02 September 2014

अनगिनत परिधियों वाला वृत...

{मासिक 'हंस''  के जुलाई 2014 अंक में प्रकाशित कहानी}

"की कोरछिस, पुन्नू मियाँ? क्रिकेट खेलने नहीं चल रहे?"

...सुदीप भैया का पुकारना और पुनीत का किलकती हँसी के साथ कॉमिक्स बंद करते हुये उछल पड़ना, स्वीच ऑन होने और बल्ब जलने की प्रक्रिया जैसा ही हुआ | दोपहर और शाम के बीच का कोई वक्त था, जब पुनीत अपने घर के बरान्डे पर स्कूल से वापस आने के बाद बैठा कॉमिक्स पढ़ रहा था | सुदीप भैया तभी निकले थे पड़ोस वाले अपने घर से हाथ में क्रिकेट का बल्ला घुमाते हुये

       “की बोय पोढ़छो...कौन सी कॉमिक्स है ? sss... वेताल और जलदस्युओं का हमला ? ठीक आछे, ताहोले बोलो, वेताल की कॉमिक्स में सबसे अच्छा क्या लगता है तुमको ?” सुदीप भैया वहीं उसके बगल में बैठ गये |

       “तीन चीज...वेताल का डॉगी शेरा, वेताल का घोड़ा तूफ़ान और...और...” सकुचाते हुये पुनीत ने अपना मुँह कॉमिक्स में छुपा लिया |

       “हाँ, हाँ...बोलो...की होलो ? और तीसरी चीज क्या ?”

       “वो...वो वेताल की पत्नी डायना |, लगभग फुसफुसा कर ही कहा पुनीत ने, जिस पर सुदीप भैया ठहाके लगा के हँस पड़े और उसे ज़ोर का गुदगुदी लगाते हुये चिढ़ाने लगे “ओsss तो आमार जान को डायना पसंद है | केनो...क्यों पसंद है ? बहुत सुंदर लगती है आपको ?

       बेचारा पुनीत संकोच से गड़ा जा रहा था | उसे सुदीप भैया बहुत अच्छे लगते थे | उसे क्या, कॉलोनी के उसके ग्रुप के सारे बच्चों के हीरो थे वे तो | कॉलोनी के सारे भैया लोगों में सबसे स्मार्ट...कॉलोनी की क्रिकेट टीम के कैप्टेन...जितना अच्छा डांस करते थे, उतना ही अच्छा गाते भी थे...दूर्गा पूजा के पंडाल में हर साल अष्टमी को होने वाले डांस कंपीटीशन में फर्स्ट प्राइज मिलना सुदीप भैया के नाम ही लिखा होता था | नगाड़े के डम-डम के साथ ही दोनों हाथों में बड़े वाले दिये उठा कर वो जब थिरकना शुरू करते, तो पूरी कॉलोनी सम्मोहित हो उन्हें देखते रह जाती थी या फिर किसी शादी-विवाह या ऐसे ही किसी अन्य अवसर पर उनका “आय एम अ डिस्को-डांसर” गाते हुये मिथुन चक्रवर्ती का स्टेप करना तो ऊह-आह की सरगोशियों का तूफ़ान खड़ा कर देता था |

       पुनीत बड़ा होकर सुदीप भैया बनना चाहता था |

       रंग-बिरंगी तितलियों से उड़ते बचपन के उन दिनों में बीहड़ वन के बौने बंडारों का रक्षक वेताल, जनाडू का मालिक जादूगर मैंड्रेक, दुश्मनों के छक्के छुड़ाने वाले जासूसों की जोड़ी राजन-इक़बाल और डांसिंग सुपर-स्टार मिथुन चक्रवर्ती के साथ-साथ सुदीप भैया भी उसकी हीरो वाली फ़ेहरिश्त में शामिल थे और इन सबसे परे, इतराने वाली बात जो थी वो ये कि कॉलोनी के अन्य बच्चों के बनिस्पत पुनीत को सुदीप भैया का अतिरिक्त स्नेह प्राप्त था | अन्य बच्चों का इस बात पर जलना और उसका इतराना, समानुपातिक था| यहाँ तक कि सुदीप भैया का छोटा भाई प्रदीप, जो उसकी ही क्लास में पढ़ता था, से उसकी कई बार इस बात के लिए लड़ाई भी हो चुकी थी | उसे प्रदीप ज़रा भी पसंद नहीं था...एक तो वो हमेशा बांगला ही बोलता और दूसरा, क्लास में हमेशा उससे ज्यादा मार्क्स लाता था | जबकि ठीक उल्टे, प्रदीप के घर के सब लोग उसे बहुत मानते थे...चाहे वो सुदीप भैया हों या फिर उनकी छोटी बहन और प्रदीप की दीदी, मीनी दी या फिर चट्टोपाध्याय अंकल-आन्टी | मीनी दी तो उसकी अपनी सलोनी दी की ही क्लास में पढ़ती थीं और सलोनी दी की सबसे पक्की सहेली थीं | खूब छनती थी सलोनी दी और मीनी दी में |

       तितलियों से इत-उत मंडराते वो दिन जीतने बेफिक्र और उन्मुक्त थे, उतने ही उलझन और दुविधाओं भरे भी | दस बरस के पुनीत के मन में कई सवाल थे, लेकिन जवाब देने वाला कोई ना था | पापा ट्रेन के पिछले डब्बे में लाल और हरा झंडा उठाए यात्रा में ही रहते थे और हफ्ते में दो बार आते थे घर बस | मम्मी शहर के सुदूर कोने में किसी स्कूल में टीचर थीं जो सुबह-सुबह निकल जाने के बाद देर शाम ही वापस आती थीं | सलोनी दी का साथ रहता था बस दिन भर स्कूल से बचे समय में और सलोनी दी से उसकी ज़रा भी पटरी नहीं बैठती | जब देखो तब उस पे हुक्म जो चलाती रहती थीं वो | छ महीने बाद दी की दसवीं बोर्ड की परीक्षा शुरू होने वाली थी, तो मम्मी का आदेश था उसके लिए कि ये छ महीने उसे दी की सब बात माननी है...कि दी को टॉप करना है पूरे बोर्ड में | बेचारा पुनीत स्कूल से आने के बाद और छुट्टियों वाले दिन, कभी दी की फ़रमाइश पर ठंढा पानी भर के लाता ग्लास में उनकी स्टडी-टेबल तक तो कभी उनकी सहेलियों, सॉम्पी दी या मीनी दी के घर से नोट्स या किताबें लाता | वैसे सॉम्पी दी या मीनी दी के घर जाने में उसे मजा ही आता था | सॉम्पी दी की छोटी बहन तोमाली उसकी क्लास-मेट थी और उसे बहुत अच्छी लगती थी...वहीं मीनी दी के घर सुदीप भैया से मुलाक़ात हो ही जाती थी, जिनसे उसे हर बार खाने को टॉफी या पढ़ने को नई कॉमिक्स मिल जाता था |

       शहर की छोटी-सी वो रेलवे कॉलोनी मुख्यत दूसरे और तीसरे श्रेणी के रेल-कर्मचारियों के सरकारी क्वार्टरों से अटी पड़ी थी, जिसमें अधिकांश परिवार बंगाली समुदाय के थे | पुनीत के पापा, श्री रामान्द सिन्हा और उन जैसे एक-दो और लोगों के परिवार बस हिन्दी भाषी थे | पिछले साल ही उसके पापा का तबादला यहाँ हुआ था | सलोनी दी तो इस एक साल में ही खूब फर्राटेदार बांगला बोलने लगी थीं, लेकिन पुनीत को अभी बस टूटी-फूटी समझ ही थी बांगला की | मुख्य सड़क से फुटती हुई ईंट बिछी हुई पतली-सी एक गली के दोनों और बने छोटे-छोटे दो कमरे और एक बैठक-खाने वाले सरकारी क्वार्टर उस रेलवे-कॉलोनी को एक अलग ही खूबसूरती देते थे |

       कॉलोनी की उस छोटी-सी दुनिया के अंदर एक अलग, अबूझ और रहस्यमयी दुनिया में खोया रहता था इन दिनों पाँचवीं क्लास में पढ़ने वाला पुनीत, जिसमें उसके लिए नयी-नयी उलझनें थीं...नयी-नयी दुविधायें थीं | उलझनों और दुविधाओं का अनगिनत परिधियों वाला एक वृत कब उसे अचानक से यूँ घेरे रहने लगा, उसे नहीं पता | शुरुआत पेट में एक अजीब-सी उमड़न-घुमड़न से हुई थी और बाद में उस उमड़न-घुमड़न ने एक स्थायी निवास ही बना लिया उसके नन्हें से पेट के अंदर | सुदीप भैया से ही माँग कर लाया था वेताल का वो खजाने के लुटेरे वाला कॉमिक्स, जिसने उसकी
नन्ही दुनिया को अचानक से उलट-पुलट कर रख दिया था...लुटेरों के द्वारा जंगल के खजाने पर हमला बोले जाने के दौरान लुटेरों से मुक़ाबला करते हुये एक बौना बंडारा गोली लगने से घायल हो जाता है और उसे प्राथमिक उपचार देने के क्रम में वेताल की पत्नी, डायना अपना शर्ट फाड़ कर उसकी मरहम-पट्टी करती है | वो दृश्य...वो डायना की बगैर शर्ट वाली, बस कुछ बहुत ही छोटा-सा उजले रंग का पहने हुई वाली तस्वीर, कॉमिक्स के पन्नों से उभर कर पुनीत के दिलो-दिमाग में पैठ गई थी | वो वाली कॉमिक्स और उस कॉमिक्स का वो खास पन्ना उसका सबसे कीमती सामान हो गया था | सुदीप भैया को झूठ-मूठ का सॉरी बोल दिया था उसने कि कॉमिक्स तो गुम हो गई | एक बौखलाहट-सी थी कोई जो अब हर वक़्त उस पर हावी रहती थी...एक कोहरे जैसा था कुछ जो छाया रहता था अब हमेशा पुनीत के नन्हें मन पर | जब-तब समय मिलते ही वो अपने कॉमिक्स के ढेर में से बस उस कॉमिक्स को निकालता...झट-पट एक झलक उस पन्ने-विशेष को उलटा कर देख लेता | स्कूल, होमवर्क, क्रिकेट...सब कुछ से जैसे एक विरक्ति सी हो गई थी | हर वक़्त...हर दफ़ा...खास कर सोते समय बंद आँखों के सामने डायना ही रहती थी उसी छोटे से उजले कुछ को पहने हुये | इस बौखलाहट, इस कोहरे में जहाँ एक असीम आनंद की अनुभूति थी, वहीं एक अपराधभाव, एक डर सा भी था कि जैसे वो कुछ गलत कर रहा हो |

       ...और ये बौखलाहट उससे अजीब-अजीब हरकत करवाने लगी थी | अभी उस दिन ही तो कॉलोनी में आय-स्पाय खेलते हुये, वो और तोमाली साथ ही छुपे थे बनर्जी अंकल के क्वार्टर की बन रही बाउंड्री वाल के निकट, बजरी और ईंटों की ढ़ेर के पीछे...जब अचानक से उसका मन किया कि वो तोमाली के फ्रॉक के ऊपर वाले बटन से अंदर झाँक कर देख ले कि उसने भी कुछ पहना है क्या डायना जैसा उजला-उजला छोटा-सा कुछ | एक-दो बार कोशिश की उसने तो तोमाली ने चिढ़ कर पूछा था “कि कोर्छिस तुमि? भालो भावे बोसो ना !” और वो सकपका कर इधर-उधर देखने लगा था | कोई विचित्र-सी एक परत आकर जम गई थी उस नन्हें वजूद पर जो समझ की छोटी पहुँच से बहुत ऊपर थी...वहीं दूसरी ओर एक बेताबी थी जो नासमझी की उन परतों को बस उघाड़ कर रख देना चाहती थी |  

       इन अजीब वारदातों का सिलसिला ऐसा नहीं था कि उसकी इस अनगिनत परिधियों वाले वृत से ही जुड़ा हुआ था बस...इस वृत के बाहर की भी चंद बातें पुनीत की उलझनों का विस्तार बनती जा रही थीं | अब जैसे कि यूं सुदीप भैया तो उसे बहुत अच्छे लगते थे, लेकिन उनकी कुछ चीजें उसे बिलकुल समझ में नहीं आती | एक तो उनका जब देखो तब सलोनी दी का हाल-चल पूछते रहना उसको एक ज़रा नहीं भाता था| दूसरे, कॉमिक्स वो उसे देते थे और नाम सलोनी दी का लिख देते थे | सलोनी दी को तो कॉमिक्स-वॉमिक्स में ज़रा भी नहीं रुचि थी | सलोनी दी से इन दिनों उसे इसलिए भी और चिढ़ मची रहती थी| जलन...ईर्ष्या जैसी कोई चीज जो भी होती थी, पुनीत के बालमन को उसकी परिभाषा गढ़नी आ गयी थी |

       उस शाम भी अटपटा-सा ही कुछ हुआ था | सुदीप भैया की छत पर भैया लोगों का ग्रुप इकट्ठा हुआ था अगले दिन बगल वाले मुहल्ले की टीम के साथ होने वाले क्रिकेट-मैच की तरतीब बनाने के वास्ते | पुनीत और प्रदीप और उसके ग्रुप के बच्चों को भी शामिल किया गया था इस बैठकी में | कॉलोनी में होने वाली क्रिकेट-प्रैक्टिसों के दौरान पुनीत, प्रदीप और अन्य बच्चा-पार्टी का काम फिल्डिंग में सहयोग देने का होता था, जिसकी भरपाई प्रैक्टिस समाप्त होने के बाद उन्हें एक-एक ओवर की बैटिंग करवा कर की जाती थी | इस भरपाई में पुनीत को हमेशा से तरजीह मिलती थी सुदीप भैया के अतिरिक्त स्नेह की बदौलत एक-दो बॉल ज्यादा खिलवा कर | बैठकी में चल रही बहस के दौरान अचानक से सुदीप भैया कलाई-घड़ी को देखते हुये उठ खड़े हुये थे और ये कह कर नीचे चले गए कि “आमी एखोनी आस छी”, जिसके प्रत्युत्तर में बाकी भैया लोगों का कुछ हँसते हुए कहा गया जुमला था “हें ! हें ! कोरते तो पारो किछू ना तुमि...खाली देखते थाको...!!!” और फिर सारे भैया लोग उठ कर छत की रेलिंग के पास इकट्ठा हो गए | पुनीत भी आ गया था रेलिंग के पास मजमे को समझने के लिए | नीचे गली के किनारे सुदीप भैया को बनर्जी अंकल के क्वार्टर की बन रही बाउंड्री वाल पर बैठा देख उसे बड़ी हैरानी हुई थी | तभी सामने से उसे सलोनी दी, मीनी दी और सॉम्पी दी का ग्रुप आता दिखा था | भैया लोग अचानक ऊपर छत पर से सुदीप भैया नाम लेकर ज़ोर-ज़ोर से पुकारने लगे थे और बदले में सुदीप भैया बार-बार उन लोगों को चुप रहने का इशारा कर रहे थे | सारा माजरा पुनीत को कुछ समझ में नहीं आ रहा था |...और फिर थोड़ी देर बाद ही आ गए थे वापस छत पर सुदीप भैया | पुनीत को इक रत्ती का कुछ भेजे में ना घुसा | वो खुद को रोक नहीं पाते हुये पूछ ही पड़ा एकदम से-

       “सुदीप भैया, आप क्यों जाकर वहाँ बैठ गए थे नीचे?”

...और जवाब में सारे भैया लोगों के समवेत जोरदार ठहाके से गूंज उठी थी वो छत | पुनीत का मुँह रूआँसा सा हो आया था और तभी सुदीप भैया ने उसे गोदी में उठाते हुये ज़ोर का पप्पी लिया उसके गालों पर और बाकी भैया लोगों को डाँट लगाते हुये कहा था-

       “तोमरा ओके विरेक्तो केनो कोरो...क्यों तंग करते हो तुम सब पुन्नू मियाँ को? एटा आमार जान...जान है मेरी ये, समझे ! कोई इसे छेड़ेगा तो भालो होबे ना !”

       “sss बाबू मोशाय आर तोमार जान....की भालो...बब्बा रे !”  भैया लोगों में से किसी ने आँखें नचाते हुये कहा था जवाब में |

       उस रात देर तक सोचता रहा था पुनीत, सुदीप भैया और शाम वाली घटना पर | उसका बहुत मन कर था कि सलोनी दी से पूछे इस बारे में | लेकिन हिम्मत नहीं पड़ रही थी | एक तो दी का बोर्ड करीब आ गया था और हर समय मगन रहती थीं किताब-कॉपी के साथ, दूसरा उसे इन दिनों दी अच्छी नहीं लगती थी | पहले दी उसे भगाया नहीं करती थीं, जब भी मीनी दी और सॉम्पी दी आती थीं गप्पें लड़ाने या साथ पढ़ाई करने | आजकल भगा देती थीं उसे कहकर कि जाओ अपने दोस्तों के साथ खेलो, जबकि पुनीत को बड़ा मन करता था मीनी दी और सॉम्पी दी के साथ सट कर बैठने का | उसे सलोनी दी की दोनों सहेलियाँ बहुत अच्छी लगती थीं | सलोनी दी के हाथ जहाँ उसे रूखे-रूखे कड़े से लगते थे...कई बार तो थप्पड़ खा चुका था वो उन हाथों से...वहीं मीनी दी और सॉम्पी दी के हाथ इतने मुलायम और गुदगुदे से थे कि उसका मन करता बस उन्हें छूते ही रहे |

       उसी अटपटी-सी शाम के चंद दिनों बाद ही उसे घेरे रहने वाले रहस्यमय वृत की परिधियों का एक अलग ही विस्तार हुआ था, जब वो प्रदीप के घर गया था चिलचिलाती दोपहरी में सलोनी दी का कोई नोट्स लेकर मीनी दी को देने | बैठक-खाने में मीनी दी दिखी उसे...सोफे पर बेसुध सोये हुये, चित्त, तेज आवाज के साथ घूमते टेबल-फैन की हवा में | जाने क्या था कि अकबका कर देखता रह गया था वो | मीनी दी की धीमे-धीमे चढ़ती-उतरती साँसों का वो साक्षात दृश्य जाने क्यों उसे डायना की वो कॉमिक्स वाली तस्वीर की याद दिला रहा था...वो बगैर शर्ट वाली डायना बस कुछ छोटा-सा उजले रंग का पहने हुये | उसके मन का अंधेरे में डूबा हुआ एक भयभीत कोना उसे विवश कर रहा था कि आगे बढ़ कर वो झांक ले मीनी दी की चढ़ती-उतरती साँसों के पीछे कि क्या उन्होने भी डायना की तरह वो उजला-सा कुछ पहना हुआ है अंदर अपने कुर्ती के | एक अजीब-सी सनसनी उठी थी उसके नन्हें वजूद में, जो उसे उस भीषण गर्मी में भी सर्दी का आभास करा रही थी ...और एकदम से भाग आया था वो वहाँ से, नोट्स वहीं टेबल-फैन के पास रख कर |

       उसकी उलझनें बढ़ती जा रही थी| जहाँ एक ओर उसे सलोनी दी के पास फटकने का मन नहीं करता था, वहीं उसे मीनी दी और सॉम्पी दी से चिपके रहने का मन करता रहता था |

       दिन बस उड़ते जा रहे थे | सर्दी की अलसायी-सी दोपहर थी वो, जब सलोनी दी अपनी दोनों सहेलियों के साथ किताबों में उलझी हुई थीं और पुनीत स्कूल से वापस आया था | दरवाजे के बाहर उसने सुनी थी फुसफुसा कर कही गई मीनी दी की बात...

       “सुदीप भैया बहुत लाइक करते हैं तुमको, सलोनी |”

       जिसपे सॉम्पी दी खिलखिला कर हँस पड़ी थीं और सलोनी दी ने अपने लाल हो आये चेहरे के साथ “चुप रहोगी तुमदोनों !” की फुंफकार भरी थी, पुनीत को अंदर आते हुये देख कर |

       एक पर एक कर के उलझन की परतें मोटी होती जा रही थीं पुनीत के नन्हें से मन पर | कितनी ही बातें तो थीं...क्यों सलोनी दी एकदम लाल-सी हो गई थीं उस दिन मीनी दी की बात पर ?...सुदीप भैया तो उसे भी लाइक करते हैं, लेकिन मीनी दी ने उस से तो कभी नहीं कहा ऐसे फुसफुसा कर ?...वो क्या था कुछ सर्द-सर्द सा अहसास कि मीनी दी की वो नींद में चढ़ती-उतरती साँसों वाला दृश्य अब उसे डायना की तस्वीर देखने की ज़रूरत नहीं महसूस होने देता ? …क्या होता था रह-रह कर सुदीप भैया को कि वो उसे दुलार करते हुये अपने से चिपटा लेते और बुदबुदाते “जान हो मेरी तुम” ? ...या फिर ऐसे ही वो दिन भर में क्यों दसियों बार सलोनी दी का हाल-चाल पूछते रहते थे ? ...ऐसे जाने कितने ही सवाल थे जिनका कोई जवाब तो उसे मिलता नहीं...हाँ, उसे असहज, बहुत असहज जरूर कर देते थे |

       ...उन्हीं पहेलियों से उलझे-फुलझे दिनों में गाँव से दादा जी के देहांत की ख़बर आई थी...पापा को पहली बार हिचक-हिचक कर देखा था उसने रोते हुये मम्मी को पकड़ कर...और अगले ही दिन निकल गए थे वो लोग गाँव के लिए | दादा जी के दाह-संस्कार के बाद देखते-देखते कितने दिन गुज़र गए और महीनों बाद गाँव में डेरा डाले जब उसका एडमिशन वहीं के स्कूल में करवा दिया था मम्मी ने, तो तब पुनीत को पता चला कि वो लोग अब वापस नहीं जा रहे | दादी के अकेले रह जाने और गाँव में खेती-बारी की देखभाल के लिए पापा ने वहाँ से तबादला करवा लिया था |

       सलोनी दी को एक साल ड्रॉप करना पड़ना बोर्ड के लिये और वो बड़ी उदास-उदास सी रहने लगी थीं इन दिनों, लेकिन नए माहौल और नए स्कूल में ढेर सारे नए दोस्त बन गए थे पुनीत के | शहर से आया हुआ पुनीत अपने गाँव के हमउम्र बिसात में किसी हीरो से कम न था और अब तो भूल भी गया था वो ईंट बिछी वाली गली के इर्द-गिर्द बसे उस रेलवे कॉलोनी में गुजरे दिनों को |

       बीतते वक़्त की ऊपर जाती सीढ़ी पर चढ़ता हुआ किशोर हो चुका पुनीत, उम्र की कैंची से पुराने गोल-गोल अनगिनत परिधियों वाले वृत की कई परतें काट चुका था अब तलक और तन-मन से जुटा हुआ था आने वाले मैट्रिक परीक्षा की तैयारी में | उधर सलोनी दी का ग्रैजुएशन संपन्न होने वाला था और उनकी शादी के लिए लड़के देखे जाने लगे थे | नई उमंगों और नए उल्लासों से भरे उन्हीं दिनों की चमकती रौशनी में भेटायी थी रजनी उसको, अपनी साँवली-सी शीतल छाया लिये | अभी ही उठ कर आए थे रजनी के परिवार वाले बगल के गाँव से, जब उफनती नदी अपने किनारे तोड़ते हुये हड़हड़ाती हुई आ गई थी एक रात एकदम से उनके गाँव में और उस गाँव के कई परिवार समेत रजनी के परिवार को भी आश्रय लेना पड़ा था पुनीत के गाँव में...रजनी, रजनी के मम्मी-पापा, उसका छोटा भाई अंकित और उसकी बड़ी दीदी सुनीता | कैसा तो एक उत्सव का सा माहौल हो गया था अचानक से गाँव में जब नए परिवारों को बसाने और उनकी मदद के लिये समस्त गाँव वाले एकजुट होकर उमड़ पड़े थे | बारी-बारी से गाँव के लोगों ने उन विस्थापित परिवारों को खाना खिलाने का जिम्मा ओढ़ लिया था | कोई जलती-सी दोपहर थी वो, जब रजनी के परिवार वालों को खाना खिलाने की बारी पुनीत की मम्मी की थी | मम्मी और सलोनी दी के साथ वो भी गया था रोटियों की परात उठाये | वहीं देखा था उसने पहली बार रजनी को और कैसा-तो-कैसा हो गया था वो...जैसे अचानक से गाँव के किनारे वाला आम का बगीचा अपनी पूरी-की-पूरी छांव लिये वहाँ से उठकर चलता हुआ इधर आ गया हो उसके ऊपर |

       गरम लू से छटपटाता मौसम उसे अब बार-बार ले जाता रजनी की ओर शीतल छांव के लिये और उसी छटपटाते मौसम की कोई पिघलती-सी शाम थी, जब अपने दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलते हुये पुनीत ने नन्हें अंकित को देखा था चुपचाप मैदान के एक कोने में बैठे उन्हें खेलते देखते हुये | उसने बुलाया था अंकित को पास और पूछा था उस से “बैटिंग करोगे ?” ...और किलकते से अंकित की नन्ही मुंडी को उल्लसित हामी में हिलते देख शाम की तरह पुनीत भी तो पिघल ही गया था | तमाम दोस्तों की नागवारी के बावजूद अंकित को एक ओवर फेंकने के बाद, जब पुनीत को मन किया कि उसको और बैटिंग करवाये...उसी क्षण, ठीक उसी क्षण, भक्क से उसे सुदीप भैया याद आए थे |

       दिव्य ज्ञान जैसा कुछ जो भी होता है, जो गौतम बुद्ध को बरगद की छांव तले प्राप्त हुआ था...पंद्रह साल के पुनीत को उस रोज़ बॉलिंग करते हुये हो गया | 
     
       देर शाम गए जब घर लौटा तो जश्न का सा माहौल था आँगन में | मम्मी ने उसे देख कर गले से लगा लिया | सलोनी दी का रिश्ता पक्का हो गया था | दादी सबको लड्डू खिला रही थीं |

       और सलोनी दी को छेड़ता हुआ पुनीत उनसे सुदीप भैया के बारे में पूछने की हिम्मत जुटा रहा था |


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11 comments:

  1. कितने अच्छे से गौतम भाई आपने रिश्तों और मन की उलझनों को सुलझाया है

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  2. वाह !!!! जिस बारीकी से शेर गढ़ते हो उसी अंदाज़ से कहानी और उसके पात्र --- कमाल करते हो गौतम -- जियो

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  3. सच में बाल मन में कई प्रश्न बवाल मचाते रहते हैं और बाद में वही सब सहज लगने लगता है ...

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  4. हंस मे पढ़ी है ये कहानी बहुत सुगढ़ घडाई अंतर्मन के भावो की

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  6. नम कर दिया भाई.. !
    बाल-मन के लगातार किशोर होते जाने को जिस आत्मीयता से बुना है आपने.. हर उस बचपन की ’जी हुई’ घटना शाब्दिक हुई जो ’कॉलोनियों’ में बड़ा हुआ होता है.
    कॉलोनियाँ न गाँव होती हैं, न शहर, न कस्बा.. वे तो बस कॉलोनियाँ होती हैं. ऐसे शिद्दत से कॉमिक्स यहीं पढ़े जाते हैं.

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  7. सार्थक प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (28-01-2015) को गणतंत्र दिवस पर मोदी की छाप, चर्चा मंच 1872 पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  8. जिन्‍दगी की उन सच्‍चाइयों को रेखांकित करती कहानी, जो शैशवास्‍था से किशोरावस्‍था में हाेते हुए युवावस्‍था तक मन को सालती हैं। लाजवाब कहानी।

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  9. बहुत ही लाजबाब कहानी , जो समस्‍त भावों को बहुत कुशलता से प्रकट करती है। बधाई

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