{कथादेश के मई अंक में प्रकाशित "फ़ौजी की डायरी" का तीसरा पन्ना}
जी ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत...कि रात-दिन बैठे रहें
तसव्वुर-ए-जानाँ किये हुए...ढेर-ढेर सारी
फ़ुरसतें...दोस्तों-से-झूठी-मूटी-दूसरों-का-नाम-लेकर-वो-तेरी-बातें-करना-वाली
फ़ुरसतें कि इन लम्बी-लम्बी रातों के अफ़साने गढ़ सकूँ इन फ़ुरसतों में | सरहद पर
रातें लंबी होती हैं...अक्सर तो उम्र से भी लंबी...बेचैन, आशंकित, चौकस रतजगों
में लिपटी हुईं | इन रतजगों के जाने कितने अफ़साने हैं जो लिखे नहीं जा सकते...जो
सुनाये नहीं जा सकते...और सुनाये जाने पर भी इनके आम समझ से ऊपर निकल जाने का भय
रहता है | ‘युद्ध’ इन तमाम अफ़सानों का केन्द्रीय किरदार होता | कश्मीर की दुर्गम, बर्फ़ में दबी-ढँकी ठिठुरती-सिहरती हुई सरहदों पर हर रोज़ ही तो एक युद्ध होता
है | कौन देख पाता है इन अंतहीन रोज़-रोज़ के
युद्धों को, सिवाय इन प्रहरियों के !
वैसे युद्ध बस सरहद पर ही नहीं लड़े जाते ! कई बार सैनिकों
के लिए भी...युद्ध बस सरहद पर नहीं लड़े जाते |
सामने पत्थर-फेंक दूरी पर खड़ा आँखों से आँखें
मिलाता हुआ दुश्मन या फिर ज़मीनी बनावट और ख़राब मौसमों का फायदा उठाकर कथित जेहाद
के नाम पर अंदर घुस आने को उतावले आतंकवादियों का दस्ता...ये सब मिलकर या अलग-अलग विगत
तीन-साढ़े तीन दशकों से लगातार युद्द जैसी स्थित ही तो उत्पन्न करते रहे हैं | कहने को बेशक इसे “लो इंटेसिटी कंफ्लिक्ट” कह कर नकारने की कोशिश करते रहें हम, हर तीसरे दिन की शहादत कुछ और कहानी कहती है...कहानी, जो सौ साल पहले के उस महान प्रथम विश्व-युद्ध के बनिस्पत एक
लघु-कथा से ज्यादा और कुछ नहीं, किन्तु यही लघु-कथा
रात-दिन इन ठिठुरती-सिहरती सरहदों पर निगरानी में खड़े एक भारतीय सैनिक के लिए किसी
महाकाव्य से कम का विस्तार नहीं देती है | पूरे मुल्क की सोचों, निगाहों में अलग-थलग कर दिया ये अकेला भारतीय
सैनिक इसी अनकही कहानी के पार्श्व में एक सवाल उठाता है कि क्या वजह है कि सौ साल
पहले के उस महायुद्ध के पश्चात जब सम्पूर्ण यूरोप, अमेरिका या फिर जर्मनी भी एक मजबूत ताकत के रूप में, एक व्यवस्थित विकसित मुल्क के रूप में उभर कर आए और अपना ये
मुल्क स्वतंत्रता-प्राप्ति के उपरांत पाँच-पाँच युद्ध देख चुकने के बाद भी एक
चरमरायी सी, असहाय विवश व्यवस्था की छवि प्रस्तुत करता है
पूरे विश्व के समक्ष ?
युद्ध कभी भी वांछित जैसी चीज नहीं हो सकती है...और खास कर एक सैनिक के लिए तो
बिलकुल ही नहीं | किसी भी युद्ध के दौरान एक सैनिक को मौत या
दर्द या ज़ख्म से ज्यादा डर उसको अपने वर्दी की और अपने रेजीमेंट की इज्जत खोने का
होता है और कोई भी युद्ध वो इन्हीं दो चीजों के लिए लड़ता है...बस ! अपनी हरी वर्दी
के लिए और अपने रेजिमेंट के नाम-नमक-निशान के लिए ! ऐसी हर लड़ाई के बाद वो अपने
मुल्क और इसके लोगों की तरफ बस इतनी-सी इच्छा लिए देखता है कि उसके इस जज़्बे को
पहचान मिले...उसकी इस क़ुरबानी को सम्मान मिले | प्रथम विश्व-युद्ध के पश्चात उसमें शामिल हर मुल्क में सैनिकों को उसी स्नेह
और सम्मान से देखा गया (देखा जा रहा है) जिसकी ज़रा सी भी अपेक्षा वहाँ के सैनिकों
के मन में थी | किन्तु यहाँ इस मुल्क में अपेक्षा के विपरीत
उपेक्षा का दंश लगातार झेलते रहने के बावजूद भारतीय सैनिक फिर भी हर बार हर दफ़ा
जरूरत पड़ने पर यहाँ सरहद के लिये जान की बाज़ी लगाता है | वो देखता है असहाय अवाक-सा कि कैसे कुछ मुट्ठी भर उसके
भाई-बंधुओं द्वारा चलती ट्रेन में की गई बदतमीजी को उसके पूरे कुनबे पर थोप दिया
जाता है...कि कैसे चंद गिने-चुने उसके साथियों के हाथों उत्तर-पूर्व राज्यों या
कश्मीर के इलाकों में हुई ज्यादातियों के सामने उसके पूरे युग भर की प्रतिबद्धता को
नकार दिया जाता है एक सिरे से...वो तिलमिलाता है, तड़पता है, फिर भी ड्यूटी दिये जाता है | सरहद पर चीड़ और देवदार के पेड़ों से उसे ज्यादा स्नेह मिलता
है,
बनिस्पत अपने मुल्क के बाशिंदों से | सामने वाले दुश्मन की छुद्रता, गुपचुप वार करने वाले आतंकवादियों की धृष्ठता, मौसम की हिंसक मार, मुश्किल ज़मीनी बनावट का बर्ताव जैसे हर रोज़ के छोटे-छोटे युद्धों से लड़ता वो
अपने मुल्क के इस सौतेले व्यवहार से भी एक युद्ध लड़ता है...युद्ध बस सरहद पर नहीं लड़े जाते !
इधर अप्रैल का महीना तो आधा से ज़्यादा
गुज़र चुका है,
लेकिन ये वाला साल है कि पुराने साल की ठिठुरन को अब तलक
अपने बदन पर लपेटे हुये है | बंकर से बाहर निकलने के लिए बर्फ ने जो
सीढ़ियाँ तैयार कर रखी है,
वो घटती मालूम ही नहीं पड़ रहीं | अभी
तक उतुंग सी बेहया की तरह सर उठाये खड़ी हुयी हैं | सब कुछ जैसे गीला-गीला
सा...पूरे का पूरा वजूद तक....वजूद की अनंत तलहट्टियाँ तक | प्रचंड
सूर्य की प्रखर धूप के लिए बेचैन विकल मन समूचे सूर्य को ही उतार लाना चाहता है
बंकर की छत पर मानो ! धूप की जलती सी रस्सी जो होती एक काश, जिस
पर पूरे बदन को निचोड़ कर सूखने के लिए टांग देता कोई !
रातें उम्र से भी लंबी हैं और दिन उस लंबी
उम्र का फकत एक लम्हा जैसे !
...और रात लिये रहती है याद-सी कोई याद
तुम्हारी…ड्यूटी की तमाम बंदिशों में भी और रात भर बजता रहता है ये बगल में रखा छोटा-सा
मोटोरोला का रेडियो-सेट,
निकट दूर खड़े तमाम प्रहरियों से मेरे बंकर को जोड़ता हुआ...”अल्फा
ऑस्कर किलो ओवर”
(ऑल ओके ! ओवर !!) करता हुआ | जानती हो, तुम्हारी
याद दिलाता है ये कमबख़्त छोटा सा रेडियो सेट...हर बार, बार-बार...घड़ी-घड़ी
“ऑल ओके ओवर”
की रिपोर्ट देता हुआ !
हाँ ! सच में !! तुम सा ही पतला-दुबला, तुम
सा ही सलोना और भरोसेमंद भी...और जब भी बोलना होता है इसमें कुछ, लाना पड़ता है इसे
होठों के बिलकुल पास...ठीक तुम-सा ही तो !
हँसोगी ना तुम जो कभी इस डायरी को पढ़ोगी ?
काश कि दूर इन बर्फीले पहाड़ों से इसी के
जरिये कर पाता मैं...तुम संग भी “ओके ओवर”...कभी-कभार “मिस
यू ओवर”...और थोड़ा-सा “लव यू ओवर“
भी !
...और जो यूँ होता तो क्या तब भी ये रातें उम्र सी ही लंबी होतीं ?
हा हा...ये लम्बी ठहरी हुई पसरी-पसरी
रातें और तो कुछ करें ना करें, मेरे अच्छे-भले सोल्जर को कहीं पोएट ना बना डालें !
फ़रहत एहसास का शेर याद आता है:-
मुझ तक है मेरे दुख के तसव्वुफ़ का सिलसिला
इक ज़ख़्म मैं मुरीद तो इक ज़ख़्म पीर मैं
इक ज़ख़्म मैं मुरीद तो इक ज़ख़्म पीर मैं
लव यू फ़ौजी ..उम्र से लम्बी लम्बी तन्हा रातें यूं लिख लिख कर ही गुजारी जाती हैं मेरे यार | आपसे हुलस के , लपक के मिलने को मन आतुर हो उठता है , हरी वर्दी भीतर तक सुकून भर देती है | लिखते रहिये , दिखते रहिये ...डायरी से शायरी तक ...तुम्हारी हर अदा पर कुर्बान , मेरी जान .....लव यू फ़ौजी . लव यू अगेन :) :)
ReplyDeleteआप भी कमाल का लिखते हैं, बस कविता की तरह आपकी पोस्ट को बांचते चले जाना होता है, एक तादाम्य सा बन जाता है, बहुत शुभकामनएं.
ReplyDeleteरामराम
#हिन्दी_ब्लॉगिंग