04 December 2017

स्वधायै स्वहायै नित्यमेव भवन्तु...

स्मृतियों के पन्ने एकदम से मचलते हैं और शुरुआती कुछ पन्नों को छोड़ कर बारिश से सराबोर एक पन्ना खुलता है | उस रोज़ बारिश ऐसी थी...ऐसी थी बारिश कि गाँव की पगडंडियाँ बह रही थीं | 

कितने साल बीत गए उस झमट कर उमड़ी बरसात के ? गिनता है वो लड़का उँगलियों पर तो गिनती तीस पर जाकर थमकती है | तीस साल से कुछ ज़्यादा ही तो शायद...

...भीगे पन्ने से बहती हुयी एक पतली पगडंडी पर चलती हुई आपादमस्तक भीगी हुई स्मृति की बूँदों-सी टपकती कोई खिलखिलाहट बगल के पोखर की मछलियों को एक अजब ही उछाल दे रही है | आदेशनुमा आमंत्रण मिलता है लड़के को पिता की ओर से बाहर चलने का | किलक भरी हँसी को हैरानी हो रही है कि हैरत भरी हैरानी की हँसी छूट रही...ये तय कर पाना बहुत ही मुश्किल है फिलहाल सर्दी-जुकाम और टॉन्सिल से अक्सर ग्रसित रहने वाले और अमूमन बारिश में भीगने पर घोषित पाबंदी में बंधे उस लड़के के लिए | देखता है वो पिता के एक हाथ में काले रंग का छाता और दूजे हाथ में सफ़ेद डोर से लिपटी हुई बाँस की एक बहुत ही लम्बी छड़ी | छ: फीट लम्बे पिता के साथ डग भरता हुआ लड़का बहती पगडंडी पर छै-छपाक करता हुआ चलता है | 

बारिश को जैसे हड़बड़ी सी मची हुई है पिता-पुत्र की जोड़ी को भिगोने की और छाता बंद पड़ा पिता के हाथों में उपेक्षित महसूस कर रहा है | दस मिनट से ऊपर की वो तर-बतर पदयात्रा बगल के पोखर पर जाकर संपन्न होती है | बाँस की वो लम्बी छड़ी एक नपे-तुले झटके के साथ अपने जिस्म पर लिपटी सफ़ेद डोर को खोलती है और पिता के कुरते की जेबी से निकली हुई आटे की गुल्ली डोर के दूसरे सिरे से लगी काँटे में जा उलझती है | लड़का आँखे फाड़े देखता है सारी प्रक्रिया...पिता के लम्बे हाथों की उड़ान से नियंत्रित पीछे से घूम कर उठती हुई सफ़ेद डोर को पोखर के पानी में डूबते...और उसी डोर के पानी में डूबे सिरे से बंधी कुछ ही क्षण बाद एक मछली को बाहर आते हुए | प्रक्रिया तीन बार दोहराई जाती है और अब तक उपेक्षित बंद पड़ा छाता आधा खुलता है और अपने उदर में तीन मछलियों को समाहित कर वापस बंद हो जाता है | 

बहती पगडंडी पर वापसी की यात्रा अपने साथ के एक अजब-ग़ज़ब से रोमांच को लिए लड़के की स्मृतियों में क़ैद हो जाती है |

सालों बाद...तीस-साल-से-कुछ-ज़्यादा-ही-तो-शायद के बाद...उसी पोखर की घाट पर पंडितों द्वारा उच्चरित “ॐ देवताभ्य: पितृभ्यश्च मह्योगिभ्य एव च नम: स्वधायै स्वहायै नित्यमेव भवन्तु” को दोहराता हुआ वो लड़का पोखर की नयी मछलियों की उछाल देखता है और समस्त देवताओं से प्रार्थना करता है उस झमट कर उमड़ी हुई बरसात में भीगते छ: फीट लम्बे पिता के साथ डग भरते हुए छै-छपाक की वापसी के लिए | 

[sketch curtsey Sheree from watercoloursplus.com]

4 comments:

  1. दिनांक 05/12/2017 को...
    आप की रचना का लिंक होगा...
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी इस चर्चा में सादर आमंत्रित हैं...

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (05-12-2017) को दरमाह दे दरबान को जितनी रकम होटल बड़ा; चर्चामंच 2808 पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. बचपन की यादें ही लौटकर आती हैं....उमड़ उमड़कर !

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