ये एक रफ-ड्राफ्ट सा कुछ प्रतिक्रिया के तौर पर...वागर्थ के विगत कुछ अंकों को पढ़ने के बाद-
अपनी ही लिखी कविताओं के मोह में उलझे महाकवियों के वर्तमान दौर में कायम उनके लीन-पैच के नाम...
अपनी ही लिखी कविताओं के मोह में उलझे महाकवियों के वर्तमान दौर में कायम उनके लीन-पैच के नाम...
लॉन्ग नाईन्टीज या नर्वस नाईन्टीज...?
...की तब जब कविता हर सफे, हर वरक पर असहाय कराहती
नजर आ रही थी, आत्म-मुग्ध कवियों की एक टीम बाकायदा
बैंड-बाजे के साथ सामने आती है और एक दशक-विशेष पर चर्चा के बहाने अपने नामों और
अपनी ही कविताओं का फिर-फिर से ढ़ोल बजाती है |
...मुझे लेकर “तू कौन बे?” की तर्ज पर असंख्य
भृकुटियाँ टेढ़ी होकर उठेंगी इन्हीं बड़े नामों की....तो मैं
तुम सब का पाठक, मेरे प्रबुद्ध कविवरों, जो तुम्हारी कविताओं की किताबें अपने खून-पसीने की कमाई से खरीदता है और
पढ़ता है...और हाँ, ये कोई क्लिशे नहीं,
सचमुच के बहाये गए खून और माइनस जीरो डिग्री में भी निकाले गए पसीने की कमाई की
बात कर रहा हूँ | ...तो एक तरह का हक समझ बैठता हूँ तुम्हारी
इस आत्म-मुग्धता पर कुछ कहने का, मेरे महाकवियों |
...बड़े सलीके से एक प्रश्नावली बुनी जाती है और फिर उतने ही
सलीके से चयनीत नामों की एक फ़ेहरिश्त को वो प्रश्नावली भेजी जाती है... कभी सुना
था कि नई-कहानी नामक तथा-कथित आंदोलन के पार्श्व में कहानिकारों की एक तिकड़ी ने
सुनियोजित साज़िश रच कर एक सिरे से हिन्दी-कहानी के तमाम शेषों-अशेषों-विशेषों को
नकारने की ख़तरनाक सुपाड़ी उठाई थी | कुछ वैसा ही प्रयास हुआ है इस लॉन्ग
नाईन्टीज विमर्श के बजरीये |
सलीके की बुनावट इस कदर कि कोई नाराज़ भी न हो, कोई
विवाद भी ना उठे...लेकिन पाठकों द्वारा नकारी हुई अपनी कविताओं पर चर्चा भी हो
जाये | काश कि इतना ही सलीका तुमने अपने शिल्प और कविता की
कविताई पर भी दिखाया होता...!!!
टीम-चयन के दौरान पहले तो एक कवि-विशेष को पूर्व-पीढ़ी का
अंतिम कवि कहते हुये खारिज कर दिया जाता है और फिर तुरत ही उस कवि-विशेष द्वारा
एतराज जताने पर उन्हें अपनी पीढ़ी का प्रथम कवि मान लिया जाता है...हाय रेsss , इतनी उलझन तो भारतीय क्रिकेट-टीम के चयनकर्ताओं के दरम्यान भी नहीं हुई होगी टीम चुनते समय |
पहले सफाई दी जाती है कि “कविता या साहित्य में दशकवाद घातक
है...किसी दौर की रचना पर दशक के अनुसार विमर्श उचित नहीं” और फिर तुरत ही अपनी
दुदुंभी बजाने की उत्कंठा में ऐलान किया जाता है कि “किन्तु लॉन्ग नाईन्टीज समय का
प्रस्थान बिन्दु है”... जिसे पढ़कर कविताई-आतंक से खौफ़ खाये हम पाठक मुस्कुराने लगते
हैं इस शातिरपने पर |
कैसी कविता, कहाँ की कविता कि जिसके सत्यापन के लिए एक
पत्रिका के तीन से चार अंकों में जाने कितने पन्ने काले कर दिये गये तुमने, मेरे श्रद्धेय कविवरों...हम कविताशिक पाठक जो तुम्हारे गद्य के
अनुच्छेदों की ऊपर-नीचे कर दी गई पंक्तियों को तुम्हारे द्वारा कविता कह दिये जाने
पर आँख मूँद भरोसा कर लेते हैं और पढ़ते जाते हैं कि एक जुमले में ही सही, कहीं तो कविता का कवितापन दिख जाये...मगर हाय रे हतभाग ! निराला के
“मुक्त-छंद” के आह्वान को कब तुमने चुपके-चुपके “छंद-मुक्त” बना दिया और बैठ गये
विमर्श भी करने उस पर | कितना अच्छा होता कि इतने सारे व्यतीत
पन्नों पर अपनी कवितायें ही दे देते, कम-से-कम ये मोहभंग की
स्थिति तो नहीं आती...उधर, पश्चिम में,
जानते तो होना मेरे कविवरों कि वो “फ्री-वर्स” ही है अब तलक...किसी ने “वर्स-फ्री”
बनाने की हिमाकत नहीं की है | लेकिन हम तो तुम्हारे पाठक
हैं...तुम्हारी इस हिमाकत पर भी पढे जाएँगे तुमको, गुने
जाएँगे तुमको...
तट पर खड़े होकर भी तटस्थ ना दिखते लॉन्ग नाईन्टीज की ये
पीढ़ी- हमारे प्यारे-दुलारे कवियों की ये पीढ़ी, गर्दन तक किस कदर बहती
धार में डूबी लहरों के साथ बही जा रही है, इसका आभास
इनकी कविताओं से जो अब तक हो ना पाया था, इस कथित विमर्श से
अवश्य हो गया | नवाज़िश करम शुक्रिया मेहरबानी...
-एक बौखलाया कविताशिक
शांत कर्नल साहब शांत। सारी कविता पढ़ने लायक नहीं होती। बहुत कुछ छोड़ने लायक भी होती है। जैसे जिंदगी वैसे ही कविता। पढ़ते पढ़ते डू एंड डोंट्स विकसित हो जाती है। कुई कविता का शिल्प और शैली कभी नहीं सीख पाते, ना ही उसे सार्वभौमिक बना पाने का हुनर रखते हैं। उंगली पर गिने हुए कवि हुए हैं, बाकी सब फाॅर्मेट है।
ReplyDeleteमैं अक्सर सुनता हूं कि लाइनों के आगे पीछे, और इंटर मार देने की कथा। जैसा खिलवाड़ हुआ है, शक होना लाजमी भी है और दो पैरा अगर कहीं से निकाल भी दें तो कहीं कोई फर्क नहीं पड़ेगा। सुधाीश पचैरी का एक लेख याद आ रहा है कि अब के कवियों के उनकी अपनी कविता याद नहीं रहती क्योंकि वो मुक्त छंद लिखते हैं। पैरा आगे पीछे सुना जाते हैं।
मैं पूछता हूं कि इतना ज्यादा पढ़ने की जरूरत क्या है? जो है और जिनपर भरोसा है आप उन्हें ही पढ़े शउर आ जाने के लिए और आपमें प्यास जगाने के लिए वो काफी है।
असल में हम जल्दबाज लोग हैं। कविता के मसले पर बहुत हाॅच पाॅच है लेकिन अगर अपनी बात करूं तो कहीं न कहीं एक बेहतर कविता की समझ का आत्मविश्वास भी है। चमकते चेहरे आज दो तरह की कविताएं लिख रहे हैं एक तो बस एक अपनी अनुभूति दूसरे सिनेमा देख देख कर वहां से निकाला हुआ माल जो आम आदमी के जीवन की सच्चाई से बहुत दूर है। कुछ ने तो बाकायदा इलीट क्लास को ऐम किया हुआ है।
इतना मत पढि़ये। मौलिकता का क्षरण और हनन हो जाएगा।
काहे शांत रहें, सागर ? पैसे खर्च करके पत्रिकाएँ मंगाओ, किताबें खरीदो और पढ़ो तो वही-वही नाम... तुम अपने कमेन्ट में मेरे लिखे से टेंजेंट पर चले गये हो| मेरी शिकायत इन शातिर विमर्शों से है प्यारे| नाईन्टीज का ठप्पा लगा कर ये एलीट क्लास अपने से पहले वालों को खारिज करने का प्रयास करती है और फिर उसके आगे चतुराई से "लॉन्ग" लगा कर अपने से बाद वाली पीढ़ी को भी नकारती है|
Deleteदरअसल इस एलीट क्लास को अपने से बाद वाले दशक में एकदम से चमक कर उभर आई कवियों की पौध से घबड़ाराहट हो रही है और होनी भी चाहिये...कभी वक्त निकाल कर हो सके तो पढ़ना वागर्थ का दिसंबर, जनवरी और फरवरी का अंक| इस एलीट क्लास को इतना भी शउर नहीं कि ढंग से अपने बाद वाली इस चमकदार पौध का नाम ही ले ले |
बहुत सही कहा आपने। जो कुछ थे गणमान्य, जिनका प्रसारण होना चाहिए था वे दबे ही रहे।
Deletehttp://pahleebar.blogspot.in/2013/01/blog-post_1926.html
DeleteDekh raha hoon... download kiya hai... ek edition nahi mil raha...
क्या बात करते हो खुद अपने हाथों से अपना गला घोंट देंगे ये * कालजयी कवि * .... ये तो अपना ही नाम लेंगें और और *खुश* रहेंगे . वैसे उन के *खुश* (फहम) रहने में आने वाली पीढ़ी का फायदा हे । क्या समझे ?
Deleteखरी खरी :).
ReplyDeleteIs baar bandook kaviyon par lekin haal vohi kiya hai jo dushmano ka karte ho..Bahut khoob GAUTAM..
ReplyDeleteये छंद-मुक्ति तो कविता को ही लुप्त कर रही है..
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा आपने।
Deleteकुल मिलाकर आप भी कुछ नाम ही खोज रहे थे :-)
ReplyDeleteरंगनाथ जी ,गौतम ने वे नाम खोजे नहीं बल्कि जहाँ तक मैं समझती हूँ उन्हें केवल वही नाम ही मिले :)
Deleteचलिये इसी बहाने आपकी आमद तो हुई रंगनाथ जी | दरअसल पढ़ता तो खूब हूँ रंगनाथ जी, लेकिन लिखने का तौर अभी सीख ही रहा हूँ | अब आपकी बौद्धिक समझ का तो एक अरसे से कायल रहा हूँ, इसलिए उसपर प्रश्न-चिह्न लगाने की औकात तो है नहीं मेरी...जाहिर है कि कमी मेरे लिक्खे में ही रह गई कि आपको ऐसा कुछ प्रतीत हुआ|
Deleteशुक्रिया इस्मत आपा, मेरी लेखनी की अस्पष्टता को खोलने के लिये !
हम सब यही करते हैं , रंग नाथ भाई , कुछ खोजते हैं , न पा कर रिएक्ट करते हैं > नाम , यश , धन , ..... काश कविता का लक्ष्य इन में से एक भी चीज़ होता, !!! काश कविता फक़त एक रिएक्शन होती !!! !!!
Deleteनिराला के “मुक्त-छंद” के आह्वान को कब तुमने चुपके-चुपके “छंद-मुक्त” बना दिया
ReplyDeleteक्या बात कह दी तुम ने गौतम ,बिल्कुल मन की बात
सच में कभी कभी तो कविता की लयात्मकता सिरे से दिखती ही नहीं, लगता है गद्य को छोटी बड़ी पंक्तियों में लिखकर कविता का रूप देने का प्रयास भर है, मन खिन्न हो जाता है पर करें भी तो क्या करें "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" के साथ साथ विधा की भी स्वतंत्रता है आप को जो गद्य लग रहा है आवश्यक तो नहीं है कि रचनाकार भी इस बात से सहमत हो जाए :)उस के दृष्टिकोण से वो पद्य है तो है आप मानें या न मानें ये उस की समस्या नहीं है :)
बहर हाल तुम्हारी भावनाओं को बख़ूबी समझती हूँ ,,बहुत अच्छा लगा कि किसी ने तो इस विषय पर लिखा ,,ख़ुश रहो
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteसाझा करने के लिए आभार!
अब वागर्थ, हंस, कथाक्रम इत्यादि इत्यादि को कौन (मूर्ख?) पढ़ता है?
ReplyDeleteअब तो दुनिया रचनाकार.ऑर्ग, जानकीपुल, अभिव्यक्ति.कॉम इत्यादि इत्यादि पढ़ती है, जहाँ ऐसी कलाबाजियाँ नहीं होती हैं :)
गौतम जी, बिलकुल सच बात कही है, विमर्श रचना से हट कर रचनाकारों और कवियों पर केन्द्रित हो जा रहा है | हिंदी कविता भी उत्पाद बन रही ही जिसे पाठकों की नहीं वरन प्रचार के सहारे की जरुरत है | आपका आक्रोश आज के आम पाठक का साझा आक्रोश है |
ReplyDeleteएक बौखलाए कविताशिक को पढ़कर आनंद आ गया , हालाँकि किसी के मायूसी और बौखलाहट पर आनंद लेना सभ्यता तो नहीं मानी जा सकती !
ReplyDeleteकविताशिक को केवल एक संतोष होना चाहिए कि उनसे सहमत तो हूँ ही , मगर हम सब असहाय हैं ...
बस्स्स ..
LIKE karne ke siva koi option nahin dikh rahi hai
ReplyDeleteपसन्द अपनी अपनी ....... अब यह तो ज़रूरी नहीं कि गौतम राजर्षि भी वही सब पसन्द करें जो हिन्दी के कथित नामवर लोग . जो भी हो चाहे किसी भी फॉर्म मे सही , कविता आज भी ज़िन्दा है . वह मरी नहीं . लोंग लिव पॉयट्री !!
ReplyDeleteआपको यह प्रतिक्रिया 'वागर्थ' को अवश्य भेजनी चाहिए थी। अब भी भेज सकते हैं।
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