पुरानी डायरी के पुराने पन्नों को पलटना एच० जी० वेल्स के टाइम-मशीन सा ही चमत्कार दिखाता है...पीछे छूट गयी दुनिया में ले जाते हुये। कहीं रेनोल्ड, तो कहीं एड जेल, तो कहीं फाउंटेन पेन की बेतरतीब अटपटी लेखनी में तन्हा रातों को उकेरे गये शब्द कभी खुद को चमत्कृत करते हैं और कभी एक झेंप-सी पैदा करते हैं। ऐसे ही एक दिन किसी पुरानी डायरी के एक अटपटे-से झेंपे पन्ने को उठा कर शरद कोकास जी को भेज दिया एक सकुचाये हुये प्रश्न के साथ कि ये डायरी है या कविता(?)। कविता- उनका जवाब आया। ...तो उनके जवाब से संबल लेते हुये आपलोगों के समक्ष प्रस्तुत है डायरी का वही अटपटा-सा झेंपा हुआ पन्ना :-
नहीं देखा है मैंने कभी
फूल अमलतास का
जो कभी दिख भी जाये
तो शायद पहचानूँ ना,
जिक्र करता हूँ इसका फिर भी
अपनी कविता में-
तुम्हारे लिये
गौर नहीं किया कभी सुबह-सुबह
शबनम की बूँदों पर
झूलती रहती हैं जो दूब की नोक संग,
बुनता हूं लेकिन कविता इनसे-
तुम्हें सुनाने के लिये
सच कहूं तो
ये चाँद भी
तुम्हारी याद नहीं दिलाता
फुरसत ही कहाँ जो देखूँ इसे,
सजता है ये मगर मेरी कविता में अक्सर-
तुम्हारी खिलखिलाहट के लिये
ये अमलताश के फूल
ये शबनम की बूँदें
ये चाँद की चमक
और
तुम
प्रेम की अपनी त्रासदी है
और कविता की अपनी...
डायरी पर खुदा हुआ वर्ष और पन्ने पर छपी हुई तारीख ले जाती है तकरीबन तेरह साल पहले पुणे, खड़गवासला की घाटियों में किसी कार्पा डोंगर और राला रासी नामक पहाड़ियों पर। लथ-पथ पसीने में डूबा जिस्म, टूटते कंधों और चुभते तलवों के साथ खत्म होता हुआ दिन लेकर आता है चाँद अपने संग और उपजती है ये अटपटी पंक्तियाँ लगभग पंद्रह सौ किलोमीटर दूर बैठी एक बड़े-से शहर की एक छोटी-सी लड़की के लिये। कितना अद्भुत टाइम-मशीन है ये सच...! जिन कार्पा डोंगर और राला रासी की चढ़ाईयाँ चढ़ने में कभी पिट्ठु और राइफल लिये कंधे टूट जाते थे, तलवे छिल जाते थे...ये मशीन मुझे एक झटके में वहाँ ले जाता है अब। बस एक पन्ना ही तो पलटना होता है- झेंपा हुआ अटपटा-सा पन्ना :-)
बहुत अच्छी प्रस्तुति। यह प्रस्तुत करने का अलग और नया अंदाज है।
ReplyDeletesunder prastuti ke sath achcha laga aapka ye jhempa hua panna. bahut sunder.
ReplyDeleteप्रेम की अपनी त्रासदी
ReplyDeleteऔर कविता की अपनी ...
चाँद ...अमलतास देखे बिना कविताओं में उतारना ...
क्या बात है ...!!
" तुम्हे देखकर ह्रदय में एक भी बुलबुला नहीं फूटा मगर
कि अपना सबकुछ दिया तुम्हे की कही तुम्हारी आँखों को उदासियों के बादल ना घेर ले ..."
डायरी में संकलित कविता का अंश ...
ये अमलताश के फूल
ReplyDeleteये शबनम की बूँदें
ये चाँद की चमक
और
तुम
प्रेम की अपनी त्रासदी है
और कविता की अपनी.
Ateet ke panno se khoobsoorat andaaz aur waqt dono hi badiya hain
बहुत अच्छी पोस्ट.
ReplyDeleteकाव्य मंच पर काव्य पाठ करने वाले किसी कवि की कविता अच्छी होती है किसी की प्रस्तुति अच्छी होती है मगर किसी-किसी की कविता और प्रस्तुति दोनों लाजवाब होती...और वही मंच लूट लेता है.
..आप भी सभी ब्लागरों की प्रशंसा लूटने वाले हैं...!
प्रेम की अपनी त्रासदी है
और कविता की अपनी...
..दरअसल सीधी सच्ची-बात ज्यादे असरदार होती है अमलतास के फूल से भी अधिक..शबनम की बूदों से भी अधिक..चंदा की चांदनी से भी अधिक प्यारी होती है और मुझे लगता है कि यही कविता है.
..बधाई.
कभी एक झेंप-सी पैदा करते हैं-इस में तो हम ढीठ हो चुके हैं हा हा!!
ReplyDeleteबेहतरीन कविता है..पूरे स्पष्ट भाव...गहराई से उँचाई तक आते दिखते हैं..सफल प्रयोजन है.
अटपटा सा झेंपा हुआ पन्ना - काव्यमय ।
ReplyDeleteलेकिन झेंपना क्यों ?
अटपटा क्यों?
भैया कविता मन का राग है उमंग है, उसे किसी बन्धन में क्यों बाँधें ?
उमंग भी कैसी अमलतास नहीं देखा पहचाना लेकिन खिल उठा कविता में !
निर्मल!
ReplyDeleteपहली प्रतिक्रिया यही एक शब्द है...
अपने आप में से निकलती हुई...झरने की तरह...
ये अमलताश के फूल
ReplyDeleteये शबनम की बूँदें
ये चाँद की चमक
और
तुम
यही तो वो खूबसूरत पल होंगे जो उन जंगलों और पहाड़ों के बीच एक सुखद प्रेममय वातावरण का रेखाचित्र खींच देते होंगे...उन मुश्किल हालत में यह यह रचना एक खूबसूरत व्यक्तित्व का परिचय देती है..
बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना...धन्यवाद गौतम जी
आपको पढो तो कुछ न कुछ् सीखने को मिलता है,वैसे आपकी टाईम मशीन तो हमको सालो पीछे ले जा रही है।बहुत खूब गौतम साब,बहुत खूब्।
ReplyDeleteसच कहूँ कविता से ज्यादा मुझे इसका कन्फेशन प्रभावित कर गया .......
ReplyDeleteAapka aalekh aur kavita, dono, mujhe bhee door,bahut door ateet ke safar me le gaye...
ReplyDeleteये अमलताश के फूल
ReplyDeleteये शबनम की बूँदें
ये चाँद की चमक
और
तुम
प्रेम की अपनी त्रासदी है
और कविता की अपनी...
bahut hi sundar bhavmayi kavita.
nahin dekha phul amaltaas ka phir bhi ek soch tumhare liye ....waah
ReplyDeleteवाह बहुत सही है यह डायरी के पुराने पन्ने भी गजब कर जाते हैं ..बहुत सुन्दर
ReplyDeleteimandari se apni bhavnao ko ukerto ak imandar rachna aur utni hi imandari se rachi hui prstuti .
ReplyDeletetrasdiyo ke aage ham natmastak ho jate hai .
बड़ी प्यारी सी कविता है....जैसे झिझकती हुई सी पन्नों से निकल हम तक पहुंची...ये अमलतास,ओस, चाँद..सब किसी को याद करने के बहाने हैं....क्या बात है..
ReplyDeleteप्रेम की अपनी त्रासदी
ReplyDeleteऔर कविता की अपनी
और पाठकों की अपनी ...
थोड़ी अब्स्ट्रेक्ट है न !
बाकी गिरिजेश जी कह ही दिए हैं झेंप काहें
डायरी के पन्ने और कुछ लम्हें कहाँ-कहाँ ले जाते हैं... टाइम मशीन वाली बात और फिर...
ReplyDelete"फुरसत ही कहाँ जो देखूँ इसे,
सजता है ये मगर मेरी कविता में अक्सर-
तुम्हारी खिलखिलाहट के लिये"
सोच रहा हूँ किसी को ईमेल कर दी जाय ये कविता !
खूब श्रृंगार किया है कविता का अमलतास शबनम और चाँद से, मनमोहिनी सी लगी ये प्रस्तुती
ReplyDeleteऔर उसकी भूमिका वाह!!!!!! जिसके लिए लिखी थी उस तक पहुंची क्या ??? आगे भी उस डायरी के पन्ने पढ़ना चाहूंगी.
गौर नहीं किया कभी सुबह-सुबह
ReplyDeleteशबनम की बूँदों पर
झूलती रहती हैं जो दूब की नोक संग,
बुनता हूं लेकिन कविता इनसे-
तुम्हें सुनाने के लिये
एकदम नए तरह का ख्याल..लाजबाब..बेहद सुन्दर बन पड़ा है..
आपकी डायरी के क्या सभी पन्ने ऐसे ही हैं...अटपटे और झेंपे से! उनकी झेंप मिटाइये और सभी पन्नो को अपने ब्लोंग पर सजा दीजिये! एक भी छूट गया तो नुकसान हमारा ही होगा!
ReplyDeleteकिसी ने कहा था की हम ब्लॉग्गिंग में अलग होते हैं, और वास्तविकता मैं अलग, आज ये भी जाना कि कविता और वास्तविकता में भी बहुत difference है, पर कविता भी वास्तविक जीवन का एक अंग है, ब्लॉग्गिंग कि तरह, और वैसे वास्तविकता ही कितनी वास्तविक होती है? (am i sounding too philosophical ?)
ReplyDeleteऔर सच है कि कई जगह 'उपमाएं' परम अपरिहार्य हो जाती हैं,आवश्यक नहीं बेशक !! उपमाओं और defination में अमलतास के फूल (जो मैंने भी नहीं देखा) और सपनों की अमूर्तता (जो देखी हैं, पर सूरदास के undefined 'गुड' की तरह) सी समानता हैं, उन देखे सपनों को communicate करने के लिए ना देखा हुआ अमलतास ज़रूरी है.
वाह गौतम जी क्या बात है। गजब के सुर और ताल बने है इस कविता में। कुछ एक पन्ने और पल्टो जी इस डायरी के। मैं तो बस बार बार पढकर आनंद ले रहा हूँ आपकी इस रचना का।
ReplyDeleteक्या को-इंसीडेंस है मेजर.......आपने भी कुछ पुराने पन्ने खोले और इधर मैंने भी अपनी पुरानी डायरियां टटोली........कुछ सूखी सी नज्में मुझे उन डायरियों में मिल गयीं.......उन्हें ब्लॉग पर लिख डाली! जब आपके ब्लॉग दरवाजे पर आया तो पता चला कि यही कारनामा आप भी कर रहे हैं......इत्तेफाक ही सही.....मज़ा आ गया.....!
ReplyDeleteअमलताश के बहाने पुरानी जिंदगी में लौटने का भरपूर आनंद उठाने का एहसास .....समझ सकता हूँ...!
old is always gold ...
ReplyDeleteशबनम की बूँदों पर
ReplyDeleteझूलती रहती हैं जो दूब की नोक संग,
बुनता हूं लेकिन कविता इनसे..तुम्हें सुनाने के लिये.
गौतम जी....
अनमोल है ये डायरी का पन्ना.
बहुत अच्छे मेजर .. बस इसी तरह टाइम मशीन पर सवार होकर अतीत में जाते रहिये । यह अतीत मुग्ध भी करता है लेकिन यही भविष्य में जाने की प्रेरणा भी देता है । यह अतीत इतिहास बोध से लैस भी करता है और यही भविष्य के लिये प्रवेश द्वार भी खोलता है । शेष चिंता न करें , हम हैं ना !!! धन्यवाद सहित - शरद कोकास
ReplyDeleteत्रासदी प्रेम की या कविता की? वैसे मैं जहां तक समझ पाया हूं प्रेम खुद मे एक बहुत बडी त्रासदी है। दर्शन में प्रेम वही जिसमे त्याग हो। त्याग में त्रासदी का आभास हो जाता है। फिर कविता...यह क्या कम त्रासद है। दुख से उपजी हो या सुख से..उपजना ही या पैदा होना ही पीडा का भाव है, जो अज्ञात भी हो सकता है। जो बाद में सुख भी दे सकता है। खैर..। डायरी के पन्ने जब भी खुलते हैं बीता हुआ पल याद दिलाते हैं, क्या कम त्रासद है यह कि हम अपने ही पलों को याद करते हैं। या याद करना पडता है। मीठी मीठी त्रासदी।
ReplyDeleteसजता है ये मगर मेरी कविता में अक्सर-
तुम्हारी खिलखिलाहट के लिये...
बस यही कविता है..शानदार।
अटपटा-सा झेंपा हुआ पन्ना :-???
ReplyDelete\
ये अमलताश के फूल
ये शबनम की बूँदें
ये चाँद की चमक
और
तुम
???
वाह वाह !! बेहतरीन....!!
अरे साहब !! इसे झेंपा हुआ पाना क्यों कहना..प्रेम की त्रासदी के सभी रंगों के दर्शन कराती है यह कविता....शानदार प्रस्तुति....
अमलतास कभी मेरा फेवरेट शब्द हुआ करता था.. इस पर काफी कुछ लिखा है.. कविता तो उम्दा है ही.. झेंपा हुआ पन्ना भी पसंद आया..
ReplyDeleteऔर हाँ आपकी फटकार का कुछ असर तो हुआ है. देखते है अगली पिक्चर कब रिलीज होती है..
diary sach me kavita kahane layak hi hai.
ReplyDeletesundar lag rahi hain panktiyan...
dusari baat ye achchhi hai ki mujhe samajh me aa rahi hai, varna apni chhoti si buddhi ke upar se gujar jaati hain adhiktar is prakaar ki kavitaen....!
teesari aur sab se important baat ki Dr saab ne sahi kaha kavita ka confession kavita se adhik khubsurat hai.
ओह्ह्ह...क्या कहूँ...
ReplyDeleteपांच मिनट से बैठी हूँ...एक भी शब्द पकड़ में नहीं आ रहा !!!!
जब कविता के पीछे की कहानी मालूम है तो उसे समझने और पढ़ने का आनंद दूना हो जाता है। बहरहाल अगर ना भी जानता तो भी जीवन की सच्चाइयों को छूती इन पंक्तियों के लिए दाद जरूर देता..
ReplyDeleteये अमलताश के फूल
ये शबनम की बूँदें
ये चाँद की चमक
और
तुम
प्रेम की अपनी त्रासदी है
और कविता की अपनी...
बहुत खूब दिल की बात कह गए आप !
अनूठी कविता है और आपका अंदाज़ भी अनूठा है.इस कविता की महक में हम खो से गए ! बधाई
ReplyDeleteराजऋषिजी,
ReplyDeleteकविता तो कविता, प्रारंभ और अंत का इंट्रो भी बा-कमाल ! आप बहुत संवेदनशील मन के जागरूक कवि हैं, तभी तो ये शिफत है ! कविता पुरानी चाहे जितने हो गई हो, उसकी तार्किकता तत्वपूर्ण है--इसलिए आज भी उसकी ताजगी और सुगंध में कोई कमी नहीं आयी है !
पुरानी डायरी के पन्ने सर्वजनीन हुए, हम खुश हुए !!
सप्रीत--आ.
इस कविता को कभी दर्पण के मुंह से सुनना चाहेंगे....
ReplyDeleteये ना पूछिएगा के उसी के मुंह से क्यूँ....?
बस..दिल किया है..
कविता पहले शब्द से लेकर अंतिम शब्द तक...रुक रुक कर हर शब्द को दोबारा पढने पर मजबूर करती है...
इस पर ooooofffff कहना भी आसान नहीं...
जो कभी दिख भी जाये
तो शायद पहचानूँ ना,
जिक्र करता हूँ इसका फिर भी
अपनी कविता में-
तुम्हारे लिये.....
पढ़ते हैं और हैरान होते हैं..
ज़िक्र करता हूँ फिर भी इसका...तुम्हारे लिए...
बहुत ही सुंदर भाव ...
ReplyDeleteप्रेम एक त्रासदी ही तो है!
[झेंपा हुआ पन्ना ...अच्छा लगा यह वाक्य ख़ास कर.
आगे व्याख्या की आवश्यकता ही नहीं !]
वक्त ज़रूर पुराना हुआ है पर उसे भी सलीके से आपने अपनी डायरी के पन्नों में टांक दिया है.और प्रेम कवितायेँ तो हमेशा नई ही रहती हैं.
ReplyDeleteपन्नों को थोडा और फडफडाने दीजिए.जानता हूँ हमेशा ऐसा करने का मूड नहीं होगा.
आपके शब्द कौशल से हमेशा प्रभावित हुआ हूँ...इस बार भी...आप और अनुराग जी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं...दोनों को पढ़ कर जो आनंद आता है वो शब्दों में नहीं बताया जा सकता...बेहतरीन पोस्ट और हाँ इतने साल पहले लेखन में इतनी परिपक्वता...किसी के प्यार का ही असर है...रचना भीतर तक छूती है..
ReplyDeleteनीरज
ह्रदय के किसी नाज़ुक -से कोने में
ReplyDeleteकभी खिलीं मखमली पंखुड़ियों को
बड़ी मासूमियत से कविता का
अनुपम, अभिनव और प्रफुल्लित आकार
मिल गया है ,,,,
अमलताश, चाँद , शबनम
सभी खुद पर इतराए होंगे .
यक़ीनन....
काफी दिनों बाद आया मगर बहुत अच्छा लगा|
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति के लिये बहुत बहुत बधाई....
केवल कविता ही नहीं... उसके आस-पास का वातावरण खुशबू संग समेट लेते हैं और फिर विंटेज वाइन कि तरह पाठकों को पिलाते हैं...
ReplyDeleteकविता में 'अमलतास' दो बार आया है ! पहले ’अमलतास’ का ’स’ बदलकर ’श’ हो गया है दूसरे ’अमलतास’ में ! कविता को समझने का एक रास्ता यहाँ से भी तो नहीं !
ReplyDeleteगौतम भैय्या,
ReplyDeleteये तेरह साल पहले की कविता, उस वक़्त की मनोदशा को आँखों के सामने खींच ला रही है.
अब जल्दी से ताज़ा लिखी ग़ज़ल से मिलवा दीजिये.
झेंपा हुआ अटपटा-सा पन्ना
ReplyDeleteपन्ने की इस सकुचाहट के बीच एक कविता के कविता होने की दु्विधा भी इस कविता की त्रासदी तो नही?..या उस पन्ने मे छिपे उस उम्र के आस्माँ के उफ़्क पर अटकी किसी पीली पड़ी पतंग के लिये तो नही..जिसकी डोर खड़कवासला से होते हुए पंद्रह सौ किलोमीटर दूर किसी बड़े से शहर मे उलझी हो..मगर चर्खी अभी भी धुंध भरी वादियों मे कहीं चश्मे के पीछे छुपी फ़िक्रमंद आँखों के मजबूत हाथ मे है..और यह तेरह साल का पीलापन और उधड़ापन ही डायरी के उन पन्नो को इतना अजीजतर बना देता है...बचपन की शर्ट या पहली साइकिल की तरह...और इस तेरह सालों के सफ़र के बावजूद अमलतास के रंग, शबनम की पाकीजगी या चांद की खिलखिलाहट वैसी की वैसी ही है!..मगर प्रेम कितना बदल जाता है इस बीच..उम्र की सलवटों जिसकी शक्ल बदल डालती हैं!..और कविता?..इन्ही दो किनारों के बीच कहीं ठिठकी हुई..सकुचाई..शायद यह भी कविता की त्रासदी है..!!
खैर कयामत के बीज तेरह साल या उससे भी कई साल पहले ही बोये जा चुके थे..सो अब अगर हम हाय-हाय करते हैं तो हमारा क्या कुसूर!! ;-)
जब कोइ पुरानी डायरी मिलती है तो उसे पढ़ते वक्त मन पुरानी यादों में खो जाता है और दिल चाहता है कि किसी मित्र या चहेते को यह पेज (लेख ,कविता. संस्मरण ,) किसी को बताया जाय
ReplyDeleteप्रतीकों के यथार्थ को रेखांकित कर रही है आपकी यह कविता। इस दृष्टि से कितनी खोखली हैं बातें कविता के नाम पर। किसी अन्य सन्दर्भों मे कही गई उक्ति यहाँ भी लागू होती है। जिन देखा तिन कहा नहिं, कहा जे देखा नाहिं।
ReplyDeleteएक बार फिर आये इस बावरी कविता को पढने....
ReplyDeleteनहीं देखा है मैंने कभी
फूल अमलतास का
जो कभी दिख भी जाये
तो शायद पहचानूँ ना,
आज जब इसे पढ़ रहे हैं पांचवे नवरात्र पर सवेरे सवेरे...
जाने कितने ही माता के भजन.. कितने भक्ति गीत....चंचल...महेंद्र कपूर कि आवाजों में...जोर शोर से पूरे वातावरण में गूँज रहे हैं...
लेकिन मन में कहीं लता गूँज रही है....
तेरा दिल तो है सनम-आशना, तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में..?
नहीं देखा है मैंने कभी
ReplyDeleteफूल अमलतास का
जो कभी दिख भी जाये
तो शायद पहचानूँ ना,
जिक्र करता हूँ इसका फिर भी
अपनी कविता में-
तुम्हारे लिये
Speechless !!
हेह हे !
ReplyDeleteऐसे झिझक के कविता दिखियेगा तो कैसे चलेगा... अब आ गए हैं तो स्वागत है :)
Kuchh bhool to nahi hui hamse? Aapko "Bikhare Sitare'pe dekha nahi!Aap to sitaon ko raushan kar jate hain!
ReplyDeleteनहीं देखा है मैंने कभी
ReplyDeleteफूल अमलतास का
जो कभी दिख भी जाये
तो शायद पहचानूँ ना,
जिक्र करता हूँ इसका फिर भी
अपनी कविता में-
तुम्हारे लिये
:) ismein ek cute sa acceptance hai..bahut achhe bhai ji..
waise janmdin ki shubhkaamnayen kahne aaya tha..ise as a cake lekar ja raha hoon :P
Many many happy returns of the day...
क्या खूब है ब्रदर........संगीनो के तले भी ज्जबात कायम रहे ....
ReplyDeleteBeautiful composition. The last verse and the end, especially.
ReplyDeleteजनाब
ReplyDeleteचाँद तो मुझे आज भी दीखता है आपके इन कवितायों के सहारे
क्या खूब लिखा है
ये अमलताश के फूल
ये शबनम की बूँदें
ये चाँद की चमक
और
तुम
बधाई
'saathiyon ka shaheed hona' sunke bada afsos hua...seema pe aur antargat aatank ka silsila na jane kabhi rukega bhi ya nahi?
ReplyDeletesachmuch.. kya trasadi hai...
ReplyDeleteप्रेम की अपनी त्रासदी है
ReplyDeleteऔर कविता की अपनी...
sach bilkul sach. yeh panktiya dil ko chhoo gayi
-Shruti
मैं भी यदा कदा अपनी डायरी के पन्नो के सहारे अतीत में बहुत दूर दूर तक घूमने चली जाती हूँ..........कमाल की बात है न इसमें पल भर भी नहीं लगता। मेरे दिल के करीब है यह रचना।
ReplyDeleteये टाइम मशीन ही है.
ReplyDeleteहैं तो ये डायरी के पन्ने में कैद हैं, लेकिन आपके रथ के सारथी है. जो चाहे पूछ लीजये खुले मन से जवाब दे देता है.
बहुत अच्छा लगा क्यूंकि गुजरे जमाने के स्याही से लिखे ऐसे बहुत से झेपते पन्ने मेरे पास भी कैद में हैं.
माफ़ी चाहते हैं..
ReplyDeleteहाथ जोड़ कर माफ़ी...
गलत पोस्ट पर गलत कमेन्ट कि....
मगर आपको कमेट करना आदत हो चुका है...
आपको मेल या चैट करना आदत नहीं है...कमेन्ट करना आदत है...
पिछले सोमवार को से कई बार आ आ कर जा चुके हैं...पिछले सोमवार को ही खटका लग गया था किसी अनहोनी का...
ये पहली बार जाना के जिस सामान जो अपने जिस्म का हिस्सा माना गया हो......
यस सब कुछ उसी से.....!!!!!
कुछ समझ नहीं आ रहा है क्या कहें....
मेज़र जोगी के बाद उनके परिजनों को ईश्वर साहस दे....
ReplyDeleteहौसला दे..इस हादिसे से उबरने का...
एक बार फिर माफ़ी चाहते हैं कमेन्ट के लिए.
aapki taarif bahut hi aur aksar sunati rahi aur patrika me bhi aapki rachna padhi ,wakai aap behad sundar likhte hai ,padhkar santosh mila ,utsukta itne dino ki aaj yahan khinch laai .
ReplyDeleteAapne wastav me achha kiya jo, shaheed Jogi ke post pe tippaneeka pravdhan nahi rakha...shradhanjali arpan karneke alawa kya kah sakti hun?
ReplyDeletevery good.
ReplyDelete