व्यस्तता अपने चरम पर है। कुछ-कुछ ऐसा कि जैसे बोर्ड परिक्षाओं वाले दिन वापस आ गये हों। दिसम्बर मध्य तक यही स्थिति कायम रहने वाली है मेरे संग। जितना कश्मीर को मिस कर रहा हूँ, उतना ही आपसब को भी। भला हो डा० अनुराग की इस अद्भुत चर्चा का, जिसे पढ़ने के लिये तनिक समय चुरा कर निकाला तो ख्याल आया कि लगे हाथों एक पोस्ट भी ठेल दूँ। एक पुरानी ग़ज़ल...लगभग दो साल पहले की लिखी हुई, किंतु ब्लौग के लिये नयी। सुनिये:-
उठी इक हूक जो इन मौसमों की आवाजाही से
बना जाये है इक तस्वीर यादों की सियाही से
कि होती जीत सच की बात ये अब तो पुरानी है
दिखे है रोज सर इसका कटा झूठी गवाही से
नहीं दरकार है मुझको किनारों की मिहरबानी
बुझाता प्यास हूँ दरिया की मैं अपने सुराही से
किया है जुगनुओं ने काम कुछ आसान यूँ मेरा
बुनूँ मैं चाँद का पल्ला सितारों की उगाही से
जिबह होता है इक हिस्सा उमर का रोज ही मेरा
सुबह जब मुस्कुराता है ये सूरज बेगुनाही से
अजब आलम हुआ जब मौत आई देखने मुझको
दिखा तब देखना उनका झरोखे राजशाही से
घड़ी तुमको सुलाती है घड़ी के साथ जगते हो
जरा सी नींद क्या है चीज पूछो इक सिपाही से
{त्रैमासिक अभिनव प्रयास के जुलाई-सितम्बर,2010 अंक में प्रकाशित}
...फिलहाल इतना ही। जल्द ही लौटूँगा आपसब के ब्लौग पर। कुछ बंधुगण मेरे मोबाइल पर मुझसे संपर्क करने की कोशिश कर रहे होंगे, तो दिसम्बर मध्य तक उस नंबर पर उपलब्ध नहीं हूँ मैं। उस नंबर-विशेष की आवश्यकता कुछ अपरिहार्य कारणों से उधर मेरी कर्मभूमि में ज्यादा थी। आपसब को दीपावली की अग्रीम शुभकामनायें...!!!
घड़ी तुमको सुलाती है घड़ी के साथ जगते हो
ReplyDeleteजरा सी नींद क्या है चीज पूछो इक सिपाही से
क्या कहने !!
दीपावली की आपको भी शुभकामनाएं !!!
उठी इक हूक जो इन मौसमों की आवाजाही से
ReplyDeleteबना जाये है इक तस्वीर यादों की सियाही से
जिबह होता है इक हिस्सा उमर का रोज ही मेरा
सुबह जब मुस्कुराता है ये सूरज बेगुनाही से
अश`आर की कशिश
अपनी जगह बरकरार है जनाब...
लेकिन आप की याद की शिद्दत को क्या कहें
जो बस अपनी ही ज़िद मनवाती है . . .
खैर ,,,
समझा जा सकता है,,
हालात को,,,
मजबूरियों को,,,
वक़्त की नज़ाक़त को
बस यहीं से सलाम कुबूल कीजिये
हमेशा खुश रहिये,,,,सुखी रहिये,,,,
और यूं ही अपना पाकीज़ा फ़र्ज़ निभाते रहिये .
उसे आना है,दिल में,जेहन में,पुर-आब आँखों में
भला कब'याद'रुक पाती है दुनिया की मनाही से
नींद की उनसे पूछो जिनको नसीब नहीं,
ReplyDeleteआप सपनों में घूमने चले आते हो।
सुन्दर!!
ReplyDeleteआपको भी दीपावली शुभ हो...
भारत पहुँच बात होती है.
जरा सी नींद क्या है , पूछना सिपाही से ...
ReplyDeleteइस सिपहियत को नमन ...!
अजब आलम हुआ जब मौत आई देखने मुझको
ReplyDeleteदिखा तब देखना उनका झरोखे राजशाही से
"खुबसूरत ग़ज़ल....."
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाये
regards
दीपावली की शुभकामनाएँ आपको भी..
ReplyDeleteनहीं दरकार है मुझको किनारों की मिहरबानी
ReplyDeleteबुझाता प्यास हूँ दरिया की मैं अपने सुराही से
क्या बात है!बहुत ख़ूब!
घड़ी तुमको सुलाती है घड़ी के साथ जगते हो
जरा सी नींद क्या है चीज पूछो इक सिपाही से
बिल्कुल सच कहा गौतम,
अपने घरों में अपने परिवार के साथ सिपाही की मुस्तैदी की वजह से ,चैन से सोने वाले हम लोग
इस ’ज़रा सी नींद’ की अहमियत को क्या समझेंगे ,
अल्लाह तुम सब को ख़ुश रखे ,सलामत रखे
गौतम भाई ,
ReplyDeleteचलो आपको हमारी याद तो आई .... बस ऐसे ही समय निकाल कर अपना हाल चाल दे दिया करो ... कभी कभी हाल चाल मिलना बहुत जरूरी हो जाता है !
गजब ग़ज़ल सुनाई है .....खास कर आखरी शेर तो लाजवाब है |
"घड़ी तुमको सुलाती है घड़ी के साथ जगते हो
जरा सी नींद क्या है चीज पूछो इक सिपाही से"
लगे रहो भाई .....दीपावली की हार्दिक शुभकामनाये |
जय हिंद !
8/10
ReplyDeleteलाजवाब पोस्ट
कश्मीर को आप ही नहीं पूरा हिन्दुस्तान मिस करता है. फर्क बस इतना कि आप करीब से और हम दूर से.
बहुत अरसे बाद किसी ग़ज़ल को पढ़कर अजीब सी तृप्ति हासिल हुयी. हर एक शेर कमाल का है. सच ये भी है कि हर एक शेर को पांच बार पढने के बावजूद भी तारीफ़ के लिए कोई उम्दा शब्द नहीं सूझ रहा है. इस शेर से तो कोई भी रश्क करेगा :
"जिबह होता है इक हिस्सा उमर का रोज ही मेरा
सुबह जब मुस्कुराता है ये सूरज बेगुनाही से"
मेजर अरसे बाद आपको देख कर दिल खुश हो गया...अपनी तो दिवाली से पहले दिवाली मन गयी...
ReplyDeleteआप जहाँ रहें खुश रहें...हमारी खुशियाँ आपसे जुडी हैं...
गज़ल का मकता बेमिसाल है...
दीवाली की अग्रिम बधाई...
नीरज
बहुत अच्छी ग़ज़ल है गौतम जी...वाह
ReplyDeleteनहीं दरकार है मुझको किनारों की मेहरबानी
बुझाता प्यास हूँ दरिया की मैं अपने सुराही से
बेहतरीन...
किया है जुगनुओं ने काम कुछ आसान यूँ मेरा
बुनूँ मैं चाँद का पल्ला सितारों की उगाही से...
लाजवाब शेर है...पढ़ा और याद हो गया.
सिलवटें बिस्तरों पे रहें कायम,
ReplyDeleteनींद को हम गवांये बैठे है!
सुन्दर रचना!
ReplyDelete--
मंगलवार के साप्ताहिक काव्य मंच पर इसकी चर्चा लगा दी है!
http://charchamanch.blogspot.com/
बहुत बढ़िया ग़ज़ल है गौतम जी। याद दिलाती है कि हमारे चैन से सोने में इन सैनिक भाइयों का कितना अहम योगदान है। जय भारत! जय हिंद!
ReplyDeleteबहुत दिनो बाद पोस्ट आयी है। देख कर मन को खुशी हुयी अपकी गज़ल पढने की हमेशा ललक सी रहती है
ReplyDeleteनहीं दरकार है मुझको किनारों की मिहरबानी
बुझाता प्यास हूँ दरिया की मैं अपने सुराही से
वाह लाजवाब जज़्बा है इसे भी कुछ दिन के लिये सजा लूँगी अपने प्रोफाईल पर ।
घड़ी तुमको सुलाती है घड़ी के साथ जगते हो
जरा सी नींद क्या है चीज पूछो इक सिपाही से
सही बात है जब हम सब आराम की नींद सोते हैं वो हमारी सुरक्षा के लिये जागते हैं। बहुत अच्छा शेर।
"जिबह होता है इक हिस्सा उमर का रोज ही मेरा
सुबह जब मुस्कुराता है ये सूरज बेगुनाही से"
बस निशब्द हूँ। बहुत बहुत बधाई और आशीर्वाद सदा यूँ ही हंसते मुस्कुराते रहो।
:)
ReplyDeleteustaad ji waale comment ko hi hamaaraa maanaa jaaye...
कि होती जीत सच की बात ये अब तो पुरानी है
ReplyDeleteदिखे है रोज सर इसका कटा झूठी गवाही से
नहीं दरकार है मुझको किनारों की मिहरबानी
बुझाता प्यास हूँ दरिया की मैं अपने सुराही से
किया है जुगनुओं ने काम कुछ आसान यूँ मेरा
बुनूँ मैं चाँद का पल्ला सितारों की उगाही से
क्या खूब लिखा है……………दिल को छू गया।
दीपावली की आपको शुभकामनाएं !
.
ReplyDeleteजरा सी नींद क्या है चीज पूछो इक सिपाही से
खूबसूरत ग़ज़ल !
तस्वीरों ने तो आंसू ला दिए आँखों में।
.
भाई, ईमानदारी से एक बात कहूँ....
ReplyDeleteतीन बार पढ़ गयी पर फिर भी आपके लिखे शब्द दिमाग तक नहीं पहुंचे...
सड़क किनारे जो इस तरह नींद में निढाल पड़े अपने रक्षकों को देखा ,तो मन अजीब सा हो गया...
हमारे अमन और आजादी के लिए आपलोग जो कीमत चुकाते हैं.......बस क्या कहूँ...
इसकी कीमत जो न समझे उससे बड़ा कृतघ्न और देशद्रोही और कौन होगा....
गर्व है आपलोगों पर ...हम आपके कर्जदार रहेंगे सदा ही...
ब्लोगिंग में आपके पुनः सक्रिय होने की बेसब्री से प्रतीक्षा है...
"जिबह होता है इक हिस्सा उमर का रोज ही मेरा
ReplyDeleteसुबह जब मुस्कुराता है ये सूरज बेगुनाही से"
ये शेर तो जान लेकर ही मानेगा................
घड़ी तुमको सुलाती है घड़ी के साथ जगते हो
ReplyDeleteजरा सी नींद क्या है चीज पूछो इक सिपाही से.
वाकई ..
निशब्द कर देते हैं आप.
दिवाली की ढेरों शुभकामनाये.
घड़ी तुमको सुलाती है घड़ी के साथ जगते हो
ReplyDeleteजरा सी नींद क्या है चीज पूछो इक सिपाही से
बहुत भावुक रचना । देश मे और सरहद पर मौज़ूद सभी सिपाहियो को सलाम ।
ग़ज़ल पढ़कर दिल खुश हो गया.
ReplyDeleteगौतम जी आपकी पोस्ट पर प्रतक्रिया देने के लिए तो शब्द भी नहीं होते मेरे पास. बहुत ख़ूब ....खुबसूरत ग़ज़ल ....
ReplyDeleteदीपावली की शुभकामनाएं
बड़ी ख़ूबसूरत ग़ज़ल है..
ReplyDeleteतस्वीरें देख तो सच....अहसास हो गया...जरा सी नींद क्या चीज़ है..सिपाहियों के लिए.
आपको भी दीपावली की शुभकामनाएं !!!
दुबारा सिर्फ एक बात कहने पलटा हूँ जो उस वक़्त कहना रह गया था. पोस्ट के साथ गोरों के बजाय हिन्दुस्तानी फौजियों की फोटो होतीं तो दिल को और भी अच्छा लगता. शुक्रिया
ReplyDeleteआपको भी दिवाली की शुभकामनायें. आपकी गजल हर बार की तरह... सुन्दर !
ReplyDeleteघड़ी तुमको सुलाती है घड़ी के साथ जगते हो
ReplyDeleteजरा सी नींद क्या है चीज पूछो इक सिपाही से
सही कहा !
अच्छा लगा बहुत दिन बाद आपको वापस यहाँ देख कर। आशा है व्यस्तता के इस दौर से निकल कर आप पुनः ज्यादा सक्रिय हो सकेंगे।
घड़ी तुमको सुलाती है घड़ी के साथ जगते हो
ReplyDeleteजरा सी नींद क्या है चीज पूछो इक सिपाही से...
oh nda se dekh chuki hun is neend ki kashmakash
जिबह होता है इक हिस्सा उमर का रोज ही मेरा
ReplyDeleteसुबह जब मुस्कुराता है ये सूरज बेगुनाही से
ये शेर जबान पे रहेगा अब कई रोज....
.इन दिनों मूड ऐसा ही है मेजर .जब देखता हूँ अरुंधती को कश्मीर मसले पर भी सपोर्ट करने वाले मिल जाते है ....पता नहीं अगले चालीस सालो में देश जाएगा कहाँ...?
Missing you Buddy!!!!
काफी अंतराल के बाद ही सही मगर आनंद आ गया ! हार्दिक शुभकामनायें
ReplyDeleteखूब! बिलकुल सही कहा आपने कविता के ज़रिये . आपको ,आपके साथियों को याद करते हुए एक गाना लगाया है 'मयखाना' पर . मैं कोई रचनाकार या कवि नहीं मगर बलिदान की कीमत समझने के लिए ये कोई पूर्व शर्त भी नहीं
ReplyDeletebahut achchha laga padh kar ......
ReplyDeleteनहीं दरकार है मुझको किनारों की मिहरबानी
बुझाता प्यास हूँ दरिया की मैं अपने सुराही से
prabhavshali panktiyaa
"जिबह होता है इक हिस्सा उमर का रोज ही मेरा
ReplyDeleteसुबह जब मुस्कुराता है ये सूरज बेगुनाही से"
कित्ती मासूमियत भरी खूबसूरती से आपने तो कह दिया......
पर सोचेने लगे तो चेहरे पर लकीरें कुछ ज्यादा हो गयीं
जिबह होता है इक हिस्सा उमर का रोज ही मेरा
ReplyDeleteसुबह जब मुस्कुराता है ये सूरज बेगुनाही से
...सुंदर गजल का सुंदर शेर।
हरेक पंक्ति कमाल की है। आज़ाद देश में मस्त हम सिविलियन लोग जिन बातों को "for granted" मानकर चलते हैं हमारे लिये जान कुर्बान करने वालों के लिये ही वे सामान्य सुविधायें भी दुर्लभ हैं। सच में प्रणम्य है सैनिकों का जज़्बा। और लानत है उनपर जो सब जानते समझते हुए भी इन सैनिकों की सही-गलत निन्दा का कोई मौका नहीं छोडते और साथ ही देशद्रोहियों को महिमामंडित करते रहते हैं।
ReplyDeleteकिया है जुगनुओं ने काम कुछ आसान यूँ मेरा
ReplyDeleteबुनूँ मैं चाँद का पल्ला सितारों की उगाही से
one of the great couplet!
सब नाप तौल कर सजा कर लिखते हैं आप !
ReplyDeleteभीतर घुसता हुआ हर शेर ! गज़ल का आभार !
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं !
उठी इक हूक जो इन मौसमों की आवाजाही से
ReplyDeleteबना जाये है इक तस्वीर यादों की सियाही से
जिबह होता है इक हिस्सा उमर का रोज ही मेरा
सुबह जब मुस्कुराता है ये सूरज बेगुनाही से
अाप अनोखे अापके अंदाज अनोखे... बहरहाल अापका समाचार तो मिला.
मै भी अाजकल ब्लोग पर नियमित नही हुं.
दीपावली की शुभकामनाएं !!
आप को सपरिवार दीपावली मंगलमय एवं शुभ हो!
ReplyDeleteमैं आपके -शारीरिक स्वास्थ्य तथा खुशहाली की कामना करता हूँ
diwali par shubhkamanayen. naya saal aap ke liye achha rahe.
ReplyDeleterajivlochan
बहुत प्यारी अभिव्यक्ति.. और इंटेलिजेंट भी.. "जिबह होता है...."
ReplyDeleteइसे पढ़ने के बाद ख़्याल आया, हर दिन जिबह हो रही है तो ज़िंदगी तो बस इसी पल एक बार फिर चख ली जाए ज़िंदगी :)
जिबह होता है इक हिस्सा उमर का रोज ही मेरा
ReplyDeleteसुबह जब मुस्कुराता है ये सूरज बेगुनाही से
अजब आलम हुआ जब मौत आई देखने मुझको
दिखा तब देखना उनका झरोखे राजशाही से
kya kalam kee rwanee hai.
sipahee kee neend kya hotee hai iska to sirf anuman hee laga sakte hain Major sahab. Bahar hal Khuda hafij.
जिबह होता है इक हिस्सा उमर का रोज ही मेरा
ReplyDeleteसुबह जब मुस्कुराता है ये सूरज बेगुनाही से
अजब आलम हुआ जब मौत आई देखने मुझको
दिखा तब देखना उनका झरोखे राजशाही से
kya kalam kee rwanee hai.
sipahee kee neend kya hotee hai iska to sirf anuman hee laga sakte hain Major sahab. Bahar hal Khuda hafij.
लाजवाब ग़ज़ल.
ReplyDelete....
नहीं दरकार है मुझको किनारों की मिहरबानी
ReplyDeleteबुझाता प्यास हूँ दरिया की मैं अपने सुराही से
bahut khoob ! my fav !
जिबह होता है इक हिस्सा उमर का रोज ही मेरा
सुबह जब मुस्कुराता है ये सूरज बेगुनाही से
too good!
घड़ी तुमको सुलाती है घड़ी के साथ जगते हो
जरा सी नींद क्या है चीज पूछो इक सिपाही से
wow!
बहुत दिनों से मिस कर रही थी आपको ,आपके ब्लाग को |टटोला तो दिल को छूने वाली गजल पढ़ी |
ReplyDeleteआप सबको नमन |
नहीं दरकार है मुझको किनारों की मिहरबानी
ReplyDeleteबुझाता प्यास हूँ दरिया की मैं अपने सुराही से
Kya baat hai!
Pata nahi wajah kya hai,lekin aapke lekhan kee mujhe ittela milni band ho gayi hai!Ittefaqan maine kholke dekh liya!
गौतम भाई,
ReplyDeleteक्या ख़ूब इत्तिफ़ाक है कि मैं आपके ब्लॉग की उसी ग़ज़ल पर ‘लैण्ड’ कर गया जो कि हमारी पत्रिका ‘अभिनव प्रयास’ में छपी थी!
इस ग़ज़ल को पढ़कर मुझे बार-बार लग रहा था कि कहीं पढ़ा है इसे...जब नीचे देखा, तो पाया कि हमारी ही पत्रिका की हिस्सा रही है यह यह सुन्दर रचना....पुनः पढ़कर अच्छा लगा....बधाई!
अजब आलम हुआ जब मौत आई देखने मुझको
ReplyDeleteदिखा तब देखना उनका झरोखे राजशाही से
i liked this very much
मन के भाव को शब्दों में परिवर्तित करना आसान होता है,
ReplyDeleteपर ऐसे गहरे भाव होना.. ख़ास बात है.
:
प्रियंक ठाकुर
www.meri-rachna.blogspot.com
राम करे ऐसा हो जाए,
ReplyDeleteमेरी निंदिया तो हे मिल जाए,
मैं जागूं, तू सो जाए
स- स्नेह
- लावण्या
बहुत ही बढ़िया गज़ल..
ReplyDelete"जरा सी नींद क्या है चीज पूछो इक सिपाही से"
ये मिसरा तो गज़ब है..
👌👌👌👌👌
ReplyDelete