कहानी के पहले या दूसरे ड्राफ्ट
के साथ सिंफनी बुनते झींगुरों का गान सुनना हो... बढ़ती हुई उम्र के साथ बढ़ती हुयी और
इक रोज़ दीवारों से बाँहें छुड़ाकर खुले रास्ते पर भटक जाने वाली सीढ़ियों से मिलना हो...गली
के छोर पर अंधेरे में डूबी एक खिड़की, जिस से कुंवारी लड़कियों की चुन्नी से आने वाली ख़ुशबू फूटा करती
है,
को देखना हो...मीठे बताशों का सूखा पानी चखना हो...हाशिये से
भी कम चौड़ी सड़कों पर आवारागर्दी करने का हौसला हो...या फिर रेत के समंदर में बेनिशां
मंज़िलों के सफ़र पर निकलना हो...तो किशोर चौधरी की कहानियों की किताब “चौराहे पर सीढ़ियाँ” पढ़िये | किशोर
की कहानियाँ ? या मेस्मराइज़ करते शब्दों
का सम्मोहन-मंत्र ? या...या कि सर
चढ़ कर बोलते मायावी जुमलों का वशीकरण-जाप ?...उफ़्फ़ !
अपने मूल रूप में किशोर निगाहों
की हदबंदियों से परे वाले उदास इश्क़ के नगमें बुनते हैं और उन नगमों में कोई अफ़साना
यूँ ही सर उठाए चला आता है तो वो उस पर नज़रे-इनायत करने से परहेज नहीं करते | “चौराहे पर सीढ़ियाँ” अपने मुकम्मल अवतार में इसी नज़रे-इनायत की परिणति है | कुल जमा चौदह कहानियों को तकरीबन डेढ़ सौ पन्नों में समेटे हुये
ये किताब ठहर-ठहर कर, रुक-रुक कर साँस
लेते हुये पढे जाने की शर्त रखती है | किताब का फ्लैप हिन्दी-साहित्य की प्रचलित परम्पराओं के बरखिलाफ़
आपको लेखक के बारे में कुछ नहीं बताता, सिवाय कॉफी पीते पतले फ्रेम वाले चश्मे में एक युवक की श्वेत-श्याम
तस्वीर और चंद नज़्म-नुमा मिसरों के | ये एक मिस्टिक सा जो मूड तैयार होता है किताब के कवर से तो वो
मूड फिर पहली कहानी से लेकर आख़िरी कहानी तक बरक़रार रहता है |
किताब की पहली कहानी “अंजलि तुम्हारी डायरी से बयान मेल नहीं खाते” अपनी दिलचस्प बुनावट से कथाकार के शिल्प के प्रति एक आदर का
भाव जगाती है...अन्य किरदारों के मुख्तलिफ़ बयानों के विपरीत अंजलि की डायरी के पन्ने
जब धीरे-धीरे सबका राज़ खोलते हैं और कहानी अपने अंज़ाम तक पहुँचती है तो अंजलि का दर्द
पाठक का दर्द बन जाता है | जहाँ दूसरी कहानी
“एक अरसे से” के नायक का एकालाप एकदम से पढ़नेवालों के वजूद का एकालाप बनने
को उतावला हो उठता है, वहीं तीसरी कहानी
“चौराहे पर सीढ़ियाँ” का अजीब-सा कथानक इसे फिर-फिर से पढ़े जाने को विवश करता है | महज सीढ़ियों को बिम्ब बनाकर उकेरा गया ये क़िस्सा लापता होते
रिश्तों की इतनी तल्ख़ शिनाख़्त देता है कि पढ़कर क़िस्सागो से तुरत बतियाने को जी चाहे...”सीढ़ियाँ और मुहब्बत पददलित होने के सिवा जो दूसरा काम कर सकती
हैं,
वह है बावड़ियों में डूबकर आत्महत्या करना” , कहानी के आख़िर में एक किरदार का ये डायलॉग एकदम से राजस्थान
की अनगिन बावड़ियों को ले चला चलता है आपको जहाँ पानी में उतरती सीढ़ियाँ वाकई ख़ुदकुशी
करती हुयी प्रतीत होती हैं और उन्हीं में से जाने कितनी बावड़ियों का असफल प्रेमियों
के लिए फेवरिट सुसाइड स्पॉट में परिवर्तित होने की अख़बारों में छपी ख़बरों की याद भी
दिलाता है | ये किशोर का अपना खास अंदाज़
है,
जिसके बूते पर कहानी में चित्रित हर दूसरी चीज एक किरदार के
तौर पर उभर कर सामने आती है |
संग्रह का चौथा पायदान “परमिंदर के इंतज़ार में ठहरा हुआ समय” मेरा पर्सनल फेवरिट है | कथाकार का विट इस कहानी में अपने पूरे उफ़ान पर है और पाठक महसूस
करता है कि नहीं, किशोर चौधरी
सिर्फ उदासी ही नहीं हास्य भी उलीचता है | टीन-एज इश्क़ की कुलबुलाती-सी बेचैनियाँ किस कदर तो साकार होकर
पढ़ने वालों को दसवीं-ग्यारहवीं वाले दिनों में लिए जाती हैं, जब दिन के चौबीस घंटे प्रेयर की पहली घंटी से लेकर रिसेस के
खिंचाव तक सिमट आते थे | “उदास रात में
झींगुरों का करूण गान” कहानी कुछ-कुछ
पिछली कहानी का एक्सटेंशन प्रतीत होती है जो बाद के ट्रीटमेंट में वयस्क ज़िंदगी की
इश्क़िया जद्दोजहद को थोड़ा ज़्यादा विस्तार देती है | किताब की छठी कहानी “ख़ुशबू बारिश की नहीं मिट्टी की” फाइनल मुहर लगाती है कि किशोर का पुरुष क़िस्सागो स्त्री किरदार
को केंद्र में रखकर अजब-गजब चमत्कार कर सकता है |
किताब की सातवीं कहानी “रेगिस्तानी मकड़ी के जाले” जहाँ रिश्तों के ऊपर वाले कृत्रिम सुगंध के नीचे दुर्गंध मारती
बदबुओं का विलाप है, वहीं आठवीं कहानी
“सड़क जो हाशिये से कम चौड़ी थी” एक आम परिवार की हर रोज़ युद्धरत होने की आम-सी दास्तान है, जिसे किशोर की लेखनी बहुत दिलचस्प बना देती है | अगली दो कहानियाँ संग्रह की कमज़ोर कहानियाँ हैं...“गीली चॉक” और “लोहे के घोड़े”...वही पुराना सब कुछ...”गीली चॉक” उलझे
इश्क़ को सुलझाने की ट्रेजेडी है तो “लोहे के घोड़े” मुफ़लिसी में भी जीवित बचे मोह की दास्तान...पुराना प्लॉट है
दोनों का,
कुछ भी नया है तो वो बस किशोर की क़िस्सागोई और उनका भाषा-सौंदर्य
|
किताब की ग्यारहवीं कहानी “गली के छोर पर अँधेरे में डूबी एक खिड़की” मुहब्बत का एक देखा-सा, सुना-सा मगर थोड़ा सस्पेंस जगाता हुआ चैप्टर खोलती है | कहानी का अंत पढ़ के आपको थोड़ी-सी झुंझलाहट होती है और नायक की
तरह आप भी अपने कंधे पर एक सवाल की लाश लिए बैठ जाते हैं कि कौन था उस रात रेशम की
खिड़की पर |
अगली कहानी “एक फ़ासले के दरम्यान खिले हुये चमेली के फूल” (कहानी का शीर्षक ना हुआ शेर का मिसरा हो गया, मानो) फिर से एक स्त्री किरदार से मिलवाती है और किशोर का अपने
अद्भुत बिंबों के जरिये फीमेल सायकॉलजी की चंद और किरचों को शार्पेन करने के हुनर से
रूबरू करवाती है | सरदार तेजिंदर
सिंह का करेक्टर बेहद दिलचस्प बन कर उभरा है | तेरहवीं कहानी “रात की नीम अँधेरी बाँहें” संग्रह की इकलौती कहानी है जिसमें नरेटर अपने फर्स्ट परसन वाले
फॉर्म में अवतरित हुआ है | इस कहानी में
किशोर ने शायद खुद अपने ही शिल्प पर एक्सपेरिमेंट करने की कोशिश की है, लेकिन प्लॉट के परखनलियों में कुछ सोल्यूशन्स सही अनुपात में
नहीं डाल पाये | लेकिन इस कहानी की प्रत्यक्ष
कमियों की भरपायी आख़िरी कहानी “बताशे का सूखा
पानी”
के मास्टर और सिमली मिलकर कर देते हैं |
जैसा कि ऊपर लिखा है मैंने, ये कहानियाँ ठहर-ठहर कर पढ़ने की शर्त रखती हैं | किशोर की क़िस्सागोई का पूरा वजूद अपने नरेटर के कंधों पर विराजमान
रहता है |
पात्रों के दरम्यान संवाद-अदायगी के जरिये कहानी को खोलने में
कम विश्वास रखते हैं किशोर और उनके इसी नरेटर के मार्फत हम रूबरू होते हैं उनकी आकर्षक
भाषा से और मंत्र-मुग्ध करते उनके जुमलों और बिंबों से | लेकिन कई बार यही नरेटर किशोर की कमजोरी भी बनता प्रतीत होता
है,
जब एकदम से नरेशन कथ्य पर हावी होने लगता है | किशोर के लिए अपने इस नरेटर को काबू में रखना नितांत जरूरी है
उनके लेखन के अगले पड़ाव के लिये | लेकिन
महज अपने भाषा-सौंदर्य की नींव पर ही किशोर चौधरी इधर के कई समकालीन कथा-लेखकों से
बीस ठहरते हैं |
चार साल पहले जब ये किताब हिन्द-युग्म
से प्रकाशित होकर पाठकों के हाथ में आई थी...तब जब कि एक बड़े बैनर वाला प्रकाशक एक
साधारण-सी लेखिका (जिसकी कहानियों में शब्दों से भी ज्यादा डॉट्स भरे रहते हैं) की
एक बहुत ही साधारण-सी किताब के बेस्ट-सेलर होने की मुनादी कर रहा था, किशोर चौधरी की “चौराहे पर सीढ़ियाँ” ख़ामोशी से ऑन लाइन खरीदे जाने के तमाम कीर्तिमान कायम कर रही
थी |
इन चार सालों में किताब का तीसरा संस्करण भी बाज़ार में समाप्त
होने को है और नए संस्करण के प्रिंट के लिए किताब फिर से प्रेस में जा चुकी है | हिन्द-युग्म जिस तरह से अपने लेखकों और उनकी किताबों को प्रोमोट
करता है,
वो क़ाबिले-तारीफ़ है | हाल-फिलहाल की अपनी कुछ किताबों से, जिसमें “चौराहे पर सीढ़ियाँ” भी शामिल है, इस प्रकाशन ने कम-से-कम इस मिथ को तो तोड़ा ही है कि हिन्दी किताबें
बिकती नहीं हैं |
पाठकों द्वारा हाथों-हाथ ली जाने
वाली ये किताब “चौराहे पर सीढ़ियाँ” आश्चर्यजनक रूप से साहित्यिक पत्रिकाओं में और चर्चाओं में अपनी
जगह नहीं बना पायी है अभी तक, जो इस
बात पर एक बार फिर से ठप्पा लगाती है कि हिन्दी-साहित्य के अकिंचन संपादक, आलोचक और समीक्षक अब तलक जुगाड़ की राजनीति से उबर नहीं पाये
हैं |
किताब ख़रीदी जा सकती है इस जानिब से
किशोर तो बस किशोर ही हैं... " परमिंदर के इंतज़ार में ठहरा हुआ समय" मेरी भी पसंदीदा कहानी है. शानदार लिखा तुमने गौतम. बधाई दोनों को.
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