09 October 2017

उड़ी बाज़ू में इक तितली तो गुब्बारा मचल उट्ठा

बंधा धागे से था फिर भी वो बेचारा मचल उट्ठा
उड़ी बाज़ू में इक तितली तो गुब्बारा मचल उट्ठा

हवा का ज़ोर था ऐसा...रिबन करता तो करता क्या
मनाया लाख ज़ुल्फ़ों ने, वो दोबारा मचल उट्ठा

उठाया सुब्‍ह ने पर्दा, तो ली खिड़की ने अंगड़ाई
गली के पार अधलेटा-सा ओसारा मचल उट्ठा

बजी घंटी, दुपट्टे खिलखिलाते क्लास से निकले
अचानक सूने-से कॉलिज का गलियारा मचल उट्ठा

बस इक उँगली छुयी थी चाय की प्याली पकड़ते वक़्त
न जाने क्यूँ समूचे जिस्म का पारा मचल उट्ठा

पुराना ख़त निकल आया, पुरानी फाइलों से जब
उठी ख़ुश्बू कि ऑफिस यक-ब-यक सारा मचल उट्ठा

छबीले चाँद ने बादल के चिलमन को उठाया यूँ
फ़लक पर ऊँघता बैठा हर इक तारा मचल उट्ठा

अकेली रात थी आधी, बुझा था बल्ब कमरे का

सुलगती याद यूँ चमकी कि अँधियारा मचल उट्ठा

[ पाल ले इक रोग नादाँ के पन्नों से ]

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