उदासियों के बेतरतीब से मैट्रिक्स को तरतीब देती व्यथाओं का कोई पैटर्न नहीं होता...और जो हो भी, तो कौन जोहमत उठाये बुनने की ! कोई ठहराव आख़िरी कहाँ होता है ? हर ठहराव में भी एक चलना नहीं (अ)व्यक्त होता रहता है क्या हर लम्हा ? और ये सारे सवाल भी आख़िर किससे...ठहराव से या चलते रहने से ?
कि मेरे विराम में भी चलना निहित था
और तुम देखते रहे
बस ठहराव मेरा
कि उन क्षणों का आर्तनाद
जिन्हें तुम स्वप्न में भी
नहीं चाहोगे सुनना
और जिन्हें भोगना था मेरी नियति
भोगने की चीख़ नहीं सुनी तुमने
नियति की किलकारियाँ सुनी
कि प्रतिबद्धताओं की नई परिभाषायें
लिखने में टूटी उँगलियों से
लिखा नहीं जाता जवाब
तुम्हारे सवालों में छुपे आरोपों का
कि सच तो ये है
कोई मायने नहीं रखता
ये देखना
ये सुनना
ये सवाल उठाना...
...जब पिता की विलुप्त होती
स्मृतियों में भी
नहीं रहता शेष
मेरा समर्पण या मेरा शौर्य
किंतु बचा रह जाता है
मेरी वाजिब अनुपस्थितियों का
ग़ैरवाजिब निकम्मापन
मर्मस्पर्शी ... हर जिम्मेदारी साथ कैसा भीतर का द्वंद्व है ... कैसी टूटन ? आप शब्द दे पाए इसे |
ReplyDeleteमार्मिक...
ReplyDeleteजिया गया सत्य उकेरती सच्ची कलम को कोटि कोटि प्रणाम!