25 September 2017

मुँडेर से गिरी जो तेरी ओढनी अभी-अभी...

हवा ने चाँद पर लिखी जो सिम्फनी अभी-अभी
सुनाने आई है उसी को चाँदनी अभी-अभी

कहीं लिया है नाम उसने मेरा बात-बात में
कि रोम-रोम में उठी है सनसनी अभी-अभी

अटक के तार पर चिढ़ा रही है मुँह गली को वो
मुँडेर से गिरी जो तेरी ओढनी अभी-अभी

थी फोन पर हँसी तेरी, थी गर्म चाय हाथ में
बड़ी हसीन शाम की थी कंपनी अभी-अभी

मचलती लाल स्कूटी पर थी नीली-नीली साड़ी जो
है कर गई सड़क को पूरी बैंगनी अभी-अभी

सितारे ले के आस्माँ से आई हैं ज़मीन पर
ये जुगनुओं की टोलियाँ बनी-ठनी अभी-अभी

है लौट आया क़ाफ़िला जो सरहदों से फ़ौज का

तो कैसे हँस पड़ी उदास छावनी अभी-अभी


[ पाल ले इक रोग नादाँ के पन्नों से ]

4 comments:

  1. वाह्ह्ह....शानदार जानदार लाज़वाब गज़ल...आपके नायाब ख्याल के बेमिसाल मिसरे है।

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