11 January 2010

कविता के बहाने कुछ टिप्पणियों का पोस्ट-रुपांतरण

किसी ब्लौग पर पढ़ा था कि "कुछ टिप्पणियाँ बस ’टिप्पणियाँ’ नहीं होतीं"... तो अपने पिछले ब्लौग पर मेरी उस कथित कविताई-शंका को दूर करने आयी कुछ टिप्पणियों को टिप्पणी-बक्से में ही छोड़ देना मुझे उन शब्दों की तौहीन करना प्रतीत हुआ। सोचा क्यों न उन्हें पोस्ट का रूप देकर उनकी उम्र लंबी कर दूँ...!

मुझे कविता कहना नहीं आता और न ही मैं कोई विज्ञ या साहित्य-मर्मज्ञ हूँ। मैं एक पाठक हूँ और तमाम किताबें अपने खून और पसीने की कमाई से खरीद कर पढ़ता हूँ- और ये कोई cliche' नहीं हैं...सचमुच के खून और सब-जीरो टेंपरेचर में भी बहाये गये पसीने की बात कर रहा हूँ मैं।...तो इस कमाई से खरीदी गयी पत्रिकाओं और कविता-संकलनों में उकेरी गयी कविताओं को अगर मैं पढ़ता हूँ तो उस पर कुछ कहना अपना अधिकार समझता हूँ और उस "कुछ कहने" के लिये मैं खुद को कोई साहित्य-मर्मज्ञ या आलोचक होना जरुरी नहीं मानता।

यूं तो इस "कविता" और "अ-कविता", छंदमुक्त, मुक्तछंद, आधुनिक कविता पे चली बहस पे पहले ही बहुत कुछ कहा जा चुका है, किंतु इन सबसे जुड़ी कुछ टिप्पणियाँ मुझे संग्रहणीय लगीं तो उन्हें एक-एक कर कापी-पेस्ट करता हूँ यहाँ:-

डॉ .अनुराग :-
मुझे नहीं मालूम के कविता की परिभाषा क्या है.उसके नाप तौल क्या है.मुझे इतना पता होता है जब लिखा गया पहचाना सा लगे और पढने वाला उससे जुड़ता सा लगे..वही खूबसूरत कविता है.

सुलभ सतरंगी :-
रही बात कविता की तो जिसमे लय है, वो कविता है चाहे वो छंद बद्ध हो या छंद मुक्त...जब तक लय कायम है, संवेदनशील सम्प्रेषण है, कविता सिर्फ कविता होगी. उसे अकविता या गध कहना ठीक नहीं है.

संजय व्यास:-
गौतम जी, एक काव्य-रसिक होने के नाते मैं कविता को लेकर आपकी चिंताओं को समझता हूँ.और बहुत हद तक इधर में आई कविताई 'खेप' पर आपके क्षुब्ध होने को साझा भी करता हूँ.मेरे अपने विचार में कविता का असर बाकी से अलग होता है,इसे कई कई बार पढ़कर भी पहले पाठ का सा आनंद मिलता है,ये हर बार अपने को भिन्न प्रकार से खोलती है और साथ ही इसमें एक आतंरिक लय भी चलती है.चाहे इसे किसी नियत अनुशासन में लिखा गया हो या नहीं.पर मैं इसे सिर्फ बौद्धिक होने के नाते एक विशिष्ट कर्म नहीं मान पाता.मैंने कहीं पढ़ा है कि नेरुदा का मानना था कि सिर्फ बौद्धिक कर्म होने के नाते कविता को कृषि कार्य से श्रेष्ठ नहीं कह सकते.खैर बात थोड़ी बहक रही है,मैं कहना चाह रहा हूँ कि यहाँ असहमति का प्रश्न ही नहीं है कि आधुनिक कविता के नाम पर जो आ रहा है उससे कविता के पाठक को बहुत शिकायत है और उस शिकायत को दर्ज भी होना चाहिए.मैं ग़ज़ल को एक बेहद कीमती विधा मानता हूँ और इसकी मर्यादा हर हाल में बनी रहनी चाहिए, ये आपसे बेहतर कौन कह सकता है.पर इधर हिंदी कविता में कुछ आह्लादकारी प्रयोग हुए हैं जिन्हें आप अनुनाद पर देख ही रहें हैं.उन पर भी आपका मत और विस्तार से अपेक्षित है...

पुखराज:-
भावनाओं को रूप देने का नाम ही कविता है ...ये मेरा ख्याल है...किसी का कुछ भी हो सकता है..

हिमांशु :-
मैं कविता का अतार्किक रूप देखता हूँ हरदम - कविता माने वह जो वितान से अधिक तान पर तने ! कविता माने वह जो गति से अधिक सुगति पर टिके ! कविता माने वह जो अर्थ दे वही, जो हमारे भीतर पैदा हुआ ! रूप के कटघरे में कैसा बँधना, संगठन के अवगुण्ठन में क्यों कर कसना ! कविता भी वही जो खुद के रचान पर अर्थसंयुक्त हो सबको ललचाये-लुभाये, कविता का अर्थ भी वही जो पढ़ते हुए सबके अन्दर वही पैदा करे जो वस्तुतः अर्थ है !

रचना दीक्षित:-
रही बात कविता की तो वही द्रष्टि का सवाल है "जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखि तिन तैसी " ...

कंचन सिंह चौहान:-
मैं भी अक्सर सोचती हूँ कि डायरी के कुछ पन्नो की इबारत लिख कर एण्टर मार दूँ तो शायद कविता बन जाये...

दिनेशराय द्विवेदी :-
मुक्त छंद का अपना आनंद है। बहर में ग़ज़ल या छंद में कविता का आनंद उस सिद्धहस्तता के बाद आता है जो तुलसी और ग़ालिब को हो गई थी। तब कवि सिर्फ सोचता है और कहता है बहर या छंद उस का गुलाम होता है। वर्ना हम हर कविता में बात का गला घोंट रहे होते हैं। फिर भी कभी तो बात ऐसी होती ही है कि मुक्त छंद में कहनी पड़े सीधी सीधी।

...और इसी से संबधित गिरिजेश जी का इ-मेल मिला जिसे मैं यहाँ उद्धृत करने का मोह छोड़ नहीं पा रहा:-

From: eg
To: gautam_rajrishi@yahoo.co.in
Sent: Tue, 5 January, 2010 9:10:39 AM
गौतम जी,
मुझे समझ में नहीं आया कि इस टिप्पणी को कहाँ दूँ, इसलिए मेल लिख रहा हूँ। यह स्थिति ब्लॉगरी की एक सीमा है।
आप की दी हुई वैतागवाणी की लिंक पढ़ने के बाद लिख रहा हूँ। बहुत पहले अज्ञेय ने एक बात कही थी जिस पर आज भी बवाला मचता रहता है - कविता मंच पर पढ़ने वाली बात(चीज?) नहीं है।-कुछ ऐसा ही कहा था। सही शब्द मैं भूल गया हूँ। कविता को मंच न मिलना एक त्रासदी है। यह त्रासदी लोक से कविता को अलग कर देती है। पीड़ादायक यह है कि हमारे हाथ इस स्थिति को रिवर्स करने जैसा कुछ भी नहीं है।
आप कहेंगे कि कविता ने खुद को ऐसा बना लिया। नहीं, मामला इतना सरल नहीं है।
आप कहेंगे कि ग़जल तो लोग सुनते ही हैं। मैं कहूँगा - महफिल महफिल, मंच मंच में फर्क है।
वह एक ईमानदार उद्घोष था - नए जमाने के कवि का। उस कवि का जो शिक्षित है, नागर है, संभ्रांत है। अब गँवार जन, अशिक्षित जन कविता नहीं कहते। उनके पास इसके लिए समय नहीं। "और भी गम हैं..." से 'और' हटा दीजिए। बस गम हैं जिनके अन्धकार कविता रचने लायक नहीं छोड़ते। कविता पढ़े लिखे मध्यमवर्गी, धनी या ठीक ठाक से शहरियों की जिम्मेदारी हो गई है (अपवादों को छोड़ दीजिए)। उनकी जटिलताएँ कविता में आएगीं ही। जटिलताओं के बोझ तले छ्न्द टूटेंगे, शिल्प टूटेंगे। भविष्यकाल में मैं क्यों कह रहा हूँ? ऐसा बहुत पहले हो चुका है।संवेदनाएँ जीवित रहें, सरोकार बने रहें - यही बहुत है। अब कविता क्रांति(विस्तृत अर्थ में समझें) की हथियार नहीं हो सकती। मैं निराश लग रहा होऊँगा लेकिन तथ्य को हमारी आशा निराशा से फर्क नहीं पड़ता। अधिक नहीं लिखूँगा - आप मेरी लम्बी कविता 'नरक के रस्ते' को तसल्ली से पढ़िए। यह वह कविता है जो तकरीबन 10 साल पहले रची गई थी, ग़ायब हो गई और बहुत उहापोहों के बाद दुबारा ब्लॉग के लिए रची गई। ग़ज़ल, छ्न्द, गीति, यहाँ तक कि लय के अलावा भी एक भावभूमि है जो प्रशंसा नहीं तो स्वीकार तो माँगती ही है। ... गद्य की टूटी फूटी पंक्तियाँ भी कविता हो जाती हैं। कुछ भावनाओं बातों को गद्य में सम्प्रेषित नहीं किया जा सकता या यूँ कहें कि उनकी आब दिखानी ही जरूरी है, लोग जो मायने लगाएँ। शायद यह कविता के अभी भी प्रासंगिक होने के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क भी है और उसकी आशा भी।
सादर अभिवादन, मेरे योद्धा कवि!
कभी सोचा भी नहीं था कि ऐसा सैनिक भी मिलेगा जिससे ऐसी बातें होंगी।
मुझे हिन्दी ब्लॉगरी और योद्धा दोनों पर नाज है।
-गिरिजेश

...इन सबसे परे एक छोटी-मोटी बहस चली अनुनाद पर यहाँ और वैतागवाड़ी पर यहाँ और एक जोरदार बहस चली कृष्ण कल्पित जी की एक अद्‍भुत रचना के बहाने एक जिद्दी धुन पर यहाँ, जिसमें अजय जी, शरद कोकास जी, डा० अनुराग और अपूर्व के विचार इस बहस को एक जरुरी उँचाई प्रदान करते हैं। खासकर अपूर्व के शब्दों को देखने का आग्रह अवश्य करुंगा आप सब से। ...और इन तमाम बहसों की पृष्ठभूमि में उधर किशोर चौधरी साब अपनी शरीके-हयात से परिचय करवाने के बहाने कितना कुछ कह जाते हैं इसी कविता पर यहाँ, जरा देखिये तो।

आखिर में अनाम बंधु को दिल से शुक्रिया उनके इस संग्रहणीय लिंक के लिये और इन दो पंक्तियो के लिये:-
"कविता में अनिवार्य है कथ्य शिल्प लय छंद
ज्यों गुलाब के पुष्प में रूप रंग रस गंध"

बहस का समापन होता है मनु जी के इस कथन से:-

वर्टिकल फ़ार्म में लिखी हुई हर चीज आजकल कविता हो गयी है.... :-)

69 comments:

  1. इसे तो एक टिप्पणी चर्चा का स्वरुप मान अतुकांत कविता/ अकविता या जो भी उचित नाम लगे, उस विमर्श का अध्याय मान संग्रहित कर लेता हूँ...

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  2. अच्छा लगा भाई ये अंदाज तो। टिप्पणियों के बहाने कविता को व्याख्यायित करती यह पोस्ट वाकई एक प्रयोग है।

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  3. मेजर साहब,

    ये नई विधा भी शानदार रही...

    जय हिंद...

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  4. कविता की इतनी सारी व्याख्या रोचक रही आभार...
    regards

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  5. कुछ भी कह दो भाई
    जब कविता होती है
    तब कविता होती है
    कविता अचानक होती है
    और बस हो जाती है।

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  6. श्रेष्ठ-विचारों की उम्र लम्बी होती है , वे इंसानों को कपड़े की तरह पहनते/उतारते/त्यागते
    रहते हैं --- वासांसि जीर्णानि यथा विहाय --- पोस्ट/टिप्पणी से अप्रभावित-से हैं ये ,
    हाँ , कविता पर ब्लॉग-बौद्धिकों के विचार अच्छे लगे ..
    अब मैं अपने प्रिय अवधी कवि 'रमई काका ' की कविता रखना चाहता हूँ ...
    '' हिरदय की कोमल पंखुरिन मा,जो भंवरा अस ना गूँजि सकै |
    उसरील हार हरियर न करै , टपकत नैना ना पोंछि सकै |
    जेहिका सुनिकै उरबंधन की बेडी झनझनन न झंझनाय |
    उन प्रानन मा पौरूख न भरै , जो अपने पथ पर डगमगाय |
    अन्धियारू न दुरवै सबिता बनि, अइसी कबिता ते कौनु लाभ ?''
    ............... काव्य-प्रयोजन भी तो कविता को परिभाषित करेंगे न !
    .
    ....... आभार ,,,

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  7. राजरिशी जी
    आप के विचार अच्छे लगे
    और निसंदेह आप एक अच्छे लेखक है
    बहुत बहुत आभार

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  8. राजरिशी जी
    आप के विचार अच्छे लगे
    और निसंदेह आप एक अच्छे लेखक है
    बहुत बहुत आभार

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  9. gautam ji

    aap to bas likhte rahiye bina in dwandon mein fanse.........ye duniya ha iska kaam hai kahna aur hamara apna karam karna arthat jo dil kahe wo likhiye bikul aaksh mein udte swachhand panchhi ki tarah ........kya jaroorat hain bandishon mein bandhne ki aur apne bhavon ka gala ghonte ki.........hamein to nhi lagta ki aise bandhanon mein bandha jaye.........bas apne bhavon ko shabd diye jayein jo har kisi ke antas mein utar jayein to samajhiye likhna sarthak huaa..

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  10. परिणाम अब भी नही आया और परिणाम नही आयेगा....!

    क्यों ???

    आपके उदाहरण गोली बंदूक के होते हैं, मेरे नारी वाले ही होंगे।

    तो ..अक्सर देखा है, कि जिन्हें खूबसूरती ईश्वर से सहज उपहार स्वरूप मिलती है, वो हमेशा प्रसाधनों का विरोध करते हैं... क्यों कि उनके चेहरे के नूर को किसी पार्लर के फेशियल की ज़रूरत नही होती.....!!!

    मगर वो जिन्हे साधारण नैन नक्श मिले हैं, चमकने का मन उनका भी होता है। ये एक बहुत ही सहज प्रक्रिया है, इससे आप किसी को रोक नही सकते....!!!

    हाँ अपवाद सर्वत्र है, तो कुछ ऐसे भी हैं, जो सिर्फ दूसरों की खूबसूरती की प्रशंसा कर के ही रह जाते हैं और स्वयं जैसे हैं वैसे ही ठीक है।

    लय और छंद में लिखना कविता एक दैवीय उपहार है, ठीक उस तरह जिस तरह खूबसूरत चेहरा, खूबसूरत आवाज़, खूबसूरत चित्रकारी। गाने का मन मेरा भी होता है मगर गला साथ नही देता तो क्या गाना छोड़ दूँ....! बस वैसे हर भावुक व्यक्ति का अपनी बात को कहने का मन होता है। उसे छंदबद्ध करना हमेशा संभव नही होता मगर उसे मन में रखना भी संभव नही होता। आग को आप ढक्कन से कब तक दबा सकते हैं ?? ये सहजता किसी भी तर्क वतर्क के रोके नही रुकेगी....!!

    हाँ ये मैं कह रही हूँ...! मै..जो कि हमेशा छंद नही तो लय में तो लिखती ही हूँ....!! (अपवाद इसके भी हैं।)

    मगर फिर ये भी कहूँगी... कि कुछ लोग कविता के नाम पर कुछ भी परोस दे रहे हैं, जो ना लय में है ना भाव में.. वहाँ थोड़ा कष्ट होता है...मगर फिर अभिव्यक्ति के अपने अपने तरीके हैं...हम किसी को इन चीजों पर बहस कर के रोक नही सकते...!!!

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  11. मेजर साहब .......... लगता है अभी बहुत कुछ जानना शेष है आपके बारे में ......... आप का ये टिप्पणी चर्चा अंदाज़ भी अच्छा लगा .....

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  12. आपकी खासियत यह है कि अपनी पोस्ट कम .. सब जगह से ढूंढ- ढूढ़ कर अच्छा पढ़ने और लिखने को मजबूर करते हैं ..

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  13. फिलहाल आप के दिये सभी लिंकस् पर नहीं जा सका हूँ लेकिन कृष्ण -कल्पित की कविता वाले लिंक पर जरूर जाऊँगा। रायशुमारी पर्याप्त हो चुकी है इससे निष्कर्ष निकाला भी जा सकता है लेकिन कोई कुछ भी कहदे मानने वाले वही मानेगें जो उन्हें मानना हैं, आखिर सभी थोड़े बहुत कवि हैं न। उनके मानने में उनकी अपनी योग्यता और सीमायें आढ़े आती हैं।
    देखिये कविता कुछ तत्वों का संघटन है जहाँ यह पूरा होता है वहाँ कविता होती है। जैसे घर है, उसका कोई एक नक्शा नहीं है लेकिन किसी भी चार दीवारी को देखकर हम सहज ही बता सकते हैं कि यह घर है। अब घरों की श्रेणियाँ हैं, उनमें महल से लेकर झोंपडियों तक आते हैं। ध्यान रहना चाहिये की आवासों में भी खण्डहर, पुख्ता, कच्चे, बड़े, छोटे, स्थाई, अस्थाई,रैनबसेरे, धर्मशाला, होटल दीर्घजीवी, क्षणभंगुर आदि हो सकते हैं।

    इसी तरह कविता में कथ्य, भावप्रवणता, भाषा, प्रवाह, मूल्य, शैली आदि संघटक तत्व हैं। इनका जितना अच्छा और जितना ऊँचा निर्वाह कविता में होगा उसी के अनुसार वह कविता होगी। लोग तर्क में महल वाले झौंपडियों को घर मानने से इंकार करते हैं और कमरे वाले महल को अनावश्यक मानते हैं।

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  14. टिप्पणियों के बहाने बड़ा ही महत और सार्थक विषय उठाया आपने....
    व्यक्तिगत रूचि की कहूँ तो, कविता के नाम पर आज जो भी प्रयोग हो रहे हैं और ,उन्हें अकविता कह भी कविता मन जा रहा है,मुझे सर्वदा वह उपयुक्त नहीं लगता...
    मेरे लिए तो कविता गहनतम भावों का तरल सरस प्रवाहमयी वह रूप है,जो पाठक के मन को भी उसिस मात्र में रसयुक्त कर दे....शुष्क गद्त्यात्मक कविता के स्थान पर बात को विसुद्ध गद्य रूप में प्रस्तुत कर देना मुझे अधिक उचित लगता है..

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  15. टिप्पणियों के बहाने यह पोस्ट तो बहुत रोचक बन गयी...और कविता पर अच्छा खासा विमर्श भी हो गया...इतने सारे लिंक देख, लगा..एक नयी दुनिया ही खुलती चली गयी...और एक विचार आया मन में 'चिटठा चर्चा ' की तरह 'कविताओं की चर्चा' भी अलग से क्यूँ नहीं शुरू की जाती....कई सारी अच्छी कविताओं के लिंक एक जगह ही मिल जाया करेंगे और उनपर किये गए विचार विमर्श से पढने वालों को बहुत लाभ मिलेगा.

    इतनी काव्यमय बातों के बीच भी, एक अलग सी बात कहने का लोभ संवरण नहीं कर पा रही हूँ...गौतम जी,मैं अक्सर कहती हूँ.... गृहणियां भी खून पसीना एक कर के ही घर चलाती है..सब्जी काटते वक़्त कभी ना कभी खून बहता ही है...और रोटियाँ बनाते वक़्त पसीना :)...और यह भी कोई 'cliche ' नहीं है.:)

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  16. कविता क्या है ये अब तक बहस का ही मुद्दा है
    कविता में क्या-क्या समा सकता है, कुछ लोग ग़ज़ल और नज़्म को भी कविता ही कहते हैं
    कुछ लोग मुक्तक और रुबाई गीत को भी कविता
    कुछ तो यहाँ तक कहते हैं पद्य की हर विधा पहले कविता है फिर उसके बाद उसका कोई और रूप है
    आजकल आज़ाद कविता आज़ाद नज़्म , एक विचार पर लिखी जाने वाली बिना लय की कविता और नज़्म भी अस्तित्व में है

    हमेशा छंद बद्ध करना अपने भाव को आसान नहीं होता
    कविता बस एक फ्लो में विचारों का तारतम्य टूटे बिना पढ़ी जा सके
    कविता को सोरठा और चौपाई में बांधना शायद विचारों पर रोक लगाने के जैसा हो जाए

    हमेशा से एक और भी परेशानी रही नज़्म, कविता में फर्क कैसे हो
    किसे आज़ाद नज़्म कहेंगे किसे कविता
    ये बहस ये उत्तर पढ़ कर लगा कुछ सार्थक चर्चा चल रही है तो अपना भी एक सवाल करती ही चलूँ

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  17. ....कविताई शंका -पोस्ट-टिप्पणी-पोस्ट-...एकसार्थक बहस-
    सभी के विचारों को पढ़ा.आज आई टिप्पणियों में
    रंजना जी की इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ-कि-
    [ कविता गहनतम भावों का तरल सरस प्रवाहमयी वह रूप है,जो पाठक के मन को भी उसिस मात्र में रसयुक्त कर दे...
    शुष्क गद्त्यात्मक कविता के स्थान पर बात को विसुद्ध गद्य रूप में प्रस्तुत कर देना मुझे अधिक उचित लगता है]

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  18. " मगर फिर ये भी कहूँगी... कि कुछ लोग कविता के नाम पर कुछ भी परोस दे रहे हैं, जो ना लय में है ना भाव में.. वहाँ थोड़ा कष्ट होता है...मगर फिर अभिव्यक्ति के अपने अपने तरीके हैं...हम किसी को इन चीजों पर बहस कर के रोक नही सकते...!!!"

    सही कहा. बिलकुल नहीं रोक सकते कंचन सिंह चौहान जी,
    " अपने तईं हर रचना एक कविता होती है.हम किसी भी रचना को खारिज नहीं कर सकते " इस सृष्टि को भी नहीं. शायद अपूर्व जी ने भी यही कहने का प्रयास किया है.

    nice post , gautam.

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  19. चाहे देर से ही सही.

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  20. मनु जी ने कमाल की बात कही है....बहुत समझदार हो गए हैं अब वो समय के साथ.
    कविता क्या है पर बहस की जा सकती है...लेकिन उसकी परिभाषा जान कर होगा भी क्या...क्यूँ इस झमेले में पढ़ें...क्यूँ न हम कविता लिखें और दूसरों की पढ़ें...
    नीरज

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  21. ज्ञानीजन कह गये हैं-पहले तो मनुष्य जन्म दुर्लभ, फ़िर विद्या-प्राप्ति और भी दुर्लभ। विद्या-प्राप्ति हो भी गई तो कवि होना दुर्लभ और कवि हो भी गये तो सुकवि होना अत्यंत दुर्लभ है। कविता क्या है ये प्रश्न तो बड़ा ही गूढ़ है और समय के साथ कई चीजें बदली हैं। अब जैसे एक समय था जब कविता सिर्फ़ विनोद की वस्तु थी-"काव्यशास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम"। कालांतर में कविता अस्त्र के रूप में भी सामने आई, जैसे आल्हा की ये लाइन-"जाके बैरी जिंदा बैठे ताके जियन को धिक्कार" इससे प्रेरित होकर कई लोग युद्धरत हुये। जहां तक मेरी बात है मैं इससे पूर्णतः सहमत हूं कि जहां भी सत्यं, शिवं और सुंदरं का मिलन होता है वहां कविता होती है। कई बार तो मुझे लगता है मनुष्य ईश्वर की लिखी एक कविता है। किसी डाल पर खिले फूल को भी मैं प्रकृति की लिखी कविता ही मानता हूं। वो कहते हैं ना-

    कोई हद ही नहीं शायद मुहब्बत के फ़साने की
    सुनाता जा रहा है जिसकि जितना याद होता है

    मुझे लगता है कविता की भी कोई सीमा नहीं है, जो जितना समझ पाता है, उतने को शब्द देने की कोशिश करता है।

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  22. अपनी ओर से कुछ नहीं कहूँगा। बस प्रभाकर माचवे की एक कविता उधृत कराने का मन है :

    'कविता क्या है ? कहते हैं जीवन का दर्शन है-आलोचन ,
    ( वह कूड़ा जो ढंक देता है बचे-खुचे पत्रों में के स्थल ।

    " कविता क्या है ? स्वप्न वास है उन्मन कोमल ,
    ( जो न समझ में आता कवि के भी ऐसा है वह मूरखपन )

    कविता क्या है ?आदिम कवि की दृग झारी से बरसा वारी-
    ( वे पंक्तियां जो कि गद्य हैं कहला सकतीं नहीं बिचारी ) "

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  23. मासिक पत्रिका "वर्तमान साहित्य" के इस जनवरी वाले अंक में श्री नरेन्द्र तिवारी जी के कुछ दोहों ने ध्यान आकृष्ट किया तो आपलोगों के साथ साझा करने का मन किया। सामयिक -सी हैं पोस्ट के संदर्भ में। सुनिये:-

    कवि होने को कर दिया सर्वाधिक आसान
    मुक्तछंद ने नोच कर कविता के परिधान

    बेतरतीब प्रलाप को रचना कहें महान
    बेचारी कविता सहे, खोती जन-पहचान

    खुद समझें खुद ही लिखें, खुद ही करे बखान
    नीरस कविताई करें, बने फिरें रसखान

    ढ़ाई पृष्ठों में छपी, कवि की फोटो साथ
    पूरी कविता पढ़ गये, लगा न कुछ भी हाथ

    मित्रों! केवल उसी का मुक्तछंद अधिकार
    बंदिश में जो दे सके, कविता को आकार

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  24. आदरणीय गौतम साहब,
    बहुत कम ऐसा होता है कि पोस्ट के साथ उसपर की गई टिप्पणियाँ भी संग्रहणीय हों। आज आपकी यह पोस्ट कुछ इसी तरह की है। सच में आप जैसे जाँबाज़ की इस संजीदा जाँबाज़ी को हमेशा सलाम करने को जी चाहता है।
    अब आपकी तबियत कैसी है सर ? आशा है अब तो सब कुछ दुरुस्त हो गया होगा।
    शुभकामनाओं सहित।

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  25. पिछले कुछ दिनों में कतिपय हिंदी ब्लोग्स पर कविता को लेकर जो विमर्श हुआ है उसने ब्लोगिंग के सकारात्मक पहलू को सामने ला दिया है.
    सच में तमाम तरह की खड़क-टंकारों में सबसे प्रिय ध्वनि यही लगी.कविता को कविता बनाने का काम छंद या उससे मुक्ति की कलेवारीय विशेषताओं से अलग कौनसा 'एक्स फेक्टर'करता है ये जानने में मदद मिली.सबसे अच्छी बात ये रही कि कोई मतैक्य बनाने का प्रयास नहीं किया गया.
    यहाँ उस पूरे के लिंक्स और कुछ
    प्रतिक्रियाओं ने इस पोस्ट को गज़ब का महत्वपूर्ण बना दिया है.और इस पर आ रही टिप्पणियां 'आइसिंग ऑन द केक' की तरह हैं.

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  26. अगर आप बेबाक होने की इजाजत दे सर जी तो कहूँगा कि एन डी टी वी वाले विनोद दुआ (या बरखा..फ़ॉर अ चेंज) का कार्य कर रहे हैं आप ब्लॉग पर..और मेहनताना भी नही..गुड जॉब :-)
    इसी बहाने कई विद्वानों/विदुषियों की टिप्पणियाँ मेरे टटपुँजिये दिमाग के जंग लगे ताले को खोलने/तोड़ने के काम आयीं..मगर रविकांत जी की इस बात पर तो फ़िदा हो गया बस-

    'कई बार तो मुझे लगता है मनुष्य ईश्वर की लिखी एक कविता है। किसी डाल पर खिले फूल को भी मैं प्रकृति की लिखी कविता ही मानता हूं।’

    इसी बात पर खलील जिब्रान जी जो मेरे बेहद पसंदीदा लेखकों मे हैं, का एक वाक्य जेहन मे आया पढ़ा था कहीं (शायद ’सैंड एन्ड फ़ॉम’ पर), कुछ ऐसे था-

    Trees are the poetry that earth writes upon the sky, We fell them down and turn into paper to pour our emptiness upon them.

    खैर मुझे लगता है कि कविता/अकविता आदि परिभाषाओं का सवाल समीक्षकों,शोधार्थियों के लिये ज्यादा महत्वपूर्ण है, मेरे जैसा एक सामान्य पाठक परिभाषा के चक्कर मे नही पड़ता, मैं ब्लॉग्स/पत्रिका आदि पर कविताएं पढ़ लेता हूँ..जिसमे मजा आता है और डूबने का दिल करता है, वो मेरे लिये कविता हो जाती है ...और जिसमे आनंद नही आता तो आगे बढ़ जाता हूँ, यही मेरी कविता की डेफ़िनीशन है, क्या करें, चवन्नी जो खर्च नही होता ना ;-)
    वैसे आपकी पोस्ट की एक बात से दिमाग मे कुछ और उधेड़बुन चालू हुई..मगर फिर कभी.

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  27. KAVITA KE BARE MEN SABKE VICHARON SE AVGAT KARANE KE LIYE AABHAAR.

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  28. मेजर साब,
    आपने कविता पर बहस को सर्वग्राही और व्यापक बनाया है ज्यादा नहीं लिखूंगा यहाँ पर शीघ्र ही एक आलेख के साथ उपस्थित होता हूँ . आपने जिन ज्ञानीजनों का उल्लेख किया वे सच में गंभीर है ऐसा मेरा मानना है.

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  29. हम अब गद्य मोड में चले गए हैं ;)

    बहस बहुत अच्छी रही। जो कहते हैं कि ब्लॉगरी में स्वस्थ बहस नहीं हो सकती, वे यहाँ आएँ।
    कविता का वातावरण चाहे जैसा हो संस्कारित कर देता है।

    शुक्रिया मित्र ।


    कभी मिलेंगे तो खूब बतियाएँगे।
    अपनी छन्द बद्ध रचनाएँ सुनाएँगे।

    एक कसम सबसे पहले ले कि
    आप गोली नहीं चलाएँगे - :)
    टूटी लाइनों की कविता जरूरी है
    मजबूरी है, सबूरी है, समझाएँगें।

    जय हिन्द।

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  30. गौतम साहब इन गिरिजेश जी की एनर्जी से बच के रहिएगा, बस इतना याद रहे.

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  31. अच्छा लगा सबके विचारों को पढ़कर। लिंकों के लिए शुक्रिया गौतम। इसे कहते हैं सार्थक लिंकिंग जिससे विषय वस्तु को समझने में सहूलियत हो। नरेंद्र तिवारी जी के दोहों में मेरे मन की बात कह दी गई है।

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  32. mujhe vicchar padhkar maza to aaya..par sach bataun to jyada chamka nahi :). Probably mai kabhi kavita define hi nahi kar paata.

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  33. गौतम जी पंजाब की एक नामचीन कवयित्री हैं सुखविंदर 'अमृत' लिखतीं हैं .........

    सभ्यता की लपट से
    कुदरत की विशालता की और झांकती हुई हसरत है कविता ......

    मुहब्बत तथा सुन्दरता के लिए
    उडिकता ह्रदय है कविता .....

    सारी कायनात के हितों के लिए सोचता हुआ मस्तक है कविता .....

    मैली परम्परा को नकारती हुई आत्मा है कविता ......

    दमन और अन्याय पर उठी हुई आवाज़ है कविता ......

    शिल्प और सहज का नर्म फूल है कविता .....

    अँधेरे की दुनिया से प्रकाश की दुनिया की ओर जाती राह है कविता ....

    और अब मैं कहूँ तो..... जिन शब्दों से दिल को सुकून मिले ...सांसों को राहत .....दर्द को हौंसला .....आँखों को बह जाने की मोहलत वह कविता है ......!!

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  34. गौतम आपको कविता करना भी आता है और पढना भी. और आप विज्ञ और मर्मज्ञ भी हैं. हमारे ब्लोग्स पर आपकी टिप्पणियां और ये पोस्ट इस बात की गवाही देती है. बाक़ी जो विज्ञ और मर्मज्ञ कहाते हैं उनके लिए निराला की पंक्तियाँ-

    खुला भेद विजयी कहाए हुए जो,
    लहू दूसरों का पिए जा रहे है.

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  35. गौतम जी, आदाब.
    भावनाओं की सटीक और प्रभावशाली अभिव्यक्ति
    ग़द्य या पद्य किसी भी विधा में हो सकती है
    माशा अल्लाह आप दोनों में माहिर हैं
    शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

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  36. हम त्रो बस यही कहेगे कि अच्छा लगा आप का यह आंदाज

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  37. .
    .
    .
    प्रिय गौतम,

    कवि होने को कर दिया सर्वाधिक आसान
    मुक्तछंद ने नोच कर कविता के परिधान
    मित्रों! केवल उसी का मुक्तछंद अधिकार
    बंदिश में जो दे सके, कविता को आकार


    यहाँ पर आप ये कह रहे हो...

    और इसी तरह चिठ्ठा चर्चा पर आदरणीय डॉ० श्याम गुप्त अपनी टिप्पणी में कह रहे हैं...

    सारे चित्र मूर्खतापूर्ण , कलाहीन व कला के नाम पर कलंक हैं। आडी तिरछी रेखाओं व भौंडी आक्रितियों को कला कहना कला व कला की देवी सरस्वती का अपमान है। जिन्हें चित्रकारी नहींआती वे ही एसी ऊल जुलूल चित्र कारी करते है और वैसे ही समीक्षक समीक्षा।

    निरपेक्ष होकर यदि देखा जाये तो आप दोनों लोगों का पूरा जोर शिल्प पर है तथा इस बात पर भी है कि कथ्य को समझने के लिये रचनाकार की व्याख्या की जरूरत न रहे... इसके अतिरिक्त आप लोग यह भी चाहते हैं कि रचना ऐसी न हो कि विभिन्न लोग उसका भिन्न-भिन्न अर्थ निकाल सकें।

    पर शिल्प लय छंद में बंध कर ही रचना होनी चाहिये इस बात पर हमेशा दो मत रहेंगे... छंदमुक्त आधुनिक कविता करने वाले कवि और "कविता में अनिवार्य है कथ्य शिल्प लय छंद"
    मानने वाले परंपरागत कवि इसी तरह दूसरे को अपने से हेय समझते रहेंगे... पर एक बात पक्की है कि पाठक दोनों श्रेणियों की अच्छी रचनाओं को दाद देता रहेगा और बुरी रचनाओं से किनारा कर निकलता रहेगा।

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  38. किसी का शेर याद आ गया संदर्भ यही पोस्ट

    इसका कारण मुझको भी मालूम नहीं
    आप मुझे क्यूं इतने अच्छे लगते हैं

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  39. कविता पर एक सार्थक बहस ...
    बंदिशों में क्यों बांधें इस सरिता को
    बहने दो ...मुक्त छंद भी कविता को ...!!

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  40. गौतम जी आपके बताये पते पर कल्पित जी कविता पढ़ कर यह टिप्पणी कर आया हूँ...

    आप सभी विज्ञ जनों को इस नौसिखिया का प्रमाम् !

    कल्पित जी की इस रचना को कविता मानने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है। यह कम से कम उस अंश तक तो कविता है ही जिस अंश तक कल्पित जी युवा हैं। पढ़ने के स्थान पर अगर आप इसे कल्पित जी से सुनें तो इस रचना का आस्वादन १०० गुणा बढ़ जायेगा, मुझे उनके साथ मंच साझा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। (कल्पित जी युवा हैं इस लिये मैंने बहुत से उन कवियों की कविता भी पढ ली है जो अभी तक गर्भस्थ हैं या जिनको उनकी माँऔं ने अभी कन्सीव ही नहीं किया है।) अगर हम मानले कि प्रत्येक व्यक्ति कवि है और प्रत्येक अभिव्यक्ति कविता तभी कुछ लोगों की जिद संतुष्ट हो सकती है। और कुछ लोग तब तक हमारी गालियों का बुरा नहीं मानेंगे जब तक हम उन्हें गाकर न सुनायें। यह तो रही एक बात।
    यह भी सही है कि विविध जगहों और विविध व्यक्तियों की पृथक-पृथक लय है , लय के अर्थ अलग हैं बल्कि एक-एक जगह, एक-व्यक्ति की सैकड़ो लय हैं। बात यह कि लय जो भी है उसका निर्वाह किया जाना चाहिये और रचना से उसे निरूपित किया, पहचाना जा सकना चाहिये। लय का, कविता का एक अन्तर्अनुशासन होना ही चाहिये। यदि कविता अभिव्यक्ति के किसी अनुशासन का नाम नहीं हैं तो कविता पृथक से क्या है ? इस रचना में यदि विराम चिह्नों का न होना ही कविता है तो फिर अनामदास का पोथा या राग दरबारी से विराम चिह्नों को विलोप कर उन्हें महाकाव्य की तरह भी पढ़ा जा सकता है ! कम से कम व्यंग्य लेखों और निबन्धों के साथ तो ऐसा किया जा सकता है, क्यूँ ! मेरा आप विज्ञ जनों से जिज्ञाशावश केवल इतना सा प्रश्न है कि माना यह कविता है, और है भी लेकिन यह गद्य क्यों नहीं है ?

    जब आप लोग पूरी कायनात को कविता कहलने पर उतारू हैं, गुलाब का फूल का खिलना, पेड़ की छाया, बंदूक की गोली आदि -आदि में लय के कारण कविता है। तो खटारा बस के खस्ता हाल सड़क पर घसटने में भी एक कविता है ? मेरा जो स्पष्ट मानना है वह यह कि कविता एक मानवीय अभिव्यक्ति है इसलिये गुलाब के फूल के खिलने में और बंदूक की गोली चलने में जो कविता है वह उस समय है जब उसे मानवीय अभिव्यक्ति में कहा जाता है, झरनों के गिरने का संगीत तो फिर भी सुना जा सकता है लेकिन इसकी कविता तब तक पूर्ण नहीं होती जबतक इसे किसी मानवीय अभिव्यक्ति में रूपान्तरित नहीं किया जाता।
    जारी..........

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  41. पिछली टिप्पणी से जारी.....

    इसलिये किसी अभिव्यक्ति को कविता कहने में चाहे वह छंदबद्ध है या छंदमुक्त कविता के कुछ अनुशासन निरूपित होने चाहियें। वे अनुशासन परम्परागत न भी हों तो जिस अभिव्यक्ति को कविता कहा जा रहा है उसमें से एक परम्परा के विकास के लक्षणों को चिह्नित किया जा सके। वरना तो कविता वह भी है जो हम आपस में बात करते हैं, या एक लड़का शाम को घर लौटकर अपनी माँ को दिनभर का हाल सुनाता है, ...बस एक घण्टे लेट आयी, बहुत भीड़ थी, एक जेबकतरे ने किसी की जेब काटली, भीड़ ने खूब धनाई की .... यह भी कविता है इसे सुनकर पिता को अपना लड़कपन याद आ सकता है।
    यदि हम गद्य और पद्य को अलग मानते हैं तो उनका स्वरूप भी अलग होना चाहिये। दवाई में संतरे का फ्लेवर होने मात्र से वह संतरा या संतरे का जूस नहीं हो जाती है।

    अब मेरा सबसे बड़ा आश्चर्य जो है वो यह है--

    कि मेरे जैसे अनेक कवि जो किसी भी प्रकार का अनुशासन न फोलो कर सकते हैं न करना चाहते हैं फिर वे अपनी रचना को कविता कहने और कवि कहलाने के प्रति इतने आग्रही क्यूँ होते हैं ?

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  42. इतनी गहरायी से तो मैंने कभी सोचा ही नहीं की कविता आखिर है क्या ? कुछ चीजें इनमें मौलिक हैं तो कुछ कहीं अनुशासनहीनता भी सफलता है... हम जिससे जुड़ जाएँ, मन की बातों को लिख दें, वो सामयिक भी हो और अतीत और भविष्य को भी छुता हो... जब कविता के लिए एक धरना बना चुके थे तब रघुवीर सही की कविता ने सब तोड़ कर रख दिया... दिमाग खुला की नहीं कविता यह नहीं है... कविता तो कुछ कुछ और ही है... क्या है?... मैं कौन होता हूँ इसे परिभाषित करने वाला...

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  43. मेरे दिल की बात अनुराग जी ने कुछ यूँ कह दी है।
    "मुझे नहीं मालूम के कविता की परिभाषा क्या है.उसके नाप तौल क्या है.मुझे इतना पता होता है जब लिखा गया पहचाना सा लगे और पढने वाला उससे जुड़ता सा लगे..वही खूबसूरत कविता है"


    और हाँ एक दिन सर के पास गया हुआ था तो सर से पूछा कि "सर कविता क्या है?" तो उन्होंने कहा कि " जब तेरे को पता चल जाए तो मुझे बताना मैं ऊपर जाकर शेक्सपीयर को बताऊँग़ा।"

    वैसे ये पोस्ट बुकमार्क कर ली बार बार पढने के लिए और समझने के लिए। शुक्रिया गौतम जी।

    ReplyDelete
  44. किसी ब्लौग पर पढ़ा था कि "कुछ टिप्पणियाँ बस ’टिप्पणियाँ’ नहीं होतीं"...
    http://raj-dreamz.blogspot.com/2010/01/blog-post.html#comments


    सचमुच के खून और सब-जीरो टेंपरेचर में भी बहाये गये पसीने की बात कर रहा हूँ मैं।
    कल अमृता प्रीतम की 'रसीदी टिकेट' पढ़ रहा था, बावज़ूद इसके कि मुझे अमृता प्रीतम उतना प्रभावित नहीं करती पर फिर भी उनकी इसी किताब से एक कविता (किसी जापानी या रुसी लेखक की) बड़ी प्रासंगिक लग रही है, आपने पढ़ी होगी में बस आपको Recall करा देता हूँ, कुछ इस तरह थी:
    युद्ध में जाने वाले कुछ वीरों की जेब में कुछ कविताएँ डाल दी हैं, अगर वो बचे तो कविताएँ बचेंगी.

    अब यदि बात करें कविताई-शंका की:
    नहीं जानता की कविता क्या है, इसकी defination क्या है? पर इतना जानता हूँ कि इसकी defination अगर कोई है तो वो मानव निर्मित ही होगी तो उस defiantion को alter भी किया जा सकता है, उसे modify भी किया जा सकता है, उसे माना भी जा सकता है और नहीं भी. गुलज़ार जी 'मेरा कुछ सामान' लेकर जब R.D. बर्मन जी के पास गए थे तो उन्होंने उसकी 'The times of india' के मुखपृष्ट की किसी खबर के साथ तुलना की थी. ये वही कविता है जिसे दो दो राष्ट्रीय पुरूस्कार मिले थे.

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  45. कवि होने को कर दिया सर्वाधिक आसान
    Sahi hai agar Aasan kiya hai to.


    बेतरतीब प्रलाप को रचना कहें महान
    Koi rachnaakar khud ki rachna ko mahan nahi kehta, aur agar kehta bhi hai to wo mahan nahi hoti use alochna ki kasuti main khara utrana chahiye.
    बेचारी कविता सहे, खोती जन-पहचान
    Aur jo ho na ho is kavita main virodhabhaas alankaar to hai hi, (सर्वाधिक आसान vis a vis खोती जन-पहचान)

    मित्रों! केवल उसी का मुक्तछंद अधिकार
    बंदिश में जो दे सके, कविता को आकार

    Yani jiski laathi uski bhains, agar humko ghazal aur chand likhne nahi aate to humari kavita bhi Khariz :)

    Lekhak ka last teen chandon main frustation saaf dikhta hai, mano inki kavita aprakashit ho gayi ho kisi mehenge vigyapan ki vajah se ya doosre bhai saa'b ki do page lambi kavita ko sthan milne ki vajah se.
    :D Bus yun hi khyal aaiya

    ReplyDelete
  46. कवि होने को कर दिया सर्वाधिक आसान
    Sahi hai agar Aasan kiya hai to.


    बेतरतीब प्रलाप को रचना कहें महान
    Koi rachnaakar khud ki rachna ko mahan nahi kehta, aur agar kehta bhi hai to wo mahan nahi hoti use alochna ki kasuti main khara utrana chahiye.
    बेचारी कविता सहे, खोती जन-पहचान
    Aur jo ho na ho is kavita main virodhabhaas alankaar to hai hi, (सर्वाधिक आसान vis a vis खोती जन-पहचान)

    मित्रों! केवल उसी का मुक्तछंद अधिकार
    बंदिश में जो दे सके, कविता को आकार

    Yani jiski laathi uski bhains, agar humko ghazal aur chand likhne nahi aate to humari kavita bhi Khariz :)

    Lekhak ka last teen chandon main frustation saaf dikhta hai, mano inki kavita aprakashit ho gayi ho kisi mehenge vigyapan ki vajah se ya doosre bhai saa'b ki do page lambi kavita ko sthan milne ki vajah se.
    :D Bus yun hi khyal aaiya

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  47. kavita..kya? is par usi din se vivad aour samvaad hota aa rahaa he jab se isaka janm huaa../ janm kab hua? kese hua? sach me bahut vrahd vishaya he. kavita kyaa he, yah sirf shodh ka vishaya ho sakata he, charcha se mujhe nahi lagtaa kisi nishkarsh par pahunchaa jaa sakataa ho. nisharsh to sirf shodh se milataa he..kintu is samay, ya kahu is dour me kitane shodh kar paate he, yaa kitane kavitaa ke anartam tak pahuchate he, kitane padhhate he? is par sandeh hameshaa se hi hotaa aayaa he.. yah vishay vivad kaa nahi ho saktaa, vivaad aakhir kyo? yah to bahut gambhir aour sukhad he ki aaj bhi ham kavita ke sandarbh me charcha karte he../ jaroorat yadi he to mujhe naye sire se shodh ki lagti he../ nayaa siraa kyaa? yahi ki ham ek baar fir gahan adhyyan me jut jaaye.../ kyaa mumkin he vnhaa, jnhaa blob par mahaj tippani paane ke liye jyadaa log jutate he..banisbat uski post ko gambhirta se padhhne ke?
    goutamji..vishay gahan he, is par likhane kaa bahut man hota he..adhikaar poorvak man, jisame gambhir adhyyan he aour saalo ki mehanat..(aapke shabdo me)khoon-paseene se nirmit mehanat/../ kintu..nahi likhataa to sirf isliye ki..bekaar ke vivaad aour apna samay barbaad karne se behatar he..achhaa padhhta rahu.../

    ReplyDelete
  48. @दर्पण,

    मुस्कुरा रहा हूँ...ये तमाम टिप्पणियां अपनी अर्धांगिनी को सुना रहा था, तो उनके मुख से निकला उद्गार साझा करना चाहता हूँ।

    "हर किसी को गाने-गुनगुनाने का शौक होता है तो क्या हर कोई गाने वाला गायक कहलाने लगे"।

    गिटार तनिक मैं भी टुनटुना लेता हूँ, तो कल से खुद को गिटारिस्ट कहने लगूँ?

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  49. आपके बारे में ज्यादा नहीं जानता, कहीं पढ़ा था, किसी ने आपको 'मेजर साहब' लिखा था इसलिए मैं भी उनका अनुसरण करते हुए 'मेजर साहब' कहकर संबोधित करूँगा.

    "कविता में अनिवार्य है कथ्य शिल्प लय छंद
    ज्यों गुलाब के पुष्प में रूप रंग रस गंध"

    मुझे कविता कहना नहीं आता ....... "कुछ कहने" के लिये मैं खुद को कोई साहित्य-मर्मज्ञ या आलोचक होना जरुरी नहीं मानता।

    मेरे लिए तो उपरोक्त पंक्तियों में ही बहुत कुछ है समझने और सीखने के लिए.
    सादर

    ReplyDelete
  50. लगे रहो . पर देखना कहीं गोल गोल तो नहीं घूम रहे ..... इस से चक्कर आ जाता है. मेरे एक बड़े भाई ने कल्पित जी की रचना को आज की कविता की तरह रिदमिक बना कर मुझे मेल किया है. मुझे ज़्यादा पठनीय लगी. ये मेरी कंडीशनिंग भी हो सकती है. यदि मौका मिला तो दोनो अग्रजों की अनुमति से आप को सब को पढ़वाऊँगा.

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  51. छंद,लय,शिल्प और कथ्य कविता के लिये आवश्यक है ।आपका यह कहना कि खुद को साहित्य मे पारंगत नही मानते ।गोस्वामी जी ने मानस मे स्वंम के बारे मे लिखा है कि ""आखर अरथ अलंक्रति नाना/छंद प्रबन्ध अनेक विधाना ।भाव भेद रस भेद अपारा/कबित दोष गुन विबिध प्रकारा । कवित विवेक एक नहि मोरे......।

    ReplyDelete
  52. भाई बहुत देर से आ पाया फिर भी कुछ कहना ज़रूरी है तो कह रहा हूं--

    देखिये हर वर्टिकल टुकड़ा कविता नहीं साथ ही हर छंदबद्ध रचना भी कविता नहीं

    मेरे लिये एक ऐसी रचना जो बस दिल में उतर जाये, दिमाग़ में खलबली मचा दे, एक टीस पैदा कर दे और आपकी संवेदना को लयात्मक विस्तार दे वह कविता है।

    छंद का मोह भी उतना ही घातक है जितनी मुक्तछंद की एंठ। आत्ममोह और आत्मश्लाघा बस नष्ट करती है।

    ReplyDelete
  53. kavi aur kavita ke upar uthe vichar shaandar rahe ,aur saath hi aapke kahne ke andaaj bhi .umda

    ReplyDelete
  54. पोस्ट के साथ जो विचार की धारा बह रही है बस डुब्की लगाये ज रहा हू

    वीनस

    ReplyDelete
  55. @ Gautam Dajyu(WRT Last Comment):
    भाभी जी के प्रश्न का उत्तर हाँ मैं देना चाहूँगा, और साथ ही वो ग़ज़ल भी याद आ रही है:
    सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा
    और याद आ रहे है वो Reasoning वाले सवाल:
    सभी मेज़ बन्दर हैं,
    कुछ बन्दर किताब हैं.

    ReplyDelete
  56. ब्लॉगस्पाट में टिप्पणियों की इण्टएक्टिविटि नहीं है। दूससे, हिन्दी में पोस्ट लिंक कर पोस्ट बनाने और बात आगे बढ़ाने की प्रणाली नहीं है। लोग सेल्फ कण्टेण्डेड लगते हैं पोस्ट रचना के मामले में। यह प्रिण्ट की सामगी को नेट पर उतारने के बराबर है - Web 2.0 की क्षमता का पूर्ण दोहन नहीं।

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  57. 1. कविता अचानक होती है
    और बस हो जाती है।

    2.उन प्रानन मा पौरूख न भरै , जो अपने पथ पर डगमगाय |
    अन्धियारू न दुरवै सबिता बनि, अइसी कबिता ते कौनु लाभ ?''

    3. kya jaroorat hain bandishon mein bandhne ki aur apne bhavon ka gala ghonte ki.........hamein to nhi lagta ki aise bandhanon mein bandha jaye.........bas apne bhavon ko shabd diye jayein jo har kisi ke antas mein utar jayein to samajhiye likhna sarthak huaa..


    4. लोग तर्क में महल वाले झौंपडियों को घर मानने से इंकार करते हैं और कमरे वाले महल को अनावश्यक मानते हैं।

    5. हमेशा छंद बद्ध करना अपने भाव को आसान नहीं होता
    कविता बस एक फ्लो में विचारों का तारतम्य टूटे बिना पढ़ी जा सके
    कविता को सोरठा और चौपाई में बांधना शायद विचारों पर रोक लगाने के जैसा हो जाए

    6. कोई हद ही नहीं शायद मुहब्बत के फ़साने की
    सुनाता जा रहा है जिसकि जितना याद होता है

    7. 'कविता क्या है ? कहते हैं जीवन का दर्शन है-आलोचन ,
    ( वह कूड़ा जो ढंक देता है बचे-खुचे पत्रों में के स्थल ।

    " कविता क्या है ? स्वप्न वास है उन्मन कोमल ,
    ( जो न समझ में आता कवि के भी ऐसा है वह मूरखपन )

    कविता क्या है ?आदिम कवि की दृग झारी से बरसा वारी-
    ( वे पंक्तियां जो कि गद्य हैं कहला सकतीं नहीं बिचारी )

    8.. पर शिल्प लय छंद में बंध कर ही रचना होनी चाहिये इस बात पर हमेशा दो मत रहेंगे... छंदमुक्त आधुनिक कविता करने वाले कवि और "कविता में अनिवार्य है कथ्य शिल्प लय छंद"
    मानने वाले परंपरागत कवि इसी तरह दूसरे को अपने से हेय समझते रहेंगे... पर एक बात पक्की है कि पाठक दोनों श्रेणियों की अच्छी रचनाओं को दाद देता रहेगा और बुरी रचनाओं से किनारा कर निकलता रहेगा।

    9. जब आप लोग पूरी कायनात को कविता कहलने पर उतारू हैं, गुलाब का फूल का खिलना, पेड़ की छाया, बंदूक की गोली आदि -आदि में लय के कारण कविता है। तो खटारा बस के खस्ता हाल सड़क पर घसटने में भी एक कविता है ?

    10. अब मेरा सबसे बड़ा आश्चर्य जो है वो यह है--

    कि मेरे जैसे अनेक कवि जो किसी भी प्रकार का अनुशासन न फोलो कर सकते हैं न करना चाहते हैं फिर वे अपनी रचना को कविता कहने और कवि कहलाने के प्रति इतने आग्रही क्यूँ होते हैं ?

    11. एक दिन सर के पास गया हुआ था तो सर से पूछा कि "सर कविता क्या है?" तो उन्होंने कहा कि " जब तेरे को पता चल जाए तो मुझे बताना मैं ऊपर जाकर शेक्सपीयर को बताऊँग़ा।"

    12. नहीं जानता की कविता क्या है, इसकी defination क्या है? पर इतना जानता हूँ कि इसकी defination अगर कोई है तो वो मानव निर्मित ही होगी तो उस defiantion को alter भी किया जा सकता है, उसे modify भी किया जा सकता है, उसे माना भी जा सकता है और नहीं भी. गुलज़ार जी 'मेरा कुछ सामान' लेकर जब R.D. बर्मन जी के पास गए थे तो उन्होंने उसकी 'The times of india' के मुखपृष्ट की किसी खबर के साथ तुलना की थी. ये वही कविता है जिसे दो दो राष्ट्रीय पुरूस्कार मिले थे.

    13. हर किसी को गाने-गुनगुनाने का शौक होता है तो क्या हर कोई गाने वाला गायक कहलाने लगे"।

    14. लगे रहो . पर देखना कहीं गोल गोल तो नहीं घूम रहे ..... इस से चक्कर आ जाता है.

    15.आखर अरथ अलंक्रति नाना/छंद प्रबन्ध अनेक विधाना ।भाव भेद रस भेद अपारा/कबित दोष गुन विबिध प्रकारा । कवित विवेक एक नहि मोरे......।

    16. छंद का मोह भी उतना ही घातक है जितनी मुक्तछंद की एंठ। आत्ममोह और आत्मश्लाघा बस नष्ट करती है।


    टिप्पणियाँ पिछली पोस्ट से ज्यादा सटीक इस पोस्ट पर आई हैं, क्योंकि ये पोस्ट खुली बहस है कविता और अकविता पर।

    यहाँ की टिप्पणियाँ उठा कर सोमवार को एक नई पोस्ट बनाई जा सकती है। फिर एक और बहस अगले सोमवार तक के लिये खींची जा सकती है....!

    मगर फिर ये सोचना कि परिणाम निकल आयेगा, सर्वथा असंभव है।

    जिसका जो मन आयेगा लिखेगा, इसे इतने विवाद में क्यों ले जा रहे हैं।

    नीरज जी के कथनानुसार ये ऊर्जा कविता करने में लगाये तो कुछ कलात्मक होगा।

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  58. क्या कहूँ मेजर ...जो वहां कहा वही दोहरा रहा हूँ .. कविता हो या गध जब लिखने वाले की विद्ता या व्याकरण का आंतक उसके अर्थ पर हावी हो ...तो वो ना केवल कविता को दुरूह ओर जटिल बनाता है ..बल्कि उसे साहित्य के विधार्थियों के लिए आरक्षित करता है .....
    गुलज़ार की नज़्म जब संगीत की लहरों से तराश कर आती है .तो वो कोलेज में पढने वाले लड़के को अच्छी लगती है .ओर उसके प्रोफ़ेसर को भी....है न अजीब बात ..हाँ पर कविता एक ऐसी विधा जरूर है जिसके लिए एक खास समझ .खास इंटरेस्ट की दरकार जरूर होतीहै

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  59. HO HAA HA HA HA HA HA HA HA HA HA
    darpan se shuru huyi halki si muskaan...

    gautam se hokare gujarte huye..

    gudiyaa raani ko oadhkar..

    THAHAAKON mein badal gayi....


    koi kavitaa savitaa nahin...

    abhi bas HANSNE DO...

    HA HA HA HA...
    HOHO...HO....

    MY GOD........!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

    ReplyDelete
  60. gudiyaa raani ko oadhkar..


    GUDIYAA RAANI KO PADHKAR....

    ReplyDelete
  61. दर्पण के कमेन्ट से शुरू हुयी हलकी हलकी मुस्कराहट..

    गौतम के जवाब से होती हुयी...

    गुडिया रानी की बात पर आकर ..
    ठहाकों में बदल गयी है..

    अभी बस...
    हंसने दो हमें...

    बस हंसने दो,,,
    कविता सविता की बात बाद में कर लेना...

    अभी नहीं करनी कोई बात कविता की...

    ReplyDelete
  62. प्रेम और कविता को परिभाषित नहीं किया जा सकता ।

    भले ही रसयुक्‍त वाक्‍यं काव्‍यं कह दिया गया हो ।
    जैसे कुछ ब्‍लॉग लेखकों के पूरे गद्य लेख ही कविता जैसे लगते हैं । और कुछ बेहद तुकबंद कविताएं भी सिर्फ तुकबंदी होती हैं । कविता नहीं ।

    मटककर चलने वाली मॉडल काव्‍यमय नहीं हो पातीं जबकि एक छोटा बच्‍चा या बेखबर अल्‍हड चलती फिरती कविता होती है । स्‍वभ‍ाविकता एक प्रमुख तत्‍व होता है कविता में ।

    संगीत , कविता और प्रेम में कोई चीज समान है जो कहने में नहीं आती । चाहकर नहीं आती ।
    बस उपहार स्‍वरूप ही आती है ।

    दोनों ही एक विशेष भावदशा में हो जाते हैं । बस ।

    संक्षेप में कविता अकथ को कहने की कोशिश है । जिसे एक ग्रंथ में भी लिखकर व्‍यक्‍त नहीं किया जा सकता उसे कविता की दो पंक्तियां कर देती हैं ।

    समय के साथ कविता की मर्यादाऍं टूटी हैं ।

    कविता के विषय में काफी विचार पढने को मिले ।

    शुक्रिया ।

    ReplyDelete
  63. (१) किसी भी चार दिवारी को देख कर यदि घर कहा जा सकता है तो बस...
    अब यही रह गयी है कविता...
    अफ़सोस......

    (२) खूं पसीने वाली बात किस सन्दर्भ में की है ...हम नहीं जानते..
    लेकिन खाने पकाने की बात से हम सदा ही आकर्षित होते आये हैं.....
    एक गृहणी की तरह...

    (३) क्यूँ कविता की परिभाषा के झमेले में पड़ें.....??
    वाह...............!!!!!
    जानकर होगा भी क्या......? एक दम सही बात.....

    (४) प्रक्रति तो कविता कहती ही है....


    (५ ) जिन शब्दों से दिल को सुकून मिले ...सांसों को राहत .....दर्द को हौंसला .....आँखों को बह जाने की मोहलत वह कविता है ......!!
    काफी हद तक.......''असहमत''



    (५) चिटठा चर्चा की बात फिर कभी...





    अच्छा भला कमेन्ट पढ़ रहे थे...ये दर्पण दिख गया बीच में......

    अब बस....दिल नहीं है कुछ पढने का..कुछ सोचने का...

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  64. अच्छी लगी कवितायें ।

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  65. मेरी समझ से

    जड़-चेतन में अभिव्यक्त हो रही अभिव्यक्ति को शब्दों में ढालने की वह कला ही कविता है जो पढ़ने वाले के हृदय में सीधे उतर जाती है.

    छंद-बद्ध या छंद-मुक्त से परे कविता सिर्फ कविता है.

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  66. राजऋषिजी,
    'जठे देखूं कमली खड़ी..' शीर्षक किशोरजी की कहानी पर आपकी टिपण्णी पढ़ी और इधर चला आया....
    जाने क्यों सैनिक जीवन का रोमांच मुझे आज भी आकर्षित करता है... अपने पुराने दिनों के बारे में चंद पंक्तियों में आपने जो कुछ लिखा है, वह मन के तल पर कुछ आड़ी-तिरछी लकीरें उभारता है...
    इन लकीरों को विस्तार देकर कोई अनूठी रोमांचक, रोचक कथा क्यों नहीं कहते आप ?
    आप कहेंगे, तो मैं सोत्साह सुनूंगा ज़रूर !
    सप्रीत--आ.

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  67. मैनें अपनी बात कहदी, आपकी मर्जी है अब
    शेर, कविता, गीतिका, गद्य या दोहा कहें।
    मेरा दृढ़ विश्‍वास है कि रचनाकार का धर्म रचना तक सीमित होता है। छंदविधान, रचना का साहित्‍यिक स्‍वरूप क्‍या है आदि विषय समीक्षकों का धर्म रहने दें।
    कबीर ने अगर शेर नहीं कहे तो क्‍या हुआ (उस समय भारतवर्ष में होते भी नहीं थे), जो कुछ उन्‍होंने कहा वह गुरू नानक से ओशो तक सभी ने संदर्भित किया।
    निराला जैसे कद्दावर गीतकार ने अगर छेद से मुक्ति चाही तो क्‍या ग़ल़त किया? वो तो एक नया रास्‍ता खोल गये हिन्‍दी साहित्‍य में।

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  68. post padh ke aur uske baad tippaniyan padh ke bahut kuch jaanne ko mila hai.............

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