{कथादेश के जून 2017 अंक में प्रकाशित "फ़ौजी की डायरी" का चौथा पन्ना}
इन दिनों
दुष्यंत का एक शेर अपने पूरे उफ़ान पर है नीचे वादी में आजादी के नारों के साथ...”कैसे
आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो” | ख़ूब-ख़ूब उछाले
जा रहे हैं पत्थर | वादी में पत्थरों पर बरस रही इनायत इन दिनों ख़ुदा की जानिब
उछाली गयी दुआओं पर भी भारी पड़ रही है | शिद्दत से उछाले जा रहे हैं पत्थर...तबीयत
से उछाले जा रहे हैं पत्थर | लेकिन कमबख्त सूराख नहीं हो रहा आकाश में । वर्दियों
के सर फूट रहे हैं, कंधे चटख
रहे हैं,
घुटने खिसक रहे हैं...लेकिन आसमान में छेद नहीं हो रहा और
हो भी कैसे ! जब दुष्यंत तबीयत से
पत्थर उछालने का आह्वान कर गये थे तो उसमें सच्चाई की ताकत वाली बात छुपी हुई थी
| यहाँ बहके हुए, भटके हुए किसी छद्म सपने के आगोश में लिपटे हुये पत्थर भले ही
कितनी ही तबियत से उछाले जा रहे हों, उनकी पहुँच सर-कंधों-घुटनों तक ही सीमित रहने
वाली है...आसमान में छेद करने की बिसात नहीं है इनकी | पत्थरों की ये बारिश हम तक
भी नहीं पहुँच रही इन ऊँचे तुंग पहाड़ों पर |
नीचे गाँव से हमारे राशन और अन्य
सामान लाने वाले कश्मीरी पोर्टरों को कल लंगर में अपने जवानों के साथ बैठ कर खाना
खाते देख कर रोक ना पाया ख़ुद को | शामिल हो गया उनकी पंगत में और जब पूछा उनसे कि
उधर नीचे वादी के अपने भाई-बंधुओं की तरह तुमलोग भी क्यों नहीं पत्थर उठाते इस
जानिब...इक्कीस वर्षीय उस्मान छेती के जवाब ने सुड़पते मटन की सरसराहट के मध्य एक
जबरदस्त सम्मिलित ठहाकों की ऐसी गूँज उठायी कि मैं घबड़ा ही गया कहीं एवलांच ना आ
जाए ! उस्मान ने हौले से आदाब करते हुए
अपनी छितरी-छितरी दाढ़ी में छुपे होठों पर एक दिलकश मुस्कान बिखेरते हुए कहा कि
“ऐसा है ना साब, नीचे वादी में दुआ के लिए सजदे में झुकी कमर पर भी आजादी लिख दी
गयी है | जैसे भूत की कहानी सुन-सुन कर बड़े हुए बच्चे जानते हैं कि भूत नहीं होता,
फिर भी भूतों की कहानियाँ सुनते हैं...सुनाते हैं...कुछ वैसा ही हाल नीचे वादी के
लड़कों का है | आजादी क्या है, नहीं है...कुछ नहीं मालूम उन लड़कों को...लेकिन बचपन
से सुनते आये हैं तो आजादी कह रहे हैं, आजादी बोल रहे हैं और साथ में मस्ती के लिए
पत्थर फ़ेंक रहे हैं !”
इधर इन
बरसते पत्थरों से मन उतना विचलित नहीं होता, जितना झेलम की उदासीनता से | जी करता
है, इस मौन-शांत प्रवाह में रमी झेलम को झिंझोड़ कर कहूँ कि तू इतनी निर्विकार कैसे
रह सकती है जब तेरे किनारे खेलने-कूदने वाले बच्चे राह भटक रहे हैं चंद सरफ़िरों के
इशारे पर | इन "भारतीय कुत्तों वापस जाओ" के नारों से मन उतना खिन्न
नहीं होता जितना चिनारों के बदस्तूर खिलखिलाने से | मन करता है वादी के एक-एक
चिनार को झकझोड़ कर पूछूँ कि तुम इतना खिलखिला कैसे सकते हो जब तुम्हारी छाया में
पले-बढ़े नौनिहाल तुम्हारे अपने ही मुल्क को गंदी गालियाँ निकाल रहे हों | इन आजादी
की बेतुकी माँगों से मन उतना उदास नहीं होता जितना बगीचों में ललियाते रस लुटाते
सेबों को देखकर होता है। दिल करता है इस सेबों को कुतर-कुतर कर कहूं कि किस काम का
तुम्हारे मीठे स्वाद जब तुम्हें चख कर बड़े हुए लड़के ऐसे कड़वे नारे बुलंद कर रहे
हों !
जी
करता है...मन करता है...दिल करता है...बस यूँ ही करता रहता है ! कर कुछ नहीं पाता
हक़ीकत में ! ऐसे में निराश मन जब अखबारों, चैनलों और सोशल मीडिया पर नजर दौड़ाता है तो वहाँ से भी उसे
दुत्कार मिलती ही दिखती है | हर तरफ...हर ओर | निष्पक्ष मिडिया, ईमानदार बंधुगण कश्मीर के जख्मी लोगों की तस्वीर तो दिखाते
हैं लेकिन उनके कैमरे के लैंस, उनकी
कलम की स्याही जाने कैसे फूटे सर वाले पुलिसकर्मी, टूटे कंधों वाले सीआरपीएफ़ के जवान और लंगड़ाते सुरक्षाबलों
की टुकड़ी को नजरंदाज कर जाते हैं | इन टूटे-फूटे सुरक्षाकर्मियों की तस्वीर टीआरपी
रेटिंग जो नहीं बढ़ाती...इन लंगड़ाते-कराहते पुलिसवालों का जिक्र फेसबुक पर बहस जो
नहीं बढ़ाता !
कैसे-कैसे
क़िस्से आ रहे हैं नीचे वादी से...तहसीलदार के कार्यालय को जलाने में लिप्त चंद
सरफ़िरे युवाओं में से कुछ की मौत उसी कार्यालय में उन्हीं के द्वारा लगायी आग से
फटे गैस के सिलेंडर से होती है और इल्जाम वर्दीवालों पर जाता है | कई दिनों से
अस्पताल में भर्ती एक बीमार बुजूर्ग दम तोड़ते हैं और जब उनका जनाजा घर आता है तो
अफवाह उड़ायी जाती है गली-कूचों में कि पुलिस के डंडों से मर गये हैं और पत्थरों की
बारिश कहर बन कर टूटती है सुरक्षाकर्मियों पर | एक आठ साल का बच्चा दौड़ते हुये गिर
पड़ता है और उसके तमाम भाई-बंधु उसे अकेला छोड़ कर भाग जाते हैं तो सुरक्षाबलों की
टुकड़ी में हरियाणा के एक जवान को उस गिरे बच्चे को देखकर दूर गाँव में अपने बेटे
की याद आती है, वो उसे अपनी गोद में
उठाकर पानी पिलाता है, अपनी गाड़ी
में अस्पताल छोड़ कर आता है और जब उस बच्चे की मौत हो जाती है अस्पताल में तो उसी
बच्चे को बर्बरतापूर्वक कत्ल कर देने का इल्जाम भी अपने सर पर लेता है | अपने ही मुख
पर “भारतीय कुत्तों” के विशेषण को सुनकर संयम बरतना बड़ा ही जिगर वाला काम है | ऐसे
में सीआरपीएफ के जवानों द्वारा नीचे वादी में दर्शाया जा रहा संयम पूरी दुनिया के
लिए मिसाल है | एक सरफ़िरा नौजवान एक वर्दीवाले के पास आकर उसके युनिफार्म का कालर
पकड़ उसके चेहरे पर चिल्ला कर कहता है बकायदा अँग्रेजी झाड़ते हुये "यू ब्लडी
इंडियन डॉग गो बैक" और
बदले में वो वर्दीवाला मुस्कुराता है और सरफ़िरे नौजवान को भींच कर गले से लगा
लेता...पूरी भीड़ हक्की-बक्की रह जाती है और वो वर्दीवाला अपने संयम को मन-ही-मन
हजारों गालियाँ देता हुआ आगे बढ़ जाता है | एक इलाके के एसपी साब का सर बड़े पत्थर
से फूट चुका है...वर्दी पूरी तरह रक्त-रंजित हो चुकी है, किंतु वो महज एक
हैंडीप्लास्ट लगाकर भीड़ के सामने खड़े रहते हैं अपने मातहतों को सख्त आदेश देते
हुये कि कोई भी भीड़ पर चार्ज नहीं करेगा | दूसरे दिन चिकित्सकों की टोली सर पर लगे
चोट की वजह से उनके एक कान को निष्क्रिय घोषित कर देती है |
...कितने
ही क़िस्से आ रहे हैं रोज़ नीचे से ऐसे-ऐसे | सुन कर अपनी और अपने जवानों की
खुशकिस्मती पर रश्क होता है कि शुक्र है हम इन बर्फ़ीले पहाड़ों पर सरहद की निगरानी
में हैं और उधर नीचे वादी में तैनाती नहीं है हमारी ! अगर होती तो क्या ऐसा संयम
बरत पाते हम...!
स्तबध हूँ !
ReplyDeleteकश्मीर घाटी का बहुत ही स्तब्ध करनेवाला, दिमाग को झंझोड़नेवाला विश्लेषण।
ReplyDeleteफिर भी उठ कर आये हैं
ReplyDeleteकितने ही सर....
गौतम भाई यदि देश के हालातों से अलग सिर्फ धर्म की मत भिन्नताओं के आधार पर अगर विचार किया जाए तो घाटी के सैनिकों से लेकर देश के प्रधानमंत्री और लोगों का संयमित व्यवहार, सहिष्णुता की मानसिकता सब व्यर्थ प्रतीत होती है। क्योंकि मतों और धर्मों की भिन्नता दुनिया में कभी भी एकता नहीं ला सकती। मतों, धर्मों और सिद्धान्तों का संघर्ष वैदिक काल के बाद निरंतर रहा है। हमारे समय के शासक और बुद्धिजीवी अगर सोचें कि वे इस पर नियंत्रण पा लेंगे तो यह मूर्खतापूर्ण कल्पना के सिवाय कुछ नहीं। ठोस उपाय ही रास्ता है। आर-पार का सीन ही निर्णायक होगा। क्यों आपको नहीं लगता।
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