मन की हालत कुछ अजीब-सी.अचानक से छुट्टी लेकर गांव आना पड़ा है.बराय मेहरबानी इस रिलायंस नेट-कनेक्ट के कि बिहार के इस सुदूर कोने में भी आप सब हिंदी प्रेमियों से जुड़ा हूँ.कोसी की विभिषिका अपना निशान चहुँ ओर छोड़े हुये है. माँ-पापा की छठ यहीं मनाने की जिद जब उन्हें यहाँ ले आयी तो पापा का अचानक बीमार पड़ना और इसलिये मेरी ये अचानक की छुट्टी.फ़ौज त्योहारों के लिये बेशक छुट्टी न दे,किन्तु परिजनों के हित की खातिर एक पल की भी देरी नहीं करती.मेरा ब्लौग चूंकि गज़लों-कविताओं को समर्पित है और ये सब बातें बस अपने विचलित मन की शांति के लिये आप सब के साथ बाँट रहा था.तो एक गज़ल पेश है.गुरू जी खुश नहीं थे मेरी इस गज़ल से:-
बहर है--> हजज मुसमन सालिम
वजन है--> १२२२-१२२२-१२२२-१२२२
अभी जो कोंपलें फूटी हैं छोटे-छोटे बीजों पर
कहानी कल लिखेंगी ये समय की देहलीजों पर
किताबों में हैं उलझे ऐसे अब कपड़े नये कोई
जरा ना माँगते बच्चे ये त्योहारों व तीजों पर
हैं देते खुश्बू अब भी तेरी हाथों वाली मिहदी की
वो टाँके थे बटन जो तू ने मेरी कुछ कमीजों पर
न पूछो दास्तां महलों में चिनवायी मुहब्बत की
लुटे हैं कितने तख्तो-ताज यां शाही कनीजों पर
वो नजदीकी थी तेरी या थी मौसम में ही कुछ गर्मी
तु ने जो हाल पूछा तो चढ़ा तप और मरीजों पर
लेगा ये वक्त करवट फिर नया इक दौर आयेगा
हंसेगी ये सदी तब चंद लम्हों की तमीजों पर
भला है जोर कितना एक पतले धागे में देखो
टिकी है मेरी दुनिया मां की सब बाँधी तबीजों पर
(त्रैमासिक पत्रिका " नयी ग़ज़ल" के जुलाई-सितम्बर 09 अंक में प्रकाशित)
अब गुरुदेव से माफी मांग लेते हैं मगर हमें तो गजल बहुत पसंद आ गई. वाह!! बहुत खूब..चलि, मिल कर ही डंडे खायेंगे मास्साब से. :)
ReplyDeleteभाई हमको बहर और वजन तो समझ नही आता ! हम ठहरे लट्ठ और भैंस वाले ! :)
ReplyDeleteपर गजल पढ़ कर आनंद आगया ! इसमे कोई दो राय नही ! गुरुजी आपसे निवेदन है की इनको डंडे मत मारना ज़रा प्रेम से समझा दीजियेगा ! :) @ गुरुजी , माननीय खंडेलवाल जी का कविता संग्रह इंदोर में कहाँ मिलेगा ? कृपया बताइयेगा ! आपकी कृपा होगी !
" well written, liked reading it ya"
ReplyDeleteRegards
Mehandi wala She'r bahut achcha hai.
ReplyDeleteIs copying disabled on your blog?
RC
भाई साहब ग़ज़ल तो मुझे भी अच्छी लगी मैं भी तैयार हूँ समीर जी के साथ गुरु जी से मर खाने लिए...
ReplyDeletebahut acchhey..
ReplyDeleteकहीं सुना था , आप के सामने रख रहा हूँ ;
ReplyDeleteयूं तसल्ली दे रहे हैं हम दिले बीमार को
जिस तरह थामे कोई गिरती हुई दीवार को
भाई आप की गजल बहुत सुन्दर लगी लेकिन आप के लेख ने इक याद को ताजा कर दिया.
ReplyDeleteधन्यवाद
पहले तो ये बताऒ कि पिताजी कैसे हैं अब ?
ReplyDeleteअम्मां ?
दोनों को चरणस्पर्श...Shubhkamnaen
और एक बेकार सी बात
कोई मुझसे सहमत हो या ना हो परन्तु मेरा मत है कि बहरोवज़्न जरूरी तो हैं लेकिन कविता में विचारों का नैसर्गिक प्रवाह भी जरूरी है. इसे समझे बगैर केवल तकनीक के सहारे कविता कहना सार्थक नहीं हैं
बहरहाल ...
ख़याल अपना-अपना....
आप सब का शुक्रगुजार हूँ इस हौसलाअफ़जाई और प्रोत्साहन के लिये..
ReplyDeleteऔर श्रद्धेय योगेन्द्र जी की बातों से मैं भी शत-प्रतिशत सहमत हूं.कविता के लिये विचारों का नैसर्गिक प्रवाह नितांत आवश्यक है.लेकिन "गज़ल" की अपनी बंदिशें हैं जिसके बगैर गज़ल कभी गज़ल नहीं कहलायी जा सकती है...
जहाँ पर गज़ल का अनुशासन विचारों की नैसर्गिकता और प्रवाह पर हावी होने लगे तो कविता-नज़्म सामने होती ही हैं,उनकी प्रस्तुती के लिये...
bahot badhiya, dhnyabad
ReplyDeleteapne mujhse puchha tha mai bihar me kahan se hun?
to mai darbhanga se hun, or chht pooja me vahin gaya tha esiliye blog se kuchh din door raha dhnyabad
आपकी ग़ज़ल मुझे अच्छी लगी और खासकर शुरूआती शेर बहुत सुंदर कहा है और वो "टाके थे बटन......" वाला शेर भी मगर ये जानने की भी बहुत उत्सुकता है की आख़िर गुरु जी खुश क्यों नही थे ज़रूर कोई बारीक चीज़ छूट गई होगी.
ReplyDeleteमैं देहलीज का वजन २१२२ समझ रहा था मगर ये बहुत बारीक चीज़ है जो तजुर्बे से ही आएगी.
ReplyDeleteअगर मैं सही हूँ तो ताबीजो वाला कोई शेर मुझे दिख नही रहा है.
काफिये है बीजो, देहलीजों, तीजों, कमीजों, कनीजों, मरीजों, तमीजों हैं.
भला है ज़ोर कितना एक पतले धागे में देखो,
ReplyDeleteइसका वजन कम है शायद.
भला १२ है २ ज़ोर २१ कितना २२ एक २ पतले २२ धागे २२ में १/२ देखो २२
१२२२-१२२२-२२२२-१२२
या फ़िर १२२२-१२२२-२२२२-२२२
दूसरे शेर में भी वजन कम है शायद,
टिकी है मेरी दुनिया माँ की सब बाधी ताबीजों पर.
टिकी १२ है २ मेरी २२ दुनिया २२ माँ २ की १ सब २ बाँधी २२ तबीजो 122 पर २,
१२२२-२२२२-१२२२-१२२२
ऐसा मुझे लग रहा है अगर कहीं गलती हो तो मुझे बताएं.
बाकि जिन भावनाओं और ख्याल से आपने ये शेर लिखा है उसकी तारीफ में मेरे ख़ुद लफ्ज़ नहीं हैं, माँ के बारे में तो जितना लिख दो उतना कम है.
furu ji ki class ke alaava mai kabhi bhi Bahar me rachnaa likh hi nahi paati...baar un se is cheej ke liye ksama maang chuli hu.n..!~
ReplyDeletekuchh shero ke bhav vaquai bahut achchhe hai.n. i.e. pahala, teesara aur akhiri..!
एक एक शेर बेहद खूबसूरत लगा, खास तौर से टांके हुए बटन से आती मेहंदी की खुशबू...लाजवाब कर गए आप तो
ReplyDeleteThe idea of putting up photographs of all the great respected Shayars, with Guruji's at the top is a really-really wonderful thought. The way you have put up a line from their Shayari is too good! Just loved it !!
ReplyDeleteWay to go! God bless you!! Dua hai in tasveeron ke neeche ek din aapki tasveer nazar aaye!
RC
बावलीबूच नाम चोक्खा सै भाई....
ReplyDeleteअत्यधिक सुंदर आज जो कोंपलें फूटी हैं वो समय की दहलीज़ पर कहानी लिखेंगी =हाल पूछने पर मरीजों का बुखार और बढ़ जाना =अभी तक तो रौनक बढ़ जाया करती थी /माँ द्वारा बंधी गई ताबीज पर जिन्दगी टिका होना इस शेर नेपूरी गजल में जान डाल दी है =रचना बहुत काबिले तारीफ बन गई है =अब मेरी समझ में ये नहीं आरहा है कि में तारीफ रचना की करूं या आपकी
ReplyDeleteBhai Gautam Rajrishi ji, Namaskar.
ReplyDeleteSabse pahale nav varsh ki shubhkamanayen.Aaj aapka blog pahali bar dekha aap bahut sunder ghazalen likhate hai. Yah ghazal bhi bahut achchhi hai, khaskar 'hain dete khushbu ab bhi teri hathon wali mehadi ki,wo tanke the batan jo tune meri kuchh kameejon men.' bahut sunder sher hai. Badhai.
Chandrabhan Bhardwaj
जो टाँके थे बटन तूने कमीज़ों पर वाह राजरिशि भाई वाह।
ReplyDeleteखूबसूरत ग़ज़ल मजा आ गया।