04 January 2010

त्रासदी पुरानी डायरी के पन्नों की और एक कविताई शंका

मेरी डायरी के पन्ने पीले क्यों नहीं होते...सोचता हूँ मैं अक्सर। कब से लिख रहा हूँ...कब से ही तो। एक पूरा बीता हुआ बचपन सिमटा हुआ है इसमें, एक पूरी जवानी भी जो अपने बचपने से कभी उबर ही नहीं पायी। लेकिन फिर भी ये पन्ने सारे-के-सारे वैसे ही हैं- श्वेत...धवल श्वेत, खिंची हुई भूरी लाइनों में नीली रौशनाई वाले अक्षरों को पंक्‍तिबद्ध बिठाये। हसरत से उन लोगों का लिखा पढ़ता हूँ जो लिखते हैं "एक कविता या कुछ रैंडम थाउट्स एक पुरानी डायरी के पीले पन्नों से"...मैं भी लिखना चाहता हूँ ऐसा ही, लेकिन ये कमबख्त पन्ने पीले पड़ते ही नहीं।...और ये नये साल की शुरुआत में क्या लेकर बैठ गया हूँ मैं। नयी शुरुआत है और मेरा "मैं" है कि इन बीते पन्नों में उलझा हुआ। सामने ये 2010 पहाड़-सा खड़ा है। मन है कि घड़ी की सुइयों को तेज-तेज घूमा कर देख लाने चाहता है आगे- वर्ष के उत्तरार्द्ध को। क्या कुछ समेटे है ये साल अपनी आगोश में लिये आने वाले दिनों, हफ़्तों और महीनों को...क्या कुछ???

सोचता हूँ, कुछ संकल्प ही ले डालूँ पहले की भाँति।...पहले की ही भाँति, जब बचकाने संकल्पों की सीढ़ी पर चढ़ते-चढ़ते बेदम होते साल के साथ वो सारे-के-सारे लिये गये संकल्प भी कहीं थके-थके से लुढ़के नजर आते थे। एक पुरानी डायरी के पन्ने पलटता हूँ। जरा देखूँ तो आज से सात साल पहले ठीक आज ही के दिन क्या कहती है ये डायरी मेरी।तारीख- 03 जनवरी 2002 स्थान- उरी, कश्मीर। कितना बड़ा संयोग है ना...जो पन्ना खुलता है एक सात साल पुरानी डायरी का ठीक इसी तारीख को, तो जगह भी यहीं-कहीं आसपास की ही है। लेकिन पन्ना कहीं से पीला नहीं है। क्या लिखा है, जरा पढ़ूँ तो। रेनोल्डस के बाल-पेन की लिखावट। मेरी हस्तलिपी कितनी गंदी है..उफ़्फ़! उजले पन्ने पर खिंची हुई भूरी लाइनों में नीली रौशनाई वाले पंक्तिबद्ध किंतु बेतरतीब शब्दों का जमावड़ा कुछ यूँ है:-
यार डायरी,
सोचता हूँ कि अफगानिस्तान के उन सूखे पहाड़ों पर हुई अभी हालिया अमेरिकन बमों की बारिश के बाद कहीं छुपा हुआ ओसामा क्या सोच रहा होगा। क्या उसे अपने परिजनों की याद आ रही होगी? तुझे क्या लगता है डायरी कि ओसामा को अपनी उन अनगिनत पत्नियों में उसे किसकी याद सबसे ज्यादा आ रही होगी। हुम्म्म...सवाल तो ये भी है कि कमबख्त जिंदा भी है कि नहीं किसी को याद करने के लिये। इसी से जुड़ा एक और आवारा ख्याल सर उठा रहा है इस वक्त कि ये बीस दिन पहले हुये संसद-भवन अटैक का कोई तार क्या ट्रेड-सेंटर वाले प्रकरण से जुड़ा है? इधर हमारा मूव-आर्डर तो आ चुका है इस संसद-भवन अटैक के बैक-ड्राप में।...यहाँ से तनिक और आगे। डेस्टिनी कुछ नया लिखवाना चाहती हो शायद कि हम जा रहे हैं और आगे कहीं। जो ये बीस दिन पहले वाला कांड न हुआ होता संसद-भवन पर तो मैं अभी बेलगाँव में कमांडो-इंस्ट्रक्टर बना बैठा होता। गाड़ियों में लोडिंग संपन्न हो चुकी है। शायद कल मूव हो जाना चाहिये काफ़िले को।...तो इस बंकर की ये आखिरी रात। उलझन में हूँ कि ऐश्वर्या राय के इस कोलाज को उखाड़ कर ले चलूँ या रहने दूँ यहीं इसी बंकर की छत पे चिपके हुये आनेवाले नये बाशिंदे के लिये??? ..और अचानक से ये कुछ अजीब-से ख्याल उमड़ने लगे हैं। कुछ यूँ कि...बँट जाना चाहता हूँ मैं भी बेतरतीब-सी कुछ पंक्तियों में। छोटे-बड़े, ऊपर-नीचे लिखे चंद जुमलों में। छंद की बंदिशों से परे। आजाद और उन्मुक्त।...और समेट लेना चाहता हूँ इन पंक्तियों में पापा की टेढ़ी भृकुटियाँ, माँ की पेशानी वाली सिलवटें, बारुद की गंध, रेत की भरी बोरियों वाला ये ठिठुरता बंकर, ऐश्वर्या की आँखें, कुछ लड़कियों के भूले-बिसरे नाम, ढ़ेर-ढ़ेर सारी छुट्टियाँ और प्रेम का संपूर्ण विस्तार। प्रेम का विस्तार???...हा! हा!! चंद तस्वीरों, ढ़ेर सारे खतों और कुछ टेलिफोन-काल्स में सिमटा हुआ एक प्रेम का संपूर्ण विस्तार। प्रेम का संपूर्ण विस्तार?? i must be crazy...! खैर, तो डियर डायरी विषय से न भटकते हुये...खुद को चंद बेतरतीब पंक्तियों में बाँट लेने की ख्वाहिश है कि समेट सकूँ मैं खुद में इन पंक्तियों के जरिये...प्रेम का संपूर्ण विस्तार, माँ-पापा की समस्त चिंतायें, बर्फ में लिपटी ये सुलगती वादी, झेलम का मौन रुदन....और तब्दील हो जाना चाहता हूँ एक अमर कविता में कि गुनगुनाया जा सकूँ सृष्टि के अंत तक...।


जाने क्या-क्या लिख रखा है अंट-शंट। उन दिनों बंकर में बैठे-बैठे हम सोल्जरिंग के साथ-साथ खूब फिलोसोफी झाड़ा करते थे। आजकल फिलोसोफी की जगह शायरी ने ले ली है। 


इधर डायरी के इस खुले पन्ने पर लिखे गये इन अनर्गल पंक्तियों को देखकर यूं ही एक मासूम-सा{?} ख्याल आया है कि जो मैं इन पंक्तियों को ऐसे लिखूँ:-

"चाहता हूँ बँट जाना मैं भी
बेतरतीब-सी कुछ पंक्तियों में
छोटे-बड़े, ऊपर-नीचे
लिखे हुये चंद जुमलों में
छंद की बंदिशों से परे
आजाद और उन्मुक्त

कि समेट सकूँ खुद में
पापा की टेढ़ी भृकुटियाँ,
माँ की पेशानी वाली सिलवटें,
बारुद की गंध,
रेत भरी बोरियों वाली
इस बंकर की ठिठुरन,
ऐश्वर्या की आँखें,
कुछ लड़कियों के भूले-बिसरे नाम,
ढ़ेर सारी छुट्टियाँ
और
एक प्रेम का संपूर्ण विस्तार...

वगैरह-वगैरह..."


.....तो क्या ये कविता हो जायेगी? एक जेन्युइन डाउट है मित्रों और गुरुजनों।

70 comments:

  1. अचानक से ये कुछ अजीब-से ख्याल उमड़ने लगे हैं। कुछ यूँ कि...बँट जाना चाहता हूँ मैं भी बेतरतीब-सी कुछ पंक्तियों में। छोटे-बड़े, ऊपर-नीचे लिखे चंद जुमलों में। छंद की बंदिशों से परे। आजाद और उन्मुक्त।...और समेट लेना चाहता हूँ इन पंक्तियों में पापा की टेढ़ी भृकुटियाँ, माँ की पेशानी वाली सिलवटें, बारुद की गंध, रेत की भरी बोरियों वाला ये ठिठुरता बंकर, ऐश्वर्या की आँखें, कुछ लड़कियों के भूले-बिसरे नाम, ढ़ेर-ढ़ेर सारी छुट्टियाँ और प्रेम का संपूर्ण विस्तार। प्रेम का विस्तार???...

    आपने लाजवाब कर दिया है. अभी आपको भी इस बात से इत्तेफाक रखना होगा कि ये एक सुंदर कविता है . किसी भी तरह के शास्त्रीय परीक्षण के लिए . काल जब आभा की कविताओं के बारे में लिख रहा था तो कविता के इसी शिल्प पर मैंने बहुत सोचा श्रीकांत वर्मा से लेकर नन्द भारद्वाज और वीरेन डंगवाल और कुमार अम्बुज जैसे कई कवियों की पुस्तकों को फिर से पढ़ा . वे वाकई अद्भुत हैं और हैरान होता हूँ आपको देख कर भी.


    और जिस पर आपको जेन्यूइन डाउट है मुझे उस पर नहीं है हालाँकि आलोचना का कार्य नहीं किया है कभी, मगर आपकी इस कविता पर कोई विद्वान सार्थक बहस करना चाहे तो अगले दो महीने इस कविता के नाम कर सकता हूँ

    ReplyDelete
  2. आपने अपनी कविता पर जो प्रश्न किया है वैसा ही उत्तर मेरे इस आलेख पर है
    कवि की उदंडता यानि आभा की स्वांत सुखाय कविता के बहाने कविता क्यों और किसके लिए
    http://dhaanibazar.blogspot.com/

    ReplyDelete
  3. मुझे ये जरूर लिखना चाहिए कि सात साल पहले के जिस कवि को आपने गजलकार में तब्दील कर दिया है, वो भी बहुत अच्छा था. और जब इतनी शिद्दत से लिखी गयी हो डायरी तो उसके पन्ने पीले कैसे हो सकते हैं ?? वैसे नए साल पे आपने जो करने की सोंची है, मैं भी प्रेरित हूँ करने के लिए. और यह प्रेरणा जरूर काम आएगी...यूँ लगता है.

    ReplyDelete
  4. - बेवजह यत्र-तत्र-सर्वत्र टिप्पणी देने में कोताही बरतना है अब से और हर दूसरी रचनाओं पर कोई झूठी वाह-वाही नहीं देनी है।

    isi liye..hamaari pichhali 2 rachnaaon pe aapke comments nahin hain kyaa mezar saab.....?????

    :(
    :(
    :(
    :(
    :(

    ReplyDelete
  5. कुछ नए दोस्त (ब्लॉगर) बनाना भी इस फेहरिश्त में शामिल कर लिया जाए।

    ReplyDelete
  6. मेजर साब.....!!!!!

    बहुत असरदार है....मगर कविता है या नहीं....?

    ये एकदम साफ़ साफ़ हाँ या ना में कह देना आसां नहीं है इतना......!!!!!

    हिंद युग्म पर बहुत झगडे किये हैं कविता/अकविता को लेकर....
    हमें लगता है के अब कविता का ये ही रूप हो चुका है शायद...

    माँ की पेशानी वाली सिलवटें,
    बारुद की गंध,
    रेत भरी बोरियों वाली
    इस बंकर की ठिठुरन,
    ऐश्वर्या की आँखें,
    कुछ लड़कियों के भूले-बिसरे नाम,
    ढ़ेर सारी छुट्टियाँ
    और
    एक प्रेम का संपूर्ण विस्तार...


    गहरा असर छोडती है...लेकिन कविता कहने से पहले सोचना पड़ रहा है....
    जाने क्यूँ...??
    जब के अपनी उस ''अगजल''
    को जो हिंद युग्म पे हर नामी गिरामी छंद शास्त्री का कोप-भाजन बनी थी...

    ''ग़ज़ल'' कहा था हमने और आज भी कहते हैं....

    एक दो छंद मुक्त हमने भी लिखी है...मगर याद नहीं हैं ठीक से.....

    शायद जो याद रह जाए वो कविता होती होगी....!!!

    :(


    :)


    फिर आयेंगे.....!!!

    ReplyDelete
  7. एक और सलाह ....
    यदि आप गूगल अंकल से प्रार्थना कर ही रहे हैं तो.....



    मालूम है के ये खारिज कर दी जायेगी...
    और पहली नजर में बेसिर पैर की बात से ज्यादा और कुछ नहीं लगेगी....
    लेकिन ध्यान से गौर करना.....


    ब्लॉग जगत में कुछ लोग पेंटिंग करते हैं...कुछ कहानी..कविता..गीत ग़ज़ल...गायन...न्रत्य...विज्ञान...गणित...डॉक्टरी..मास्टरी..एकाउंट्स.............

    इत्यादि ...इत्यादि...इत्यादि....!!!!!


    तो हम कह रहे थे के.....

    चलो जाने दो...
    फिर कभी..
    अभी ग़ज़ल का इतना बुरा वक्त नहीं आया है...

    ReplyDelete
  8. बंकरों में बैठे हुए दुश्मनों की तोपों और गोलियों के इन्तजार में भी फिलोसफी झाड लेना ...कविता की पृष्ठभूमि तैयार कर लेना ...यही तो है सैनिकों के गुण जो आम आदमी को भी इतना हौसला देते हैं ...सैल्यूट मेजर साहब...!!
    मतलब हमारा ब्लॉग तो आपके कमेन्ट के लिए तरसेगा ...पक्का ...
    कोई गल नहीं जी ...
    मगर आपने जिन लेखकों के नाम गिनाएं हैं ... उनको शुरू से आखिर तक पढना तो सभी चाहते होंगे ...

    नव वर्ष की बहुत शुभकामनायें ....!!

    ReplyDelete
  9. अच्छी पोस्ट, बिलकुल ब्लागीरी वाली। कविता तो हो चुकी।
    मुक्त छंद का अपना आनंद है। बहर में ग़ज़ल या छंद में कविता का आनंद उस सिद्धहस्तता के बाद आता है जो तुलसी और ग़ालिब को हो गई थी। तब कवि सिर्फ सोचता है और कहता है बहर या छंद उस का गुलाम होता है।
    वर्ना हम हर कविता में बात का गला घोंट रहे होते हैं।

    फिर भी कभी तो बात ऐसी होती ही है कि मुक्त छंद में कहनी पड़े सीधी सीधी।

    ReplyDelete
  10. हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले.....यार हम सोचते-बुनते बहुत कुछ हैं, नतीजा कुछ और ही निकलता है. कई बार सोचा कि सिर्फ गिने-चुने लोगों तक ही खुद को सीमित रखा जाए लेकिन जब कोई प्यार से कमेन्ट देने आता है तो फर्ज़ हो जाता है प्यार का जवाब प्यार से देना. कविता विशेषकर गजलों के साथ हो रहे अनाचार को देखकर आँखें तो नहीं मूंदी जा सकतीं, हाँ सुधार की कोशिश की जा सकती है, मेरा अंदाज़ा है हम सभी अपने स्तर से यह काम कर रहे हैं.
    घाव कैसे हैं, स्वास्थ्य कैसा है, शरीर शरारत पर पूरी तरह आमादा हुआ क्या, इन सारे सवालों का जवाब चाहूँगा. नए साल पर सोचना बंद करो और अमल पर ध्यान लगाओ.

    ReplyDelete
  11. बहुत खूब ! आपने अपने दिल के पन्नों को
    खोलकर रख दिया |
    कविता हो न हो ग़ज़ल हो न हो
    लेकिन रचना बहुत अच्छी है
    आपको एक दिल से सेलूट - जय हिंद

    ReplyDelete
  12. कि समेट सकूँ खुद में
    पापा की टेढ़ी भृकुटियाँ,
    माँ की पेशानी वाली सिलवटें,
    बारुद की गंध,
    रेत भरी बोरियों वाली
    इस बंकर की ठिठुरन,
    ऐश्वर्या की आँखें,
    कुछ लड़कियों के भूले-बिसरे नाम,
    ढ़ेर सारी छुट्टियाँ
    और
    एक प्रेम का संपूर्ण विस्तार...
    गुरु आपजी ये पंक्तियाँ घर कर गई दिल में... ऐसी पंक्तियों की उम्मीद केवल आपसे ही की जा सकती है...
    दिल खिंचा चला गया है आपके पास...उन्ही फिजाओं में जहाँ आप हो..
    मीत

    ReplyDelete
  13. इतना सारा समेट दिया एक ही पोस्ट में.... और सब खास...! शुरु कहाँ से करूँ...??

    सबसे पहले जो भटकाता रहा, ये ३ जनवरी, २००२ इस दिन की डायरी के पन्ने तो खैर मेरे भी अभी पीले नही पड़े हैं, हो सकता है बीस एक साल बाद भले पीले पड़ें।

    और ये दिन... ये समय.. आफिस में बैठी हूँ सामने डायरी भी नही है मगर याद है कि वो समय, वो साल बहुत अजीब था। घर से २००० किमी दूर दक्षिण में एक नई सभ्यता, एक अंजान भाषा, एक अजनबी परिवेश से रू-ब-रू हो रही थी उन दिनो... और साथ साथ झेल रही थी एक अकथ सदमा। ना खुशी का जश्न मना पा रही थी न गम पर रो पा रही थी।

    डायरी तो समने नही,मगर याद है एक पंक्ति जो मैने १ जनवरी को लिखी थी बीते साल का विश्लेषण करते हुए कुछ सपने सच हो गये और कुछ सच सपने....

    आपकी पोस्ट ने घड़ी को अचानक उल्टा चला दिया।

    और ये रिज़ॉल्यूशन..ये पता थे कि मन के आगे कभी मेरी चली नही तो ज्यादा कोशिश भी नही की कभी। फिर ये बेवज़ह टिप्पणियाँ ना करने का संकल्प अच्छा है कि मेरी आदत में था। इतना सारा सोच विचार कर तो नही..बस ये सोच कर कि कलम के प्रति ईमानदारी तो हमको बरतनी ही चाहिये। साथ ही ये भी कि खुद को भी बेवज़ह की वाह वाहियों से बचाना होगा। जो हर जगह तारीफ कर आता है उसके विषय में ये भी तो नही समझ आता कि हमारी सच्ची तारीफ कर रहा है या यूँ ही आदतानुसार...!

    गज़ल है तो वाह वाह

    और फिर इस ये डायरी का कविता में कन्वर्ज़न.. सोच रही हूँ कि कुछ तो एक जैसा था ही जिसने आपको खत लिख कर वीर बनाने पर मज़बूर किया...! ये तो मैं भी अक्सर सोचती हूँ कि डायरी के कुछ पन्नो की इबारत लिख कर एण्टर मार दूँ तो शायद कविता बन जाये।

    कल आपसे चर्चा के बाद, किशोर जी का लिंक पढ़ कर लग गया था कि यहाँ आप दोनो को चर्चा करनी पड़ सकती है।

    मगर फिर वही कन्क्लूज़न जो आपसे भी कहा कि अपना अपना तरीका है अभिव्यक्ति का, जिसे जो अच्छा लगे अपनाये। इस बहस और विरोध में अपनी ऊर्जा गँवाने का क्या फायदा....!!!

    ReplyDelete
  14. गौतम जी
    हमेशा की तरह अच्छी रचना ग़ज़ल पर कमेन्ट करने आया था मगर यहाँ तो नयी पोस्ट मिल गयी.............कल आपसे बात हुयी....नए साल की यह बेहतरीन सौगात और शुरुआत थी......!
    एक ही बात कहूँगा कि
    तेरे मिलने के लम्हे फूल जैसे
    मगर फूलों कि उम्रें मुख़्तसर हैं.......
    दुआ है ऐसे ही लिखते रहें ..............
    ...... नव वर्ष 2010 की हार्दिक शुभकामनायें.....!
    ईश्वर से कामना है कि यह वर्ष आपके सुख और समृद्धि को और ऊँचाई प्रदान करे.

    ReplyDelete
  15. मुझे तो पुरानी डायरी में लिखा हर लफ्ज़ एक गीत गजल और कविता सा लगता है ..मेरे लिखे के नीचे आपने अक्सर देखा भी होगा ..उन में से सिर्फ कुछ पंक्तियाँ ही पुरानी होती है बाकी उसके साथ जुडी लिखने वक़्त की यादे ...कुछ पन्ने पीले तो नहीं पढ़े पर वह वक़्त के साथ धुंधले जरुर हो गए हैं :)

    ReplyDelete
  16. बड़ा मुश्किल है कम्बखत वादों पे चलना .....पर मेजर हो.....सो लड़खड़ाते कदमो से ही .सही वादों पे चल लोगे .....एक बार एक मोहतरमा ने मुझसे पूछा था की पैर में प्लास्टर है ...कोई ऐसी साइट्स है जिसे पढ़ती रहूँ ओर बोर न हूँ....मैंने कहा "शबद "खोल लो .रोज पढ़ोगी तो कुछ न कुछ मिलता रहेगा ....निर्मल वर्मा से लेकर शहरयार तक सब मिलेगे ....हम तो ऐसे ब्लॉग का सपना लिए रह गए पर किसी ने बना दिया ....
    पता नहीं इस महीने का वागर्थ तुम तक पहुंचा होगा या नहीं .या पिछले महीने का .......उसमे एक कविता थी".अपना घर फूंकने का विकल्प."...अभी भी उसपे बड़ा हंगामा बरपा है ....किसी अनजान शख्स ने लिखी है जिसका साहितिय्क हलको में बड़ा नाम नहीं है .लम्बी कविता है .....पर सच में असली सी लगती है धारदार...मुझे नहीं मालूम के कविता की परिभाषा क्या है .उसके नाप तौल क्या है .मुझे इतना पता होती है जब लिखा गया पहचाना सा लगा ....ओर पढने वाला उससे जुड़ता सा लगा ....वही खूबसूरत है ....एक सन्दर्भ बताता हूँ .सामने एक अंकल रहते है प्रोफ़ेसर है शेरो से बहुत ज्यादा लगाव नहीं रखते थे......पर धर्म प्रवचन में यकीन रखते थे ...एक बार किसी कारणवश मुझसे मिलने आये .मै व्यस्त था ...सो मेरे कमरे में बैठ कर शहरयार साहब की एक किताब उठा ली..नीचे उर्दू का तजुर्मा भी था .मै लौट कर आया ...तो वे पढ़ रहे थे ....कहने लगे कमाल है ...ये तो वही कहते है जो स्वामी जी कहते है .बस कम शब्दों में कहते है .....वे किताब मांग कर ले गए .अब मै उनसे किताब मांग कर पढता हूँ.....यानी के शायर या कवि किसी फिलोस्फिकल बात को कम शब्दों में कह जाता है.....

    ....सच कहूं तो बस अच्छा पढने की चाह है..लिखने वाला कोई भी हो..छः दिन पहले एक . इंग्लिश ब्लॉग पढ़ रहा था ......लिखने वाला २२ साल का एक लड़का है ...उसने जैसे दिल खोलकर रख दिया है....

    ReplyDelete
  17. mai dua karungi ki aapki dairy ke panne kabhi peele na pade.peele vo panne padte hain jinhe paltne vale haath or padhne vali aankhe nhi milti.is dairy ko to dil baar baar palatna chehata hai.

    ReplyDelete
  18. बस बस कुछ ऐसा सुनना था आपसे. अभी कुछ दिन पहले ही ब्लोगरी को लेकर कुछ ऐसा ही संकल्प लिया है मैंने. आखिर कला और ब्लोगरी में से पहले कला को ही सिद्ध करना है हमें. ब्लोगरी तो कम या ज्यादा पीछे पीछे साथ चलती रहेगी.

    रही बात कविता की तो जिसमे लय है, वो कविता है चाहे वो छंद बद्ध हो या छंद मुक्त. अभी पिछला दो दिन कवि संगम के राष्ट्रीय अधिवेशन दिल्ली में गुजार कर आया हूँ. खूब विमर्श हुआ शिल्प-छंद और छंद रहित कविता को लेकर. साथ ही भविष्य को लेकर. कोशिश करूँगा एक विस्तृत आलेख अपने ब्लॉग पर देने की.

    आपकी इस छंदमुक्त कविता में लय है, कवितामयी संवेदना और लोच है. वैसे आप छंद और शिल्प के साथ ही आगे बढिए यह कला खूब आती है आपको. आपकी ग़ज़ल इसकी बानगी है. मैं भी छंद शिल्प के साथ ही आगे बढ़ना चाहता हूँ. जब तक लय कायम है, संवेदनशील सम्प्रेषण है, कविता सिर्फ कविता होगी. उसे अकविता या गध कहना ठीक नहीं है.

    क्यूँ ये पुराने पन्ने अभी तक पीले नहीं हुए
    कमबख्त ये तो फौजी की डायरी निकली.

    - सुलभ

    ReplyDelete
  19. गौतम ,
    अच्छी यादें कभी पुरानी नहीं होतीं. और जो यादें पुरानी न हो उसके पन्ने कैसे पुरानी हो जाएँगी और पीली पड़ जाएगी . बहुत अच्छी लगी तुम्हारी पुरानी यादें . ऐसे ही लिखते रहो !!

    ReplyDelete
  20. ये डायरी के पुराने पन्ने खुलते हैं तो सामने आकर खड़ा हो जाता है पुरानी ख्वाहिशों, चंद भूले-बिसरे नाम, अकुलाहटें, और न जाने क्या क्या ....

    कविता...जी हाँ कविता सीधे दिल में उतरती है

    ReplyDelete
  21. गौतम जी कश्मीर में आपकी अनुराग जी से हुई भेंट का असर इस पोस्ट में नज़र आ रहा है...वैसे ही लफ्ज़ और उन्हें बयां करने का वैसा ही बेजोड़ हुनर...वाह...कविता या अकविता जब दिल को छूती है तभी असरदार होती है....इस मायने में आपकी रचना कसौटी पे खरी उतरी है...लिखते रहें...
    नीरज

    ReplyDelete
  22. सन २००२ में भी वो ही रंगत, वो ही सोच..

    बँट जाना चाहता हूँ मैं भी बेतरतीब-सी कुछ पंक्तियों में। छोटे-बड़े, ऊपर-नीचे लिखे चंद जुमलों में

    -छा गये. गद्य भी जो डायरी के पन्ने पर दर्ज है, किसी पद्य से कम नहीं..सच की वाह!!

    ReplyDelete
  23. प्रतिबधता और प्रतिज्ञा क्या दोनों ही साथमे है हर जगह टिपण्णी ना करने को लेकर ... ये सही भी है मुझे भी पसंद है , और शायद मैं कहने वाला भी था आपको ... मगर मनु जी ... ????
    आपकी डायरी के पन्ने अभी तक पीले नहीं हुए अछि बात है , शब्द नज़र आरहे है , मैंने तो अपने कोरी डायरी में कुछ लिखे तो हैं मैंने भी मगर कमबख्त नज़र नहीं आते , ये उनकी क्या जिद है समझ नहीं पा रहा ...
    कविता लिखने की कोई इल्म मुझे तो नहीं है मगर हाँ इसे कविता जरुर कहेंगे ये मेरा मानना है ... क्या खूब खुद की बेतरतीबी से बात कही है आपने के समेत सकूँ अं
    पापा की टेढ़ी भृकुटियाँ
    माँ की पेशानी वाली सिलवटें
    और वो दुनिया की सबसे खुबसूरत आँख ऐश की ..
    और कुछ भूले बिसरे नाम ..
    कमाल की बात की है आपने ..
    जब मेरी डायरी के पन्ने में शब्द नज़र आयेंगे तो आपको जरुर पढने कहूँगा .. शायद आप बेहतरी से पढ़ते हैं...
    सर्द मौसम कॉफ़ी और मर्म स्पर्श ... :) :)

    आपका
    अर्श

    ReplyDelete
  24. बेहद अच्छे संकल्प हैं, ऐसा हम भी कर सकें तो बेहतर हो

    ReplyDelete
  25. कि समेट सकूँ खुद में
    पापा की टेढ़ी भृकुटियाँ,
    माँ की पेशानी वाली सिलवटें,
    बारुद की गंध,
    रेत भरी बोरियों वाली
    इस बंकर की ठिठुरन,
    ऐश्वर्या की आँखें,
    कुछ लड़कियों के भूले-बिसरे नाम,
    ढ़ेर सारी छुट्टियाँ
    और
    एक प्रेम का संपूर्ण विस्तार...
    nihshabd

    ReplyDelete
  26. गौतम जी, एक काव्य-रसिक होने के नाते मैं कविता को लेकर आपकी चिंताओं को समझता हूँ.और बहुत हद तक इधर में आई कविताई 'खेप' पर आपके क्षुब्ध होने को साझा भी करता हूँ.मेरे अपने विचार में कविता का असर बाकी से अलग होता है,इसे कई कई बार पढ़कर भी पहले पाठ का सा आनंद मिलता है,ये हर बार अपने को भिन्न प्रकार से खोलती है और साथ ही इसमें एक आतंरिक लय भी चलती है.चाहे इसे किसी नियत अनुशासन में लिखा गया हो या नहीं.पर मैं इसे सिर्फ बौद्धिक होने के नाते एक विशिष्ट कर्म नहीं मान पाता.मैंने कहीं पढ़ा है कि नेरुदा का मानना था कि सिर्फ बौद्धिक कर्म होने के नाते कविता को कृषि कार्य से श्रेष्ठ नहीं कह सकते.खैर बात थोड़ी बहक रही है,मैं कहना चाह रहा हूँ कि यहाँ असहमति का प्रश्न ही नहीं है कि आधुनिक कविता के नाम पर जो आ रहा है उससे कविता के पाठक को बहुत शिकायत है और उस शिकायत को दर्ज भी होना चाहिए.मैं ग़ज़ल को एक बेहद कीमती विधा मानता हूँ और इसकी मर्यादा हर हाल में बनी रहनी चाहिए, ये आपसे बेहतर कौन कह सकता है.पर इधर हिंदी कविता में कुछ आह्लादकारी प्रयोग हुए हैं जिन्हें आप अनुनाद पर देख ही रहें हैं.उन पर भी आपका मत और विस्तार से अपेक्षित है.
    मैंने 'ढाणी बाज़ार' पर अपनी टिप्पणी में आपसे आग्रह किया है,शायद आप इसे देख पाए या नहीं,कि आप अपने भैया अंकुर मिश्र जी पर कुछ अन्तरंग लिखें.
    अपनी इस पोस्ट में और मित्रों के साथ मुझे प्रेम देने के लिए शुक्रिया.आपकी वादी से भेजी ठण्ड इन दिनों खूब मिल रही है:)

    ReplyDelete
  27. हिमांशु जी ने कभी एक सोहर पोस्ट की थी। उसका भोजपुरी वर्जन अम्माँ ने जैसा बताया, वैसा ही मैंने लिख लिया। फिर लगा कि यह तो गद्य सी है। पिताजी से शंका की तो उन्हों ने कहा नहीं इसे गाते हैं। अम्मा ने गा कर सुनाया...
    तो योद्धा कवि जी(या कवि योद्धा?) मेरी सीमा आप समझ गए होंगे।..
    आप ने मुझे 'लायक' समझा, इस पर तो सचमुच हैरान हूँ। इतना खुश हूँ कि पूछिए मत ! हिमांशु, किशोर और संजय जैसों के साथ गौतम सा शख्स रखे तो दिमाग खराब होने का डर रहता है :)
    लय, छ्न्द और कविता पर एक कवितामय लेख दिया था। लिंक है: http://kavita-vihangam.blogspot.com/2009/12/blog-post_26.html
    फुरसत में पढ़िएगा। टिप्पणियों पर विशेष ध्यान दीजिएगा।
    मेरी सीमाएँ भी पता चल जाएँगी (कल मेरे दोस्त ने 'थ्री इडियट' साथ देखते कुछ ऐसा कहा कि अपना भाव खुद डाउन नहीं करना चाहिए ;))
    __________________________

    ReplyDelete
  28. आप की यह कविता अति उत्तम श्रेणी की है। मुक्त छन्द के सौन्दर्य को हम थोड़ा थोड़ा समझते हैं, कह रहे हैं, समझा नहीं सकते। आप की पूरी पोस्ट ही कविता है। हमेशा की तरह उम्दा। ज्यादा क्या कहूँ? किशोर जी ने 2 महीने ऐसे ही थोड़े समर्पित किए हैं !
    ग़ज़ल हो या कोई भी छ्न्द, लय साधने से आ जाता है। संगीत का ज्ञान हो तो क्या कहने !
    ..उम्मीद है कि वादे के मुताबिक आप मेरी पुरानी पोस्टों पर शीघ्र आएँगे। हम अगोरेंगे।

    ReplyDelete
  29. गौतम जी ...डायरी के पन्ने पीले पद सकते हैं पर यादों के पन्नो को कैसे पीला करें ..ये तो कभी भी आ धमकती हैं ...बनती हुयी जिन्दगी को खूब समेटा है आपने कविता में ...अब इसे कोई कविता न माने तो न माने पर भावनाए तो है न ...और भावनाओं को रूप देने का नाम ही कविता है ...
    ये मेरा ख्याल है ...किसी का कुछ भी हो सकता है ....नव वर्ष की शुभकामनाओं के साथ

    ReplyDelete
  30. सारे संकल्प एक बड़े साहित्यकार बनने के .....जब सात साल पहले ही ये हाल था तो अब तो कहर बरसना ही था .....दुआ है आप भी अपनी डायरी की तरह हमेशा उजले रहे .....अपनी तो डायरी ही फटी है ......" बेकार की वाहवाही" achha kiya आपने yah jumla kahkar ....aapki tarif pe kai बार mujhe भी shk hone lagta था ......!!

    ReplyDelete
  31. apne bholepan se bahut kuch kah jate ho aap .
    .खुद को चंद बेतरतीब पंक्तियों में बाँट लेने की ख्वाहिश है कि समेट सकूँ मैं खुद में इन पंक्तियों के जरिये...प्रेम का संपूर्ण विस्तार, माँ-पापा की समस्त चिंतायें, बर्फ में लिपटी ये सुलगती वादी, झेलम का मौन रुदन....और तब्दील हो जाना चाहता हूँ एक अमर कविता में कि गुनगुनाया जा सकूँ सृष्टि के अंत तक...।
    bahut khoob

    ReplyDelete
  32. "ब्लौग पे इधर-उधर ग़ज़लों और कविताओं के संग हो रहे अत्याचार{emotional or otherwise} को बर्दाश्त नहीं करना है। विशेष कर ग़ज़लों के संग।"
    ****************
    यहां थोड़े विस्तार की जरूरत है, बात स्पष्ट नहीं हो रही है। ये पता नहीं चल पा रहा है कि इस संबंध में आप क्या कदम उठायेंगे? वैसे मेरी अपनी दृष्टि तो ये है कि यदि कोई अंधेरे से लड़ना शुरू करे तो उसकी हार सुनिश्चित है क्योंकि अंधेरे का अपना कोई अस्तित्व नहीं है, वह सिर्फ़ प्रकाश का अभाव है। ऐसे में एक ही काम किया जा सकता है कि प्रकाश जलायें, अंधेरा खुद ही तिरोहित हो जायेगा।

    शेष बस ये कहना है कि आपके लेखन-कौशल से ये अंदाजा तो था ही कि ये मर्ज़ पुराना है, डायरी के पन्ने ने आज खुलासा कर ही दिया। philosophy combined with shayari....तभी कहूं हर बार हम घायल क्यों हो जाते हैं।

    ReplyDelete
  33. आपकी डायरी के पन्ने पढ़कर लगा कि भीतर चहुँआता ’स्वभाव का आसक्तियोग’ अभी पूरी तरह डिगा नहीं है, पर फिर भी - रिश्तों की बुलाहट या जुड़ाव अब सिर की चादर नहीं बनते !

    मैं सोच रहा हूँ,(या समझ रहा हूँ ) उस प्रतिबद्धता के बारे में, जिसका स्वरूप निर्मित हुआ होगा इन्हीं पीले न हो सकने वाले डायरी के पन्नों से, इसके "उजले पन्ने पर खिंची हुई भूरी लाइनों में नीली रौशनाई वाले पंक्तिबद्ध किंतु बेतरतीब शब्दों का जमावड़े" से और "तब्दील हो जाना चाहता हूँ एक अमर कविता में कि गुनगुनाया जा सकूँ सृष्टि के अंत तक..." के आत्मविश्वास से !

    मैं कविता का अतार्किक रूप देखता हूँ हरदम - कविता माने वह जो वितान से अधिक तान पर तने ! कविता माने वह जो गति से अधिक सुगति पर टिके ! कविता माने वह जो अर्थ दे वही, जो हमारे भीतर पैदा हुआ ! रूप के कटघरे में कैसा बँधना, संगठन के अवगुण्ठन में क्यों कर कसना !

    आपकी ये पंक्तियाँ कहीं न कहीं कविता की परिभाषा रचती हुई मालूम पड़ती हैं - "..खुद को चंद बेतरतीब पंक्तियों में बाँट लेने की ख्वाहिश है कि समेट सकूँ मैं खुद में इन पंक्तियों के जरिये...प्रेम का संपूर्ण विस्तार..."

    कविता भी वही जो खुद के रचान पर अर्थसंयुक्त हो सबको ललचाये-लुभाये, कविता का अर्थ भी वही जो पढ़ते हुए सबके अन्दर वही पैदा करे जो वस्तुतः अर्थ है !

    आपका गज़ल लिखना अनायास नहीं है ! वस्तुतः एक सायास कर्म ! कारण यही भ्रम-संशय है जो अंततः आपसे ’जेनुईन डाउट’ बन कर अभिव्यक्त हो रहा है !

    मैं ये न कहूँगा कि टिप्पणी करने, न करने के कौन से मूल्य हैं, कौन से मूल्य नहीं हैं - पर यह तो जरूर कहूँगा कि दो रुचि की क्रियाओं (टिप्पणी करना, न करना) में समीकरण बाजी नहीं चलायें! (हो सकता है आपकी टिप्पणी किसी अप्राण को प्राण दे ! मुझे देती है जैसे)।

    घोर विषमता, जड़ता, निष्क्रियता और निराशा के बीच भी क्या अन्तिम आशा का स्वर चुप हो जाया करता है ! मैं आशावादी हूँ ! आपके संकल्पों में छुपा हुआ निषेध आपस में ही टक्ररायेगा-मैं जानता हूँ ! मैं यह भी जानता हूँ कि ये स्वर आपके अन्तस में स्वीकार न हो पायेंगे ! बंकर की छत पर ऐश्वर्या की आँखें सजाने वाले मेजर इन निषेध-भावों की निष्कृति से उगायेंगे सूर्य !
    अंधकार का विवर कितना भी चौड़ा क्यों न हो !

    ReplyDelete
  34. पढकर अच्‍छा लगा ।

    कविता खासतौर पर ।

    ReplyDelete
  35. जी गौतम जी....

    वर्टिकल फ़ार्म में लिखी हुई हर चीज आजकल कविता हो गयी है....


    :)

    ReplyDelete
  36. कविता और कला में सब कुछ तय नहीं होता....

    होता है...
    एकदम से तय होता है सब कुछ.....


    हाँ ,
    अब लोग बाग़ इस तय किये हुए की परवाह नहीं करते.....
    इसीलिए आये दिन आर्ट-गैलरियां...मोडर्न-आर्ट से...
    और ब्लॉग आदि.... मोडर्न कविता से भरे देखता हूँ....

    और गौतम की तरह ही दुखी होता हूँ...

    ReplyDelete
  37. गौतम भाई,
    नव वर्ष की शुभकामनाएं!
    फौजी की तरह ही सीधा और बोल्ड लिखा है.आपने जिनके नाम लिए है उनके हम फेन है.
    पर आप ने उनके बारे में नहीं लिखा जिनकी रचनाओं का आप कभी कभी फौजी आपरेशन कर देते है...यानी मेरे जैसे आपसे सीखने वाले कुछ प्राणी!हा हा!!क्या मान लिया जाए कि अपने संकल्प के चलते आप हमारी और बिलकुल ध्यान नहीं देंगे.और गुरुकुल के मानिटर के रूप में हमारी शिकायत नहीं की जायेगी.
    अनुरोध है की चीर फाड़ को अपने संकल्प से बंद मत करें.आपके मार्ग दर्शन की हमेशा जरूरत रहेगी..वर्ना एक भविष्य के ग़ालिब का अवसान हो जाएगा.
    भावों को महसूस किया जासकता है आपकी कविता में...तो जिन्युइन डाउट बेवजह है.

    ReplyDelete
  38. आप के-
    1-खुद से किये वादे ..--nek khyal hain.
    2-डायरी के पन्ने --peele padhte hain magar us mein samaayee yaaden nahin.
    3-और एक kavita...-bahut achchhee hai.

    ReplyDelete
  39. सोल्जर या फिलोसफ़र.. कितने किरदार अपने अन्दर लिए बैठे हो मेजर साहब..
    अपने रेजोल्यूशन में हमको भी लपेट लिए.. इसे कहते है एक तीर से कई शिकार.. एक फौजी से बेहतर कौन जानेगा.. ?
    पीले पन्ने हमको भी पुराने सफ्हो की याद दिला बैठे.. पड़े होंगे कही किसी अल्मर की कोने में दुबके से.. इस बार घर जाऊंगा तो ढूंढ कर लाऊंगा.. टीन एज की कुछ जिन्दा हसरते पड़ी होगी उसमे.. एक तो शायद दीप्ती नवल थी.. दूसरी मोहल्ले की ही थी.. :)

    आप तो पीछे ले जा रहे है.. साल बदला है..आगे बढ़ना चहिये.. :)

    ReplyDelete
  40. sabse pahle to
    jo aapne socha hai wo sab bahut sahi hai
    vayarth vivaad mein nahi padhna
    aur Dr anuraag ji ke blog ke liye samay nikalana ETC


    bahut gahra sochte hai aap

    माँ की पेशानी वाली सिलवटें,
    बारुद की गंध,
    रेत भरी बोरियों वाली
    इस बंकर की ठिठुरन,
    ऐश्वर्या की आँखें,
    कुछ लड़कियों के भूले-बिसरे नाम,
    ढ़ेर सारी छुट्टियाँ
    और
    एक प्रेम का संपूर्ण विस्तार...


    अचानक से ये कुछ अजीब-से ख्याल उमड़ने लगे हैं। कुछ यूँ कि...बँट जाना चाहता हूँ मैं भी बेतरतीब-सी कुछ पंक्तियों में। छोटे-बड़े, ऊपर-नीचे लिखे चंद जुमलों में। छंद की बंदिशों से परे। आजाद और उन्मुक्त।

    kavita likhne ka ye base bhi kamaal hai
    gazal se pare aazad kavita ka bhi alag aanand hai
    aap to bas likhte rahe
    kuch bhi kahe bas man ki kahe

    ReplyDelete
  41. AAPKE BHAAV SAAGAR ME DOOBTE UTRATE USIKE SANG BAH CHALE....AUR BAS UBRE TO DEKHA APNE PAAS TO KOI SHABD BACHA HI NAHI.....

    NAV VARSH KI ANANT SHUBHKAMNA...SAPARIWAAR SADA SUKHI,SWASTH AUR PRASANN RAHEN....

    ReplyDelete
  42. Kitna sadagee se aapne likha hai..aksar aise khayalaat mere bhi manme aate hain..aapne unhen samet liya!
    Peele panne to Pooja/Tamnna kee dayaree ke ho gaye..kuchh asamay hee..

    ReplyDelete
  43. अरे बड़े भाई आपका रेजोल्यूशन तो अपने से काफी मिलता है. अभी एक पीले रंग के कवर वाली डायरी देख रहा था... ट्रेन में लिखे संस्मरण फाइनल इयर के, जब कुछ दोस्तों के साथ बिन प्लान सिक्किम निकल गया था. और फिलोसफी झाड़ने से ऊपर उठ शायर नहीं बन पाए हम... हाँ फिलोसोफी आज भी खूब झाड लेते हैं :) अजीब हाल है मेरा तो जिनसे नहीं बोलता बिल्कुल ही नहीं बोलता. और जिनसे बोलता हूँ वो कुछ दिनों में बोलने लगता है 'अबे कोई चुप कराओ इसको !' वैसे ये अपनी बात क्यों करने लगा मैं? पता नहीं पोस्ट पढ़ते-पढ़ते कहाँ भटक गया !

    ReplyDelete
  44. नए साल के संकल्पों को तय कर लिया आपने। हम तो अभी तक सोच ही रहे हैं कि क्या लें और क्या निभाएँ।

    ReplyDelete
  45. ""‘यूं ही चलता है’ ये कह कर कब तलक सहते रहें
    कुछ नये रस्ते, नयी कुछ कोशिशों की बात हो" "

    Waah kyaa baat hai.

    Aur aapaki naye kaviata bhi achchhi lagi.

    ReplyDelete
  46. गजब है सर जी, आपकी डायरी भी..पुराना रोग पाला है..अब पता लगा..क्या-क्या खुराफ़ात लिखा करते थे..हमारे तो सब सर के ऊपर से निकल गया..हवाई जहाज की तरह.
    वैसे डायरी के पन्नों पर याद आया कि मुझे भी बड़ा शौक था कभी डायरी लिखने का..साल के शुरू होते ही सुंदर सी डायरी खरीद कर उसे रंगने का शौक..फ़र्क बस इतना है कि सिर्फ़ खरीद लीं डायरियाँ हर साल..लिखा कभी एक अक्षर भी नही उन पर.. और वे कोरी डायरीज्‌ आज भी संजो कर रखी हुई हैं अपने पास..और उनके एकदम कोरे पन्नों मे संजो कर रखे हुए हैं वो सारे अल्फ़ाज..जो कभी लिखे ही नही गये..मगर जब उन पन्नों को खोलता हूँ तो आज भी उन सारे अनलिखे हर्फ़ों की आंच महसूस कर सकता हूँ अपनी आंखों मे..वैसे भी लिपि तो बस भाव संप्रेषण और संग्रहण का एक माध्यम भर है..अपनी सारी कमियों और सीमाबद्धता को स्वीकारते हुए..भाव अगर किसी अनतिक्रमित ग्लेशियर का अभुक्त, अपरिमित और अबाध जल है तो भाषा उसकी क्वांटिटेटिव और कमर्शियल पैकेजिंग मात्र..शाश्वत तो भाव हैं भाषा नही (मुझे खुद पता नही क्या बकवास किये जा रहा हूँ मैं)
    हाँ अपना अभी कोई न्यू इयर रेजोल्यूशन तो नही बन पाया है (जल्दी क्या है..अभी पूरा साल पड़ा है दास मलूका के अनुयाइयों के लिये ) मगर आपके बताये पतों पर सारी गोदामों मे फ़ुर्सत से (रात मे) नकब लगाना अपने फ़्यूचर प्लान्स मे शामिल कर लिया है (पता नही बजाज अलायंज वाले इन प्लान्स पे इन्श्योरेंस देते हैं या नही) :-)


    और हाँ, कविता के बारे में जेन्यूइन डाउट परोसने का अंदाज पसंद आया..और इस संबंध मे आयी प्रतिक्रियाओं से ज्ञानवर्धन भी हुआ (वैसे किशोर सर जी से और क्लास लेना होगा अभी)..वैसे भी ऐसे साहित्यिक बौद्धिक विमर्श आप जैसे विद्वानों के बस की बात ही है..हमारे जैसे कमअक्ल का काम तो है बस अच्छा-अच्छा पढ़ना और वाह-वाह करना..और कभी कलम-कागज हाथ लग जाये तो अल्लम-गल्लम लिख मारना (वैसे कविता के रूपों और उपादेयता पर काफ़ी कुछ लिखा जाता रहा है..और आपके इस पोस्ट से कुछ चीजें याद आती हैं..काव्य-बोध और उसकी भाषा के बारे मे महादेवी वर्मा द्वारा संधिनी की भूमिका और आधुनिक/नयी कविता के बारे मे तीसरे सप्तक मे सार्थक और विचारोत्तेजक वक्तव्य, विशेषकर केदारनाथ, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और खुद अज्ञेय जी की भूमिका, आप तो वैसे भी बांच चुके होंगे सब कुछ)
    नववर्ष (अभी गुजरा कहाँ है) की शुभकामनाओं सहित

    ReplyDelete
  47. गौतम जी,
    आपके गद्य में विस्तारपूर्वक
    और पद्य में समेटे गये भाव
    दिल को छू गये
    यहां गद्य और पद्य की विधा का अंतर भी
    साफ तौर पर समझ में आ जाता है
    नववर्ष की शुभकामनाएं
    शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

    ReplyDelete
  48. मेजर साहब..
    हमेशा की तरह पोस्ट पढ़कर लगा "कुछ बात है"
    ज़िंदगी में पीछे मुड़कर देखना अच्छा लगता है कभी-कभी..। शायद ये ह्यूमन टेंडेंसी होती है कि हम उस लेख, कविता और साहित्य के प्रति झुकाव महसूस करते हैं जिससे ख़ुद को जोड़ पाते हैं..। आपके लेख की उन पंक्तियों में जहां.. आज से सात साल पहले आज ही के दिन ज़िंदगी के सफ़र के किस पड़ाव पर थे.. का ज़िक्र था, मुझे अपने दिल के बेहद क़रीब लगी..।
    नई शुरूआत हमेशा अच्छी होती है लेकिन जिस तरह आपने ज़िंदगी की पिछली यादों के साथ नए साल के सफ़र को आगे बढ़ाया.. मुझे अच्छा लगा :)
    I wish God always illuminate ur path :)

    ReplyDelete
  49. चलिये, आपकी कोशिश ने कुश को तो लिखने पर मजबूर कर ही दिया .... और अक्सर ये होता क्यूं है कि हर नए साल के पहले हफ़्ते में काफ़ि सारे लोगो को बीते हुए साल इतने याद आते है??

    ReplyDelete
  50. exceelent creation
    aapko pahli baar padhne ka mauka mila
    yakinan accha laga

    ReplyDelete
  51. पुरानी डायरी के पन्ने पढना कितना सुखद होता है ।उस वक्त जिन बातों को हम कष्ट कारक समझते थे ,आज सोचते हैं तो लगता है कितनी जल्दी दिन निकल गये ।ऐसे ही आने वाला साल पहाड प्रतीत हो रहा है लेकिन कब पार हो जायेगा पता ही नही चलेगा ।

    ReplyDelete
  52. गौतम...पता नहीं क्यों मैं इससे पहले तुम्हारे ब्लॉग पर नहीं आई! जबकि तुम कितना अच्छा लिखते हो मुझे पता था! वाकई....तुमने जो लिखा है वो नज़्म के रूप में पढो तो नज़्म का सा असर देता है और कहानी जैसा भी सुनाई देता है! पहली फुर्सत में पिछली पोस्टों को भी पढ़ती हूँ अब...

    ReplyDelete
  53. हर लिखने वाले की शुरुआत डायरी लिखने से और छपने वाले की 'संपादक के नाम ख़त से".ही होती है.....हाँ, कई लोग वहीँ अटके रह जाते हैं...और कई,आपके जैसे वहाँ से आगे निकल...नयी ऊँचाइयों को छू लेते हैं...और इतने परेशान क्यूँ है कि डायरी के पन्ने पीले क्यूँ नहीं पड़े...सबसे महंगी वाली नोटबुक या डायरी होगी :)(इम्पोर्टेड कागज़ वाली)...जरा नाम भी लिख देते..बेचारे की पब्लिसिटी हो जाती मुफ्त में :)
    कविताओं पर आप कई बार अपनी चिंता जता चुके हैं...आशा है शब्दों से खिलवाड़ करने वाले इसे एक वार्निंग कि तरह लेंगे...पर आपने तो पंक्तियों को ऊपर नीचे कर एक सार्थक कविता रच डाली.
    और ये पहली बार देखा,किसी को दूसरों के लिए रेजोल्यूशन बनाते(हम्म आइडिया अच्छा है,अब मेरी सहेलियों की खैर नहीं )......और वाह..कुश ने पोस्ट लिख भी डाली..अब उसकी पोस्ट पढ़ती हूँ..४ दिनों बाद फुर्सत से आई हूँ..बहुत बैकलौग है

    ReplyDelete
  54. चाहता हूँ बँट जाना मैं भी
    बेतरतीब-सी कुछ पंक्तियों में
    छोटे-बड़े, ऊपर-नीचे
    लिखे हुये चंद जुमलों में ..

    आपकी कविताएँ भी कमाल हैं गौतम जी ........ आज भी काफ़ी हैं हिला देने के लिए .........
    बहुत ही गहरी ........... आपको २०१० बहुत बहुत मुबारक ........

    ReplyDelete
  55. Umm ... time to re-read the more practical than beautiful thought on your profile pic ... left top corner of your blog page?

    Think about it!

    Chill!
    RC

    ReplyDelete
  56. अब तो किसी की डायरी के पन्ने पीले नहीं पड़ते क्योंकि वे अब ब्लाग कहाते हैं.

    ReplyDelete
  57. आपकी ही पोस्ट पढकर ही पता लगा कि इस बार तो हमने अपने नए साल के "To Do-Not To Do" नही बनाए। खैर मेरे बनाए "To Do-Not To Do" तो बस टूटने के लिए ही बनते है।
    कि समेट सकूँ खुद में
    पापा की टेढ़ी भृकुटियाँ,
    माँ की पेशानी वाली सिलवटें,
    बारुद की गंध,
    रेत भरी बोरियों वाली
    इस बंकर की ठिठुरन,
    ऐश्वर्या की आँखें,
    कुछ लड़कियों के भूले-बिसरे नाम,
    ढ़ेर सारी छुट्टियाँ
    और
    एक प्रेम का संपूर्ण विस्तार..

    ये तो पता नही कि ये कविता हो जाऐगी, हमें तो ये अपना सा लिखा लगा और जानकार कहते है कि जो लिखा अपना सा लगे तो समझो लेखन वही सच्चा है। गौतम जी जब आप आते हो तो छा जाते हो।

    ReplyDelete
  58. Wah Rachana bahut khoobsoorat hai Gautam ji ... bahut puaare khayaal and abhivyakti.

    ReplyDelete
  59. #http://www.khabarexpress.com/Vartmaan-Sahitya-Magzine-1-3-47.html
    #http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A4%BE

    major,
    कविता में अनिवार्य है कथ्य शिल्प लय छंद ज्यों गुलाब के पुष्प में रूप रंग रस गंध.

    ReplyDelete
  60. 1)http://www.khabarexpress.com/
    Vartmaan-Sahitya-Magzine-1-3-47.html

    2)http://hi.wikipedia.org/wiki/
    %E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%
    A4%E0%A4%BE_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%
    A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AD%E0%
    A4%BE%E0%A4%B7%E0%A4%BE

    links in the above post.

    ReplyDelete
  61. आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आई .बहुत देर तक पढ़ती रही आपकी डायरी,कविता और आपके "करो और न करो टाइप" के सुझाव. बहुत मज़ा आया.
    १ ये तो सिर्फ निगाहों का,मनस्थिति और सोच का फर्क है किसी को ये ही पन्ने पीले लगते हैं किसी को धवल तो कहीं ये सुर्ख़ लाल.इसमें आपका कोई कसूर नहीं है .
    २ रही बात पोस्ट की तो मैं तो इतवार के इतवार ही पोस्ट ब्लॉग पर डालती हूँ.केवल पोस्ट डालने के लिए कुछ भी लिख दो ऐसा मैं नहीं करती.
    ३ रही बात कविता की तो वही द्रष्टि का सवाल है "जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखि तिन तैसी " अब ये मत पूछने बैठ जाना की ऐश्वर्या को तो जनता हूँ पर ये भावना कौन है?

    ReplyDelete
  62. कविता तो सही बनी है। एश्वर्या के पोस्टर को वहीं रहने दिया ना!
    घुघूती बासूती

    ReplyDelete
  63. बहुत प्यारी कविता है. सुन्दर पोस्ट. इधर आता रहूँगा.

    ReplyDelete
  64. waise to hindi saahitya padhne ka jyada waqt nikaal nahi paata, aur vyastatayein badhti hi ja rahi hain.. phir bhi ek din kabhi khali waqt mein library mein kuch padha tha, yaad aa raha hai.. jo aapne likha hai use SHAYAD AKAVITA kahte hain aur aajkal bahut jyada prachalan mein hai (aur mujhe bahut pasand aati hai, yakeen na aaye to mera blog dekh lein!!!)
    hmmm... aapne apna standard hi kuch aisa set kar rakha hai ki ye wali wahan tak pahunchti najar nahi aa rahi...

    ReplyDelete
  65. आदरणीय गौतम जी,
    वीकेंड का सदुपयोग कर रहा हूँ, सुबह आपकी प्रविष्टि का पुर्नर्पाठ किया. तत्पश्चात आपके कथनानुसार जिद्दी धुन पर अपनी बकवास ठेल कर आ गया हूँ. और लम्बे समय से गिरिजेश जी व हिमांशु जी के ब्लॉग्स का पारायण मेरे पिछले कई वीकेंड्स के मेन्यू मे शामिल रहे हैं. मगर इस बार समय का उपयोग करते हुए कुएं मे बाल्टी डाल ही देता हूँ. देखते हैं क्या निकलता है.

    ReplyDelete
  66. आपकी डायरी के पन्ने कभी पीले नहीं पड़ेंगे क्योंकि आप उसे रोज़ ताज़ी हवा, पानी और आत्मा की आवाज़ से सींचते हैं ... उसमें मिट्टी कि सोंधी सुगंध, रजनी गंधा की महक और इंद्र धनुष के रंग हमेशा चमकते रहेंगे ... ऐसा मेरा विशवास है और नव वर्ष में कामना है..

    हज़ारों खवाइशें ऐसी कि हर ख्वाइश पे दम निकले ... ब्लाग्स पढ़ने और लिखने के बारे में तो आपने मेरे दिल कि बात कह दी..आमीन:-)

    प्रेम, रिश्ते, हसरतें, जिंदगी के सच समेटे हुए हैं चंद लाइने .. वो आपके दिल में खिल कर पाठकों के मन को छु रही हैं... उन्हे हम कविता कहें या ना कहे क्या फर्क पड़ता है..

    ReplyDelete
  67. गौतम जी,
    कितना कुछ कह गए हैं आप, और उसमें बहुत कुछ समेटा है मैंने ...
    हाँ, आप का ईमेल चाहिए --
    मेरा है -Sudhaom9@gmail .com

    ReplyDelete
  68. kavita???

    ...........
    ...........
    ...........


    in karine se saje hue dots ko dekha kai baar, Gautam Dajyu.

    Aur isse accha jo kuch bhi likha hai wo meri (I REPEATE MERI) nazar main kavita hai.
    har wo shabd sangrah (aur shabd hin bhi) kavita hai jo kuch kehta hai, kehna chahta hai ya kewal hai.

    ReplyDelete
  69. एक गलती होते होते बच गयी मुझसे..............................इतनी खास पोस्ट छूटने ही वाली थी मगर छूटी नहीं, वैसे छूटती भी नहीं, क्योंकि मेरी फेरहिस्त में आप की हर पोस्ट का बेसब्री से इंतज़ार रहता है मगर ये वक़्त है ना टुकडो टुकडो में मिलता है, बिना पूरे पढ़े कुछ टिपण्णी करना अच्छा नहीं लगता.
    मेरी तो यही दुआ है की आपकी डायरी के पन्ने कभी पीले ना पड़े, और वो पढ़ भी कैसे सकते है कमबख्त सुनहरी यादों, बातों और साँसों को समेटे हुए जो हैं.

    ReplyDelete

ईमानदार और बेबाक टिप्पणी दें...शुक्रिया !