ज़रा जब चाँद को थोड़ी तलब सिगरेट की उट्ठी
सितारे ऊँघते उट्ठे, तमक कर चांदनी उट्ठी
मुँडेरों से फिसल कर रात भर पसरा हुआ पाला
दरीचों पर गिरा तो सुब्ह अलसाई हुई उट्ठी
उबासी लेते सूरज ने पहाड़ों से जो माँगी चाय
उमड़ते बादलों की केतली फिर खौलती उट्ठी
सुलगते दिन के माथे से पसीना इस क़दर टपका
हवा के तपते सीने से उमस कुछ हांफती उट्ठी
अजब ही ठाठ से लेटे हुए मैदान को देखा
तो दरिया के थके पैरों से ठंढ़ी आह-सी उट्ठी
मचलती बूँद की शोखी, लरज़ उट्ठी जो शाखों पर
चुहल बरसात को सूझी, शजर को गुदगुदी उट्ठी
तपाया दोपहर ने जब समन्दर को अंगीठी पर
उफनकर साहिलों से शाम की तब देगची उट्ठी
[ पाल ले इक रोग नादाँ के पन्नों से ]
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (05-09-2017) को शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ; चर्चामंच 2718 पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आज सलिल वर्मा जी ले कर आयें हैं ब्लॉग बुलेटिन की १८०० वीं पोस्ट ... तो पढ़ना न भूलें ...
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, सिसकियाँ - १८०० वीं ब्लॉग-बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
वाह।
ReplyDeleteचाँद भी खुश हो गया होगा सर, अब तक तो सबकी प्रेमिका का चेहरा बन बनकर बोर हो गया बेचारा !
ReplyDeleteगज़ब खूबसूरत लफ्ज़ों में लिखी हर शेर कमाल की है।
ReplyDeleteवाह्ह्ह...शानदार।।
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