कल रात देर तक...बहुत देर तक छींकता रहा था वो सलेटी-सा पसरा हुआ पत्थर| हाँ, वही पत्थर...वो बड़ा-सा और जो दूर से ही एकदम अलग सा नजर आता है उतरती ढ़लान पर, जिसके ठीक बाद चीड़ और देवदारों की श्रुंखला शुरू हो जाती है और जिसके तनिक और आगे जाने के बाद आती है वो छद्म काल्पनिक समस्त विवादों की जड़, वो सरहद नाम वाली रेखा...हाँ, वही सलेटी-सा पसरा हुआ पत्थर, जिस पर हर बार या तो किसी थकी हुई दोपहर का या किसी पस्त-सी शाम का बैठना होता है गश्त से लौटते हुये ढाई घंटे वाली खड़ी चढ़ाई से पहले सांस लेने के लिए और सुलगाने के लिए विल्स क्लासिक की चौरासी मीलीमीटर लम्बी नन्ही-सी दंडिका...
...कैसे तो कैसे हर बार कोई ना कोई घबड़ायी-सी पसीजी हुई आवाज आ ही जाती है गश्त खत्म होने के तुरत बाद पीछे से "वहाँ उतनी देर तक बैठना ठीक नहीं साब, उनके स्नाइपर की रेंज में है वो पत्थर और फिर उन सरफ़िरों का क्या भरोसा" ....हम्म, भरोसा तो उस पत्थर का है, उस पत्थर पर के सलेटी पड़ाव का है, उस चंद मिनटों वाली अलसायी बैठकी का है, उन चीड़ और देवदारों की देवताकार{दैत्याकार नहीं}ऊंचाईयों का है और उस धुआँ उगलती नन्ही-सी दंडिका का है...कौन समझाये लेकिन उन घबड़ायी-सी पसीजी हुई आवाजों को...बस एक अरे-कुछ-नहीं-होता-वाली मुस्कान लिए हर बार वो थकी दोपहर या पस्त-सी शाम सोचने लगती है कि अगली बार शर्तिया उस पत्थर की पसरी हुई छाती पर ग़ालिब का कोई शेर या गुलज़ार की कोई नज़्म लिख छोड़ आनी है| क्या पता उस पार से भी कोई सरफ़िरी दोपहर या शाम आये गश्त करते हुये, पढे और जवाब में कुछ लिख छोड जाये...!!!
कितने सफ़े
हुये होंगे दफ्न
पत्थर की चौड़ी छाती में
कोई नज़्म तलाशूँ
कोई गीत ढूँढ लूँ
कि
एक सफ़ा तो मेरा हो...
...कल की शाम गश्त से लौटते समय बारिश में नहाई हुई थी| ढाई घंटे की चढ़ाई जाने कितनी बार फिसली थी शाम के कदमों तले और हर फिसलन ने मिन्नतें की थीं कि ठहर जाओ रात भर के लिए यहीं इसी पत्थर के गिर्द| ठहरना तो मुश्किल था शाम के लिए...हाँ, वो चंद मिनटों वाला पड़ाव जरूर कुछ लंबा-सा हो गया था...कि बारिश की बूंदों से गीली हुई चौरासी मीलीमीटर वाली नन्ही दंडिका ने बड़ा समय लिया सुलगने में और उस देरी से खीझ कर पानी भरे जूतों के अंदर गीले जुराबों ने ज़िद मचा दी---जूतों से बाहर निकल पसरे पत्थर पर थोड़ी देर लेट कर उसकी सलेटी गर्मी पाने की ज़िद| सुना है, देर तक चंद नज़्मों की लेन-देन भी हुई जुराबों और पत्थर के दरम्यान| जुराबें तो सूख गई थीं...पत्थर गीला रह गया था|
...और देर तक छींकता रहा था वो पत्थर कल रात...पसरी-सी सलेटी सलेटी छींकें|
...कैसे तो कैसे हर बार कोई ना कोई घबड़ायी-सी पसीजी हुई आवाज आ ही जाती है गश्त खत्म होने के तुरत बाद पीछे से "वहाँ उतनी देर तक बैठना ठीक नहीं साब, उनके स्नाइपर की रेंज में है वो पत्थर और फिर उन सरफ़िरों का क्या भरोसा" ....हम्म, भरोसा तो उस पत्थर का है, उस पत्थर पर के सलेटी पड़ाव का है, उस चंद मिनटों वाली अलसायी बैठकी का है, उन चीड़ और देवदारों की देवताकार{दैत्याकार नहीं}ऊंचाईयों का है और उस धुआँ उगलती नन्ही-सी दंडिका का है...कौन समझाये लेकिन उन घबड़ायी-सी पसीजी हुई आवाजों को...बस एक अरे-कुछ-नहीं-होता-वाली मुस्कान लिए हर बार वो थकी दोपहर या पस्त-सी शाम सोचने लगती है कि अगली बार शर्तिया उस पत्थर की पसरी हुई छाती पर ग़ालिब का कोई शेर या गुलज़ार की कोई नज़्म लिख छोड़ आनी है| क्या पता उस पार से भी कोई सरफ़िरी दोपहर या शाम आये गश्त करते हुये, पढे और जवाब में कुछ लिख छोड जाये...!!!
कितने सफ़े
हुये होंगे दफ्न
पत्थर की चौड़ी छाती में
कोई नज़्म तलाशूँ
कोई गीत ढूँढ लूँ
कि
एक सफ़ा तो मेरा हो...
...कल की शाम गश्त से लौटते समय बारिश में नहाई हुई थी| ढाई घंटे की चढ़ाई जाने कितनी बार फिसली थी शाम के कदमों तले और हर फिसलन ने मिन्नतें की थीं कि ठहर जाओ रात भर के लिए यहीं इसी पत्थर के गिर्द| ठहरना तो मुश्किल था शाम के लिए...हाँ, वो चंद मिनटों वाला पड़ाव जरूर कुछ लंबा-सा हो गया था...कि बारिश की बूंदों से गीली हुई चौरासी मीलीमीटर वाली नन्ही दंडिका ने बड़ा समय लिया सुलगने में और उस देरी से खीझ कर पानी भरे जूतों के अंदर गीले जुराबों ने ज़िद मचा दी---जूतों से बाहर निकल पसरे पत्थर पर थोड़ी देर लेट कर उसकी सलेटी गर्मी पाने की ज़िद| सुना है, देर तक चंद नज़्मों की लेन-देन भी हुई जुराबों और पत्थर के दरम्यान| जुराबें तो सूख गई थीं...पत्थर गीला रह गया था|
...और देर तक छींकता रहा था वो पत्थर कल रात...पसरी-सी सलेटी सलेटी छींकें|
सलेटी चट्टानों ने सब देखा है..
ReplyDeleteबस वाह ही कहा जा सकता है पढ़ कर :)
ReplyDeleteउस पत्थर की किस्मत पर प्रेमी-प्रेमिका के आलिंगन की गर्माहट भी हो सकती थी ..
ReplyDeleteमगर ... उसे तो शरहदों की भीड़न्तों के साक्षी बनने का अभिशाप जो मिला ठहरा ..
एक विलक्षण अनुभूति हम तक पहुँचाने के लिये आभार !
ReplyDeleteबहुत अच्छा संस्मरण। काश उधर से भी कुछ उत्तर आए।
ReplyDeleteग़ालिब या गुलज़ार की उस नज़्म को, सरहद के उस पार से पढने वाले का खुद में "गौतम" होना एक शर्त है, क्योंकि उसके जिम्मे सिर्फ पढना ही नहीं, समझना भी है.
ReplyDeleteकाश कि खूब बारिश हो इतनी कि उतर आये नदी आकाश से..बहा ले जाये सरहद वाली रेखा। शेष रह जाये खिली-खिली सी सुबह, गुनगुनी दोपहरी, सुरमई शाम और वह मासूस ...सलेटी पत्थर।
ReplyDeleteहम्म... कुछ नहीं !
ReplyDeleteबहुत सुदर!
ReplyDeleteएक शायर का नज़म और ग़ज़ल उस बड़े पत्थर पर ना लिख पाने की कसक शेर और शब्दों में क्या खूब बयां की है
आह!
ReplyDeleteकितने सफ़े
ReplyDeleteहुये होंगे दफ्न
पत्थर की चौड़ी छाती में
कोई नज़्म तलाशूँ
कोई गीत ढूँढ लूँ
कि
एक सफ़ा तो मेरा हो... Achha sansmaranyadon ko bhigota, talashta sa
आँखे फाड़ फाड़ कर पढने के बाद जब कुछ कहने का मन ना हो...सलेटी पत्थर मन में आ बसे..दिल में उठ उठ के ये याद आता रहे कि बारिश में सिली सिगरट कितना मज़ा देती है...और कब कब पीने को नसीब हुई थी....
ReplyDeleteऔर...दिमाग बस ये सोचता रह जाए कि स्नायिपर की रेंज में बैठ कर सिगरेट का लुत्फ़ कैसे आता होगा
तो...
कोई इस ब्लॉग पर भी सिस्टम बनवा दो....कि हम सा बिगड़ा सिरफिरा आए...और लाईक करके चला जाए..पोस्ट को..और कुछ ख़ास कमेंट्स को..
शब्द शब्द नज़्म...दिल जैसे लहरों पर लहर बन लहराता रहता है और निःशब्दता गुनगुनाने लगती है..
ReplyDeleteयह असर होता है आपके लिखे को पढने के बाद...
जुराबें तो सूख गईं पर सलेटी पत्थर को रात भर छींकें आती रहीं होंगी । पत्थर भी पिघल गया होगा आपकी इस सोच को जान कर और अपने इक सफे पर लिख दिया होगा आपका नाम ।
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