[ कथादेश के नवम्बर 2017 के अंक में प्रकाशित "फ़ौजी की डायरी" का नौवाँ पन्ना ]
शामें सर्द होने लगी हैं | जाने कब से अटका हुआ...जाने का नाम ही नहीं ले रहा था कमबख्त़ सितम्बर ये | यूँ लग रहा था कि मुई तेरह हज़ार फिट की अम्बर-चुम्बी ऊँचाई इस सितम्बर को इतना भाने लगी है कि अक्टूबर को आने का रास्ता ही नहीं देगी ये | मगर आ ही गया अक्टूबर आख़िरकार...दूर नीचे ढ़लान से हाँफता हुआ...सितम्बर को परे धकेलता | कभी-कभी लगता है जैसे कि जाने कब से यहीं हूँ...इसी पहाड़ पर मोर्चा जमाये | कहीं और भी था क्या मेरा वजूद इससे पहले ? या कि सृष्टि की शुरुआत से यहीं हूँ मैं ? किससे पूछूँ ? बारह सौ जवानों और पंद्रह-सोलह ऑफिसरों का ये भरा-पूरा कुनबा भी मानो इस विराट फैले एकांत के लिए कम पड़ता है कई बार | किसी कुनबे की सरदारी से विकट एकाकी काम और कोई नहीं होता होगा शायद ! बंकरों से आता हुआ हर टेलीफोन कॉल्स... रेडियोसेट पर का हर संदेशा शरुआत में सीने को खटका ही देता है, जब तक पहले “ऑल ओके” ना कह दिया जाए | किसी रोज़ कमबख्त़ ये ह्रदय एकदम अचानक रुक ही ना जाए अंदेशों के बोझ तले इस निपट एकांत में ! कितनी बेकार-सी मौत होगी ना वो ! सितम्बर के महीने में ये मृत्यु-गन्ध किस क़दर पूरे जिस्म पर पसीजी-सी चिपकी रहती है | विगत आठ सालों से कुछ ज़ियादा ही उदास करता आ रहा है ये महीना...इस एकांत को तनिक और-और विस्तृत करता हुआ साल-दर-साल |
उदासी एक लम्हे पर गिरी थी...सदी का बोझ है पसरा हुआ सा | देखते-देखते आठ साल हो गए सुरेश को विदा कहे | हाँ...आठ साल ही तो ! सुरेश...सुरेश सूरी...मेजर सुरेश सूरी...कि जिसका होना तो शौर्य को चलते-फिरते परिभाषित करना था... लेकिन जिसका ना होना नियति ने तय कर रखा था कहीं-ना-कहीं अपनी फ़ेहरिश्त में जैसे मेरे होने के लिए | कितना आसान हो जाता है ना सब कुछ, जब हम मान लेते हैं कि ऐसा होना तो लिखा ही हुआ था...डेस्टिनी ! फिर मृत्यु तो ख़ुद ही नियति ठहरी पूरी-की-पूरी अपने होने में ! अभी उस रोज़ जब कैप्टेन राकेश ने पूछा था सुरेश का ज़िक्र आने पर कि “कैसा लगता है सर मौत के उन आख़िरी क्षणों में”...तो हँसी आ गयी थी मुझे | मौत का आख़िरी क्षण ? मौत का कोई भी क्षण आख़िरी कैसे हो सकता है ? जीवन...ज़िन्दगी का आख़िरी क्षण होता है | मौत का तो बस वो एक ही क्षण होता है ना...पहला क्या और आख़िरी क्या ?
उस दिन सारे के सारे ऑफिसर मुझसे उस आठ साल पहले वाले सितम्बर की कहानी सुनना चाहते थे | मैं फिर से टाल गया था और उसी टाले जाने के एवज में वो सवाल मिला था...कैसा लगता है मौत के आख़िरी क्षणों में | हँसी आयी थी, लेकिन पल भर में ख़ुद ही सहम कर गायब हो गयी थी वो कमबख्त़ हँसी...कि ज़िक्र सुरेश का हो रहा हो तो इस हँसी की हिमाक़त कि आए ! इन आठ सालों में लगभग हर रोज़ ही तो जी उठता है और फिर-फिर मृत्यु को वरण करता है वो स्मृतियों के क्रूर पटल पर | यूँ-होता-तो-यूँ-ना-होता या फिर ऐसे-ना-किया-होता-तो-वैसा-ना-होता वाले हज़ारों-लाखों विकल्पों को उधेड़ता-बुनता मन सुरेश को हर बार वापस ज़िंदा करता है और वापस मारता है | उसके लिए तो शायद कोई क्षण आया ही नहीं आख़िरी जैसा...ज़िन्दगी का या फिर मौत का ही | वो आख़िरी क्षण तो आख़िर में चिपका रह गया मेरे वजूद संग ही...मेरी नियति बन कर | राकेश के उस सवाल पर अब सोचता हूँ तो याद आता है कि ख़ून से तर-ब-तर जिस्म को उस रोज़ क्या-क्या ख़याल आ रहे थे | पहला तो यही था कि सुरेश ज़िंदा है...अभी सब ठीक हो जाएगा...कि ये एक दु:स्वप्न मात्र है जो नींद से जागते ही मिट जाएगा | दूसरा कि मेरे नहीं रहने के बाद छुटकी अपने पापा के बिना कैसे बड़ी होगी ! कुछ और भी उलटे-सीधे से ख़याल...एक पूरी तरह सुनियोजित ऑपरेशन का यूँ अप्रत्याशित रूप से इस तरह करवट लेने पर ग़ुस्सा...जिस्म से टपकती ख़ून की बूंदों पर ग़ुस्सा...ख़त्म होती रायफल की गोलियों पर ग़ुस्सा | उन आख़िरी क्षणों में शायद ग़ुस्सा ही सबसे चरम भाव था | एक फ्लैश-सा पूरी ज़िन्दगी का आँखों के सामने से गुज़रना जैसा कुछ...हा ! वो शायद फिल्मों में ही होता है |
ये कहना कि शरीर में चुभी हुईं गोलियाँ उतना दर्द नहीं देतीं जितना एनेस्थिशिया देने के बावजूद डॉक्टरों की कैंची से उसी शरीर से बाहर निकाली जा रही गोलियाँ देती हैं...ऐसा कुछ कहना पोएटिक होगा या रियलिस्टिक ? इस डायलॉग पर देर तक हँसे थे सारे ऑफिसर उस दिन और उनकी वो हँसी पहली बार सितम्बर के महीने में भी सकून दे रही थी | मे बी...जस्ट मे बी दैट द पेन इज फायनली एक्सेप्टिंग द माईट ऑव डेस्टिनी ! कई-कई बार मन करता है कि फोन करूँ सुरेश के घर...आन्टी से बात करूँ देर तक...उन्हें बताऊँ अपने मन में चलतीं इन तमाम पोएटिक या रियलिस्टिक सी उधेड़-बुनों को | एक शायद वहीं तो हैं इस पूरी पृथ्वी जो इन उधेड़-बुनों की तह तक पहुँच सकें | लेकिन फिर हिम्मत नहीं होती ! कुछ अजीब-सा धुक-धुक करने लगता है सीने की गहरी तलहट्टियों में कहीं...कुछ-कुछ वैसी ही धुक-धुकी जो उस रोज़ उठी थी सीने में, जब गोलियों की आवाज़ चारों ओर से उठने लगी थी अचानक ही |
अभी...अभी के अभी दूर किसी अन्तरिक्ष से आती हुई गोलियों की आवाज़ें मानो ड्रम-बीट का पार्श्वसंगीत प्रदान कर रही हों जिस पर क़दमताल करती फिर रही हैं ये स्मृतियाँ ! स्मृतियाँ...सुरेश...सितम्बर...सब के सब ‘स’ से ही क्यों शुरू होते हैं ? सितमगर सितम्बर...हा ! व्हाट अ क्लीशे’ !!
गुलज़ार की नज़्म याद आती है...
मौत तू एक कविता है
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको
डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिये जब चाँद उफ़क़ तक पहुँचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के क़रीब
ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन
जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आए
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको
ज़र्द सा चेहरा लिये जब चाँद उफ़क़ तक पहुँचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के क़रीब
ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन
जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आए
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको
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बहुत ख़ूब !
ReplyDeleteआपकी हिम्मत की दाद देते हुए ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह आपको हमेशा सुरक्षित और सलामत रखे....
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार मैम ...दिल से _/\_
Deleteबहुत सुन्दर ।
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