उधर आपलोगों की तरफ, सुना है, "कमीने" ने खूब धूम मचा रखी है? सच है क्या? ...तो मुझे भी ख्याल आया कि अपनी गुल्लक तोड़ूँ, कोई गुडलक निकालूँ और ढ़ेनटरेनssss करके अपनी एक फड़कती हुई ग़ज़ल ठेलूँ !!!...तो पेश है अभी-अभी अशोक अंजुम द्वारा संपादित अभिनव प्रयास के जुलाई-सितंबर वाले अंक में छपी मेरी एक ग़ज़ल जो श्रद्धेय मुफ़लिस जी की नवाज़िश के बगैर कहने लायक बन नहीं पाती:-
पूछे तो कोई जाकर ये कुनबों के सरदारों से
हासिल क्या होता है आखिर जलसों से या नारों से
रोजाना ही खून-खराबा पढ़ कर ऐसा हाल हुआ
सहमी रहती मेरी बस्ती सुबहों के अखबारों से
पैर बचाये चलते हो जिस गीली मिट्टी से साहिब
कितनी खुश्बू होती है इसमें पूछो कुम्हारों से
हर पूनम की रात यही सोचे है बेचारा चंदा
सागर कब छूयेगा उसको अपने उन्नत ज्वारों से
जब परबत के ऊपर बादल-पुरवाई में होड़ लगी
मौसम की इक बारिश ने फिर जोंती झील फुहारों से
उपमायें भी हटकर हों, कहने का हो अंदाज नया
शब्दों की दुनिया सजती है अलबेले फनकारों से
ऊधो से क्या लेना ’गौतम’ माधो को क्या देना है
अपनी डफली, सुर अपना, सीखो जग के व्यवहारों से
....इस बहरो-वजन पर शायद सबसे ज्यादा ग़ज़ल कही गयी है। दो ग़ज़लें इस मीटर पर जो अभी फिलहाल ध्यान में आ रही हैं उनमे से एक तो मेरे प्रिय शायर क़तिल शिफ़ाई साब की लिखी चित्रा सिंह की गायी मेरी पसंदीदा ग़ज़ल अँगड़ाई पे अँगड़ाई लेती है रात जुदाई की है और...और...और दूजी जगजीत सिंह की गायी वो दिलकश ग़ज़ल तो आप सब ने सुनी ही होगी देर लगी आने में तुमको, शुक्र है फिर भी आये तो।
इति ! अगली पेशकश के साथ जल्द हाजिर होता हूँ...
क्या बतायें कि लुटे किस पर ,
ReplyDeleteउनकी सूरत पे या पायल की झंकारों पे ...
कहाँ पता जमाने को , वो निकले हैं घर से,
जिसने भी दोष मढा , मढ़ दिया बहारों पे
गौतम भाई ....अब तो हमने भी ये रोग पाल ही लिया है ..सच कहें तो बड़ा सुकून मिलता है आपको पढने के बाद...
पुरुषोत्तम 'यक़ीन' का कहना है। जब बहर पर काफ़िया और रदीफ़ पर अधिकार हो जाए तब वास्तविक ग़ज़लें होने लगती हैं। तब बात पानी पर कश्ती की तरह निकलती है।
ReplyDeleteहासिल क्या होता है....गर ये समझ आ जाए....तो इतनी आवाज़ें ही क्यों.....!!
ReplyDeleteapnigullak torun, koi goodluck nikaloon,aur dhenterein.......ha ..ha..ab tak hans rahi hoon.
ReplyDeleteye line sabse achhi lagi :)
naina
apnigullak torun, koi goodluck nikaloon,aur dhenterein.......ha ..ha..ab tak hans rahi hoon.
ReplyDeleteye line sabse achhi lagi :)
naina
जब परबत के ऊपर बादल-पुरवाई में होड़ लगी
ReplyDeleteमौसम की इक बारिश ने फिर जोंती झील फुहारों से
" बहतरीन ग़ज़ल..."
regards
aapke gajalon ki kya tareef karoon mein ? na hi itni samajh hai aur na hi likhna aata.
ReplyDeleteHur poonam ki rat..... bhale chanda na chhoo paya ho sagar ko per is line ne mujhe chhoo liya hai
naina
क्या बात है हुजूर..वाह और हाँ ये कमीने ने कुछ खास ही धूम मचा दी है इधर.. क्युनके हर तरफ अलग अलग दिन ये मक्त में आयी थी ... हमारी कंपनी ने भी सभी लोगों को दिखाने ले गयी थी ये फिल्म और मेल में लिखा भी हुआ था जितनी सीटियाँ पेल सकते हो और हुटिंग करना... जहां लोग फोर्मल के अलावा कुछ पहन के बगैर शेविंग के एक दिन और बगैर दिसिप्लिने में नहीं रह सकते जब मेरे पास ये मेल आयी अपने बन्दों के लिए मेरे इ.वि . पि से तो मुझे तो झटका ही लग गया मगर क्या करता वेसे मुझे फिल्म देखना पसंद नहीं मगर फिर भी जानी पड़ी ... और हंगामा हुआ वो तो पूछो मत...
ReplyDeleteअब बात करते है ग़ज़ल की..श्रधेय श्री मुफलिस जी के बारे में क्या कहने ... आपकी ग़ज़ल का मतला कुर्सी हिलाने के लिए काफी है ... यह शे'र याद रह जाने वाला है ... वेसे तो पूरी ग़ज़ल ही हमेशा की तरह बेहद उम्दा कही है आपने पूरी चुस्त और दुरुस्त मगर यह एक शे'र मुझे हिला के रख दिया जो आपको भी भीड़ से अलग करती है ...
पैर बचाये चलते हो जिस गीली मिट्टी से साहिब
कितनी खुश्बू होती है इसमें पूछो कुम्हारों से..
इस एक शे'र के बारे में क्या कहूँ... निशंब्द कर दिया है मियाँ आपने... आपकी मेल मिली है गुरु जी वाली बहोत कुछ सिखने को मिला है उससे... अगर उसका कोई और किश्त हो तो जरुर भेजें... आपकी कुशलता की कामना....
और हाँ मक्ता अलग से दाद मांग रहा है ... खूब बिलेलान खड़े होकर ...
आपका
अर्श
ग़ज़ल बहुत बेहतरीन है...पढ़कर मजा आया
ReplyDeleteमुझे जो शे'र बहुत बेहतरीन लगा वो
"पैर बचाये चलते हो जिस गीली मिट्टी से साहिब
कितनी खुश्बू होती है इसमें पूछो कुम्हारों से"
बस सीटी बजाने का मन कर रहा है
fir se ek lajawab kar dene wali gazal...jiska ek ek sher khushboo me paga hua hai...wahi khushboo jo kumharon mo geeli mitti se aati hai...
ReplyDeleteye sher to bilkul meri kahani bayan kar raha hai...
रोजाना ही खून-खराबा पढ़ कर ऐसा हाल हुआ
सहमी रहती मेरी बस्ती सुबहों के अखबारों से
जब परबत के ऊपर बादल-पुरवाई में होड़ लगी
ReplyDeleteमौसम की इक बारिश ने फिर जोंती झील फुहारों से
बहुत सुन्दर गजल का हर एक शेर लगा ...गुडलक जरुर निकालें :)
वाह..वाह.वाह..वाह..x10 to the power 10 (sumbol लगा नही पा रही कंप्यूटर से)
ReplyDeleteपैर बचाये चलते हो जिस गीली मिट्टी से साहिब
कितनी खुश्बू होती है इसमें पूछो कुम्हारों से।
क्या बात है....!
हर पूनम की रात यही सोचे है बेचारा चंदा
सागर कब छूयेगा उसको अपने उन्नत ज्वारों से
लाजवाब.....!!!!!
उपमायें भी हटकर हों, कहने का हो अंदाज नया
शब्दों की दुनिया सजती है अलबेले फनकारों से
सही कहा और ऐसे ही फनकार ने लिखी है ये गज़ल...! क्या बताऊँ और कैसे बताऊँ..! ये गज़ल कितनी अच्छी लगी...!
सुना है कि ये गज़ल हमारे प्रिय गीतकार नीरज के गीत के साथ ही पन्ने पर छपी है....! नीरज जी से मिलने की बड़ी तमन्ना है अपनी....! आप को उनके बगल में देख लगा..! शायद अब पहुँच बन रही है...! :)
वल्लाह क्या बात है गौतम...इस बार की छुट्टियों ने जादुई असर किया है आप पर...क्या एक से बढ़ कर एक शेर कहें हैं आपने इस ग़ज़ल में...कहते तो भाई पहले भी बहुत खूब थे लेकिन अब तो बात ही निराली सी होती जा रही है...."जैसी अब है तेरी महफिल कभी ऐसी तो न थी...."सुभान अल्लाह...मुफलिस साहिब को अलग से दाद देता हूँ...
ReplyDeleteनीरज
ACHHA LAGA !
ReplyDeleteपैर बचाये चलते हो जिस गीली मिट्टी से साहिब
ReplyDeleteकितनी खुश्बू होती है इसमें पूछो कुम्हारों से
जब परबत के ऊपर बादल-पुरवाई में होड़ लगी
मौसम की इक बारिश ने फिर जोंती झील फुहारों से
खूबसूरत ........क्या बात है गौतम जी............... बहुत ही लाजवाब, उम्दा, मन को गुदगुदाने वाली ग़ज़ल है आपकी........ हर शेर पर सुभान अल्ला की आकाज़ निकल रही है......... दिल को छू लेने वाले शेर हैं .............
पूछे तो कोई जाकर ये कुनबों के सरदारों से
ReplyDeleteहासिल क्या होता है आखिर जलसों से या नारों से
bhut hi samyik prshan ,manveey svednao aur unke ahsas ko pavitr karta ye sher lajvab hai
पैर बचाये चलते हो जिस गीली मिट्टी से साहिब
कितनी खुश्बू होती है इसमें पूछो कुम्हारों से
is man ko chu lene vali gjal ke liye
bdhai .shubhkamnaye
गौतम जी हम तो शनिवार को अपनी गुल्लक फोड़ेगे और शंकुतलम पर जाकर इस कमीने से मिलेंग़े जिसने हमें रात दिन परेशान कर रखा है। खैर आपकी ग़ज़ल हमेशा की तरह बहुत ही बेहतरीन है। और हर शेर अपनी एक अलग कहानी कहता है। वैसे मुझे इस शेर पर कुछ ज्यादा ही प्यार आया।
ReplyDeleteपैर बचाये चलते हो जिस गीली मिट्टी से साहिब
कितनी खुश्बू होती है इसमें पूछो कुम्हारों से
वाह।
वाह क्या खूबसूरत गजल है..बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
"उपमायें भी हटकर हों, कहने का हो अंदाज नया
ReplyDeleteशब्दों की दुनिया सजती है अलबेले फनकारों से ।"
गजल की व्याकरणिक प्रतीतियों से अनजान हूँ, पर न जाने क्यों गजल पढ़ने का रोग लग गया है मुझे । लगता है इस चिट्ठे का शीर्षक मुझे ही कह रहा है - "पाल ले एक रोग नादां" ।
कितना सच है, "शब्दों की दुनिया सजती है अलबेले फनकारों से ।"
क्या बात है. बेहतरीन ग़ज़ल. हर शेर लाजवाब. किस किस की तारीफ़ हो !!
ReplyDeleteसच्ची, देर लगी आने में हमको....
ReplyDelete!!! शुकर है फिर भी आये तो... आस ने दिल का साथ न छोड़ा...
शफक, धनुक, महताब, घटायें, तारे, नगमें, बिजली फूल,
इस ग़ज़ल में क्या-क्या कुछ है... बस ये जुबां पर आये तो......
देर लगी आने में तुमको, शुक्र है फिर भी आये तो।
ReplyDelete...office main hoon wapis aata hoon...
जितनी भी तारिफ की जाये आपकी रचना की वह कम पड जायेगी .......बहुत ही खुब्सूरत है .....बिल्कुल जिन्दगी की तरह......बधाई
ReplyDeletepahle- 'sou dard he, sou raahte..'
ReplyDeletesach he ki jindagi isi ka naam he/ dard ke baad milti raahato ka sukh azeeb si param shaanti pradaan kar deta he/ esi jise shbdo se vyakt nahi kar paate/ aapka mahal, samrazy, sahchar, dhadkan, duniya aour vazood... sach yahi he ki aapne apane jeevan ko uker diya/
ab- "shbdo ki dunia sajati he, albelo fankaaro se"-
laazavaab../ kalam ko bhi rahta intjaar goutam jese sardaro se"
bahut khoob ji/
लेकिन वो तो यही भ्रम पाले हुए हैं कि जलसों और नारों से ही सब होगा ,नारे ,बंद ,हड़ताल ,तालाबंदी ,चक्काजाम |यह भी सही है कि सुबह का अखवार उठाते ही इन्ही समाचारों से साक्षात्कार होता है |कुछ लोग तो चाहते है पूनम कभी आये ही नहीं (पूनम मतलब पूर्णिमा लोग न जाने क्या क्या तो अर्थ लगा लेते है )सदा अमावास ही रहे |कहने का अंदाज़ नया तो होना ही चाहिए (वैसे तो है दुनिया ............अंदाजे बयां और )ऊधो से लोगे वो देगा नहीं और माधो को दोगे वो लेगा नहीं इसलिए यही बहतर है अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग
ReplyDeleteपैर बचाये चलते हो जिस गीली मिट्टी से साहिब
ReplyDeleteकितनी खुश्बू होती है इसमें पूछो कुम्हारों से
वाह!! वाह!! फड़कता हुआ जानदार शेर!! मक्ता भी गज़ब ढा रहा है!! बहुत-बहुत उम्दा गज़ल है साहिब!!
सारे अशाअर एक से बढकर एक. अच्छी चीज़ दिखते ही नस नस को पकड लेती है. आपने फोन पर ये तो बताया कि मेरी ग़ज़ल चापी है लेकिन ये नहीं बताया कि मेरी भी छपी हैं वाह क्या बात है. जब पत्रिका हाथ में आयी तो जानकारी हुई. अपने मित्र ललित को पत्रिका दी तो तुरंत बोले ये ही गौतम भाई हैं इनकी ग़ज़ल बहुत शानदार है. गर्व से सीना फूल गया. अच्चा इसका मतला हुआ ही ऐसा है कि तुरंत असर करता है. और हां अशोक अंजुम जी ने मूंछें हटा दी हैं. शादी की है अभी-अभी. आगरा आये थे आकाशवाणी पर रिकार्डिंग के लिये.
ReplyDeleteदेर लगी आने में तुमको शुक्र है फिर भी आये तो ...मेरी पसंदीदा गज़लों में से एक है ....आपकी ग़ज़लें बहुत मन से पढ़ती हूँ ...और पसंद भी करती हूँ ...इसके नियमों से नावाकिफ पर इसकी खूबसूरती को पहचानती हूँ ...बहुत अच्छा कहते हैं आप ...
ReplyDeletebahut hi achhi rachna
ReplyDeleteरोजाना ही खून-खराबा पढ़ कर ऐसा हाल हुआ
ReplyDeleteसहमी रहती मेरी बस्ती सुबहों के अखबारों से
vaah bahut sundar.....
रोजाना ही खून-खराबा पढ़ कर ऐसा हाल हुआ
ReplyDeleteसहमी रहती मेरी बस्ती सुबहों के अखबारों से
vaah bahut sundar.....
behatareen gazal, sabhi sher ek se ek badhkar. gautamji badhai sweekaren.
ReplyDeleteरोजाना ही खून-खराबा पढ़ कर ऐसा हाल हुआ
ReplyDeleteसहमी रहती मेरी बस्ती सुबहों के अखबारों से....
agar mere ashar suran ki chot hain to aapke aur arsh ji ke lohaar ke...
khat ! khat !! khat !!!
BANG.... !!!
HAR SHER KO ALAG DAAD CHAHIYE SIR...
WAPIS AATA HOON.
DHANTANAN......
YA
पैर बचाये चलते हो जिस गीली मिट्टी से साहिब
कितनी खुश्बू होती है इसमें पूछो कुम्हारों से
...GULZAAR YA AAP .
M NOT CONFUSED !!
:)
पूछे तो कोई जाकर ये कुनबों के सरदारों से
ReplyDeleteहासिल क्या होता है आखिर जलसों से या नारों से
हर शे'र लाजवाब .......किसकी तारीफ करूँ और किसकी नहीं ......
पैर बचाये चलते हो जिस गीली मिट्टी से साहिब
कितनी खुश्बू होती है इसमें पूछो कुम्हारों से
ये तो लाजवाब कर गया ......सुभानाल्लाह ......!!
हर पूनम की रात यही सोचे है बेचारा चंदा
सागर कब छूयेगा उसको अपने उन्नत ज्वारों से
हम तो पूनम पूनम से खिल गए .....!!
ये तो मेरी भी फेवरेट बहर है
ReplyDeleteउपमायें भी हटकर हों, कहने का हो अंदाज नया
शब्दों की दुनिया सजती है अलबेले फनकारों से
ऊधो से क्या लेना ’गौतम’ माधो को क्या देना है
अपनी डफली, सुर अपना, सीखो जग के व्यवहारों से
गौतम जी आख़री के दो शेर तो बहुत लाजवाब कहे है दिल खुश हो गया
बाकी इतने लोगों ने इतनी अच्छी अच्छी बातें कह दी है हमारी बधाई भी कबूल फरमाएं
आप गजल के हर शेर में जो अलग अंदाज का कहन प्रस्तुत करते है वो मुझे बहुत पसंद है
वीनस केसरी
अरे वाह! आपने तो बड़ी खतरनाक उपमायें दे डालीं। आप तो अपनी पाल्टी के आदमी लगने लगे। झकास!
ReplyDeleteतारीफों से बहुत ऊपर के शे'र हैं ...
ReplyDeleteपैर बचाये चलते हो जिस गीली मिट्टी से साहिब
कितनी खुश्बू होती है इसमें पूछो कुम्हारों से
हर पूनम की रात यही सोचे है बेचारा चंदा
सागर कब छूयेगा उसको अपने उन्नत ज्वारों से
मन से कभी भी नहीं निकलेंगे....
पूनम की रात ..............हाय...................................
कुछ नहीं कहा जौएगा..बस ऊँगली ऐसे ही चलती रहेगी एक ही बटन पर................................
जैसे दिल धड़कता है हौले हौले
.....मगर मैं वो नहीं लाया जो सारे लोग लाये हैं
ReplyDeleteबस इतना ही कहता हूँ
भावों की अनमोल विविधता,शब्दों का भण्डार नया
भाषा कल-कल बहती है मिल कर वाणी के धारों से
सबके मन की बात कही है,सबके मनतक जा पहुंची
गूँज रहा है ब्लॉगजगत अब'गौतम'की जयकारों से
---मुफलिस---
पूछे तो कोई जाकर ये उन कुनबों के सरदारों से
ReplyDeleteहासिल क्या होता आखिर जलसों से या नारों से
पैर बचाये चलते हो जिस गीली मिट्टी से साहिब
कितनी खुश्बू होती है इसमें यह पूछो कुम्हारों से
हर पूनम की रात यही सोचता रहता बेचारा चंदा
सागर कब छूयेगा उसको अपने उन्नत ज्वारों से
bahut sundar ghazal lagi apki.badhai!!
गौतम जी, कमीने की रिपोर्ट दोस्तों ने कमजोर बताई है.
ReplyDeleteपोस्ट आने के चार घंटे बाद से ही ग़ज़ल को देख रहा हूँ, कई बार उलट पुलट कर देखा है फिर हर बार कमेन्ट का इंतजार किया है कि ग़ज़ल के उस्ताद क्या कहते हैं . इसी बीच एक छोटी सी कहानी को अंतिम रूप देना चाह रहा था "उपमायें भी हटकर हों, कहने का हो अंदाज नया शब्दों की दुनिया सजती है अलबेले फनकारों से" आपके इस शेर ने मेरा हौसला इस कदर बढाया कि मैंने एक मित्र विशेष से कहानी की हर पंक्ति पढ़वाई. आपसे कुछ नए अंदाज सीख रहा हूँ. ग़ज़ल बहुत उम्दा है आप तो सच में बड़े शायर हो गए हैं. चलो बड़े उचित न होगा सच्चे शायर हो गए हैं. किसी शेर को सुन कर नहीं लगता कि कुछ छूट रहा है.
बहुत बधाइयां !
गौतम जी, कमीने की रिपोर्ट दोस्तों ने कमजोर बताई है.
ReplyDeleteपोस्ट आने के चार घंटे बाद से ही ग़ज़ल को देख रहा हूँ, कई बार उलट पुलट कर देखा है फिर हर बार कमेन्ट का इंतजार किया है कि ग़ज़ल के उस्ताद क्या कहते हैं . इसी बीच एक छोटी सी कहानी को अंतिम रूप देना चाह रहा था "उपमायें भी हटकर हों, कहने का हो अंदाज नया शब्दों की दुनिया सजती है अलबेले फनकारों से" आपके इस शेर ने मेरा हौसला इस कदर बढाया कि मैंने एक मित्र विशेष से कहानी की हर पंक्ति पढ़वाई. आपसे कुछ नए अंदाज सीख रहा हूँ. ग़ज़ल बहुत उम्दा है आप तो सच में बड़े शायर हो गए हैं. चलो बड़े उचित न होगा सच्चे शायर हो गए हैं. किसी शेर को सुन कर नहीं लगता कि कुछ छूट रहा है.
बहुत बधाइयां !
उपमायें भी हटकर हों, कहने का हो अंदाज नया
ReplyDeleteशब्दों की दुनिया सजती है अलबेले फनकारों से..bahut acchey...khuub
रोजाना ही खून-खराबा पढ़ कर ऐसा हाल हुआ
ReplyDeleteसहमी रहती मेरी बस्ती सुबहों के अखबारों से
पैर बचाये चलते हो जिस गीली मिट्टी से साहिब
कितनी खुश्बू होती है इसमें पूछो कुम्हारों से
हर पूनम की रात यही सोचे है बेचारा चंदा
सागर कब छूयेगा उसको अपने उन्नत ज्वारों से
जब परबत के ऊपर बादल-पुरवाई में होड़ लगी
मौसम की इक बारिश ने फिर जोंती झील फुहारों से
......
उफ़.....क्या लिखा है आपने.....लाजवाब !!! एकदम लाजवाब !!!
भाव जितने गहरे उतर मुग्ध करतीं हैं,बिम्ब और उपमाएं उतनी ही चकित करती हैं.....
लाजवाब लेखन !!! वाह !!!!
प्रिय गौतम,
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत गज़ल....
तेरी दुनिया की तस्वी़र रब,'गौतम'जैसे ही बदलेंगे,
बिल्कुल मत उम्मीद लगाना, हम बूढे़ थके-हारों से...
sabse acchi panktiyaan lagi "Upmayein bhi hat kar hon,kahne ka andaz naya\
ReplyDeleteshabdon ki duniya sajti hai albele fankaron se"
bahut hi sundar Maj Gautam..har shabd sarlata liye hue par saar gehrai tak baitha hua..badhai sweekar karen..
बिखरे सितारे ! ७) तानाशाह ज़माने !
ReplyDeleteपूजा की माँ, मासूमा भी, कैसी क़िस्मत लेके इस दुनियामे आयी थी? जब,जब उस औरत की बयानी सुनती हूँ, तो कराह उठती हूँ...
लाख ज़हमतें , हज़ार तोहमतें,
चलती रही,काँधों पे ढ़ोते हुए,
रातों की बारातें, दिनों के काफ़िले,
छत पर से गुज़रते रहे.....
वो अनारकली तो नही थी,
ना वो उसका सलीम ही,
तानाशाह रहे ज़माने,
रौशनी गुज़रती कहाँसे?
बंद झरोखे,बंद दरवाज़े,
क़िस्मत में लिखे थे तहखाने...
Itne comments ke baad mai,ek adnaa-see wyakti kya kah sakti hun?
Nimantran de rahee hun..'kuchh bikhare' sitare sametnekaa..
पैर बचाये चलते हो जिस गीली मिट्टी से साहिब
ReplyDeleteकितनी खुश्बू होती है इसमें पूछो कुम्हारों से।
हर पूनम की रात यही सोचे है बेचारा चंदा
सागर कब छूयेगा उसको अपने उन्नत ज्वारों से
उपमायें भी हटकर हों, कहने का हो अंदाज नया
शब्दों की दुनिया सजती है अलबेले फनकारों से
आपके हर शेर पर सर झुक रहा है....और मैं वही कर रही हूँ.....
kyaa baat hai mezar parween....!!!!!!!!!
ReplyDeletebas kyaa kahoon.....?
पैर बचाये चलते हो जिस गीली मिट्टी से साहिब
ReplyDeleteकितनी खुश्बू होती है इसमें पूछो कुम्हारों से
ये शेर बहुत पसंद आया .......
देरी के लिए मुआफी...वो अर्श कहते है न बेवजह की मसरूफियत...कम्बखत अक्सर दरवाजे पे खड़ी होती है....देर लगी आने में तुझको ..मेरी भी पसंदीदा है....खींचकर सीधा फ्लेश्बेक में ले जाती है....जगजीत जी के शुरूआती ओर पीक टाइम की गजल है
उपमायें भी हटकर हों, कहने का हो अंदाज नया
ReplyDeleteशब्दों की दुनिया सजती है अलबेले फनकारों से
ye to aapki taarif karta hua sher lagta hai sa'ab !!
yaad hai mujhe aaj bhi wo ghazal:
चुराकर कौन सूरज से
ये चंदा को नजर दे है
है मेरी प्यास का रूतबा
जो दरिया में लहर दे है
रदीफ़ों-काफ़िया निखरे
गजल जब से बहर दे है
....
is maun ko jo aap samjho sa'ab !!
मुझे भी देर जरूर लगी आने मे मगर आ गयी ये मेरी खुश्किस्मती है नही तो इस नायाब गज़ल को पढने से रह जाती। मुझे तो ये सम्झ नहीं आ रही कि किस अशआर की तारीफ करूँ किसे छोडूँ। लाजावाब गज़ल है आपको तो सलाम करती ही हूँ मगर आपकी कलम को भी सलाम है।अपके ब्लोग पर आ कर एक सुखद अनुभूति सी होती है बहुत बहुत आशीर्वाद
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत मतला है:
ReplyDeleteपूछे तो कोई जाकर ये कुनबों के सरदारों से
हासिल क्या होता है आखिर जलसों से या नारों से
सारी ही ग़ज़ल अच्छी है. ये शेर बहुत पसंद आया :
रोजाना ही खून-खराबा पढ़ कर ऐसा हाल हुआ
सहमी रहती मेरी बस्ती सुबहों के अखबारों से
महावीर शर्मा
हम क्यों नहीं कह पाते ऐसी ग़ज़ल पता नहीं। ज़माने के दर्द का और आज की सच्चाई का अच्छा बयां किया है गौतम।
ReplyDeleteबहुत सुंदर... लाजवाब ग़ज़ल... वाह..
ReplyDeleteनमस्कार भैय्या,
ReplyDeleteक्या कहूं, अंदाज़-ए-बयान उम्दा है.................
हर शेर ख़ुद कह रहा है मैं ख़ुद बोल रहा हूँ तुम्हे ज्यादा कहने की ज़रुरत नहीं है.मक्ता तो वाह क्या लिख दिया है, एक विनती है इस बहर का नाम क्या है कृपया बताने की कृपा करें.
good
ReplyDeleteहर पूनम की रात यही सोचे है बेचारा चंदा
ReplyDeleteसागर कब छूयेगा उसको अपने उन्नत ज्वारों से
waah!
Gautam ji,bahut hi khoobsurat khyal hain.
sabhi sher ek se ek hain..badhaayee...
हर पूनम की रात यही सोचे है बेचारा चंदा
ReplyDeleteसागर कब छूयेगा उसको अपने उन्नत ज्वारों से
?????
?????
kahaan ho ji....?
गौतम जी,
ReplyDeleteआपका अंदाज वैसे ही निराला है और अब तो आदरणीय मुफ्लिस साहब का आशीर्वाद क्यूँ कर ना हो कोई भी कदम नायाब आपका।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
रोजाना ही खून-खराबा पढ़ कर ऐसा हाल हुआ
ReplyDeleteसहमी रहती मेरी बस्ती सुबहों के अखबारों से
बहुत खूब
बढ़िया ग़ज़ल
********************************
C.M. को प्रतीक्षा है - चैम्पियन की
प्रत्येक बुधवार
सुबह 9.00 बजे C.M. Quiz
********************************
क्रियेटिव मंच
रोजाना ही खून-खराबा पढ़ कर ऐसा हाल हुआ
ReplyDeleteसहमी रहती मेरी बस्ती सुबहों के अखबारों से
hmmm aajkal yahi halat hai
पैर बचाये चलते हो जिस गीली मिट्टी से साहिब
कितनी खुश्बू होती है इसमें पूछो कुम्हारों से
ahahhhhhh bahut hi shaandaar sher
हर पूनम की रात यही सोचे है बेचारा चंदा
सागर कब छूयेगा उसको अपने उन्नत ज्वारों से
wah wah khoob soch ke gode doraye hain
जब परबत के ऊपर बादल-पुरवाई में होड़ लगी
मौसम की इक बारिश ने फिर जोंती झील फुहारों से
उपमायें भी हटकर हों, कहने का हो अंदाज नया
शब्दों की दुनिया सजती है अलबेले फनकारों से
bilkul sach bahut sach
ऊधो से क्या लेना ’गौतम’ माधो को क्या देना है
अपनी डफली, सुर अपना, सीखो जग के व्यवहारों से
kamaal ki gazal hui hai goutam ji aap waqayi kamaal kahte hain
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ReplyDeleteगौतम जी , किस शेर का उल्लेख करूँ और किसे छोडूँ समझ नहीं पा रहा हूँ ,हाँ मुफलिस जी की टिप्पणी से मैं पूर्ण सहमत हूँ ! बहुत खूबसूरत ग़ज़ल कही है आपने ! ईश्वर आपको बहुत ऊँचाई दे , आपका लेखन और मन दौनों ही बेहतरीन हैं !
ReplyDeleteउपमायें भी हटकर हों, कहने का हो अंदाज नया
ReplyDeleteशब्दों की दुनिया सजती है अलबेले फनकारों से
बेहतरीन गजल
एक खूबसूरत ग़ज़ल है.
ReplyDeleteये शेर बहुत पसंद आये.
पैर बचाये चलते हो जिस गीली मिट्टी से साहिब
कितनी खुश्बू होती है इसमें पूछो कुम्हारों से
उपमायें भी हटकर हों, कहने का हो अंदाज नया
शब्दों की दुनिया सजती है अलबेले फनकारों से
महावीर
मंथन
पैर बचाये चलते हो जिस गीली मिट्टी से साहिब
ReplyDeleteकितनी खुश्बू होती है इसमें पूछो कुम्हारों से
वल्लाह, क्या शेर है.
बधाई.
चन्द्र मोहन गुप्त
www.cmgupta.blogspot.com
गौतम भाई,
ReplyDeleteसलाम कबूल करें...आज कई दिनों बाद नेट पर आया हूँ और सबसे पहले आपके ब्लॉग पर आया हूँ..और कसम से बिलकुल मनवांछित रचना पढने को मिली ..बधाई स्वीकारें...!आपकी गजल की इतनी तारीफ़ कर दी है..कि नया शब्द नहीं मिल रहा आपकी तारीफ़ में...इसको पढ़ कर आनंदित हो रहा हूँ...बहर भाव कहन शब्द...सभी परफेक्ट है...
पाखी
भाईसाहब, ये ग़ज़ल तो खूब पसंद आई. अनेक शेर अच्चे लगे.
ReplyDeleteपैर बचाये चलते हो जिस गीली मिट्टी से साहिब
ReplyDeleteकितनी खुश्बू होती है इसमें पूछो कुम्हारों से
bahut khoobsurat.....gazab ki soch hai....badhai