...और अब जब आहिस्ता-आहिस्ता बर्फ पिघलने लगी है तो दबे-से झुके-से परबतों
के कंधे तनिक सहज होने लगे हैं |
पिछले सात-आठ महीनों से लगातार बर्फ की परत दर परत उठाए इन परबतों के
कंधों से हल्के हो रहे बोझ का उत्सव मनाने एक ग़ज़ल उठती है और
सजती है...अपने पारम्परिक लिबास को तज कर...थोड़ा-सा कैजुअल होती हुयी हल्के-फुल्के
मेकअप में...
बंधा धागे से था फिर भी वो बेचारा
मचल उट्ठा
उड़ी बाजू में इक तितली तो गुब्बारा
मचल उट्ठा
हवा का ज़ोर था ऐसा, रिबन करता तो क्या करता
मनाया लाख ज़ुल्फों ने, वो दोबारा मचल उट्ठा
गली के पार अधलेटा-सा ओसारा
मचल उट्ठा
बजी घंटी, दुपट्टे खिलखिलाते क्लास से
निकले
अचानक सूने-से कॉलेज का गलियारा
मचल उट्ठा
बस इक उँगली छुई थी चाय की प्याली
पकड़ते वक़्त
न जाने क्यूँ समूचे जिस्म का
पारा मचल उट्ठा
पुराना ख़त निकल आया पुरानी फाइलों
से जब
उठी ख़ुशबू कि ऑफिस यक-ब-यक सारा
मचल उट्ठा
छबीले चाँद ने बादल के चिलमन
को उठाया यूँ
फ़लक पर ऊँघता बैठा हर इक तारा
मचल उट्ठा
बुझा था बल्ब कमरे का, अकेली रात आधी थी
सुलगती याद इक चमकी कि अँधियारा
मचल उट्ठा
{त्रैमासिक अर्बाबे-क़लम के अप्रैल-जून 2013 अंक में प्रकाशित}
...ग़ज़ल सुन कर ठहाके लगाते ये सारे परबत बची-खुची बर्फ को भी अपने कंधे हिलाकर-हिलाकर
कर उतार फेंकने की मशक्कत करने लगे हैं |
बहुत खूब! गुब्बारे की हवा देर तक सलामत रहे। गुब्बारा ऐसे ही मचलता रहे।
ReplyDeleteउम्दा ग़ज़ल..बधाई।
ReplyDeleteयह तो याद रहेगा..
बस इक उँगली छुई थी चाय की प्याली पकड़ते वक़्त
न जाने क्यूँ समूचे जिस्म का पारा मचल उट्ठा
.
ReplyDelete.
.
उठाया सुबह ने पर्दा तो ली खिड़की ने अंगड़ाई
गली के पार अधलेटा-सा ओसारा मचल उट्ठा
वाह, उम्दा ग़ज़ल... यादगार शेर...
...
बहुत सुन्दर, हिमखण्ड भी पिघल पिघल कर प्रसन्नता व्यक्त कर रहे हैं।
ReplyDelete"बस इक उँगली छुई थी चाय की प्याली पकड़ते वक़्त
ReplyDeleteन जाने क्यूँ समूचे जिस्म का पारा मचल उट्ठा "
क्या बात है ... बहुत खूब सरकार ... जय हो ... यह गर्मी मुबारक हो !
छबीले चाँद ने बादल के चिलमन को उठाया यूँ
ReplyDeleteफ़लक पर ऊँघता बैठा हर इक तारा मचल उट्ठा
बहुत खूब...क्या खूब रंग जमाया है...बधाई
पढ़ कर ये बेहतरीन ग़ज़ल, दिल हमारा मचल उट्ठा
ReplyDelete:-)
अनु
बस इक उँगली छुई थी चाय की प्याली पकड़ते वक़्त
ReplyDeleteन जाने क्यूँ समूचे जिस्म का पारा मचल उट्ठा
गज़ब ....
उकेरे हैं एहसासों के यूँ शब्द दर शब्द कि
ब्लॉग का यह पन्ना खुद ही इत्र हो उट्ठा.:)
आपकी सर्वोत्तम रचना को हमने गुरुवार, ६ जून, २०१३ की हलचल - अनमोल वचन पर लिंक कर स्थान दिया है | आप भी आमंत्रित हैं | पधारें और वीरवार की हलचल का आनंद उठायें | हमारी हलचल की गरिमा बढ़ाएं | आभार
ReplyDeleteBahut khub....
ReplyDeleteबहुत खूब.. .
ReplyDeleteमतले को पढ पढ कर झूम रहे हैं भाई जी.. .
शभम्
इस गजल में कुछ अलग ही है, जिससे पढ़ने को जी चाहता है ।
ReplyDeleteकमाल कमाल कमाल कैसे लिखते हो इस तरह की अद्भुत ग़ज़ल गौतम ? हमें भी सिखा दो भाई तुम्हारे गुण गायेंगे---सच्ची .
ReplyDeleteनीरज
छबीले चाँद ने बादल के चिलमन को उठाया यूँ
ReplyDeleteफ़लक पर ऊँघता बैठा हर इक तारा मचल उट्ठा..........बहुत बढ़िया।
गौतम जी क्या बात है। ग़ज़ल को नया अंदाज दे रहे हैं आप। ओसारा, गलियारा जैसे शब्दों से इसमें एक नयी चमक पैदा हुई है। गर इजाजत हो तो हम कहीं और भी इसका इस्तेमाल कर लें,मानी हुई बात है आपको पूरा तवज्जो देते हुए। अच्छा लगा यहां आकर। शुक्रिया।
ReplyDeleteप्रमोद तिवारी
ये कैसा गज़ब ढाया, ये क्या कमसिन गज़ल लिख दी ।
ReplyDeleteकिसी का हाल क्या बोलें, बस ब्लॉगबाडा मचल उठ्ठा ।
पहाड़ों की बरफ पिघलने से इतनी सुंदर गज़ल निकलती है यह तो पता ही नहीं था. लेकिन आनन्द आ गया पढ़ कर.
ReplyDeleteBadalte mausam ko behad haseen jama pehna diya aapne..
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