वर्ष दो हजार दस का उतरार्ध
था वो । जून के महीने ने अपने आगमन की किलकारी भरी ही थी । चोटियों से पिघलती
बर्फ़ की आमद वादी की सतह को वो फिचफिचाती कीचड़ वाली बनाने में बड़ी शिद्दत से
जुटी हुई थी । श्रीनगर से लेह को जाने वाले फ़ौजी गाड़ियों के दैनिक लंबे काफ़िले
ने अभी-अभी उसकी चौकी की जिम्मेदारी वाली सड़क के लगभग पचीस किलोमीटर वाले फैलाव
को पार कर पड़ोस वाले सैन्य चौकी के इलाके में प्रवेश कर लिया था । वायरलेस सेट पर
इस ख़बर की पुष्टि होते ही उस नाॅट-सो-टाॅल, लेकिन निश्चित रूप से डार्क और हैंडसम कैप्टेन ने चैन की
गहरी साँस भरी । पचीस किलोमीटर के फैलाव में मुस्तैदी से तैनात अपने जवानों को
एलर्ट रहने की ताकीद कर वो लौट ही रहा था अपनी चौकी की तरफ कि वायरलेस पर आ रहा
उत्तेजित सा संदेश उसके पूरे वजूद के संग-संग इर्द-गिर्द की हवा को भी जैसे हजार
वाट का करेंट दे गया ।
"चार्ली
पिकेट फाॅर टाइगर... जल्दी आओ वरना केहर सिंह मार डालेगा इस औरत को...ओवर !"
वायरलेस आॅपरेटर की आवाज़ में
छुपी हुई व्याकुलता कैप्टेन के कानों से उतरती हुई रगों में दौड़ने लगी थी, जब उसने अपने ड्राइवर को जिप्सी वापस मोड़ने का हुकुम दिया
चार्ली पिकेट की जानिब । बमुश्किल दस मिनट आगे ही था वो चार्ली पिकेट और इस दस
मिनट में कैप्टेन साब ने हवलदार केहर सिंह का पूरा बायोडाटा अपने स्मृति-पटल पर
दसियों बार दौड़ा लिया । सीधा-सादा, एकदम डिसिप्लीन्ड, दो बच्चों का पिता, तनिक वज़नदार लेकिन शारीरिक रूप से बिलकुल फिट केहर...क्या
समस्या खड़ी कर सकता है वो ? जिप्सी
की रफ़्तार के साथ जैसे कैप्टेन की बेचैनी रेस लगा रही थी उस सर्पिल सी टेढी-मेढी
सड़क पर ।
अच्छा-खासा मजमा जमा हुआ था
वहाँ,
जब कैप्टेन पहुँचा । पिकेट से सटी हुई बस्ती के स्थानीय कश्मीरियों
की भीड़ में घिरे पिकेट के चार जवान दूर से ही दिख रहे थे कैप्टेन को जिप्सी की
विंड स्क्रीन के पार । किसी अनिष्ट की आशंका के लिये ख़ुद को तैयार करता हुआ
कैप्टेन जब जिप्सी से उतरा तो बस्ती के तमाम लोग हँसते-ठिठयाते दिखे उसे और हवलदार
केहर सिंह एक लगभग दस वर्षीया कश्मीरी गुड़िया को गोद में बिठाये अपने पैक्ड लंच
से पूरियाँ खिला रहा था । कहानी यूँ खुली कि अनिष्ट की आशंका से डसा हुआ कैप्टेन
अपने बुलंद अट्टहास को रोक ना पाया...
... उस कश्मीरी गुड़िया की
माँ जाने किस आवेश में अपनी बेटी की बेतरह पिटाई कर रही थी और उस छुटकी का रुदन
दूर कुमाऊँ के पहाड़ों में बैठी अपनी बेटी की याद दिला रहा था हवलदार केहर को, जो उस वक़्त अपनी ड्यूटी पर वहीं निकट खड़ा था । औरत को
तीन-चार बार गुहार लगाया उसने छुटकी को छोड़ देने के लिये, मगर जब वो नहीं मानी तो फिर केहर सिंह के रौद्रावतार ने
पहले तो ज़ोर का धक्का दिया औरत को और छुटकी को गोद में उठा लिया । माँ जब
उग्रचंडिका बनी हुई केहर पर झपटी तो फिर सब कुछ केहर सिंह की बर्दाश्तीय क्षमता से
परे हो गया था । कैप्टेन को बस्ती वालों ने बताया कि कैसे छुटकी को गोद में उठाये
थप्प्ड़ों की मूसलाधार वृष्टि ले आया थे हविलदार साहिब ! छुटकी के पिताश्री समस्त
बस्ती वालों के समूह में सबसे अग्रणी थे केहर के समर्थन में ये कहते हुये कि ठीक
किया हविलदार साहिब ने इस बदतमीज़ औरत के साथ... ऐसे ही करती है ये बच्चों के साथ
हर रोज़...अब अक़ल ठिकाने रहेगी ।
वापस लौटते हुये मुस्कुराते
कैप्टेन साब के पास शाम के लिये अपनी शरीक़े-हयात को मोबाइल पर सुनाने के लिये एक
दिलचस्प क़िस्सा था !
हाथ थे मिले कि ज़ुल्फ़ चाँद की संवार दूँ
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूँ ...
( तस्वीर गूगल से साभार और आख़िर की पंक्तियाँ नीरज के एक विख्यात गीत से )
संस्मरण पढ़ कर मन प्रसन्न हो गया .
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " भारत के 14वें राष्ट्रपति बने रामनाथ कोविन्द “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत सुंदर संस्मरण, बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम
#हिन्दी_ब्लॉगिंग