट डेस्टिनेशन’ बनता जा रहा है..और जिस ब्लॉग पर सजती अंजुमन मे लोग भ्रमित हो जाते हैं कि मेहमान की तारीफ़ की जाय या उस ब्लॉग के अतिशय विनम्र मेजबान की ;-)"
उस किराने की दुकाँ वाले को सहमा देखकर
ReplyDeleteमौल* मन ही मन हँसा, लेकिन कहा कुछ भी नहीं(*shopping mall)
adweetiya....bhaut bhaut shukriya padhwane ka or kumar saheb se milwane ka.
adweetiya??
Deleteadweetiya??
Deleteउस किराने की दुकाँ वाले को सहमा देखकर
ReplyDeleteमौल* मन ही मन हँसा, लेकिन कहा कुछ भी नहीं
wah!
dhanyawad aapka inse parichay karane ke liye....
गौतम साहब
ReplyDeleteआप यह भूल गये कि दुष्यन्त ट्रेडमार्क इसलिये बने कि उन्होंने बहुत कुछ तोड़ा। आज भी उर्दु ग़ज़ल वाले उन्हें शायर नहीं मानते। मैं ग़ज़लें ख़ूब पसंद करता हूं पर यह सच है कि ग़ज़ल ठहर सी गयी है। आधा वक़्त पुराने शेरों की नक़ल और आधा हम बेतुकों को गरियाने में निकल जाता है और इसके दर्म्यान जो निकलता है वह तुकों और काफ़िये की निबाह से आगे शायद ही जा पाता है।
कुमार विनोद की ग़ज़ल मैने हमकलम पर लगायी थी और इसलिये कि वह मुझे ख़ास लगती है। पर ऐसा मैं बहुत कम शायरों के लिये ही कह पाता हूं।
हां यहां-वहां में हमकलम का लिंक क्यूं नहीं भाई? हमसे क्या ख़ता हुई?
ReplyDeleteअफसोस मैं बहुत देर से आया, कहने को तो कुछ छोड़ा ही नहीं किसीने, अब क्या कहूँ, लेट आने की सज़ा क्या हो सकती है, चलो दो उट्ठक बैठक लगा लेता हूँ एक मत्ले के साथ।
ReplyDeleteउसके मेरे दरम्यॉं था फासिला, कुछ भी नहीं
सामने बैठा था पर उसने कहा, कुछ भी नहीं।
उसका ये अंदाज़ मेरे दिल प दस्तक दे गया
लब तो खोले हैं मगर वो बोलता, कुछ भी नहीं।
विनोद भाई, दिल खुश कर दिया आपके दुष्यंताना अंदाज़ ने। गौतम का आभार विनोद भाई से परिचय कराने के लिये।