यूँ ही एक पुरानी कविता आज...या तुकबन्दी सा कुछ| कब से बस अनर्गल-सा कुछ लिखे जा रहा हूँ यहाँ, तो सोचा डायरी के पुराने पन्नों में कुछ टटोलूँ और अपनी कोई कविता निकालूँ....ये वाली भायी :-)
तुम जो नहीं होती तो फिर
कि तुम जो नहीं होती, तो फिर ...?
भोर लजाती ऐसे ही क्या
थामे किरणों की घूँघट ?
तब भी उठती क्या ऐसे ही
साँझ ढ़ले की अकुलाहट ?
रातें होतीं रातों जैसी
या दिन फिर दिन ही होता ?
यूँ ही भाती बारिश मुझको
चाँद लुभाता यूँ ही क्या ?
यूँ ही ठिठकता राहों में मैं
चलता हुआ अचानक से,
कि मीलों दूर छत पर बैठी
तुमने पुकारा हो जैसे ?
तन्हाई, तन्हाई-सी ही
होती या कुछ होती और ?
मेरे सीने में धड़कन का
होता क्या फिर कोई ठौर ?
आवारा कदमों को क्या फिर
मिलती भी कोई मंज़िल ?
बना-ठना सा यूँ ही रहता
या फिर रहता मैं जाहिल ?
मेरे हँसने या रोने के
होते क्या कुछ माने भी ?
कैसा होता घर आना और
टीस छोड कर जाने की ?
सच तो इतना-सा भर है कि
होने को जो भी होता
तुम जो तुम नहीं होती तो
मैं भी कहाँ मैं ही होता
{त्रैमासिक अनंतिम में प्रकाशित }
....और इसी कविता को सुनना चाहें मेरी भद्दी-सी आवाज में, तो उसका भी विकल्प मौजूद है :-
तुम जो नहीं होती तो फिर
कि तुम जो नहीं होती, तो फिर ...?
भोर लजाती ऐसे ही क्या
थामे किरणों की घूँघट ?
तब भी उठती क्या ऐसे ही
साँझ ढ़ले की अकुलाहट ?
रातें होतीं रातों जैसी
या दिन फिर दिन ही होता ?
यूँ ही भाती बारिश मुझको
चाँद लुभाता यूँ ही क्या ?
यूँ ही ठिठकता राहों में मैं
चलता हुआ अचानक से,
कि मीलों दूर छत पर बैठी
तुमने पुकारा हो जैसे ?
तन्हाई, तन्हाई-सी ही
होती या कुछ होती और ?
मेरे सीने में धड़कन का
होता क्या फिर कोई ठौर ?
आवारा कदमों को क्या फिर
मिलती भी कोई मंज़िल ?
बना-ठना सा यूँ ही रहता
या फिर रहता मैं जाहिल ?
मेरे हँसने या रोने के
होते क्या कुछ माने भी ?
कैसा होता घर आना और
टीस छोड कर जाने की ?
सच तो इतना-सा भर है कि
होने को जो भी होता
तुम जो तुम नहीं होती तो
मैं भी कहाँ मैं ही होता
{त्रैमासिक अनंतिम में प्रकाशित }
....और इसी कविता को सुनना चाहें मेरी भद्दी-सी आवाज में, तो उसका भी विकल्प मौजूद है :-
सच तो इतना-सा भर है कि
ReplyDeleteहोने को जो भी होता
तुम जो तुम नहीं होती तो
मैं भी कहाँ मैं ही होता ...........
बेहतरीन!! माशाअल्लाह!!बहुत उम्दा !!
दिल से कही यह गीतनुमा कविता बड़ी प्यारी है....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कृति!
ReplyDeleteमाशाअल्लाह ... कर्नल साहब ... बहुत खूब ... बाकी आवाज़ के बारे मे खुद न कहें ... हम पर छोड़ दीजिये !
ReplyDeletepadh liyaa aur khush bhi ho liyae
ReplyDelete'तुम जो तुम नहीं होती तो
ReplyDeleteमैं भी कहाँ मैं ही होता'
सुन्दर!
आपकी आवाज में सुन तो नहीं पाए लोड ही नहीं हुआ.पर मासूम कोमल एहसासों से लबरेज है रचना. बहुत उम्दा.जाने क्यों एक गीत याद आ गया " छोड़ आये हम वो गलियां."..
ReplyDeleteस्वान्तः सुखाय की गयी रचना...
ReplyDeleteसच तो इतना-सा भर है कि
ReplyDeleteहोने को जो भी होता
तुम जो तुम नहीं होती तो
मैं भी कहाँ मैं ही होता
Sundar , shashwat aur awarnaniy
सच तो इतना-सा भर है कि
ReplyDeleteहोने को जो भी होता
तुम जो तुम नहीं होती तो
मैं भी कहाँ मैं ही होता ..........
वाह ... नि:शब्द करती पंक्तियां ...
आपकी पोस्ट को हमने आज की पोस्ट चर्चा का एक हिस्सा बनाया है , कुछ आपकी पढी , कुछ अपनी कही , पाठकों तक इसे पहुंचाने का ये एक प्रयास भर है , आइए आप भी देखिए और पहुंचिए कुछ और खूबसूरत पोस्टों तक , टिप्पणी पर क्लिक करें और देखें
ReplyDeletemera kament kehaa haen
ReplyDeletekyaa gunaah thaa :)
कैसा होता घर आना और
ReplyDeleteटीस छोड कर जाने की ?
प्रभावशाली सुंदर अभिव्यक्ति...
शुभकामनायें आपको !
आश्रित तुम पर अपने होने की सारी आशा..
ReplyDeleteजो वह नहीं होती तो तुम भी क्या तुम होते !!
ReplyDeleteबहुत अच्छे।
ReplyDeleteबहुत स्वाभाविक और उतनी ही सुन्दर !
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteरातें होतीं रातों जैसी
ReplyDeleteया दिन फिर दिन ही होता ?
यूँ ही भाती बारिश मुझको
चाँद लुभाता यूँ ही क्या ?
जवाब है "नहीं" क्यूँ के किसी के होने से ही जीवन में ये सब होता है...रात, दिन, बारिश चाँद सब होते हैं हमेशा होते हैं ,हर हाल में होते हैं....लेकिन ऐसे नहीं होते जैसे किसी के साथ होते हैं... वाह गौतम वाह...इस खूबसूरत रचनाके लिए मेरी तरफ से अपनी पीठ ठोक लेना...
(ठोक के बता जरूर देना के ठोक ली ताकि मुझे तसल्ली हो जाय)
नीरज
बहुत सुन्दर रचना,,,
ReplyDelete:-)
उफ्फ्फ्फफ्फ्फ़.....................
ReplyDeleteआपकी "भद्दी सी आवाज़" का लिंक नहीं खुल पा रहा. चलिए, ये कविता उस तथाकथित आवाज़ में किसी और दिन की किस्मत में होगी .
वाह, बहुत सही है. हम जो हैं वह इसीलिए तो हैं साथी वह है जो वह है.
ReplyDeleteघुघूतीबासूती
सुन्दर सुन्दर...बहुत सुन्दर.....
ReplyDeleteआवाज़ सुन नहीं सके तो मान लिया कि सुरीली होगी :-)
अनु
Last four lines are awesome.. really a nice one..
ReplyDeleteइसे कभी सामने सुनूंगा !!
ReplyDeleteयूँ ही ठिठकता राहों में मैं
ReplyDeleteचलता हुआ अचानक से,
कि मीलों दूर छत पर बैठी
तुमने पुकारा हो जैसे ?
तुम हो इसी से मै मै हूँ ।
बहुत कोमल नाजुक सी कविता ।
रूमानी कविता...
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