नहीं मंजिलों में है दिलकशी...न, बिलकुल नहीं ! मोबाइल के उस पार दूर गाँव से माँ की हिचकियों में लिपटे आँसू भी कहाँ इस दिलकशी को कोई मोड दे पाते हैं| क्यों जा रहे हो फिर से? अभी तो आए हो?? सबको ढाई-तीन साल के बाद वापस जाना होता है, तुम्हें ही क्यों ये चार महीने बाद ही??? रोज उठते इन सवालों का जवाब दे पाना कश्मीर के उन सीधे-खड़े पहाड़ों पे दिन-दिन रात-रात ठिठुरते हुये गुजारने से कहीं ज्यादा मुश्किल जान पड़ता है|
... छुटकी तनया के जैसा ही जो सबको समझाना आसान होता कि पीटर तो अभी अपना दूर वाला ऑफिस जा रहा है| बस जल्दी आपस आ जायेगा| देर से आने वालों के लिये, तनया चार साल की हुई है और पीटर पार्कर उसका पापा है और वो अपने पापा की मे डे पार्कर :-)
....बाहर पोर्टिको में झाँकती बालकोनी के ऊपर अपनी मम्मी की गोद में बैठी आज समय से पहले जग कर वो अहले-सुबह अपने पीटर को बाय करती है और दिन ढ़ले फोन पर उसकी मम्मी सूचना देती है कि शाम को पार्क में झूला झूलने जाने से पहले वो दरियाफ़्त कर रही थी कि पीटर आज ऑफिस से अभी तक क्यों नहीं आया| समय कैसे बदल जाता हैं ना...मोबाइल के उस पार वाली माँ की हिचकियाँ पीटर को उतना तंग नहीं करतीं, जितना मे डे का ये मासूम सा सवाल और हर बार की तरह पीटर इस बार भी सचमुच का स्पाइडर मैन बन जाना चाहता है कि अपनी ऊंगालियों से निकलते स्पाइडर-वेब पे झूलता वो त्वरित गति से कभी मम्मी की हिचकियों को दिलासा दे सके तो कभी वक़्त पे ऑफिस से वापस आना दिखा सके मे डे को ...कि उसे प्रकाश सहित व्याख्या न देना पड़े खुल कर उसके अपने ही उसूल का:- विद ग्रेटर पावर, कम्स ग्रेटर रिस्पोन्सिबिलिटी
...सच तो! कितना मुश्किल है इस उसूल की व्याख्या और वो भी प्रकाश सहित इस दौर में, जब फेसबुक पे लहराते हुये स्टेटस ही शायद फलसफे बन गए हैं मायने जीये जाने के और जिसका छुटकी मे डे को जरा भी भान नहीं | आयेगी वो भी कुछ सालों बाद इसी फलसफे को नए मायने देने-शर्तिया| लेकिन क्या जान पाएगी वो कि ग्रीन गोबलिन या डा० आक्टोपस के करतूतों की फिक्र इन तमाम फेसबुकिये स्टेटसों को नहीं? क्या समझ पायेगी वो कि ऐसे तमाम गोबलिन और आक्टोपस के लिए कितने पीटरों को अपनी मे डे को छोड़ कर जाना ही पड़ता है? क्या समझ पायेगी वो कि ये तमाम संवेदनायें जो स्टेटस में शब्द-जाल उड़ेलते रहते हैं, वो महज चंद लाइक और कुछ कमेंट्स इकट्ठा करने के लिए होते हैं या फिर ग्रेटर पावर अर्जित करने की कामना में कथित ग्रेटर रिस्पोन्सिबिलिटी का चोगा भर होते हैं ...और कुछ नहीं| शायद समझे वो....शायद न भी! उसकी समझ या नासमझ वक़्त रहते खुद-ब-खुद आयेगी, लेकिन माँ की उमड़ती हिचकियों को कैसे समझाये पीटर कि उसका फिर से जाना उसके खुद के लिए जितना जरूरी है उतना ही जरूरी बड़ी होती मे डे के लिए भी है जो बाद-वक़्त अपने पीटर पे घमंड करते हुये फेसबुकीये स्टेटसों में सिमट आये जीने के मायने को अपना उसूल देगी|
है न मे? बस इसलिए तो ....मुझे फिर सफर की तलाश है :-)
... छुटकी तनया के जैसा ही जो सबको समझाना आसान होता कि पीटर तो अभी अपना दूर वाला ऑफिस जा रहा है| बस जल्दी आपस आ जायेगा| देर से आने वालों के लिये, तनया चार साल की हुई है और पीटर पार्कर उसका पापा है और वो अपने पापा की मे डे पार्कर :-)
....बाहर पोर्टिको में झाँकती बालकोनी के ऊपर अपनी मम्मी की गोद में बैठी आज समय से पहले जग कर वो अहले-सुबह अपने पीटर को बाय करती है और दिन ढ़ले फोन पर उसकी मम्मी सूचना देती है कि शाम को पार्क में झूला झूलने जाने से पहले वो दरियाफ़्त कर रही थी कि पीटर आज ऑफिस से अभी तक क्यों नहीं आया| समय कैसे बदल जाता हैं ना...मोबाइल के उस पार वाली माँ की हिचकियाँ पीटर को उतना तंग नहीं करतीं, जितना मे डे का ये मासूम सा सवाल और हर बार की तरह पीटर इस बार भी सचमुच का स्पाइडर मैन बन जाना चाहता है कि अपनी ऊंगालियों से निकलते स्पाइडर-वेब पे झूलता वो त्वरित गति से कभी मम्मी की हिचकियों को दिलासा दे सके तो कभी वक़्त पे ऑफिस से वापस आना दिखा सके मे डे को ...कि उसे प्रकाश सहित व्याख्या न देना पड़े खुल कर उसके अपने ही उसूल का:- विद ग्रेटर पावर, कम्स ग्रेटर रिस्पोन्सिबिलिटी
...सच तो! कितना मुश्किल है इस उसूल की व्याख्या और वो भी प्रकाश सहित इस दौर में, जब फेसबुक पे लहराते हुये स्टेटस ही शायद फलसफे बन गए हैं मायने जीये जाने के और जिसका छुटकी मे डे को जरा भी भान नहीं | आयेगी वो भी कुछ सालों बाद इसी फलसफे को नए मायने देने-शर्तिया| लेकिन क्या जान पाएगी वो कि ग्रीन गोबलिन या डा० आक्टोपस के करतूतों की फिक्र इन तमाम फेसबुकिये स्टेटसों को नहीं? क्या समझ पायेगी वो कि ऐसे तमाम गोबलिन और आक्टोपस के लिए कितने पीटरों को अपनी मे डे को छोड़ कर जाना ही पड़ता है? क्या समझ पायेगी वो कि ये तमाम संवेदनायें जो स्टेटस में शब्द-जाल उड़ेलते रहते हैं, वो महज चंद लाइक और कुछ कमेंट्स इकट्ठा करने के लिए होते हैं या फिर ग्रेटर पावर अर्जित करने की कामना में कथित ग्रेटर रिस्पोन्सिबिलिटी का चोगा भर होते हैं ...और कुछ नहीं| शायद समझे वो....शायद न भी! उसकी समझ या नासमझ वक़्त रहते खुद-ब-खुद आयेगी, लेकिन माँ की उमड़ती हिचकियों को कैसे समझाये पीटर कि उसका फिर से जाना उसके खुद के लिए जितना जरूरी है उतना ही जरूरी बड़ी होती मे डे के लिए भी है जो बाद-वक़्त अपने पीटर पे घमंड करते हुये फेसबुकीये स्टेटसों में सिमट आये जीने के मायने को अपना उसूल देगी|
है न मे? बस इसलिए तो ....मुझे फिर सफर की तलाश है :-)
पढ़ कर आँखें भीग गयी हैं. मे जरूर समझेगी...अपने पीटर पर घमंड करते हुए.
ReplyDeleteअपना बचपन याद आता है...पापा की पोस्टिंग अक्सर दूर रहती थी...एक दिन संडे को मिलते थे पापा...बस.
सुबह सुबह रुला दिया..............। गॉड ब्लेस यू बच्चे । मेरे पसंदीदा पात्र स्पाइडरमैन और उसके शैतान मित्रों को कहानी में गूंथने के लिये धन्यवाद । तुम केवल मेडे के ही नहीं हम सबके हीरो हो । लो मेरी कमेंट नहीं करने की क़सम तो टूट गई ।
ReplyDelete"विद ग्रेटर पावर, कम्स ग्रेटर रिस्पोन्सिबिलिटी"
ReplyDeleteकाश कि हर कोई छुटकी मे डे के पापा पीटर पार्कर की तरह इतना जिम्मेदार होता, इतना उसूलो वाला होता तो कितने ही पीटर पार्कर अपनी अपनी छुटकी मे डे से कभी दूर न जाते और न ही उनको माँ की हिचकियों में लिपटे आँसुओ को कुछ समझाना पड़ता !
गर्व है मुझे कि मैं भी जानता हूँ एक ऐसे पीटर पार्कर को जो हर बार अपने दूर वाले ऑफिस जाता है सब कुछ जानते समझते हुये ... अपनी माँ और अपनी प्यारी छुटकी मे डे से दूर क्यों कि वो यह अच्छी तरह जानता है ... मानता है ... समझता है कि "विद ग्रेटर पावर, कम्स ग्रेटर रिस्पोन्सिबिलिटी" ।
जय हिन्द 'पीटर' !!
इतना भावुक और खूबसूरत (पोस्ट या फिर क्या कहें दिल की बात या रूह की बात)! ये एहसास बेशकीमती हैं और जब हम तक इतने पुरअसर तरीके से पहुंच रहे हैं तो समझा जा सकता है कि लिखते वक्त आप किन एहसासों में डूब-उतर रहे होंगे... ब्लॉग जगत में जिन चंद लोगों को पढ़ना हमेशा अच्छा लगता है, उनमें आप भी हैं..
ReplyDeletebhaiya ab kya bole.
ReplyDeletechup hai man ..aankhe nahi
एक दिन सपने में तुम जैसी,
ReplyDeleteकुछ देर बैठकर चली गयी ,
हम पूरी रात जाग कर माँ ,
बस तुझे याद कर रोये थे !
इस दुनिया से लड़ते लड़ते , तेरा बेटा थक कर चूर हुआ !
तेरी गोद में सर रख सो जाएँ, इस चाह को लेकर बैठे हैं !
शुभकामनायें गौतम !
आँखों में उमड़ते पानी को किसी तरह रोक धुंधला धुंधला सा पढ़ा अंत तक. छुटकी मे डे उन सब फेस्बुकियों से अलग होगी समझेगी अलग अहसास, जिम्मेदारी और फक्र करेगी अपने पीटर पार्कर पर जो उन लाइक फेस्बुकियों को नसीब नहीं.
ReplyDeleteहेट्स ऑफ टू यू पीटर, छुटकी मे डे एंड माँ!!!.
आप भी ना.......!
ReplyDeleteमत रहो ऐसे...........!!
मगर शायद पसंद आने के पीछे भी तो यही अंदाज़ है....!!!
ReplyDeleteईश्वर चिरंजीवी बनायें....!
SO Be It.....!!
मिलो तुम कभी तो खुशी खुशी, मुझे उस डगर की तलाश है।
ReplyDelete'विद ग्रेटर पावर, कम्स ग्रेटर रिस्पोन्सिबिलिटी' ..अब ये बात छुटकी तनया कैसे समझे अभी..पर समझ जायेगी एक दिन और फक्ख्र करेगी....तब वो भी कुछ ऐसा ही लिखेगी .और आँखें नम होंगी..उसके पीटर पार्कर की
ReplyDeleteघूम फिर कर फिर यहां लौट आई, तो आपको एक कविता पढ़वाने का मन किया - http://ahilyaa.blogspot.in/2012/01/blog-post_09.html। यह बच्ची तनया से थोड़ी बड़ी है, लेकिन आपको नहीं लगता कि यह तनया की ही कहानी है..
ReplyDelete.... ! ? ! ....
ReplyDeletemilna
kyooN zaroori hai...
samajh sakta hooN
गौतम साहब .....
ReplyDeleteसुबह सुबह ऐसी पोस्ट... क्या कहूं.
तनया शर्तिया आज नहीं तो कल समझेगी जरूर समझेगी . गोबलिन और ऑक्टोपस को पोस्ट में जोड़कर मे डे की हैसियत को और चमका दिया आपने...... ! मैं भी चंदौली आ गया हूँ ...... एक ख्वाहिश जो दिल्ली मे पूरी हो सकती थी मगर नहीं हो सकी, चलो फिर सही......!
विद ग्रेटर पावर, कम्स ग्रेटर रिस्पोन्सिबिलिटी
ReplyDeleteऔर एक जिम्मेदारी यह भी कि पाठकों को फनाह करना...
प्रिय गौतम,
ReplyDeleteफिर एक बार दिल को सुकून देने वाली पोस्ट.... कॉमिक कैरेक्टर्स को जिस तरीके से खुद के साथ ढला है वो यह बताता है कि किस तरह से आप चीजों को देखते हैं. देखने सुनने का यही नजरिया आपको औरों से जुदा करता है......... वैसे 'मे' और 'पीटर' का यह अंदाज रूह को छू गया......!
बेची और माँ को एक साथ समझाने की कोशिश और न समझा पाने की हताशा । एक आस भी कि बिटिया तो समझ ही जायेगीबडी होकर पर माँ .......................।
ReplyDeleteWith great power comes great responsibility.
जय हिंद ।
बेची नही बेटी पढें ।
ReplyDeleteपीटर की मे डे पार्कर को अपने स्पाइडरमैन पर गर्व होगा !
ReplyDeleteख़ुशी फासले तय करके पहुँचती है और अगली ख़ुशी के लिए फिर से सफ़र पर....!!!
ReplyDeleteनहीं मंजिलों में है दिलकशी, मुझे फिर सफर की तलाश है...:):):):):):)
ReplyDeleteकादम्बिनी के ताजा अंक में आपकी ग़ज़लें पढ़ीं... उम्दा लगीं.. यहां भी लिखते रहा कीजिए..
ReplyDeleteगौतम...क्या लिखते हो भाई...इतनी गहरी संवेदनाओं को शब्द देना सिर्फ तुम्हारे ही बस की बात है...पढ़ते हुए शब्द हिलने लगते हैं...और फिर देर तक बिना कुछ किये बैठे रहने का मन होता है...इश्वर तुम्हें दुनिया की सारी खुशिया दे...
ReplyDeleteनीरज
गौतम आज पढ़ पाई तुम्हारी ये पोस्ट और शायद पहली बार तुम्हारी माँ के मन की पीड़ा को समझ भी पाई तुम्हारे लिये यक़ीनन मुश्किल है माँ और बेटी को समझाना लेकिन तुम्हारी बीवी के लिये शायद उस से भी ज़्यादा मुश्किल है माँ को ,बिटिया को और सब से बढ़कर ख़ुद को भी समझाना ,,है न
ReplyDeleteबहरहाल नम आँखों से पढ़ा और धुंधली आँखों से ही लिख भी रही हूँ ,,लेकिन अब कुछ और लिखने की स्थिति में नहीं हूँ अल्लाह तुम को और तुम्हारे परिवार को ढेर सारी ख़ुशियाँ दे (आमीन)
भावुक और खूबसूरत पोस्ट...
ReplyDeleteजीते रहो पीटर !!!
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