फेसबुक-व्हाट्सएप वगैरह आये नहीं
थे वजूद में उन दिनों, तो तस्वीर लिफ़ाफ़े
में आयी थी । नवंबर का महीना शुरू ही हुआ था कि बर्फ़ गिरने में देर थी अभी । तस्वीर
वाला लिफ़ाफ़ा इसलिये बस ग्यारहवें दिन में ही पहुँच गया था सरहद के उस ऊँचे पहाड़
पर । अड़तालीस घंटे के एम्बुश ऑपरेशन से लौटे थके-पस्त लेफ्टिनेंट पंकज ने अपने बड्डी
की सूचनार्थ अपील "साब, चिट्ठी
आयी है आपकी" को "चाय पिला फटाफट" से बिलकुल ही नज़रअंदाज़ कर दिया
था उस वक़्त । लेफ्टिनेंट साब को पता था लिफ़ाफ़े में क्या होगा ।
मम्मी का फोन आया
था दो हफ़्ते पहले...वही टिपीकल मम्मी टाइप लड़की-पसंद-कर-ली-है-हमने-फोटो-भेज-रहे-हैं
वाला फोन,
जिसमें मुझे-अभी-शादी-नहीं-करनी-है-मम्मी जैसी बेटे टाइप दलीलों
का कोई अस्तित्व नहीं रहता ।
दो रातों से ठिठुराती सर्दी में
बैठे एम्बुश से अकड़ आये जिस्म का इलाज़ हमेशा की तरह एक ग्लास चाय और एक बाल्टी गर्म
पानी से स्नान ही था । बंकर में अपने स्लीपिंग बैग के अंदर घुस कर नींद आने से ठीक
लम्हा भर पहले पंकज ने लिफ़ाफ़ा खोल लिया... बुमsss ! जैसे दुश्मनों का गोला बंकर की छत तोड़ता हुआ सीधा लेफ्टिनेंट
साब के स्लीपिंग बैग पर ही आ गिरा था । लड़की की लिफ़ाफ़े से बाहर आयी तस्वीर, एके-47 के चैंबर
से निकली गोली से भी तेज़ रफ़्तार से पंकज के सीने में पैबस्त कर गई । कैसी तो बेधती
सी आँखें थीं... तस्वीर जैसे तनिक रौद्र मुद्रा में खिंचवायी गई थी, लेकिन चेहरे की ख़ूबसूरती का रौब अनायास ही उस सीले-सीले पत्थरों
वाले बंकर में जैसे हौले-हौले तपिश भरने लगा था । लेफ्टिनेंट साब की नींद गश्त पर निकल
चुकी थी और साब की आँखें तस्वीर से मम्मी की चिट्ठी तक चहलक़दमी कर रही थीं । मोबाइल
नंबर भी दिया था प्यारी-दुलारी मम्मी जी ने एक-बार-बात-कर-लेना-लड़की-से की हिदायत
के साथ ।
फोन करने, ना करने के उहापोह में शाम ढल आई थी...जब लेफ्टिनेंट साब ने
सैकड़ों बार 'ओपनिंग लाइन्स' को रिहर्स करने के बाद आख़िरकार वो नंबर डायल किया । बंकर का
एक-एक पत्थर जैसे सीने में धाड़-धाड़ बजती धड़कनों के संग क़दमताल कर रहा था । उस जानिब
से मोबाइल पर एक मधुर हैलो निकला और इस जानिब लेफ्टिनेंट साब के रिहर्स किये हुये डायलॉग
भगोड़े घोषित हो गए । हड़बड़ाहट में बेचारे लेफ्टिनेंट साब बस इतना ही बोल पाये...
"हैलो नेहा !
दिस इज लेफ्टिनेंट पंकज मेहरा, इंडियन
आर्मी"...बंकर के पत्थरों ने जैसे अपना सर फोड़ लिया झुंझला कर ।
"हाँ, बोलो !" उस जानिब की मधुर हैलो अब एक खिझे हुये से उद्गार
में परिवर्तित हो चुकी थी ।
"वो... माय मॉम...मेरी
मम्मी ने नंबर दिया तुम्हारा । शायद बात हुई है हमारे पैरेंट्स में..."
"लिसेन ! मुझे
नहीं करनी शादी-वादी अभी । पापा का प्रेशर था तो मैंने फोटो खिंचवा ली । मैं अपने पैरेंट्स
को कुछ नहीं कह सकती । लेकिन तुम मना कर दो इस रिश्ते से !" और उस जानिब से फोन
काट दिया गया ।
एक उद्दंड सी ख़ामोशी आकर बैठ
गयी बंकर में । आने वाले दिनों में पूरे के पूरे पहाड़ ने इस बार बर्फ़बारी से पहले
ही उदासी की सफ़ेद चादर को ओढ़ लिया था जैसे । लेफ्टिनेंट साब की पसरी हुई चुप्पी उसके
बंकर के पत्थरों से हजम नहीं हो पाई और बात धीरे-धीरे पूरी बटालियन में फैल गयी । कमान्डिंग
आॅफिसर का हुकुम ज़ारी हुआ सीनियर कैप्टेनों और मेजरों को कि मामले की छानबीन की जाए...व्हाट
द हेल इज रौंग विद द ब्वाय ?
महज़ तस्वीर देखकर ही उस छोटे
से बंकर में पैदा हुई मुहब्बत की कहानी अब पूरी बटालियन का मिशन बन चुकी थी । ऊँचे
पहाड़ से रोज़ नये-नये स्ट्रैटेजी बनते, गुलदस्ते भेजे जाते नेहा के शहर में अखरोट और बादाम के साथ
...और फिर एक दिन मोर्चा संभाला गया कमान्डिंग ऑफिसर और दो सीनियर मेजरों की उत्तमार्धों
द्वारा,
जब तीनों महिलायें जा धमकीं नेहा के घर । नेहा के पास कोई विकल्प
ही नहीं था, सिवाय आत्म-समर्पण के ।
दिवाली आयी उस साल की...संग-संग
नेहा की 'हाँ' लिये । लेफ्टिनेंट
पंकज को 'पैशनेट ग्राउंड' पर स्पेशल छुट्टी दी गई, कमान्डिंग ऑफिसर के क्रिस्प और प्रिसाइज ऑर्डर के साथ...
"गो...गेट द गर्ल, माय ब्वाय !"
बंकर के पत्थरों की उत्तेजित किलकारियाँ
पूरे पहाड़ पर सुनी जा सकती थीं ।
[ ख़ुशबू गिरफ़्त-ए-अक्स में
लाया और उस के बाद / मैं देखता रहा, तेरी तस्वीर थक गई - मुहम्मद क़ासिर ]
इतने प्यारे भाई जब हमारी हिफाजत को खड़े रहते हैं सीमा पर, तो कौनसी आँख हम पर उठने की हिम्मत कर सकती है !!!
ReplyDeleteवाह! हर दिल अजीज़ अल्फाजों में बयां हुई दास्तां.हर सैनिक को सैल्यूट. सादर
ReplyDeleteवाह्ह्ह....बहुत खूबसूरत कहानी।
ReplyDeleteसुन्दर।
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’हिन्दी ध्वजा फहराने का, दिल में एक अरमान रहे - ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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