( कथादेश के अप्रैल अंक में प्रकाशित "फ़ौजी की डायरी" का दूसरा पन्ना )
दिन
उदास है तनिक कि आज नहाना है | नहीं, हफ्ते का कोई एक दिन तय नहीं होता है...जिस रोज़ धूप मेहरबान
होती है उसी रोज़ बस | उसी रोज़ ठंढ
से ऐंठे पड़े इस जिस्म की सफाई के लिए बर्फ़ को उबाल कर भरी गई पानी की एक बाल्टी
हाँफती हुयी पहुँचती हैं बंकर के कोने में बने एक सूराख भर जैसे स्नान-गृह में और
फिर देर तक अपनी चढ़ आई साँसों का गुस्सा साबुन के झागों पर निकालती है | उस सूराख भर के स्नान-गृह में समस्त कपड़े उतारने और बदन पर
पहला मग पानी उड़ेलने तक का वक्फ़ा इच्छा-शक्ति की तमाम हदबंदियों को परख लेता है | हाँफती हुयी बाल्टी का आक्रोश पहले तो साबुन को झाग निकालने
से वंचित रखता है और एक बार जो गलती से झाग निकल आते हैं तो कमबख़्त कुछ इस कदर
ज़िद्दी हो जाते हैं कि बदन से उतरने का नाम ही नहीं लेते...जैसे हाँफती हुई बाल्टी
के उमड़ते आक्रोश पर अपना भी मुलम्मा चढ़ाने की कोशिश में हो साबुन के ये झाग | जैसे-तैसे मना-रिझा कर बदन से उन झागों के चिपचिपेपन को
उतार लेने के बाद ताजा-ताजा महसूस करते हुये ठिठुरते दिन के पास अब एक बाल्टी पानी
का कोटा शेष रहता है बस | उपलब्ध
सामग्रियों के सुनियोजित प्रबंधन की शिक्षा इस तेरह हजार फुट ऊँचे बर्फीले पहाड़ों
से बेहतर और कोई नहीं दे सकता पूरे विश्व भर में...
...उधर
धुले हुये भारी-भरकम यूनिफॉर्म में लिपटा तारो-ताजा हुआ बदन बाहर खिली हुई धूप का
लुत्फ़ नहीं लेने देने पर आमादा बर्फ़ उड़ाती हुई तेज हवा को सहस्त्रों शापों से
नवाजता है पहले तो और फिर झक मार कर बंकर में अब तक सुलग कर लाल हो आये किरासन तेल
वाली बुखारी से चिपक बैठ जाता है और सोचता है कि जनाब मोहसिन नक़वी साब के विख्यात
शेर "तेज़ हवा ने मुझसे पूछा / रेत पे क्या लिखते रहते हो" में 'रेत' की जगह 'बर्फ़' भी
आसानी से निभ सकता है कि ग़ज़ल की बहर के हिसाब से 'रेत' और 'बर्फ़' दोनों
का वज़्न एक ही है | गुनगुना कर
देखता भी गुलाम अली वाली धुन पर...हाँ, एकदम दुरुस्त..."बर्फ़ पे क्या लिखते रहते हो" | फोन की घंटी बजती है तभी...न ! न !! ये इंटरकॉम वाला फोन
होता है...ऑफिस वाला, जिसका बजना
खुशी नहीं कोफ़्त को आमंत्रित करता है हर बार | नियंत्रण-रेखा का निरीक्षण करने के लिए तड़के सुबह गया हुआ
गश्ती-दल वापस आ गया है और सब सही-सलामत की रपट देता हुआ फोन और रपट मिलते ही चाय
की तलब एकदम से सर उठाती है...जैसे नामुराद तलब को भी इसी रपट की प्रतीक्षा हो | दिन की ग्यारहवीं चाय | तेरह हजार फुट की इस ऊँचाई पर बोरोसिल के चमचमाते ग्लास में
पी जा रही चाय बरिश्ता या कैफे कॉफी डे के स्वादिष्ट गर्म पेय पदार्थों से किसी भी
वक़्त दो-दो हाथ कर सकती है...
...चाय
की तीसरी या चौथी घूंट ही होगी कि बर्फ़ीली हवाओं ने अपना रुख बदला दक्षिण दिशा में
और उपेक्षित सा पड़ा मोबाइल यक-ब-यक सबसे महत्वपूर्ण वस्तु बन जाता है...हवा का
दक्षिण दिशा को मुड़ना और मोबाइल में सिग्नल आना | मोबाइल में सिग्नल आना कि व्हाट्स एप का क्रियान्वित हो
उठना |
व्हाट्स एप का क्रियान्वित होना कि दोस्तों और परिजनों का
इस तेरह हजार फिट की बर्फ़ीली ऊँचाई पर भी इर्द-गिर्द आ जाना...
...उदास सा दिन मुस्करा
उठता है | मुस्कुराते हुए दिन को याद आती है एकदम से बीती हुई रात की
मुस्कान !
कार्ट-व्हील
और समर-सॉल्ट करती हुयी रातों की धड़कनों का कोई पैमाना नहीं है | दुनिया की सर्वश्रेष्ट ईसीजी मशीनें भी शायद समर्पण कर दे
जो कभी मापने आये इन धड़कनों को | कल
रात जब बर्फ़ की सफ़ेद चादर पर उतराती हुई गहरी धुंध ने बस थोड़ी देर के लिए अपना
परदा उठाया था और छलांगे लगाता हुआ हिरण–प्रजाति का मझौले कद वाला वो शावक खौफ़ और आतंक की नई
परिभाषा लिखता हुआ आ छुपा था एक बंकर में, रात की ये बेलगाम धड़कनें अपने सबसे विकराल रूप में उसकी
सहमी आँखों में नृत्य कर रही थीं | तेंदुये का चार सदस्यों वाला छोटा सा परिवार उस शावक को
अपना आहार बनाने के लिए सरहद पर लगे कँटीले बाड़ों के दुश्मन वाले पार से हौले-हौले
गुर्रा रहा था और उलझन में था कि अपने आहार पर हक़ जमाने के लिये राइफल लिये खड़े
सरहद-प्रहरियों से भिड़ना ठीक होगा कि नहीं | उस जानिब प्रहरियों द्वारा बर्फ़ के उलीचे गए चंद गोलों ने
तत्काल ही तेंदुये परिवार की तमाम उलझनों को दरकिनार कर दिया और वापस लौट गए वो
चारों नीचे दुश्मन की तरफ़ वाले जंगल में | बंकर के कोने में सिमटा हुआ शावक अपनी धौंकनी की तरह
चढ़ती-उतरती साँसों पर काबू पाते हुये मानो दुनिया भर की निरीहता अपनी बड़ी-बड़ी
आँखों में समेट लाया था | लेकिन उसे
कहाँ ख़बर थी कि उनके रक्षक बने सरहद-प्रहरी, विगत तीन महीनों से भयानक बर्फबारी की वजह से बंद हो आए
सारे रास्तों की बदौलत बस बंध-गोभी और मटर खा-खा कर तंग हो आयी अपनी जिह्वा पर नए
स्वाद का लेप चढ़ाने के लिए उसे भूखी निगाहों से घूर रहे थे | छोटे से रेडियो-सेट पर प्रहरियों की तरफ़ से संदेशा भेजा गया
मेरे बंकर में...अनुमति के लिए | मेरा
वाला बंकर बड़ी देर तक उलझन में रहा था...रात की समर-सॉल्ट करती हुयी धड़कनें अचानक
से बैक-फ्लिप करने लगी थीं | उधर दूर उस दूजे बंकर में शावक की आश्वस्त होती
साँसों के साथ बर्फ़ीली चुप्पी पसरी हुई थी सरदार की अनुमति की प्रतीक्षा में और फिर उसी पसरी हुई चुप्पी को चौंकाती सी आवाज़
उभरी रेडियो-सेट पर सरदार की सख़्त ताकीद के साथ कि उस शावक को छोड़ दिया जाये | सरदार का बड़ा ही सपाट सा तर्क था कि जो तुम्हारी शरण में
ख़ुद अपनी प्राण-रक्षा के लिए आया हो, उसी का भक्षण कैसे कर सकते हो | भिन्नाये से प्रहरियों को आदेश ना मानने जैसा कोई विकल्प दिया
ही नहीं था उनकी वर्दी ने | अब तक शांत
और निश्चिंत हो आए शावक को पहले तो बंध-गोभी के ख़ूब सारे पत्ते खिलाये गए और फिर
उसे बड़े स्नेह और लाड़ के साथ सरहद के अपनी तरफ वाले जंगल में छोड़ दिया गया |
सरहद
पर की ये बर्फ़ीली रात अब मुसकुराती हुयी सुबह को आवाज़ दे रही थी गुनगुनाते हुए...
तेरे
ही आने वाले महफ़ूज ‘कल’ की ख़ातिर
मैंने
तो हाय अपना ये ‘आज’ दे दिया है
nice line
ReplyDeletenice line
ReplyDelete"मैंने तो हाय अपना ये ‘आज’ दे दिया है"
ReplyDeleteइस त्याग की मिसाल कहाँ!!