[ कथादेश के अगस्त 2017 अंक में प्रकाशित "फ़ौजी की डायरी" का छठा पन्ना ]
रातों को जैसे खत्म ना होने की लत लग गयी है
इन दिनों...बर्फ क्या पिघली, जाते-जाते कमबख़्त ने जैसे रातों को खींच कर
तान दिया है |
इतनी लम्बी रातें कि सुबह होने तक पूरी उम्र ही बीत जाये ! "रोमियो चार्ली फॉर टाइगर...ऑल ओके ! ओवर !" छोटे वायरलेस सेट पर की ये
“ऑल ओके” की धुन इन लम्बी रातों में गुलज़ार की नज़्मों और ग़ालिब के शेरों से भी ज़्यादा
सूदिंग लगती है | बंकर के कोने में उदास पड़े सफेद लम्बे भारी
भरकम स्नो-बूट्स के तस्मों से अभी भी चिपके हुये दो-एक बुरादे बर्फ के, फुसफुसाते
हुये किस्सागोई करते सुने जा सकते हैं... उन
सुकून भरी बर्फ़ीली रातों की किस्सागोई, जब जेहाद के आसेबों को भी सर्दी
लगती थी |
...और इन लम्बी-लम्बी रातों में आकार
बदलते चाँद से ही गुफ्तगू होती है अक्सर | मगर ये कमीना चाँद इतनी जल्दी-जल्दी क्यों
अमावस की तरफ भागता है ? बर्फ़ पिघल जाने के बाद तो इस मुए चाँद की रौशनी की ही तो दरकार है सरहद पर
चौकस निगह-बानी की ख़ातिर | इन लम्बी रातों वाले मौसम तलक
भूल नहीं सकता है क्या ये बदमाश अपनी फेज-शिफ्टिंग के आसमानी हुक्म को ?
कल रात बड़ी देर तक ठिठका रहा था वो आधा
से कुछ ज्यादा चाँद अपनी ठुड्ढी उठाए सरहद के उस पार पहाड़ी पर बने छोटे से बंकर की छत पर | अज़ब-गज़ब सी
रात थी...सुबह से लेकर देर शाम तक लरज़ते बादलों की टोलियाँ अचानक से लापता हो गईं
रात के जवान होते ही | उस आधे से कुछ ज्यादा वाले चाँद का ही
तिलिस्म था ऐसा या फिर दिन भर लदे-फदे बादल थक गए थे आसमान की तानाशाही से...जो भी
था, सब मिल-जुल कर एक विचित्र-सा प्रतिरोध पैदा कर रहे थे |
....प्रतिरोध ? हाँ, प्रतिरोध
ही तो कि दिन के उजाले में उस पार पहाड़ी पर बना यही बंकर सख़्त नजरों से घूरता
रहता है इस ज़ानिब राइफल की नली सामने किए हुये और रात के अंधेरे में अब उसी के छत
से कमबख़्त चाँद घूर रहा था | न बस घूर रहा था...एक
किसी गोल चेहरे की बेतरह याद भी दिला रहा था बदमाश...
सोचा था...हाँ, सोचा तो था बताऊंगा उसको आयेगा जब फोन कि उठी थी हूक-सी इक याद उस सरहद पार वाले बंकर की छत पर ठुड्ढी उठाए चाँद को ठिठका देख कर | गश्त की थकान लेकिन तपते तलवों से उठकर ज़ुबान तक आ गई थी और
कह पाया कुछ भी तो नहीं...| सोच रहा हूँ, अब के जो दिखा बदमाश यूँ ही घूरता हुआ...उठा लाऊँगा उस पार से और रख लूँगा तपते तलवों पर स्लीपिंग बैग के भीतर | अभी जो उस गोल चेहरे वाली का फोन आये तो पूछूँ उससे...तेरी इस हूक-सी याद का उठना कुफ़्र तो नहीं चाँद को देखकर कि जब जा बसा हो वो मुआ चाँद दुश्मनों के ख़ेमे में ?
सोचा था...हाँ, सोचा तो था बताऊंगा उसको आयेगा जब फोन कि उठी थी हूक-सी इक याद उस सरहद पार वाले बंकर की छत पर ठुड्ढी उठाए चाँद को ठिठका देख कर | गश्त की थकान लेकिन तपते तलवों से उठकर ज़ुबान तक आ गई थी और
कह पाया कुछ भी तो नहीं...| सोच रहा हूँ, अब के जो दिखा बदमाश यूँ ही घूरता हुआ...उठा लाऊँगा उस पार से और रख लूँगा तपते तलवों पर स्लीपिंग बैग के भीतर | अभी जो उस गोल चेहरे वाली का फोन आये तो पूछूँ उससे...तेरी इस हूक-सी याद का उठना कुफ़्र तो नहीं चाँद को देखकर कि जब जा बसा हो वो मुआ चाँद दुश्मनों के ख़ेमे में ?
...और ये आँखें जाने क्यों नम हो आयी हैं ?
विगत हजार...दस हजार सालों से, जब से ये हरी वर्दी शरीर का हिस्सा बनी है, इन आँखों ने आँसु बहाने के कुछ अजब कायदे ढ़ूंढ़ निकाले हैं । किसी खूबसूरत कविता पे रो उठने वाली ये आँखें, कहानी-उपन्यासों में पलकें नम कर लेने वाली ये आँखें, किसी फिल्म के भावुक दृश्यों पे डबडबा जाने वाली ये आँखें, मुल्क के इस सुदूर कोने में फोन पर अपनी दूर-निवासी प्रेयसी की बातें सुन कर भीग जाने वाली आँखें, हर छुट्टी से वापस ड्यूटी पर आते समय माँ के आँसुओं का मुँह फेर कर साथ निभाने वाली ये आँखें...आश्चर्यजनक रूप से किसी मौत पर आँसु नहीं बहाती हैं । अभी हफ्ते भर पहले भी नहीं रोयीं, जब नीचे जंगल में वो नौजवान मेजर सीने में तेरह गोलियाँ समोये अपने से ज्यादा फ़िक्र अपने गिरे हुये जवान की जान बचाने के लिये करता हुआ शहीद हो गया । ट्रिगर दबने के बाद दो हजार तीन सौ पचास फिट प्रति सेकेंड की रफ़्तार से एके-47 के बैरल से निकली हुई गोली जब शरीर में पैबस्त करती है तो ठीक उस वक़्त शरीर को आभास तक नहीं होता और जब तक होता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है | दरअसल शौर्य दुश्मन पर गोली चलाने या गोली खाने में नहीं है...शौर्य तो उस इरादे में है, जो ये जानते-बूझते भी कि वहाँ मौत छुपी है मगर फिर भी वो इरादे डिगते नहीं, जाते हैं उसी जानिब मौत से दो-दो हाथ करने |
शौर्य ने एक नया नाम लिया खुद के लिये...मेजर सतीश का नाम ।
उम्र के 27वें पायदान पर खड़ा पड़ोस के नुक्कड़ पर रहने
वाला बिल्कुल एक आम नौजवान...फर्क बस इतना कि जहाँ उसके साथी आई.आई.टी., मेडिकल्स, कैट के लिये प्रयत्नशील थे, उसने अपने मुल्क के लिये हरी वर्दी
पहनने की ठानी । ...और उसका ये मुल्क जब सात समन्दर पार खेल रही अपनी क्रिकेट-टीम की
हार पर शोक मना रहा था, वो जाबांज बगैर किसी चियरिंग के एक अनाम-सी लड़ाई लड़ रहा था । आनेवाले स्वतंत्रता-दिवस
पर यही उसका ये मुल्क उसको एक तमगा पकड़ा देगा । इस मुल्क की विडंबना ही है कि आप तब
तक बहादुर नहीं हैं, जब तक आप शहीद नहीं हो जाते । कई दिनों से ये "शहीद" शब्द मुझे जाने
क्यों मुँह चिढ़ाता-सा नजर आ रहा है...!!!
इस ऊँचे बर्फ़ीले पहाड़ों के नीचे, मध्य कश्मीर के राजवाड़ और
हफ़रुदा के जंगलों में खड़े ख़ामोश चीड़-देवदार के दरख़्त जाने कितनी अनदेखी-अनसुनी
शौर्य गाथाओं के साक्षी हैं...भारतीय सेना के अनगिनत मेजर सतीशों की शौर्य गाथायें
! बर्फ़ की बिछी हुई विस्तृत सफ़ेद चादर के मध्य सिर उठाये सिहरते ख़ामोश खड़े इन चीड़
और देवदार के गिरे हुए पत्ते और टूटी हुई टहनियों ने विगत तीन दशकों से ज़्यादा के
समयांतराल में मेजर सतीश सरीखे कितने ही सैनिकों के लहूलुहान जिस्म को अपनी गोद
में सम्हाला दिया है | चीड़-देवदार के ये ख़ामोश दरख़्त, जंगल से सटे गाँवों में जिहाद के नाम पर उस
पार से आने वाले सरफिरों की ख़ातिरदारी में इन गाँव के बाशिंदों द्वारा अपनी
बेज़ुबान रोटियों और बेटियों को परोसते भी देखते हैं...बेज़ुबान रोटियों के टूटते
कौर को इनका ख़ुदा नहीं देखता और चुप सहमी बेटियों का ज़िक्र किसी फेमिनिस्ट की कविताओं
या कहानियों में जगह नहीं बना पाता ! लेकिन ये मेजर सतीश सब देखते हैं ! ये सतीश
जैसे युवा आराम से अपनी सैन्य-चौकी पर बैठे रह सकते हैं इन तमाम तमाशों को देखने
के बावजूद कि इन सतीशों को फिर भी उनकी तनख्वाह तो मिलनी ही है...लेकिन इन सतीशों
की वर्दी के कन्धों पर सितारे सजने से पहले ली गयी शपथ उन्हें बैठने नहीं देती
अपने सैन्य-चौकियों की सकून भरी गर्माहट में और उठ कर चल पड़ते हैं ये बाँकुरे इन
जंगलों में शौर्य की नयी परिभाषा रचने ! उधर रोटी के साथ अपनी बेटी परोसने वालों
की जहालत यहीं ख़त्म नहीं होती...इनकी जहालत तो ज़ख़्मी सतीशों को अस्पताल ले जाने
वाली एम्बुलेंस पर बरसती है पत्थरों की बारिश बन कर | उकता
कर इन सतीशों की रूहें इनके जिस्म को छोड़ चली जाती हैं ऊपर कि उस चुप बैठे ख़ुदा से
गुज़ारिश कर सके हफ़रुदा और राजवाड़ की बेज़ुबान रोटियों और बेटियों के वास्ते ! जाने
ख़ुदा इन सतीशों की सुनता भी है कि नहीं ! चालीस साल तो होने जा रहे...गुजारिशों की
सुनवाई की कुछ ख़बर नहीं फिलहाल !
इधर यूँ ही एक आवारा सा ख़याल अपना सर उठाता है कि...उस पार वाले
बंकर के नुमाइंदों को किसी की याद आती होगी कि नहीं चाँद को अपने बंकर के ऊपर यूँ ठिठका
देखकर ? दिलचस्प होगा ये जानना... ! गीत
चतुर्वेदी की एक कविता की पंक्तियाँ याद आती है-
भूख में होती है तपस्या
पानी में बहुत सारी अतृप्ति
उपकार में कई आरोप
व्याख्या में थोड़ी-सी बदनीयती
और
करुणा में हमेशा
एक निजी इतिहास होता है
---x---
शानदार डायरी है गौतम. भविष्य में इसे पुस्तक के रूप में ज़रूर सहेजना.
ReplyDeleteबहुत सुंदर👌
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