दोस्त मेरे !
अच्छे लगते हो
अपनी आवाज बुलंद करते हुये
मुल्क के हर दूसरे मुद्दे पर
जब-तब, अक्सर ही
कि
शब्द तुम्हारे गुलाम हैं
कि
कलम तुम्हारी है कनीज़
बहुत भाते हो तुम
ओ कामरेड मेरे !
कवायद करते हुये
सूरज को मिलते अतिरिक्त धूप के खिलाफ
बादल को हासिल अनावश्यक पानी के विरूद्ध
बुरे तब भी नहीं लगते,
यकीन जानो,
जब तौलते हो तुम
चंद गिने-चुनों की कारगुजारियों पर
पूरी बिरादरी के वजन को
और तब भी नहीं
इंगित करते हो अपनी ऊँगलियाँ जब
दमकती वर्दी की कलफ़ में लगे
कुछ अनचाहे धब्बों पर
बेशक
शेष वर्दी कितनी ही
दमक रही हो,
तुम्हारी पारखी नजरें
ढ़ूँढ़ ही निकालती हैं धब्बों को
पसंद आता है
ये पैनापन तुम्हारी
नजरों का
कि
प्रेरित होता हूँ मैं इनसे
इन्हीं की तर्ज पर
पूरे दिल्लीवालों को
बलात्कारी कहने के लिये
नहीं, मैं नहीं कहता,
आँकड़े कहते हैं
"मुल्क की राजधानी में होते हैं
सबसे अधिक बलात्कार"
तुम्हारे शब्दों को ही उधार लेकर
पूरी दिल्ली को ये विशेषण देना
फिर अनुचित तो नहीं...?
कुछ इरोम शर्मिलाओं संग
एक मुट्ठी भर नुमाइंदों द्वारा
की गयी नाइंसाफी का तोहमत
तुम भी तो जड़ते हो
पूरे कुनबे पर
सफर में हुई चंद बदतमिजियों
की तोहमतें
तुम भी तो लगाते हो
तमाम तबके पर
...तो क्या हुआ
कि उन मुट्ठी भर नुमाइंदों के
लाखों अन्य भाई-बंधु
खड़े रहते हैं शून्य से नीचे
की कंपकपाती सर्दी में भी
मुस्तैद सतर्क चपल
चौबीसों घंटे
...तो क्या हुआ
कि उन चंद बदतमिजों के
हजारों अन्य संगी-साथी
तुम्हारे पसीने से ज्यादा
अपना खून बहाते हैं
हर रोज
तुम्हें भान नहीं
मित्र मेरे,
कि
इन लाखों भाई-बंधु
इन हजारों संगी-साथी
की सजग ऊँगलियाँ
जमी रहती हैं राइफल के ट्रिगर पर
तो शब्द बने रहते हैं गुलाम तुम्हारे
तो बनी रहती है कनीज़ तुम्हारी कलम
तो हक़ बना रहता है तुम्हारा
खुद को बुद्धिजीवी कहलाने का
सच कहता हूँ
जरा भी बुरे नहीं लगते तुम
हमसाये मेरे
कि
तुम्हारे गुलाम शब्दों का दोषारोपन
तुम्हारी कनीज़ कलम के लगाये इल्जाम
प्रेरक बनते हैं
मेरे कर्तव्य-पालन में
तुम्हीं कहो
कैसे नहीं अच्छे लगोगे
फिर तुम,
ऐ दोस्त मेरे...
फुट-नोट्स:-
नहीं, इसे कविता कहने की औकात नहीं है मेरी। बस कुछ अहसास हैं जो पैदा हुये हिंदी-युग्म के वार्षिक-सम्मेलन के दौरान मेरी एक सामान्य-सी टिप्पणी को हिन्दी-साहित्य के वरिष्ट विख्यात आलोचक श्री आनंद प्रकाश जी द्वारा खुद पर व्यक्तिगत रूप से ले लेने की बदौलत और बदले में पूरी सेना के खिलाफ़ उपजी उनकी प्रतिक्रिया की वजह से...और इन अहसासों की पूर्णाहुति हुई कंचन के आखिरी पोस्ट पर पनिहारन की अद्यतन टिप्पणी को पढ़ने के बाद।
लाखों अन्य भाई-बंधु
ReplyDeleteखड़े रहते हैं शून्य से नीचे
की कंपकपाती सर्दी में भी
मुस्तैद सतर्क चपल
चौबीसों घंटे...
चंद गिने-चुनों की कारगुजारियों के कारण बदनाम नहीं किये जाने चाहिए ...
यह व्यथा किसी भी बिरादरी के हर निर्दोष इंसान की है ....
कविता क्या ...पीड़ा ही है ...!!
अपने विचारो बेहद सटीक शब्द दिए है आपने ............. बेहद उम्दा रचना !!
ReplyDeleteशानदार अभिव्यक्ति............... हमें नाज़ है आप पर और अपनी सेना पर !!
जय हिंद ; जय हिंद की सेना !!
तो क्या हुआ
ReplyDeleteकि उन मुट्ठी भर नुमाइंदों के
लाखों अन्य भाई-बंधु
खड़े रहते हैं शून्य से नीचे
की कंपकपाती सर्दी में भी
मुस्तैद सतर्क चपल
चौबीसों घंटे
घनीभूत पीड़ा इसी तरह मुखर हो पाती है. सच है, चन्द लोगों की गलतियां उससे जुड़े पूरे समाज को बदनाम करतीं हैं. लेकिन ये भी सच है, कि निर्दोष लोग हर जगह अपनी पहचान बनाने और कायम रखने में सक्षम होते हैं.
Extremely pertinent & articulate!yes,some people tend to generalize so often & so quickly! Intellectuals are not necessarily intelligent!More often than not,they lack emotional intelligence..
ReplyDeleteSorry for writing the comment in English..thought its better than Roman Hindi..my profound apologies!
lajawaab chot hai us kalam pe jo likhti to bahut hai par karti kuch nahi....aapse bahut kuch seekhne ko milega.....likhne me bhi bhaavon me bhi...
ReplyDeleteउचित प्रतिक्रया है ये... वो सच कहना पड़ता है जो हम महसूस करते हैं.
ReplyDeleteएक मछली सारे तालाब को गन्दा करती है ...पर ये होना नहीं चाहिए...कविता में पीड़ा झलकती है..हमें नाज है अपने सिपाहियों पर
ReplyDeletemuthi bhar galat logon ki harkaton ka dosh poore sainik samaj ko nahi diya ja sakta. sena ka manobal todne ki kucheshta sarvatha anuchit hai.aapki vyatha vaajib hai.
ReplyDelete"बुरे तब भी नहीं लगते,
ReplyDeleteयकीन जानो,
जब तौलते हो तुम
चंद गिने-चुनों की कारगुजारियों पर
पूरी बिरादरी के वजन को"
क्या और किस अंदाज में जबाब देना है कोई आपसे सीखे - हमें फक्र है आप पर - सलाम मेजर साहब - चंद लोगों की करतूत या व्यवहार देखकर किसी बिरादरी या तबके को जिम्मेदार ठहराना सरासर गलत और उस कौम के प्रति अन्याय है - धन्यवाद्
Commies understand the language of Danda (bullet) not poem.
ReplyDeleteनमन............
ReplyDeleteऐसा तेवर मन में गहरे उतर जाता है.........
शायद हमारी और आपकी व्यथा एक जैसी है! इसलिए अपनी ही भावनाएं नज़र आई इस कविता में! बस लोग समझ जाएँ आपकी बात को.....
ReplyDeletemujhe to kavita hi lagi or samyik bhee.....badhai...
ReplyDeleteह्रदय जब संवेदनाओं से भर उप्लावित होता है और उसमे भी भाव जब ऐसे व्यक्ति के हाथों शब्द पाता है जो कलम का जादूगर हो , तो वह कविता ही होती है भाई...इसलिए इसके प्रति ससंकित न रहो...
ReplyDeleteबाकी रही पीड़ा की बात,तो यह तो सदैव ही होता रहा है....कुछ लोगों के किये की वजह से पूरा कुनबा बदनाम होता है...लेकिन यहाँ देखना यह चाहिए की अच्छे और बुरे में से प्रतिशत किसकी अधिक है...
लोग भी क्या करें,जुबान है तो उसका सदप्रयोग से अधिक दुस्प्रयोग करने बैठ जायेंगे,जुबान क्या,कोई भी क्षमता जो उसमे हो उसका सबसे पहले मारक इस्तेमाल ही कर लेते हैं लोग...
हर सिक्के का दो पहलु होता है ...
ReplyDeleteसुन्दर रचना !
जिस प्रवाह में कविता को पढ़ा है उसे लिख पाना मुमकिन नहीं है. एक स्थूल विषय की सवेदानाएं कितनी गहरे पैठती है इस कविता से बखूबी समझ आता है. लोक आचार और मन के कोमल हरेपन की क्या तुलना मगर शब्द जब उस पीर को वाणी देते हैं तो उस विषय पर मौन और गंभीर ही रहा जा सकता है, जा सकता है नहीं वरन आपने ऐसा करने को मजबूर किया है. यह कैसे एक असैनिक व्यथा कही जाये ? इसने वायर्ड लाईफ के भीतर बचे हुए को साकार किया है.
ReplyDeleteदृष्टि दोष !
ReplyDeleteकविता ही है और बहुत सुन्दर ।
ReplyDeleteबहुत गहरी पीड़ा झलक रही है ,इस कविता में और जो लाज़मी भी है...उन कड़कती धूप और हड्डियों को भी जमा देने वाली सर्दियों में बिना पलक झपकाए हमारी आँखों के नींद का ख़याल रखने वालों पर ऊँगली कैसे उठायी जा सकती है...उस बहते लहू का अपमान है ये,.अगर कोई उसकी कद्र ना समझे..
ReplyDeleteलगा अपने आप को बाँच रहा हूँ। यह कविता ही है बन्धु !
ReplyDelete..गोदियाल जी सही फरमा रहे हैं।
मुझे तो हर रूप से कविता लगी है - एक सम्पूर्ण कविता
ReplyDeleteबहुत संवेदनशील कविता है।
ReplyDeleteसबसे पहले गौतम भाई को सैल्यूट .... प्रतिक्रियात्मक रूप से यह पोस्ट बहुत विचारोत्तेजक और संवेदनशील लगी.... आप हर विधा में सक्षम हैं... और इस क्वालिटी को सलाम....
ReplyDeleteभाई जी मैं तो कविता ही कहूँगा.. और सिर्फ कविता नहीं एक बहुत-बहुत सही कविता.. जीवन कि, दर्द की कविता सच्चाई की कविता..
ReplyDeleteगौतम जी, एक कामयाब कविता के लिए आपको बधाई देता हूँ
ReplyDeleteकामयाब इस तरह की, आप ने जो कहा वो भाव मुझ तक बिना किसी बाधा के पहुचा...
और इस मायने में भी कि वो जो कुछ आप कहना चाहते थे परन्तु आपने नहीं लिखा,, वो भी मुझ तक पहुच गया
बेहतरीन रचना ...
ReplyDeletehttp://meriawaaj-ramtyagi.blogspot.com//
संवेदन्शिल रचना!
ReplyDeleteपीड़ा जायज है...चन्द लोगों को व्यवहार से पूरी बिरादरी को उसी तराजू में रखना कतई उचित नहीं है.
ReplyDeleteरचना प्रभावी ढंग से अपनी बात कह रही है.
दर्द और आक्रोश कविता में बुलंद है...
ReplyDeleteयह व्यथा हर निर्दोष इंसान की है...
शेष वर्दी कितनी ही...दमक रही हो,
ReplyDeleteतुम्हारी पारखी नजरें...ढ़ूँढ़ ही निकालती हैं धब्बों को..
....निंदक नियरे....
ये दर्द उकेर दिया....अब स्माइल प्लीज.
आपके इस अंदाज को सलाम करता हूँ.
ReplyDeleteकविता वही
जो कह दे
सही-सही
...हम किसी एक कि गलती के लिए पूरे समुदाय को दोषी नहीं ठहरा सकते ,,
यह देश हमें जान से प्यारा है ..वह इसलिए कि अभी भी इस देश में अधिसंख्य अच्छे लोग रहते हैं.
.
ReplyDelete.
.
प्रिय गौतम,
अच्छी अभिव्यक्ति... कविता जो उपजी है एक सामान्य-सी टिप्पणी को हिन्दी-साहित्य के वरिष्ट विख्यात आलोचक श्री आनंद प्रकाश जी द्वारा खुद पर व्यक्तिगत रूप से ले लेने की बदौलत और बदले में पूरी सेना के खिलाफ़ उपजी उनकी प्रतिक्रिया की वजह से... फौज ही नहीं समाज के तबकों, कौमों, बिरादरियों को भी चंद गिने-चुनों की कारगुजारियों पर तौलने का यह अन्यायपूर्ण और गलत चलन बढ़ता ही जा रहा है... क्या किया जाये ?
वैसे OG के मामले में मेरी सोच एकदम ओल्ड फैशन्ड है... दमकती वर्दी की कलफ में लगा हर अनचाहा धब्बा मुझे भीतर ही भीतर थोड़ा और मार देता है... न जाने क्यों ?... धुलने तो चाहिये ही यह धब्बे...जल्दी और सबके सामने ही !
सलाम आपको,आपकी कलम का जवाब नही।
ReplyDeleteकविता अकविता की परिभाषा में न पड़ कर भावो की संवेदनशीलता को देखना ज्यादा बेहतर होगा.जवानो के बलिदान को कभी भी अनदेखा नहीं किया जा सकता न ही उसकी कीमत आंकी जा सकती है.जब देश क्रिकट ,बालीवुड,रियलिटी शो में डूबा होता है,जवान जंगलो पहाड़ो में हर बलिदान को तत्पर देश की खातिर मौत की राह पर लगातार बढ़ते रहते है.
ReplyDeletehe loves old hindi songs ,
just like you.
he hates injections,
just like you,
he cried each time amitabh died,
just like you.
he's been in love once or twice,
just like you.
he'll bleed if you cut him,
just like you.
he's happiest at home,
just like you.
he loves the smell of rain on sun scorched earth,
just like you.
he cheered for india,
just like you.
he dreams for his children,
just like you.
he's gone to die for a stranger,
and that stranger is you.
Baujee Kalam to badhiya chalate hain aap!
ReplyDeleteBandook bhi itni mustaidee se hi chalaate hain na!!! :)
Sach mein baatein karna hamesha aasaan hota hai!
Allah Nigehbaan!
Jai Jawan.....
तुम्हें भान नहीं
ReplyDeleteमित्र मेरे,
कि
इन लाखों भाई-बंधु
इन हजारों संगी-साथी
की सजग ऊँगलियाँ
जमी रहती हैं राइफल के ट्रिगर पर
तो शब्द बने रहते हैं गुलाम तुम्हारे
तो बनी रहती है कनीज़ तुम्हारी कलम
तो हक़ बना रहता है तुम्हारा
खुद को बुद्धिजीवी कहलाने का
aapne in panktiyon mein sab kah diya ...........
jab bhi koi ek ungli dusron ki taraf uthata hai chaar uski taraf apne aap uth jaati hai .......
hame bas apne kartavy palan karte jana chahiye .......
जीतनी खुबसूरत रचना दर्द में कही जाती है शायद ख़ुशी में नहीं कही जा सकती , कभी कभार ये दर्द कामयाब रचनावो के लिए वरदान साबित होते हैं, यही बात है के इस रचना का जन्म हुआ , मानस जात में कुछ प्राणी भी रहते हैं, जिनकी शक्ल और सोच के बिनाह पर उन्हें मैं प्राणी कहता हूँ जिनकी बातें असरकार नहीं होती और ना ही सार्थक मगर आज असरकार भी है और अपनी सार्थकता सिद्ध कर रही है !कविता है के नहीं ये तो नहीं कहूँगा क्युनके मुझे पता नहीं मगर इस बलशाली रचना को सलाम , जी तो चाहता है उस कलम की नोक को चूम लूँ... :)
ReplyDeleteआप अपना ख़याल रखें , ज्यादह प्राणियों की बातों पर ध्यान ना दें और सलाह यही दूंगा आपको और बहन जी को भी के मोडरेशन जरुर लगायें टिपण्णी बॉक्स में ... फिर मिलते हैं !
अर्श
कविता है, नहीं है, मैं इस पचड़े में नहीं पड़ता. मैं सिर्फ एक बात अक्सर कहता हूँ कि लिखने वालों के लिए अध्ययन बेहद जरूरी है. साथ ही, आँखें खुली रखना भी आवश्यक है. मुझे खुशी है कि आप न सिर्फ अध्ययनरत हैं बल्कि करंट अफेयर्स और न्यूज़ पर भी आपकी पैनी निगाह है.
ReplyDeleteआज तीसरा-चौथा दिन है आपके ब्लॉग पर आते हुए..और सब देख पढ़ कर चुपचाप लौटते हुए...
ReplyDeleteशायद खुद का इम्तिहान ले रहे थे हम..कि आपको कमेन्ट देना आसान है..या आपसे आँख चुराना...पहली बार आपका ब्लॉग अकेले पढ़ा है...
हमारे लेफ्ट वाली (चाय वाली की ) कुर्सी खाली ही रही है...दो-चार कमेन्ट लिखे भी होंगे तो खुद ही पोस्ट करने से पहले डिलीट कर दिए होंगे.....
इन दो तीन दिन में आपके ब्लॉग से भागकर कुछ नयी जगह पर भी गए हैं हम.....उधर भी एकाध कमेन्ट किया है..पढ़कर...
@ पनियावाला... फौज को सेना को छोडो ....
सारी जमीं पर...सारी कायनात पर एक सेना, या सेना जैसा कुछ भी बता दो जिस पर किसी न किसी सिरफिरे ने सही/गलत ऊँगली ना उठायी हो...
जब भी कोई फौजी .. मिलट्री की हरी वर्दी , सही अहसास के साथ धारण करता है.....एक आम हिन्दुस्तानी कि नज़र में वो उसी वक़्त खूब हो जाता है.....
हाँ,
कुछ लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता होगा...जैसे तुम्हें ...
और तुम २० क्या.....!
२००० ब्लॉग भी रोज लिख डालोगे ना तो भी ..
तुम तो ठीक से ब्लोगर भी नहीं हो.....
और क्या होगे....?
सोरी मेज़र साहब..
पनियावाला नहीं...
@ पनिहारिन लिखना चाह रहे थे हम...
कुछ बातें सुन-पढ़ कर क्षोभ होता है और मन भर गरियाने का मन होता है... इसके अलावा आप्शन भी तो नहीं होते कई बार !
ReplyDeleteदेरी से आने पर क्षमा...गौतम भाई तुम्हारी रचना मन को झकझोर गयी है...मुझे तरस आता है ऐसे साहित्यकारों पर जो हलकी सी चोट बर्दास्त नहीं कर सकते अपने खिलाफ एक शब्द नहीं सुन सकते...ऐसे लोग कैसे फौजियों के खिलाफ एक शब्द भी कह सकते हैं?... ये कमजोर साहित्यकार लोग शब्दों से व्यभिचार करते हैं उनका सम्मान नहीं...ये साहित्यकार नहीं व्यापारी हैं...तुम्हें भी इन पर गुस्सा नहीं तरस आना चाहिए...और कंचन की पोस्ट पर आई उस टिपण्णी के बारे में क्या कहूँ...??? इतनी फूहड़ बात शायद कोई अनपढ़ भी नहीं करता जितनी वहां एक सज्जन ने की है...हमें ऐसी बैटन को इग्नोर करना सीखना पड़ेगा क्यूँ की कीचड़ पर पत्थर फैंकना अकलमंदी नहीं इस से वो आप पर उछल कर आ गिरता है...
ReplyDeleteनीरज
सामान भावनाएं रखने वाले मेरे जैसे न जाने कितने गूंगों को आवाज़ दी है इस कविता ने.
ReplyDeleteकोई सबको मिटाकर सूरज को हरा करने निकला है तो कोई बारूदी सुरंगों से धरती को लाल करने. इन अतिवादियों से निर्दोषों की जान बचाने वालों की वर्दी के धब्बे आवर्धित करके दिखाए जा रहे हैं हर तरफ.
शुक्रिया और शुभकामनाएं!
देर से आने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ.कविता दिल का दर्द बयां कर रही है हौसला बुलंद रखें. एक बुरा सपना समझ कर सब कुछ भूल जाएँ
ReplyDeleteआसान तो नहीं है,फिर भी मन को तसल्ली देने के लिए पर्याप्त है
Dard dil se upji sachi vyatha
ReplyDeleteYartharth leikhan aur yatharth chitran ke liye aabhar
'वर्दी कितनी ही
ReplyDeleteदमक रही हो,
तुम्हारी पारखी नजरें
ढ़ूँढ़ ही निकालती हैं धब्बों को'
-बहुत सही अभिव्यक्ति कर रहे हैं मनो भावों को इस कविता में.
यह हर तीसरे व्यक्ति का हाल है..हर कोई निर्णायक बना बैठा है..अपने तर्क अपनी राय सब से ऊपर रखता हुआ...
हर सिस्टम में खामियां हो सकती हैं लेकिन सेना अभी भी उन सभी सिस्टमो में एक ऐसा सिस्टम है जहाँ आप को न्यूनतम कमियां मिलें..चूँकि इंसान ही हैं हर व्यवस्था में तो इंसानी स्वभाव आप पूरी तरह बदल नहीं सकते सेना में इस स्वभाव को रिफाईन किया जाता है इसलिए भी अगर कहा जाये कि एक फौजी का दर्ज़ा एक सिविलियन से ऊपर होता है इस में शक क्यूँ है?
चाहे अफसर हो या छोटे रेंक का सिपाही हरी वर्दी पहनने तक का सफर कितना कठीन होता है जिसने ये जीवन न देखा हो वो ऐसी बातें ही करेगा.
कोई सिविलियन एक दिन एक 'प्रशिक्षण रत सिपाही के जीवन सा 'ही बिता कर दिखाएँ और फिर सेना के जवानों या अफसरों के बारे में कुछ कहें.
दुःख होता है लोगों की सेना के बारे में ऐसी राय सुनकर.
कुछ देश हैं जैसे नॉर्वे 'आदि जहाँ हर नागरिक को कुछ महीने सेना में सेवा देना अनिवार्य होती है..
मैं चाहती हूँ कि हमारे देश में भी हर नागरिक के लिए कुछ सालों का आर्मी प्रशिक्षण अनिवार्य किया जाये तभी शायद सब जान पाएंगे कि एक सिपाही का जीवन क्या होता है?
देर से आया हूँ....उब रहा था ...सो ब्रेक लिया ....पर तुम्हे पढने के बाद लगता है कुछ ओर वज़ह अब भी बाकी है इस कंप्यूटर के परदे पर .....गुस्से में आदमी सच बोलता है .तुम भी सच बोले हो......अभी अभी दर्शन की एक कविता पर मैंने अकविता से कुछ भाव बांटे थे ...कवि को..भाषा की देह पर शब्दों को उगाने वाला कामगार कहकर ..जानते हो एक ही वक़्त .एक ही लम्हे से गुजरने वाले चार इंसानों का नजरिया किसी घटना को देखने का अलग अलग होता है .....सवाल किसी समूह को जनरलाइज़ करने का नहीं ...सवाल उस बौद्धिकता का है जो अब भी जिद पर अड़ी हुई है .....इसे डिजोलव होने में शायद वक़्त लगे या शायद कभी न हो .... ....न्यूट्रल दृष्टि की ऐनक गर सबके पास होती मेजर .तो आदमी आदमी में फर्क क्या रह जाता....
ReplyDeleteये दर्द से उपजी रचना और पोस्ट तो उसी दिन पढ़ ली थी जिस दिन आपने पोस्ट किया था और उसके बाद तो हर दिन इसको पढता हूँ, मैं अपनी बात को किसी शब्दों के जाल में नहीं उलझाना चाहता.............कंचन दीदी के ब्लॉग पे उस शख्स (मैं वो नाम लिख के लफ़्ज़ों की गरिमा नहीं गिराना चाहता) की टिप्पणी पढ़ के अपनी प्रतिक्रिया अर्श को बताई थी क्या मन कर रहा है........
ReplyDeleteआपकी कविता, बेहतरीन है, लाजवाब है, शानदार है, बेमिसाल है और एक मुकम्मल वेदना है या कहूं जवाब है.
सीने पे लगा मेडल तो सबने देखा,
ReplyDeleteउस धड़कते हुए दिल के दर्द को किसने देखा?
वर्दी पे उछाली गयी कीचड सबको दिखी,
वो बहती हुयी रक्त की धार किसको दिखी??
गौतम जी,
आज आपकी बातों से, और 'पनिहारन' की टिपण्णी से एक और बात ध्यान में आ गयी.
अरसा पहले की बात है, मैं और मेरा एक मित्र रेलवे के आरक्षण की पंक्ति में लगे थे.
हमारे पास 'ट्रेवलिंग वाउचर' थे, फर्स्ट क्लास के. इतने में पीछे से एक सिविलियन की आवाज आयी.
"आप लोग फ़ौज में हैं? फर्स्ट क्लास में फ्री में ट्रेवल कर रहे हैं?"
जब हमने कहा "जी हाँ, फ़ौज मैं हैं, और फ्री में नहीं, ड्यूटी पर यात्रा कर रहे हैं", तो उन सज्जन ने कहा..
"आप लोगों की बहुत ऐश होती है.. देश ने १९७१ के बाद कोई युद्ध नहीं किया, फिर भी इतना सारा दिया जाता है आप लोगों को..."
अब उन जैसी लोगों को कैसे समझाएं?
कैसे समझाएं की, जिस रेल लाइन में वो सफ़र करते हैं, उसकी सुरक्षा कौन करता है?
कौन है जो, अपना खून बहा कर, उनके लिए पानी सुरक्षित करता है??
घटना कारगिल से पहले की है..
लेकिन आज तक चुभती है........
शिवम् जी ने सच पूछा... कितने सिविलियन हैं तो फौजियों को यथा सम्मान देते हैं?
यहाँ अमेरिका में, युद्ध से लौटते फौजियों को एयर लाइन वाले भी पहले बैठने, और उतरने देते हैं...
लोग उनके स्वागत में लाइन लगा कर तालियाँ बजातें हैं..
आपकी कविता अद्वितीय है...
बहुत गहरे मन से बहुत गहरे भाव प्रकट करती है.
यदि एक सरफिरा एक शहीद को शहीद ना कहे तो भी उस शहीद का मान कम नहीं हो जाता.
सूरज की और मुंह कर के थूकने वाला.... खुद मुंह की खाता है..
आप डटें रहें...
आप अडिग रहें..
आप कर्तव्य से विचलित ना हों...
माँ भारती आप जैसे सच्चे सपूतों पर गर्व करती है.
हम सब आप और आप जैसे सैनिकों के आभारी हैं, और आप पर गर्वित हैं..
जय हिंद!!!
यह कविता नहीं, एक उत्कृष्ट कविता है और कुछ पार्टीबद्ध (प्रतिबद्ध) पूर्वाग्रही बुद्धिजीवियों के मुंह पर तमाचा भी.
ReplyDeleteसूरज को मिलते अतिरिक्त धूप के खिलाफ
ReplyDeleteबादल को हासिल अनावश्यक पानी के विरूद्ध
...तो क्या हुआ
कि उन मुट्ठी भर नुमाइंदों के
लाखों अन्य भाई-बंधु
खड़े रहते हैं शून्य से नीचे
की कंपकपाती सर्दी में भी
मुस्तैद सतर्क चपल
चौबीसों घंटे..........
he's gone to die for a stranger,
and that stranger is you.
जीतनी खुबसूरत रचना दर्द में कही जाती है शायद ख़ुशी में नहीं कही जा सकती ,
गुस्से में आदमी सच बोलता है
कुछ ब्लॉग कसम खा के आते हैं आपकी चुप्पी तोड़ने के लिए. और पोस्ट ऐसी की आप नि:शब्द. कुछ भी कहना नहीं चाहते.
कंप्यूटर की खराबी के कारण कई ब्लॉग मिस कर रहा था.
Few people justify naxilites, nazis,Osama, as well...
...I repeate few people.
and then few are against Mr. Gandhi, Indian army, Women rights, Peace, Love, Freedom, Pizzas, Coke, katrina...
...So on and so forth.
Bloody Attention seeker.
Give them a Damn and move forward.
गुस्से में आदमी सच बोलता है (Thank you Anurag sir)
BTW: Busy Ho kya Phn ni uthathe?
ReplyDeleteआज लगा कि कुछ सैनिकों का कवि होना कितना जरूरी है...नहीं तो उनकी वास्तविक अनुभूतियाँ कभी मालूम हीं नहीं हो पाती हैं. आप इस दिशा में देखें, कुछ हो सकता है क्या !!
ReplyDeleteSahi Kaha aapne, kisi ek ki harkat se aap pure samuday vishesh ko blame nahi kar sakte.
ReplyDeleteगुस्सा नहीं इसे मैं आक्रोश कहूँगा.. जो एकदम से नहीं उपजा है.. हम जैसे कलमघिसाई करने वालो की एहसान फरामोशियो से उपजा आक्रोश.. लफ्ज़ ब लफ्ज़ सही..
ReplyDeleteदरअसल दो वक़्त की रोटी और महफूज़ छत के नीचे बैठे बैठे हम कितनी भी बुद्धिमता साबित कर ले.. पर सीमा पर खड़े फौजी को नेगलेक्ट करके हम उतने ही मूर्ख साबित होते है..
अभी भी सिर्फ टिपण्णी ही तो कर रहे है.. शाम तक ये भी भूल जायेंगे.. यह एक तरह की स्वीकारोक्ति है..
और हाँ.. कॉमरेड लिखते वक़्त आपने मेरी पोस्ट से शब्द उठाया नहीं.. तो टिपण्णी में ही लिख दे रहा हूँ.. यही से कॉपी कर लीजिये..
अगर कश्मीर में इस देश के 'गौतम' नहीं होते,
ReplyDeleteबरफ़, बादल, हवा बारिश हँसी मौसम नहीं होते.
मित्र मेरे,
ReplyDeleteकि
इन लाखों भाई-बंधु
इन हजारों संगी-साथी
की सजग ऊँगलियाँ
जमी रहती हैं राइफल के ट्रिगर पर
तो शब्द बने रहते हैं गुलाम तुम्हारे
तो बनी रहती है कनीज़ तुम्हारी कलम
तो हक़ बना रहता है तुम्हारा
खुद को बुद्धिजीवी कहलाने का
गौतम जी ,बिल्कुल सच कहा हम सब तभी तक निर्विघ्न रूप से अपना काम कर सकते हैं जब तक
ये यक़ीन हमारे साथ है कि कुछ आंखें कुछ हाथ
और कुछ दिमाग़ ऐसे मौजूद हैं जो हम पर कोई विपत्ति आने नहीं देंगे ,
इंगित करते हो अपनी ऊँगलियाँ जब
दमकती वर्दी की कलफ़ में लगे
कुछ अनचाहे धब्बों पर
बेशक
शेष वर्दी कितनी ही
दमक रही हो,
तुम्हारी पारखी नजरें
ढ़ूँढ़ ही निकालती हैं धब्बों को
वाह!बिल्कुल दुखती रग पे हाथ रखा है आप ने ,
दूसरों की कमी निकालने के लिए हमारी नज़रें ज़रूर पारखी होती हैं ,लेकिन ख़ुद को परखना ?
सच्चाई बयान करती हुई कविता
इन हजारों संगी-साथी
ReplyDeleteकी सजग ऊँगलियाँ
जमी रहती हैं राइफल के ट्रिगर पर
तो शब्द बने रहते हैं गुलाम तुम्हारे
तो बनी रहती है कनीज़ तुम्हारी कलम
तो हक़ बना रहता है तुम्हारा
खुद को बुद्धिजीवी कहलाने का
sabse badi baat ki yah kavita shabdon ki bajigari matr nahin.pida aur aakrosh se upji yah rachna kaiyon ko aaina dikhati hai.
ऐसा कहकर उलझाया मत करो भाई ..कविता में डूबने तो दो ।
ReplyDeleteबहुत दिन बाद आयी हूँ सोचा नही था आते ही ितने आक्रोश से भरी कविता पढने को मिलगी। गौतम जी हम लोग किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाने से पहले अपने अन्दर नही झाँकते इस लिये किसी को कुछ भी कह देते हैं आपका आक्रिश बिलकुल जायज़ है। लेखक भी इतने संवेदनहीन हो सकते हैं हैरान हूँ । मुझे लगता है आपका जवाब उनके मुँह पर तमाचा है अगर वो समझ सकें। हम सब को अपनी सेनाओं पर और आप पर नाज़ है। जय हिन्द और आशीर्वाद्
ReplyDeletebahut-bahut sundar likha hai aapne! isi tarah likhte rahiye!
ReplyDeleteपहले गया सन्दर्भों से अवगत हुआ .. पनिहारिन की बात से असहमत हूँ .. सामान्यीकरण ठीक नहीं .. कंचन जी संवेदनशील लेखन करती हैं , किसी को 'वैयक्तिक राजनीति' से चटपट जोड़ देना कदापि ठीक नहीं जबकि वह भी जानते हैं कि राजनीति का क्या अर्थ है , ( उनकी टीप में 'राजनीति' किसी उदार अर्थ में नहीं आयी है ) .. समस्याएं कहाँ नहीं हैं , फ़ौजी कैम्प में इसी दुनिया से लोग जाते हैं , व्यक्तिगत सीमाएं सबकी होती हैं , कुछ के दोष को सम्पूर्ण समूह पर नहीं थोप सकते , न तो दिल्ली में हो रहे बलात्कार को सम्पूर्ण दिल्लीवालों पर थोप सकते हैं और न ही मणिपुर में मनोरमा के साथ हुए दुष्कर्म को सम्पूर्ण फौजियों पर !
ReplyDeleteकविता एक पीड़ा की प्रक्रिया में निःसृत है , इसलिए उसका एक प्रवाह है , अनगढ़पन का प्रवाह , प्रवाह तो सहज आता ही है , यह वहीं टूटता ( या देखने की मांग करता है ) जब सायास कविता बनायी जाती है ! ऐसा तो यहाँ नहीं है ! अच्छा लगा पढ़कर ! वेदना की विवृति सृजना के मूल में है ! करुण-स्पर्श की साहित्यिक पीठिका !
कल ही पढ़कर टीप देता पर 'रुचिका' को प्रति-टीप देने में मन दुखी सा हो गया और लौट गया ! आज टीप सका ! आपको पुनः आभार !
इतने अंतराल के बाद कुछ कह रहा हूँ जिसका यह मतलब नही है कि इतने लम्बे अंतराल के बाद यहाँ आया हूँ..कोई भी प्रतिक्रिया कर पाना मेरे लिये बहुत मुश्किल सा लग रहा था शुरू से ही..हम लोग गाल बजाने मे महारथ रखते हैं और दुनिया के किसी भी इश्यू पर मत और किसी भी समस्या का हल हमारे पास होता है..इसी व्यथा के बीच कुछ समय पहले एक समाचार पर दृष्टि गयी थी...महाराष्ट्र के कुछ वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानियों का कुछ निरर्थक रेड-टेपिज्म की वजह से सरकार ने पेंशन रोक लिया था..और वे पिछले बीस सालों से अपनी पेंशन दोबारा शुरू कराने के लिये ऑफ़िसों के चक्कर लगा कर अपनी बैसाखियाँ घिस रहे हैं..यहाँ तक कि सरकारी नुमाइंदों की इस भयानक उपेक्षा से त्रस्त हो कर महाराष्ट्र के स्वतंत्रता सेनानी संगठन के प्रमुख ने प्रदेश-सरकार को मार्मिक पत्र लिख कर अपना क्षोभ व्यक्त किया..और कहा कि इस आजाद भारत का हिस्सा बनते हुए उन्हे शर्म आती है!..मगर सवाल यह है कि हमारी निठल्ली सरकार और संवेदनाशून्य समाज ऐसे प्रकरणों से कोई शर्म महसूस करेगा?.जिस समाज मे कमीशनखोर अधिकारी और घोटालेबाज नेता जनता के आदर्श हों और जहाँ जातीय सम्मान के लिये क्रूर हत्याएं करने वाले और तथाकथित पारिवारिक सम्मान के लिये अपनी ही बहनों को मारने वाले हीरो का दर्जा पाते हों वहाँ चंदेक उदाहरणों के जरिये देश की सेना जैसी पूरी संस्था पर लांछन लगाना हास्यास्पद लगता है..यह सही बात है कि एक लोकतांत्रिक समाज मे कोई भी जवाबदेही से परे नही है..सेना भी नही..और इस बात से भी इन्कार नही किया जा सकता कि हर संस्था मे कुछ काली भेड़ें होती हैं..जिन्हे चिह्नित करने का काम उस तंत्र का होता भी है..मगर किसी उदाहरण का सहारा ले कर एक जवान की शहादत पर बिना किसी तथ्यगत सूचना के प्रश्नचिह्न लगाना सिर्फ़ छुद्र और बायस्ड मानसिकता का प्रतीक है..जब हमारे जैसे ही कुछ लोग रेल-यात्रा करते हुए या टिकट खिड़की पर किसी जवान के सामने सेना के कामों और उनकी प्रासंगिकता पर संदेह करते हैं तब हम भूल जाते हैं कि बिना किसी बाह्य आक्रमण के और शांति से कटा हमारा हर दिन उन्ही जवानों की विषम परिस्थितियों मे भी मुस्तैद चौकसी की ऋणी होती है..और कश्मीर के कई गाँवों से ले कर मुंबई के होटलों और कोसी के बाढ़ मे बह गये गाँवों तक मे बच पाये तमाम जीवन सेना की इसी वीरता और कर्तव्यपालन के ऋणी होते हैं! यह भी कहूँगा कि जो सरकार शहीद कैप्टन सौरभ कालिया के पिता को अभी तक इंसाफ़ नही दिला पायी और जिस जनता को या मानवाधिकारों के पनिहारी पहरुओं को किसी शहीद जवान बूढ़े बाप की सरकारी दफ़्तरों से उम्मीद लगा कर मंद हो चली आँखों की रोशनी की फ़िक्र नही रही हो..उस सरकार या जनता से किसी कद्रदानी की अपेक्षा करना बेमानी है..यह आपका देशरक्षा का जज़्बा और कर्तव्यपरायणता की भावना ही होगी जो सुदूर चौकियों पर बैठ घरवालों से दूर पूरी रात सजग चौकसी करा पाती है!..कहीं पर आपको ही पढ़ा था यह सवाल करते हुए कि क्या शहीद होने पर ही साहसी होने का प्रमाणपत्र मिलता है..और मीडिया की लाइमलाइट से दूर अगम्य चोटियों, कस्बों, जंगलों मे दी गयी शहादत क्या मेट्रो सिटीज की शहादत से कम कीमती होती है?..मुझे यही कहना है आत्मबलिदान भले ही साहस का सर्वोच्च प्रमाणपत्र हो मगर स्वयं जीवित रहते हुए अपना कर्तव्यपालन करना और अपने परिवार की निकटता का सुख और एक सुविधापूर्ण जीवन अपने कर्तव्य की खातिर साल-दर-साल होम करते रहना उतने ही बड़े साहस का द्योतक है,,और सच्चा साहस जो किसी की रक्षा कर पाने मे सफ़ल हो वो न किसी प्रमाणपत्र का मोहताज है न किसी जगह का!..एक बात और कहूँगा कि हथियार शक्ति के परिचायक होते हैं..और यह शक्ति एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी के साथ आती है..यह शक्ति विनाश भी कर सकती है और रक्षा भी..अतः उस शक्ति के मद मे उन्मत्त हुए बिना अपने हथियार का उपयोग मात्र निरपराधों की रक्षा के लिये करते रहना ही आपकी उस शक्ति को धारण कर पाने की क्षमता का परिचायक है..और यही मनुष्य को देवत्व की ओर ले जाता है..
ReplyDelete..आप मे यह देवत्व सदैव बना रहे इसी कामना के साथ...
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteतुम्हारे गुलाम शब्दों का दोषारोपन
ReplyDeleteतुम्हारी कनीज़ कलम के लगाये इल्जाम
प्रेरक बनते हैं
मेरे कर्तव्य-पालन में...अथाह पीड़ा है इन शब्दों में, कसक है..सुविधाभोगी,कृतघ्न और 'विवेकवान' बुद्धिजीवियों पर धिक्कार है ..मर्मस्पर्शी कविता के लिए आपको हार्दिक बधाई गौतम
किसी एक घटना या छुटपुट घटनाओं के आधार पर सम्बन्धित समस्त कैटॅागरी को दोषी मान लेने की हमारी सहज प्रवृत्ति की ओर सजग करते हुये,सीमा पर तैनात हमारे सैनिकों (साधारणता जिनकी ओर मीडिया या आम जनता का ध्यान सिर्फ युद्ध के समय जाता है) के कल्पनातीत विषम परिस्थितियों में भी देश की सुरक्षा में सतत् योगदान पर एक सराहनीय कविता।
ReplyDeleteआपकी व्यथा लाज़िमी है.. यहां पर एक के गुनाह के लिए पूरी बिरादरी को दोषी ठहरा देने का रिवाज़ हो गया है।
ReplyDeleteइन हजारों संगी-साथी
ReplyDeleteकी सजग ऊँगलियाँ
जमी रहती हैं राइफल के ट्रिगर पर
unhe naman..aur salaam pahunche ..