...चीड़-देवदार-चिनारों से आच्छादित धरती के इस कथित जन्नत के एक कोने से आप सब के साथ इस ब्लौग-जगत से जुड़े रहने की कोशिश अपने-आप में बड़ा ही कठिन श्रम है। नेट की गति का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि मेल में एक साधारण-सी आडियो फाइल को अटैच करने में एक घंटे से ऊपर का समय लगता है और वो भी कोई जरूरी नहीं है कि प्रयास सफल ही हो। किंतु यहाँ इस बात की शिकायत करना तो ज्यादती होगी, क्योंकि मुझे याद है कि पाँच-छः बरस पहले यहाँ की अपनी पहली पोस्टिंग के दौरान घर वालों को फोन तक करने के लिये कितनी जद्दोजह्द उठानी पड़ती थी। अब तो मोबाइल की विलासिता और इंटरनेट की सुलभता उपलब्ध है। शिकायत तो कर ही नहीं सकता।
...अपने पिछले पोस्ट में मेरी एक तुच्छ-सी शंका के निबारन हेतु बढ़े उन समस्त मददों का शुक्रगुजार हूँ। ये अपना हिंदी ब्लौग-जगत सचमुच में एक विस्तृत परिवार बनता जा रहा है। विशेष रूप से अनुग्रहित हूँ हिंदी ब्लौगिंग के पुरोधा रविरतलामी साब का, श्रद्धेय गुरू पंकज सुबीर जी का, सुश्री अल्पना जी का, शैलेश जी का और अपनी अनुजा कंचन का।
...इधर बहुत दिनों से कोई ग़ज़ल नहीं हुई थी पोस्ट पर। गुरूजी का हुक्म हुआ, तो उन्हीं के आशिर्वाद से सँवरी एक छोटी बहर की ग़ज़ल प्रस्तुत है। बहरे-रज़ज में 2212-2212 के वजन पर।
तू जब से अल्लादिन हुआ
मैं इक चरागे- जिन हुआ
भूलूँ तुझे? ऐसा तो कुछ
होना न था,लेकिन हुआ
पढ़-लिख हुये बेटे बड़े
हिस्से में घर गिन-गिन हुआ
काँटों से बचना फूल की
चाहत में कब मुमकिन हुआ
झीलें बनीं सड़कें सभी
बारिश का जब भी दिन हुआ
रूठा जो तू फिर तो ये घर
मानो झरोखे बिन हुआ
आया है वो कुछ इस तरह
महफ़िल का ढ़ब कमसिन हुआ
(अशोक अंजुम द्वारा संपादित त्रैमासिक पत्रिका "अभिनव प्रयास" के जुलाई-सितंबर 09 अंक में प्रकाशित)
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ReplyDeleteबहुत लाजवाब लिखा आपने. आपकी भावनाओं को समझ्ते हैं. शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
इसे भावनात्मक अभिव्यक्ति कहूँ, भाई??...
ReplyDeleteमेरे दिल को तो छू गई..
मेरी शुभकामनाऐं तुम्हारे साथ हैं..
मैने उसी दिशा में अपना दोस्त खोया है कारगिल के वक्त १९९९ में मेजर प्रमोद पुरुषोत्तम,,वो तब पी आर ओ था और आतंकवादी हमले में शहीद हुआ.
वाह गौतम भाई वाह बहरे रजज पे क्या खूब शे'र निकाले है आपने ..
ReplyDeleteमतला तो आपके ही अंदाज में उफ्फ्फ ...
.सारे के सारे शे'र दाद के काबिल , बहोत ही खूबसूरती से कही है आपने... लगता है मौसम सुहाना है ....खास कर ये शे'र
काँटों से बचना फूल की
चाहत में कब मुमकिन हुआ
और इस शे'र के क्या कहने ,जनाब मुनावर राणा साहिब की याद दिला दी आपने...
ढेरो बधाई साहिब...
अर्श
gautam ji, dil kah raha hai aaj subah subah behatareen rachna padhne ko mili , sabhi sher lajawaab. bahut-2 badhai.
ReplyDeleteकाँटों से बचना फूल की
ReplyDeleteचाहत में कब मुमकिन हुआ
बहुत खूबसूरत गजल कही है आपने ...दिल को छू गयी आपकी यह गजल शुक्रिया
काँटों से बचना फूल की
ReplyDeleteचाहत में कब मुमकिन हुआ
" बहुत सुंदर भावनात्मक अभिव्यक्ति .."
regards
छन-छन पायलिया के घुँघरुँ
ReplyDeleteरूठा जो तू फिर तो ये घर
ReplyDeleteमानो झरोखे बिन हुआ
वाह जी वाह...!
आपकी आवाज़ लोगो को सुनवानी तो है ही वीरा.....! देखती हूँ कैसे..?
बहुत लाजवाब ! टेक्नीकल तो गजल लिखने वाले जाने. भावनाएं तो हमें कमाल की लगी.
ReplyDeleteआया है वो कुछ इस तरह
ReplyDeleteमहफ़िल का ढ़ब कमसिन हुआ
subhanallah.....goya ke ye sher hamara hua...
हौसला अफजाही हम कर देते हैं इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए और कमियों के लिए गुरु देव से संपर्क करें...क्यूँ की ये आपने बस का नहीं...
ReplyDeleteहर शेर में आनंद आ गया याने की ग़ज़ल कामयाब हो गयी...
नीरज
बहुत खूब ... क्या बात है
ReplyDeleteभाई सभी लोग अपने-अपने मतलब का शेर
उठा रहे हैं तो मैं क्यों रह जाऊं ?
मुझे तो यह शेर बेशकीमती लगा
वही रख रहा हूँ अपने पास :
"भूलूँ तुझे? ऐसा तो कुछ
होना न था,लेकिन हुआ"
छोटी बहर की ग़ज़ल का अपना अलग ही
आकर्षण होता है ! मैंने देखा है की जो लोग
ग़ज़ल से दूर रहते हैं उन्हें भी छोटी बहर की
ग़ज़ल में आनंद आता है !
भाई गौतम जी इस शेर में कुछ मिस है ..
शायद कुछ गुंजाईश है .....
"पढ़-लिख हुये बेटे बड़े
हिस्से में घर गिन-गिन हुआ"
गौतम जी
ReplyDeleteइतनी खूबसूरत ग़ज़ल लिखते हैं और मासूमियत से कहते हैं, गलती हुयी तो बताएं ............अब क्या कहें सर ..........आपकी कलम जादू बिखेरती है
पढ़-लिख हुये बेटे बड़े
हिस्से में घर गिन-गिन हुआ
इस शेर में आपने जीवन के कडुवे सच को लिखा है..........
काँटों से बचना फूल की
चाहत में कब मुमकिन हुआ
ये भी एक सच्चाई है .......... किसी भी खूबसूरत फूल में काँटों क साथ तो होता ही है
झीलें बनीं सड़कें सभी
बारिश का जब भी दिन हुआ
इस शेर में आपकी मस्ती झलकती है.........अनोखा अंदाज झलकता है
अब किस शेर के बारे में कहूं .....सब ही लाजवाब हैं
रूठा जो तू फिर तो ये घर
ReplyDeleteमानो झरोखे बिन हुआ..waah..bahut khuub.
तू जब से अल्लादिन हुआ
ReplyDeleteमैं इक चरागे- जिन हुआ.....behad khubsurat post...
जब से तू अलादीन हुआ मैं चिराग का जिन् हुआ /चिराग के जिन ही है रात दिन करते रहते है 'जो हुक्म मेरे आका 'इधर कोई ख्वाहिश प्रकट हुई नहीं की हमने पूरी की -कैसे ? मालिक बेहतर जानता है //भूलना तो नहीं चाहता था मगर भूला /.क्यों ? यह क्यों बहुत सवाल और जवाब पैदा करता है //प्रकाश गोविन्द जी ने लिखा है इस शेर में कुछ मिस है /मिस या मिसेज कुछ नहीं है सीधी बात है जब भीबच्चे पढ़ लिख कर बडे हुए उनकी शादी व्याह हुए ,सवसे पहले घर का बटवारा होता है ,यह घर घर की कहानी हैहिस्से में घर गिन गिन हुआ ,गिन गिन कर चुन चुन कर अपना अपना हिस्सा ले लेते हैं माँ बाप के हक में कोठरी छोड़ देते है (मै सब की बात नहीं कर रहा आज कल तो बेटे बहुएं सबसे पहले उठ कर माँ सास के चरण स्पर्श करते हैं ,कोई कोई मकान में हिस्सा बता लेते हैं ) बहुत पहले मैंने अपने ब्लॉग पर अपना एक शेर लिखा था "" मैं भी तो अपना बिस्तरा लगाऊं किसी तरह /मेरे मकां में छोड़ दे थोड़ी सी कुछ जगह ""//कई फूल ऐसे भी हैं जिनकी किस्मत में कांटे नहीं होते //आपके ही यहाँ नहीं इधर मध्यप्रदेश में भी सडके बरसात में झील बन जाया करती है "" आम सड़कें बंद हैं कब से मरम्मत के लिए .........(आप तो दुष्यंत जी के पाठक हैं )
ReplyDeleteNice, warm Ghazal! Loved it.
ReplyDeleteok, now comments -
तू जब से अल्लादिन हुआ
मैं इक चरागे- जिन हुआ
She'r good to hear, but pardon me .. what are we trying to say here? When you became Alladin (fooled and trapped in an underground cave by his Chacha) ...I became your savior?
भूलूँ तुझे? ऐसा तो कुछ
होना न था,लेकिन हुआ
Awessome!
रूठा जो तू फिर तो ये घर
मानो झरोखे बिन हुआ
Too good again. Touching!
Good write-up, buddy!
God bless
RC
छोटी बहर में आपने अच्छी गजल कही है। बधाई स्वीकारिए।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary- TSALIIM / SBAI }
आया है वो कुछ इस तरह
ReplyDeleteमहफ़िल का ढ़ब कमसिन हुआ...
ye thik aapke blog ki tarah hua// har samay jis andaaz me aate ho, bahut khoob aate ho//
chhoti bahar me jivan ke darshan yukt gazal//
पढ़-लिख हुये बेटे बड़े
हिस्से में घर गिन-गिन हुआ..
ham sabki sachchai///
भूलूँ तुझे? ऐसा तो कुछ
होना न था,लेकिन हुआ..
aour fir yaad///bhulne ke liye bhi to use yaad hi karna hota he//
LAZAVAAB he,,,,dil se hi hoslaafzaai he// samajh me ye nahi aata ki jiske paas hosla sthai roop se mouju he uske liye AFSAI??kesi?? बहरे-रज़ज में 2212-2212 के वजन पर..//yadi me apne vazan ki baat karu to bahut bhaari he aapki gazal..jo dil ko bhaa jaati he//
हर शेर लाजवाब मेजर साहब ,,,,हमेशा की तरह,,,
ReplyDeleteझील की बात पढ़कर अपनी दिल्ली की बारिशें तो याद आई ही,,,ये भी सोचा के क्या उधर भी सड़कों की झील बनते है,,,?????
रूठा जो तू फिर तो ये घर
मानो झरोखे बिन हुआ
आया है वो कुछ इस तरह
महफ़िल का ढ़ब कमसिन हुआ
ये दो शेर तो इतने ताजा लगे के कहना मुश्किल है,,,
एकदम नया ख्याल,,,,,
मतला भी खूबसूरत ,,,,मूल शब्दों के बदले रूप के कारण पहली नजर में खटका था magar भाव-पक्ष इतना खूबसूरत है के इस के लिए जरूरी है थोडी बहुत फेर बदल,,
हमने भी कहीं पर तिलिस्म को तिलीस्सम लिखा है ,,,,,
जो आज भी खटकता है,,पर उससे प्यार भी हो गया है,,,,,
जैसे अभी अभी "अल्लादिन और चरागे जिन ",,,,,से हो गया,,,,
::::::::::)))))
गौतम जी ग़ज़ल लिखना नही आता तो त्रुटि तो बता ही नही सकता है। हमें तो बस इतना पता है कि जिसे पढकर आनंद आ जाए वो अच्छी होती है। और आपकी ग़ज़ल पढकर अच्छा लगा।
ReplyDeleteभूलूँ तुझे? ऐसा तो कुछ
होना न था,लेकिन हुआ
पढ़-लिख हुये बेटे बड़े
हिस्से में घर गिन-गिन हुआ
ये शेर बहुत ही अच्छे लगे।
भूलूँ तुझे? ऐसा तो कुछ
ReplyDeleteहोना न था,लेकिन हुआ
बहुत खूब. वाह.......
गौतम भाई, बहुत आनंद आया ये गज़ल पढ़कर। छोटी बहर में भी आप कमाल कर रहे हैं।
ReplyDeleteकुछ शेर जो मुझे बेहद भाये-
भूलूँ तुझे? ऐसा तो कुछ
होना न था,लेकिन हुआ
काँटों से बचना फूल की
चाहत में कब मुमकिन हुआ
वाह! वाह!
झीलें बनीं सड़कें सभी
ReplyDeleteबारिश का जब भी दिन हुआ
bilkul mere shahar ka chitra....wah
तू जब से अल्लादिन हुआ
ReplyDeleteमैं इक चरागे- जिन हुआ
.........
और एक ग़ज़ल ले आए,मज़ा आ गया......
छा गए सर जी ....वाह वाह भी करूँ तो वो भी कम पड़ रहा है ...मज़ा आ गया
ReplyDeleteतू जब से अल्लादिन हुआ
ReplyDeleteमैं इक चरागे- जिन हुआ
गौतम जी
बहुत खूबसूरत मतला निकला है क्या बात है
काँटों से बचना फूल की
चाहत में कब मुमकिन हुआ
आपके इस शेर को पढ़ते ही गुरु जी की कही के बात याद आ गयी
गुरु जी ने कहाँ था "बात कितनी ही पुरानी या साधारण या कितनी ही बार कही गई हो अगर तुमको शेर के वो बात रखनी हो तो ऐसे रखो की पढने वाले के दिल में उतर जाये
बहुत सुन्दर शेर
आपका वीनस केसरी
ग़ज़ल की बधाई, बहरों में ज्यादा यकीन नही है ये फ़न जिन्होंने गढे हैं उन्ही को मुबारक, मुझे से दिल से बिना किसी जोर आजमाईश से निकले शेर पसंद है. शिव बटालवी एक पंजाबी भाषा के शायर थे या यों कहें कि हैं क्योंकि देह के ना रहने पर इन्सान नही रहता पर एक शायर सदा बचा रहता है उसकी शायरी के सुर्ख रंगों में उसकी उदास और तन्हा नज़्मों में. तो बटालवी साहब की याद यों आई कि कहते हैं एक रात रिक्शे पर घर जा रहे थे कि एक शेर कह दिया अब उन्होंने वहीं रिक्शा रुकवाया कहीं से एक कोयला खोज कर एक घर की दीवार पर शेर लिख दिया सवेरे किसी को भेज कर पढ़वाया कि भाई कहा क्या था? अब आप ही बताएं कि रात गए कितने शब्दों की मात्राएँ गिनी होंगी और मात्राओं की गिनती सही करने के लिए लफ्ज़ों को तोड़ा या लम्बा किया होगा.
ReplyDeleteकुदरत ने आपको प्यार करने वाला दिल दिया है शायरी का हुनर दिया है तो दिल से कीजिए मात्राओं में क्या रखा है आपकी किसी उम्दा ग़ज़ल पर ये प्राध्यापक कोई नयी बहर छात्रों को पढाने लग जायेंगे, ज़मीन का क्या है चचा ग़ालिब भी इसी पर पैदा हुए थे [ थोड़ा मुस्कुरा भी लिया कीजिए ].
आखिर में शिव बटालवी साहब की उस ग़ज़ल को याद कर लें जिसे गाते हुए शायद जगजीत सिंह जी को भी कुछ होता होगा...
मैनू तेरा शबाब ले बैठा, रंग गोरा गुलाब ले बैठा.
चंगा हुंदा सवाल ना करदा मैनू तेरा जवाब ले बैठा.
ग़ज़ल की शास्त्रीय समझ नहीं है इसलिए दिल की बातें करता रहता हूँ कृपया अन्यथा ना लें और फिर से बधाई स्वीकारें !
वाहवा...
ReplyDeleteआप जैसे भाइयों की बदौलत ही आज हम सुरक्षित हैं देश में..बस सरकार पर गुस्सा आता है की जाने आपलोगों को सुविधाएं क्यों नही दी जाती है ..खैर और हम कर भी क्या सकते हैं...बाकि गजल दी को छू गई
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteविगत दो दिनों से डूबा हुआ हूँ "जब तुम लौट जाओगे..."
ReplyDeleteअब झूठ भी बोलने लगे...?? चलिए ...ये भी एक कला है जिसमें आप माहिर हो.....!!
ये जादू है लबों का तेरे या सरूर इश्क़ का
कि तू कहे है झूठ और हमको ऐतबार है
भूलूँ तुझे? ऐसा तो कुछ
होना न था,लेकिन हुआ
ये किसे भुला बैठ आप......!
रूठा जो तू फिर तो ये घर
मानो झरोखे बिन हुआ
ये शे'र लाजवाब लगा .....!!
हौसलाअफ़जाई ..... दिल से .....!!
रूठा जो तू फिर तो ये घर
ReplyDeleteमानो झरोखे बिन हुआ
गौतम जी यह शेर ख़ास पसंद आया.
,सच कहूँ तो पूरी ग़ज़ल बेहद उम्दा लगी..
गीत भी जल्द ही सुनवायीयेगा.ऑडियो फाइल को जिप करके भेज देते तो तुलनात्मक समय कम लगता .
और हाँ...पोस्ट में मेरे नाम गलत लिखा.गया..:) .अनुपमा ??भूल गए नाम भी आप..??या अनुपमा नाम के साथ मेरे प्रोफाइल का लिंक गलती से जुड़ गायाहै ????
कोई बात नहीं...वैसे इस शुक्रिया की कोई जरुरत नहीं है..क्योंकि हम सभी यहाँ एक परिवार की तरह ही तो हैं.आभार सहित-Alpana
बहुत खूब। टाइटिल तो सबसे झकास है। बधाई।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
भूलूँ तुझे? ऐसा तो कुछ
ReplyDeleteहोना न था,लेकिन हुआ
मन की पेचीदी गलियों की दुरूहता को इतने सहज ढंग से अभिव्यक्त करने के लिए बधाई ! सुन्दर ग़ज़ल !
kya baat hai ji kya baat cheed ji
ReplyDeletepahla sher kamaal
aur ye dono bhi kam nahi hai
पढ़-लिख हुये बेटे बड़े
हिस्से में घर गिन-गिन हुआ
काँटों से बचना फूल की
चाहत में कब मुमकिन हुआ
aap ki kalal ke to pankhe hain hum
Pankaj ji ko bhi meri taraf se naman kahiyega
Deri se aane ke liye muaafi chahti hun
'काँटों से बचना फूल की
ReplyDeleteचाहत में कब मुमकिन हुआ'
-कांटे ही फूल को सुरक्षित रखने की कोशिश करते हैं और फूल भी काँटों के बीच रहने के अभ्यस्त हो जाते हैं.
office me busy thi, padhna nahin ho paa raha tha. aaj fursat me padha, dil khush ho gaya...bhai ham to is sher ko dil de baithe
ReplyDelete"रूठा जो तू फिर तो ये घर
मानो झरोखे बिन हुआ"