कैसे तो कैसे बीत जाता है ये कमबख़्त वक़्त और हम खर्च होते रहते हैं इसके इस बीतते जाने में...नामालूम से | पता भी नहीं चला और इस ब्लौग पर लिखते-लिखते छ साल हो गए | तो "पाल ले इक रोग नादां..." की छठी पर एक पुरानी ग़ज़ल :-
उफ़ ये कैसी कशिश ! बेबसी ? हाँ वही !
बेख़ुदी ? बेक़सी ? हाँ वही ! हाँ वही !
करवटों ने सुनी फिर कहानी कोई
रतजगों से जो लिक्खी गई ? हाँ वही !
एक सिगरेट-सी दिल में सुलगी कसक
अधजली,
अधबुझी, अधफुकी
? हाँ
वही !
रात की हाय ये दिल्लगी ? हाँ वही !
फोन पर बात तो होती है खूब यूँ
तिश्नगी फोन से कब बुझी ? हाँ वही !
सैकड़ों ख़्वाहिशें सर पटकती हैं रोज़
देख कर जेब की मुफ़लिसी ? हाँ वही !
ज़िंदगी जैसे हो इक अधूरी ग़ज़ल
काफ़ियों में ही उलझी हुई ? हाँ वही !
('लफ़्ज़' , 'गुफ़्तगू' और 'अभिनव प्रयास' में प्रकाशित)
लाजवाब !
ReplyDeleteहमेशा की तरह उम्दा गजल.
बधाई, उत्कृष्ट ग़ज़ल
ReplyDeleteसैकड़ों ख़्वाहिशें सर पटकती हैं रोज़
ReplyDeleteदेख कर जेब की मुफ़लिसी ? हाँ वही !
बहुत खूब...
ब्लॉग की छठी सालगिरह मुबारक हो
वाह बहुत बेहतरीन !!!
ReplyDeleteब्लॉग की छठी सालगिरह मुबारक हो
ReplyDeleteज़िंदगी जैसे हो इक अधूरी ग़ज़ल
ReplyDeleteकाफ़ियों में ही उलझी हुई ? हाँ वही !
बहुत खू हमेशा की तरह लाजवाब्1 ब्लोग की छ ठी साल गिरह की बहुत बहुत बधाई शुभकामनायें
उम्दा और बेहतरीन ...
ReplyDeleteनयी पोस्ट@जब भी सोचूँ अच्छा सोचूँ
आप को स्वतंत्रता दिवस की बहुत-बहुत बधाई...
ReplyDeleteदिल को छू जाने वाली है ये जिंदगी की गज़ल । स्वतंत्रता दिवस की बहुत शुभ कामनाएं।
ReplyDeleteबेहतरीन प्यारेलाल! उम्दा और प्रयोगात्मक ग़ज़ल! दिल छू लेने वाले अशआर !
ReplyDeletevaah ...behtareen
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