अपनी कोई ग़ज़ल सुनाये लंबा अरसा हो गया था....और अभी अपने ब्लौग पे नजर डाला तो मालूम हुआ कि चार साल हो गए आज मेरे इस "पाल ले इक रोग नादां..." को :-)
तो अपने ब्लौग की चौथी वर्षगांठ पर, मेरी ये ग़ज़ल झेलिये :-
धूप लुटा कर सूरज जब कंगाल हुआ
चाँद उगा फिर अम्बर मालामाल हुआ
साँझ लुढ़क कर ड्योढ़ी पर आ फिसली है
आँगन से चौबारे तक सब लाल हुआ
ख़ुशबू-ख़ुशबू सारा ही चौपाल हुआ
उम्र वहीं ठिठकी है, जब तुम छोड गए
लम्हा, दिन, सप्ताह, महीना साल हुआ
धूप अटक कर बैठ गई है छज्जे पर
ओसारे का उठना आज मुहाल हुआ
चुन-चुन कर वो देता था हर दर्द मुझे
चोट लगी जब खुद को तो बेहाल हुआ
छुटपन में जिसकी संगत थी चैन मेरा
उम्र बढ़ी तो वो जी का जंजाल हुआ
{त्रैमासिक लफ़्ज़ और मासिक अहा ज़िंदगी में प्रकाशित }
सब से पहले ब्लॉग का चौथा जन्मदिन मुबारक हो ,,ये ब्लॉग कामयाबी की सारी बलंदियाँ तय करे
ReplyDeleteउम्र वहीं ठिठकी है, जब तुम छोड गए
लम्हा, दिन, सप्ताह, महीना साल हुआ
बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल !!
शानदार !
ReplyDeleteसाँझ लुढ़क कर ड्योढ़ी पर आ फिसली है
ReplyDeleteआँगन से चौबारे तक सब लाल हुआ
बहुत सुन्दर ग़ज़ल है गौतम जी. ब्लॉग के सालगिरह की बधाई स्वीकारें..
चार वर्ष की शुभकामनायें, उत्कृष्ट अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteचार वर्ष होने की बधाई .... गजल बहुत खूब काही है
ReplyDeleteचुन-चुन कर वो देता था हर दर्द मुझे
ReplyDeleteचोट लगी जब खुद को तो बेहाल हुआ !
वाह ...
चार वर्ष पूर्ण होने की बहुत बधाई !
शानदार गजल के साथ चार वर्ष पूर्ण होने पर बधाई।
ReplyDeleteसाँझ लुढ़क कर ड्योढ़ी पर आ फिसली है
ReplyDeleteआँगन से चौबारे तक सब लाल हुआ
bahut sundar..
चार वर्ष पूरे होने की बधाई.यूँ ही सुन्दर गीत गजल लिखते रहिए.
ReplyDeleteघुघूतीबासूती
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ReplyDelete.
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साँझ लुढ़क कर ड्योढ़ी पर आ फिसली है
आँगन से चौबारे तक सब लाल हुआ
शानदार !
चार साल पूरे करने की बधाई भी...
...
मुबारक
ReplyDeleteचुन-चुन कर वो देता था हर दर्द मुझे
ReplyDeleteचोट लगी जब खुद को तो बेहाल हुआ
छुटपन में जिसकी संगत थी चैन मेरा
उम्र बढ़ी तो वो जी का जंजाल हुआ
बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल. चार साल के लंबे सफर के लिये बधाई.
चार साल पूरे होने की बधाई । गज़ल बहुत खूबसूरत है ।
ReplyDeleteधूप लुटा कर सूरज जब कंगाल हुआ
चाँद उगा फिर अम्बर मालामाल हुआ
साँझ लुढ़क कर ड्योढ़ी पर आ फिसली है
आँगन से चौबारे तक सब लाल हुआ
वाह ।
साँझ लुढ़क कर ड्योढ़ी पर आ फिसली है
ReplyDeleteआँगन से चौबारे तक सब लाल हुआ
उम्र वहीं ठिठकी है, जब तुम छोड गए
लम्हा, दिन, सप्ताह, महीना साल हुआ
पूरी ग़ज़ल बेहतरीन है पर ये अशआर खास पसंद आए।
चार वर्ष पूरे हुए.....यूँ ही चालीस हों...
ReplyDeleteआप लिखें हम मालामाल हों.
:-)
सुन्दर गज़ल के लिए शुक्रिया
अनु
बुरा नहीं हुआ जो 'पाल ले इक रोग नादाँ' मेरे मोबाइल पर नहीं खुल सका..
ReplyDeleteवरना गरीब मोबाइल को फेसबुक के अलावा वही पुराना रोग दोबारा लग जाता...
दूसरा इस बहाने मनु-उवाच के भी दर्शन हो गए..
उम्र वहीं ठिठकी है, जब तुम छोड गए
लम्हा, दिन, सप्ताह, महीना साल हुआ
वही ग़ज़ल है जिसे पढने के लिए भरी गर्मी में 3 किलोमीटर की दौड़ की थी.
:)
ब्लॉग की सालगिरह मुबारक हो..एकाध महीने में शायद मेरी भी है..
:):)
पाल ले... को सालगिरह मुबारक और आपको इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए बधाई। कुछ नया भी लिखते रहिए...
ReplyDeleteराजरिशी जी, आपकी ग़ज़ल पढ़ी. आपके ब्लॉग का पता ‘हंस’ के नवंबर अंक में प्रकाशित आपकी कहानी के साथ छपे आपके व्यक्ति-परिचय से मिला। कहानी आप की ग़ज़ल पर कहानी कुछ ज्यादा ही भारी पड़ी है। हो सकता है कि कहानी थिर होकर-थम कर लिखी गयी और इतनी मंज गयी। स्वागत है- अभिनंदन है आपका.यह जान कर और भी अच्छा लगा कि आधुनिक तकनीक और सुविधाओं का बेहतर उपयोग आप लैसे लोग पूरी शालीनता के साथ कर रहे है। संतोष होता है यह देखकर कि जब आज की युवा पीढ़ी की अधिकतम ऊर्जा गलीज सोच और व्यवहार के गिर्द पतंगे की भॉंति बदहोश नाच रही है, ठीक उसी दौर में आप जैसे लोग सलीके से इन इलेक्ट्रॉनिक सुविधाओं को रचनात्मकता की उड़ान दे रहे हैं।
ReplyDelete(पुरुषोत्तम कुमार गुप्ता) राजभाषा विभाग,पूर्व रेलवे,आसनसोल.
email : purushottamkumargupta@gmail.com