14 December 2009
फ़िकर करें फुकरे..
विख्यात{और कुख्यात भी} वर्ल्ड हैविवेट बाक्सिंग चैम्पियन माइक टायसन अक्सर अपना बाउट शुरु होने से पहले कहा करता था और क्या खूब कहा करता था कि:-
"everybody has a plan till he gets a punch on the face"
बस यूं ही याद आ गयी ये बात। राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में अपने प्रशिक्षण के दौरान पहले और दूसरे सेमेस्टर में हम सभी कैडेटों के लिये बाक्सिंग की प्रतिस्पर्धा में हिस्सा लेना आदेशानुसार नितांत आवश्यक होता था। उन दिनों हर स्पर्धा से पहले दिमाग में कितने दाँव-पेंच पल-पल बनते-बिगड़ते रहते थे, लेकिन रिंग में उतरने के बाद विपक्षी का अपने चेहरे पर पड़ा एक नपा-तुला पंच तामीर किये गये सारे दाँव-पेंचों की धज्जियाँ उड़ा देता था। फिर कौन-सा लेफ्ट हुक? फिर काहे का अपर कट?? ये संदर्भ यूं ही याद आ गया अभी अपने ब्लौग-जगत में मची वर्तमान छोटी-मोटी हलचलों को देखकर। किसी का अलविदा कहना, किसी का संन्यास लेना, किसी का विरोध, किसी की उदासीनता, किसी की तटस्थता, किसी की मौन समाधि, किसी की शब्द-क्रांति...ये सब, ये सबकुछ विस्तृत सागर में उछाले गये छोटे तुच्छ कंकड़ से अधिक तरंग नहीं पैदा करते हैं। काश कि मेरे ये सभी संवेदनशील ब्लौगर-मित्र इस ब्लौग-सार को फौरन से पेश्तर समझ जाते...! काश...!! और यहाँ मैं रविरतलामी जी की एक टिप्पणी उद्धृत करना चाहूँगा। जब वो लिखते हैं "यारों, जमाने भर के कचरे की बातें करते हो तो अपने स्वर्ण-लकीरों को बड़ा कर के तो दिखाओ जरा!!" तो क्या इन तमाम कथित विरोधों, अलविदाओं को अपने अंदाज में एक सटीक जवाब नहीं दे देते हैं हम सब की तरफ से?
दुष्यंत कुमार का ये शेर "कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता / एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो" भले ही सटीक और अनंत काल तक के लिये सामयिक हो बाहरी दुनिया के वास्ते, लेकिन यहाँ इस अभासी दुनिया में अपने विरोध स्वरुप ये अलविदा रुपी पत्थर कितनी भी तबीयत से कोई उछालते रहे...कोई सूराख नहीं होनी है इस ब्लौगाकाश में। अगर इस ब्लौगाकाश में कोई सूराख बनाने की ख्वाहिश सचमुच ही हिलोर मार रही हो तो उसके लिये यहाँ डटे रहना जरुरी है।
सिस्टम से दूर जाकर, उससे बाहर निकलकर उसे सुधारने की बात महज एक पलायनवादिता है। विपक्षी का एक तगड़ा पंच भले ही कुछ क्षणों के लिये अपने दाँव-पेंच की तामीर बिगाड़ देता हो, किंतु रिंग से बाहर जाकर तो कोई अपने लेफ्ट हुक या अपर कट चलाने से रहा। उसके लिये तो रिंग में बने रहना जरुरी है ना? क्यों??
...बस यूँ ही कुछ आवारा सोचों का उन्वान बन रहा था तो आपलोगों के संग साझा कर लिया। इधर दो-तीन दिनों से कुछ आहत दोस्तों और उमड़ती संवेदनाओं को देखकर विचलित मन जाने क्यों एक गाने पर अटका हुआ बार-बार इसे गुनगुनाता रहता है:-
दुनिया फिरंगी स्यापा है
फिकर ही गम का पापा है
अपना तो बस यही जापा है
फिकर करें फुकरे
हडिप्पाssssss....
हलफ़नामा-
एक ब्लौगर की डायरी से...
वो कौन हैं जिन्हें तौबा की मिल गयी फ़ुरसत / हमें गुनाह भी करने को जिंदगी कम है...
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
दुनिया फिरंगी स्यापा है
ReplyDeleteफिकर ही गम का पापा है
अपना तो बस यही जापा है
फिकर करें फुकरे
बढ़िया आलेख!
दुनिया फिरंगी स्यापा है
ReplyDeleteफिकर ही गम का पापा है
अपना तो बस यही जापा है
फिकर करें फुकरे
bahut achcha chinta mukt karta ye geet ka mukhda aur, bloggers ki himmat badhata ye lekh , donon uttam , aabhaar.
जिन लोगों ने ब्लागिंग छोड़ने की बात कही वे बेहद संवेदनशील मन वाले लोग हैं। ब्लागिंग की दुनिया में इस घटना को कुछ दिन याद किया जायेगा। इसके बाद लोग भूल जायेंगे। कुछ इनके प्रशंसक काफ़ी दिन याद रखेंगे।
ReplyDeleteइन साथियों के अलावा भी तमाम लोगों ने चुपचाप ब्लाग लिखना कम करते हुये बंद कर दिया। उन्होंने चूंकि ब्लागिंग छोड़ने की सूचना नहीं दी इसलिये उन बातों का हल्ला नहीं हुआ।
अपने पर हुये आघात/हमले का लोग अपनी मन:स्थिति के अनुसार जबाब देते हैं। कोई पलटवार करता है, कोई चुप हो जाता है, कोई और निखर जाता है और कोई अलविदा कह जाता है। अपना-अपना अंदाज है।
लेख मौंजूं है और यह आश्वस्ति कि इस ब्लाग पर गाना बजता रहेगा। हमेशा।
कल ही कहीं बात हो रही थी प्रतिद्वंदी को कैसे मारा जाये और कैसे बचा जाये...
ReplyDeleteहमारे एक मित्र का कहना था कि "अगर आप मुक्काबाजी खेल रहे हो तो जितना अपने विरोधी के नजदीक रहोगे उतना कम जोर से पंच मुंह पर पड़ेगा और अगर वैचारिक द्वंद है तो उसके करीब मत रहिये उससे दूर रहिये, करीब रहेंगे तो वह आपकी सब चीजों के बारे में जान जायेगा, कि आप क्या करने वाले हो, और अगर दूरी बनाकर रहेंगे तो आप उसे बराबर चोट पहुंचा सकते हैं।"
बाकी तो प्रकृति का नियम है, "फ़िकर करें फ़ुकरे"
संवेदनशील मामला उठाया है आपने वो भी बाक्सिंग और बाक्सिंग रिंग को प्रतीक बनाकर। रोचक।
ReplyDeleteब्लागिंग से सन्यास या ब्लागिंग में विवाद तो दुखद है ही लेकिन मेरा मानना है कि इन सब बातों से अलग हटकर ब्लागाकाश में सिर्फ और सिर्फ लिखा-पढ़ा जा सकता है।
शुभकामना।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
सिस्टम में रह कर उसे सुधारने की आपकी सोच का स्वागत और समर्थन ....!!
ReplyDeleteवाह रे योद्धा! वहीं गोली दागी जहाँ तत्काल जरूरत थी!
ReplyDeleteविवेक रस्तोगी जी से सहमत लेकिन अपने से नहीं हो पाता रे , क्या करें?
सच में शायद यह ब्लॉगिंग बेहद संवेदनशील लोगों के लिये नहीं है । यदि वे यहाँ तशरीफ ले भी आये, तो खतरे ही खतरे ।
ReplyDeleteइस बात से सहमत हूँ, कि सिस्टम में रहकर सिस्टम से लड़ना ! संवेदना सदा से सिस्टम से हारती रही है । है न !
आपको क्या लगता है - मामला ब्लॉग लिखने या न लिखने का है ?
ब्लागरी का भी तो कोई एक लक्ष्य अवश्य ही होता है ब्लागर का। वह अपना काम करता जाए। उस में आने वाले व्यवधानों पर ध्यान न दे तो सब चलता रहता है। अंत में कुछ तो हासिल होता ही है।
ReplyDeleteये मस्त चला इस बस्ती में..थोड़ी थोड़ी मस्ती ले लो...
ReplyDeleteउसने तो ली सब कुछ खो कर, तुम थोड़ी सी सस्ती ले लो...
-सब के अपने अंदाज हैं.
पोस्ट जरुरी थी..आई तो अच्छा लगा.
"सिस्टम से दूर जाकर, उससे बाहर निकलकर उसे सुधारने की बात महज एक पलायनवादिता है।"
ReplyDeleteवाह...आपने मेरे मन की बात लिख दी...अब इसके बाद कहने को कुछ नहीं रह जाता...हवा में पंच मारने से प्रतिरोधी ढेर नहीं होते उसके लिए लिए तो रिंग में उतरकर उसका जबड़ा ही तोडना होगा...
नीरज
मनुष्य अपने व्यक्तिव से अपने लेखन से लोगों के दिलों में जगह बनता है .....जैसे आपने बनाई .......!!
ReplyDeleteआपने तो दिल की बात लिख दी..
ReplyDeleteमेरी बिल्डिंग की एक महिला,अपने बच्चे को नीचे खेलने नहीं भेजती थी ...कि कुछ लड़के शैतान हैं,गालियाँ देते हैं झगडा करते हैं....उनके बेटे का वजन काफी बढ़ गया और डॉक्टर की सलाह पर उन्हें,उसे नीचे खेलने भेजना पड़ा...पर उनका बच्चा अब एड्ज़स्ट ही नहीं कर पाता है,कभी रोता है,कभी रूठ जाता है,तो कभी झगड़ पड़ता है...इसलिए दूर रहना कोई हल नहीं...कोई भी जगह बिलकुल स्वच्छा,सुन्दर और मनोरम नहीं है...उसे हमें अपने मन लायक बनाना पड़ता है...किसी को इतना महत्त्व या इतना अधिकार ही क्यूँ दें कि वो हमें चोट पहुंचा सके
"everybody has a plan till he gets a punch on the face"
ReplyDeleteसोच रही हूँ कि कभी कभी सोच भी लेते हैं गंभीरता से... और कभी कभी अपनी बात लिख कह भी लेते हैं, नम्र मगर दृढ़ तरीके से....!
ये अंदाज़ अच्छा लगा.... और थोड़ा अलग भी....!
वरना तो मुझे लगता था कि ठहाकों में सब खतम कर देते हैं आप....!!!
ज़रूरत होती है इन तेवरों की भी..! बनाये रखियेगा समय समय पर।
चुइंग्गम है चब्बे जा
ReplyDeleteहैण्ड पुमप है दब्बे जा
लाइफ का जूसा काडे जा
फिकर करें फुकरे
बहुत सटीक बात कही है
मीत
संवेदनशीलता को रचनात्मक सार्थक दिशा में मोड़ना बहुत महत्वपूर्ण है.....अमूमन मै उस व्यक्ति से मिलने से बचता हूँ जिसका मै फेन होता हूँ.....क्यूंकि किसी को पढ़ कर हम अपने मन में एक छवि बनाते है .....ओर जब मिलते है उसमे सामान्य गुण दोषों को देख दुखी होते है ....तो क्या रचनाकार का व्यक्तित्व ओर उसकी रचना को अलग अलग करके देखे ....ये सवाल बरसो से मन में मथता रहा है ....मसलन अलोक धन्वा ओर उनकी कविता .....मन में उथल पुथल मचाती है .....पर जब सुधा अरोड़ा कथादेश में उनके व्यक्तित्व का एक विवादस्पद पहलु दिखाती है तो मन अजीब सा हो उठता है ....
ReplyDeleteकभी कभी उम्र के साथ तजुरबो के थपेड़े आपकी भावुकता को तराश कर कम करते जाते है ... संवेदनशीलता का सही अर्थ अपनी भावनाओं को अपने सीमित दायरे में रहते हुए भी समाज को ओर बेहतर देना है .किसी भी रूप में .....
रवि रतलामी जी की टिपण्णी पहली नज़र में तल्ख़ मालूम होती है पर उनकी ये पंक्तिया
"जो लोग इस तरह से नादान किस्म का निर्णय लेते हैं, उन्हें ब्लॉगिंग-श्लॉगिंग की सतही किस्म की ही जानकारी रहती है, ऐसा मेरा मानना है..ब्लॉगिंग एक प्लेटफ़ॉर्म है, अपनी सृजनात्मकता को दुनिया तक पहुँचाने का. इस माध्यम से कोई मैला भी फेंक कर दुनिया तक पहुँचाना चाहता है तो कोई मिश्री की डली भी."
बहुत महत्वपूर्ण है ...ओर सारगर्भित भी........
पन्नो पे सच्चाई ओर उंची बातो के झंडे उठाये लोगो को मैंने मेल में टिपण्णी मांगते देखा है ...ओर हाईलाइटर की तर्ज पर अपना नाम दर्ज कराने की दौड़ में भागते ...
अपूर्व का मुख्य विरोध ओम जी के ब्लॉग पर ....एक भद्दी ओर अनाम टिप्पणी को लेकर था .... जाहिर है उसने यहाँ पढ़े लिखे लोगो के एक आदर्शवादी समाज की कल्पना की थी...मोह भंग की कई स्टेज आती है ओर व्यक्ति व्यक्ति उसे अलग अलग तरीके से लेते है ..... ....
खैर फिर भी मेरा मानना है के भावुकता को सार्थक दिशा में मोड़ने के लिए कभी कभी कुछ प्रयासों की आवश्यकता होती है ....आखिरकार आप खुद देखिये हंस के सह संपादक संजीव हो या निर्मल वर्मा ...वो इस उम्र तक भावुकता नहीं छोड़ पाए है ओर आप उन दोनों के फेन है .....
समझदारी भरी चुप्पिया ओर तटस्थता इस वर्च्युअल दुनिया का बड़ा सच है .... .
पिछला कमेंट था आपकी पोस्ट पर। अब अपने विचार।
ReplyDeleteबड़ा अच्छा लगता है हमें जब हम किसी भी शहर में पहुँचे वहाँ एक ब्लॉगर मित्र, जिसे ना देखा है ना जाना, मगर वो बेचैनी से आपकी गाड़ी का कोच नं० पूँछता पहुँच जाता है और वहीं आपके कुछ खास रिश्तेदार फोन ना उठा कर बाद में बताते हैं कि "अरे सायलेंट पर रखा था सुनाई नही दिया" और असल में उन्हे पहले से पता होता है कि आपकी सवारी आज इस शहर में आने वाली है।
और फिर वहीं कुछ लोग ऐसे होते हैं जो हमारे मन के विपरीत और कभी हमारे संस्कारों और संवेदनाओं के भी विपरीत लिख या कर जाते हैं।
असल में ब्लॉग ही नही हर जगह ऐसा होता है..... कम से कम मेरे साथ तो ऐसा होता है.....। परिवार की प्रथम इकाई से ले कर कालेज, आफिस और समाज तक में .....!
मेरे संस्मरण पढ़ कर अक्सर लोग कहते हैं कि आप बहुत भाग्यशाली है जो आपको जिंदगी में हमेशा अच्छे लोग मिले। क्योंकि मैं जिक्र ही उनका करती हूँ। मन के विपरीत लोग हमेशा बहुत सारे होते हैं, मन के अनुकूल कुछ मुट्ठी भर लोग....!!
ब्लॉग जगत में भी मुझे सिर्फ मनीष जी, वीर जी और ऐसे ही जो नाम सुन कर लोग मेरे मित्र निर्धारित करते हैं जैसे लोग ही नही मिले। बहुत से ऐसे लोग भी मिले जिन्होने अचंभित भी किया और आहत भी। मगर उनसे चुपचाप किनारा कर लिया। और बहुत से ऐसे शभ चिंतक भी हैं, जिनमे १०० प्रतिशत अच्छाइयाँ नही हैं, मगर कुछ चीजें है जो उनमें भली लगती है। बहुत से क्या सभी...! मुझे खुद में भी बहुत सी चीजें नहीं अच्छी लगती....! मगर पूर्णता की तलाश कहाँ करूँ....!!
इस लिये बस हमेशा शिव खेड़ा की बात याद रखती हूँ " सोने की खदान में खनन के वक्त टनों मिट्टी निकलती है, तब थोड़ा सोना..! मगर हमें मतलब टनों मिट्टी से नही, थोड़े सोने से होता है।"
मैं नही कह सकती कि कभी ऐसी स्थिति नही आयेगी कि मैं ऐसा काम ना करूँ.... मगर तब आप भी मुझे समझाइयेगा
विपक्षी का एक तगड़ा पंच भले ही कुछ क्षणों के लिये अपने दाँव-पेंच की तामीर बिगाड़ देता हो, किंतु रिंग से बाहर जाकर तो कोई अपने लेफ्ट हुक या अपर कट चलाने से रहा। उसके लिये तो रिंग में बने रहना जरुरी है ना?
बहुत आवश्यक मुद्दा उठाया है और आपके विचारों के साथ सा कितने ही और मित्रों के विचार भी पढ़ने को मिल गए। यही सार्थक ब्लॉगिंग है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
गौतम जी ......... आपने सच लिखा है ......... मैं भी इस पक्ष में नही हूँ की पलायनवादी हो कर ब्लॉगिंग या किसी का भी कुछ फ़ायदा होने वाला है ..... आपका इशारा मैं समझ रहा हूँ, मेरे भी मित्र हैं वो और मैं भी चाहता हूँ की उनको वापस ब्लॉग लेखन शुरू करना चाहिए ......... किसी के कहने से कुछ नही होता .......... खुग के लिए लिखना चाहिए, मित्रों को पसंद है वो करना चाहिए ......... जीवन बहुत छोटा है खिन्न हो कर बिताने के लिए .......
ReplyDeleteग़ालिब साहब ने भी रिंग में बने रहकर ही लिखा कि
ReplyDeleteबाज़ीचा ए अत्फाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब् ओ रोज़ तमाशा मेरे आगे....आपने सही कहा कि यह एक पलायनवादी रवैया है...
जब लिखावट के ऊपर टिप्पणिया हावी हो जाये तो ऐसा भी हो जाता है.. सोचना ये है कि हम अपने लेखन से है या दुसरो की टिप्पणियों से ??
ReplyDeleteगौतम साब गुलज़ार की इन बिंदास लाइनों के सहारे आपने अपने ट्रेनिंग के दिनों को याद कर लिया....अच्छा संस्मरण!
ReplyDeleteये सशक्त विचार राष्ट्रीय रक्षा अकादमी के हैं.......गलत हो ही नहीं सकते
ReplyDeleteरवि रतलामी जी के कठोर शब्द वस्तुतः लेखन के लिए अमृत तुल्य हैं. अपने कमेन्ट के अंत में उन्होंने तीन विस्मय बोधक चिन्ह लगाये हैं वे जरूर मेरे मन में विस्मय का बोध जागते हैं... इन में अगर किसी भी तरह का उपहास दीखता है तो उसके मूल में तकनीक के संस्कार है. विज्ञान का विद्यार्थी जो अपनी सेवा तकनिकी क्षेत्र में अपनी रूचि के अनुसार करने के बाद उससे बेहतर रूचि का काम करने के छोड़ देता है और नए माध्यमों में सराहनीय कार्य करता है. उनसे इन्ही शब्दों की अपेक्षा की जानी चाहिए... लेकिन मेजर साब, लेखक मन ई इज इक्वल टू एम सी स्क्वायर को आधार मान कर नहीं चलता, नए मौसम की हवा में तैरता परिंदे का टूटा पंख उसे उदास कर सकता है तो खुश भी. नंदनी गयी तो उन्होंने रूठने मनाने के लिए स्पेस नहीं रखा, अपूर्व गए तो वहां भी कोई खिड़की न थी जिससे उन्हें आवाज़ दी जा सके, डिम्पल ने ब्लॉग का निशाँ भी बाकी नहीं रखा, ओम आर्य अपने स्थगित लेखन के वक्तव्य के बाद बोल नहीं रहे, तो ये लोग नर्म नाजुक अहसासों वाले कोमल मन वाले लोग हैं. ये लोग छोड़ कर गए मैं इस फैसले का सम्मान करता हूँ परन्तु पोस्ट इसलिए लिखता हूँ कि इनके होने से मैं अपने आपको भरा पूरा महसूस करता हूँ.
ReplyDeleteब्लॉग एक प्राकृतिक जंगल है यहाँ चंपा, चमेली, संजीवनी के खिलने को जगह है तो यहीं पर विषबेल के लिए भी पर्याप्त अवसर है. सब कुछ फीसद में तय नहीं किया जा सकता, कौन कितना खिलेगा कौन मुरझायेगा किन्तु किसी के खिलने पर पाबन्दी लगे तो यह जंगल के कानून का अतिक्रमण होगा. इसी अतिक्रमण ने कुछ नाजुक जड़ों को उखाड़ने के लिए सौद्धेश्य प्रयास किये. यहाँ मेरे दोस्तों से भूल यही हुई कि जंगल में ऊँचे खड़े दरख्तों से उन्होंने हस्तक्षेप की आशाएं रखी. ये नहीं सोचा कि जितनी गहरी जड़ें हैं वे उतने ही उदासीन भी हैं. आप उनकी सबसे ऊँची डाल पर पहुँच कर अपने लिए रास्ता खोज सकते हैं. जंगल में भटके हुए के लिए ये बड़ा सहारा है, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है....
आपकी इस पोस्ट ने सार्थक संवाद के लिए रास्ता खोला है, आपका आभार.
आपका लेख पढते पढते न जाने क्यो एक गाना याद आया "चैन इक पल नही और कोई हल नही -सैयोनी न तो मै सैयोनी का अर्थ समझ पाया और न हडिप्पाsssss का ,शायद ऐसा होता होगा "हर फ़िक्र को धुंये मे उडाता चला गया ""सिस्टम से बाहर निकल कर सुधारने की बात ""देश दुर्दशा का दयनीय द्र्श्य देख कर ,बोले दूसरी तरह का मानचित्र चाहिये /जैसे दुर्गंध मेटने की असमर्थता मे झेंप मेटने को मित्र कहे इत्र चाहिये ""आजकल आकाश मे सूराख करने को पत्थर कौन उछालता है ""दरवाजों के शीशे न बदलवाइये नजमी ,लोगों ने अभी हाथ के पत्थर नही फैंके" और नूर साहब -"मै जिसके हाथ मे इक फूल दे के आया था ,उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश मे है ।आपके पहले पद मे वर्णित तुच्छ हलचलों से अनजान हूं ,उम्र का भी तकाजा है ,ज्यादा पढ भी नही पाता हूं ,लेकिन इतना जानता हूं कि दुनियां अपनी रफ़तार से चलती रहती है और ""हू आफ़्टर.....""का सिद्धान्त इस दुनिया पर लागू नही होता ।
ReplyDeleteअच्छा पंच मारा है ... मेरे दिल की सी बात कह दी आपने ... लेखन की दुनिया में प्रशंसक हैं तो आलोचक भी हैं ... लोकतंत्र है , सभी को खुल कर अपने विचार प्रकट करने का पूरा अधिकार है ...
ReplyDeleteकंचन की बात से सहमत हूँ....
ReplyDeleteजरूरी नहीं के ऐसा ब्लॉग जगत में ही हो....जैसे हर जगह पर हर तरह के लोग हैं....वैसे ही ब्लॉग जगत में भी ....
कोई भी कैसा भी मिल सकता है...
ऊपर उल्लेखित नामों में से किसी को हल्का फुल्का जानता हूँ....
किसी का बस नाम ही सुना है...
और किसी का नाम भी नहीं सुना....
इसीलिए मेरा इस विषय में ज्यादा कुछ कहना सही नहीं होगा....
ब्लॉग
जगत
के बारे में बस इतना ही के ब्लॉग बनाने के बाद लोग खुद को.....चलिए जाने दीजिये....
इस बात पे हिंद युग्म पे काफी हल्ला कर चुके हैं हम.....
हाँ,
ये अलविदा कहने की बात सुनना हमारे लिए कोई नयी बात नहीं है.....
इसके कारण भी अलग अलग देखे हैं हमने .....
वैसे भी जब पोस्ट में तटस्थता का जिक्र किया ही गया है ....तो क्या जरूरी है हमारा कुछ कहना....!!!!!
एक बात और.....
ReplyDeleteये
पञ्च किसे मारा जाए....???
लेखक तो लेखक.. और शायर.,शायर की तरह से तो पञ्च मार भी सकता है....
कितने ही लोग ऐसे हैं.... जिन्हें ना तो पोस्ट डालने की समझ है ....
सिस्टम ये क्या हैं और किसने बनाया हैं ?? आप फौजी हैं सो सिस्टम मे रह कर ही काम कर सकते हैं पर सिविलियन का क्या ?? बहुत से सिस्टम हैं जिनका विरोध होता हैं और वो बदल जाते हैं बहुत ऐसे भी सिस्टम हैं जो नहीं बदलते लाख विरोध करो तो हम उस सिस्टम से बाहर आ कर नया सिस्टम बनाते हैं । जब वो नया सिस्टम बन जाता हैं तो पता चलता हैं की बिल्कुल पुराने जैसा ही हैं क्युकी नया सिस्टम जिन्होने बनाया हैं उनकी सोच तो अभी भी पुरानी ही हैं । ब्लॉग कोई जब तक हम एक समाजी सिस्टम से जोड़ते रहेगे हम उस का कोई उपयोग नहीं कर सकते । ब्लॉग मे लोग एक दूसरे से जुड़ कर क्या नहीं कर सकते पर नहीं करते क्युकी उनके लिये ब्लॉग समाज का ही एक हिस्सा हैं । गौतम आपने देखा की ब्लॉग की विधा कितनी नयी हैं पर समाज के उस सिस्टम मे बह गयी हैं जहाँ ग्रुप इस लिये बनाए जाते हैं की हम लड़ सके ।
ReplyDeleteलोग सही के साथ , सच के साथ नहीं होना चाहते , लोग उसके साथ होना चाहते हैं जो उनको सही कहे
हम भी इसी बात का समर्थन करते हैं जो बात आपने कही । लेकिन इससे तभी बचा जा सकता है जब उस आहत मन:स्थिति कोई फैसला न लिया जाय बल्कि सिर्फ स्थगति कर दिया जाय । नहीं तो एक बार घोषणा कर देने के बाद मन होने पर भी संकोचवश नहीं लौट पाते ।
ReplyDeleteVery well written,articulate article!
ReplyDeleteBikhare sitarepe aapkee tippanee ka tahe dilse shukriya!
इस माध्यम से निराश दोस्तों के लिए जो रूठ गए है,इससे बढिया गुरू वचन या मित्र वचन नहीं हो सकते.यहां आपका रचा गया शब्द अविनाशी है वो दूरस्थ्ा काल में भी पढे जाने के लिए प्रस्तुत है.हालांकि कालजयी लेखन की सोच कोई आदर्श सोच नहीं है पर आपकी बात कालपात्र में किसी भी आगामी विमर्श का हिस्सा बनने के लिए सुरक्षित है ये क्या संतोष की बात नहीं?
ReplyDeleteइतनी भारी भरकम बातें न भी सोचें पर यहां से अनुपस्थिति भी हल नहीं.
मेजर साब, आपकी पोस्ट हाल के इस विमर्श में नया आयाम जोड़ती है.
.
ReplyDelete.
.
"विपक्षी का एक तगड़ा पंच भले ही कुछ क्षणों के लिये अपने दाँव-पेंच की तामीर बिगाड़ देता हो, किंतु रिंग से बाहर जाकर तो कोई अपने लेफ्ट हुक या अपर कट चलाने से रहा। उसके लिये तो रिंग में बने रहना जरुरी है ना? क्यों??"
प्रिय गौतम,
सवाल अच्छा है और सामयिक भी...पर दुनिया (और ब्लॉगिंग भी) के इस रिंग में कई तरह के खिलाड़ी होते हैं...
-कुछ जो एक दो पंच भले ही खा लें पर उनकी कलाईयों में इतनी ताकत और ईरादों में इतना दम होता है कि रिंग से जीत कर ही बाहर आते हैं...
-कुछ जो चाहे कितने भी पंच खायें रिंग नहीं छोड़ते, नॉक आउट भी नहीं होते, और अगली फाईट का बेसब्री से ईंतजार करते हैं....
-कुछ में हौसला तो बहुत होता है पर नॉक आउट हो जाते हैं फिर उनके शुभचिंतक उतरने ही नहीं देते दोबारा रिंग में...
-कुछ बॉक्सर तो दमदार होते हैं पर किसी फाईट में अपने किसी सगे को गलत तरीके से पिटता देख बॉक्सिंग ही छोड़ देते हैं...
-कुछ अपने से पहली फाइट में किसी को मार खाते देख उतरने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाते...
-कुछ यह मान लेते हैं कि अकेला तो मैं कभी जीत ही नहीं सकता... ग्रुप बनाकर लड़ता हूँ...
-कुछ सोचते हैं कि क्या जरूरत है समय और पसीना बहाने की...जिन्दा रहने के लिये बॉक्सिंग जरूरी तो नहीं है...
तो आप और हम क्या कर लेंगे ? किसी इंसान को बॉक्सिंग तो सिखाई जा सकती है पर रिंग के अंदर लड़ने का जज्बा तो अंदर से ही आता है... यह जज्बा आर्टिफिशियली पैदा किया या बनाया नहीं जा सकता।
ये बैकफुट?
ReplyDeleteविचारोत्तेजक!
ReplyDeleteपता नहीं क्या चल रहा है ! डर लगता है अब तो कहीं टिपण्णी करने से लोग पता नहीं कब किस 'गुट' का समझ लें... धीरे-धीरे कुछ चुनिन्दा ब्लोगों तक सिमट रहा हूँ मैं तो.
ReplyDeleteBoxing, Shatranj, aise hee SPORT hain jab , uske alag alag, paintre , yaad aayaa karte hain --
ReplyDeleteBlogging bhee aisa hee vishay hai
Bahut , sochne ka samaan milta hai
Duniya chod ker updesh dene se kya ?
Ees duniya ki achchayee aur burayee ke madhy , jeete hue ,
jeevan ki jang , jari rakhe wahi Soorma hote hain .
sa sneh,
- L
गौतम ,
ReplyDeleteमैं इस मामले में क्या कहूँ समझ में नहीं आता?
पर तुमने इस मुद्दे को जिस तरीके से बोक्सिंग के माध्यम से रखा है उसकी तारीफ जरूर करुँगी ।
बिलकुल सही कहा सिस्टम मे रह कर ही उसे सुधारा जा सकता है सिस्टम से निकल जाना पलायनवाद ही है। एक घर मे ही सभी के विचार नहीं मिलते फिर यहाँ तो हर तरह के हर जगह के लोग हैं। बाकी कंचन और बाकी के लोगों ने बहुत कुछ कह दिया है। आशीर्वाद
ReplyDeleteगौतम जी, सही सामयिक आलेख लिखा है. उचित संवेदना और निर्देश भी है.
ReplyDeleteमैं भी कहता हूँ -
अपनी मन:स्थिति है और अंदाज़ भी अपना अपना है
सपने देख हम मैदाँ में कूदे खाली लौटे तो फिर सपना है
व्यथा साफ़ दिख रही है... एक दिन कुंठा में रहा था... दुःख अब भी है... लेकिन दोनों पलड़े बराबर हैं... दिल और दिमाग उलझे हैं...
ReplyDeleteअपन तो बस ये जानते है जी कि मन में बहुत गुबार, विचार ना जाने क्या क्या घुमा करते थे बस कोई सुनने वाला नही था। और हम मन को हल्का करने आ गए। उन गुबार, विचार से अगर किसी को खुशी मिल जाए, किसी की हिम्मत बढ़ जाए, किसी को आनंद मिल जाए.... बस अपना लिखना सफल रहा जी। यही सोचकर आए थे इस ब्लोग की दुनिया में। और यहाँ आकर हम खुश भी हुए,हिम्मत भी मिली.....। बाकी जी लिखड़ है नही। ज्यादा कुछ जानते समझते है नही। खैर आपकी पोस्ट से ये बात यूँ ही निकल आई। बाकी आपकी पोस्ट हमेशा की तरह सधी बधी और बेहतरीन है। और हाँ ये गाना वाकई अच्छा है आज सुनेगे जी।
ReplyDeleteक्या बात कही है. हाई-प्रोफाइल पुलिस अधिकारी मनपसंद पोस्ट न मिलने पर इस्तीफा दे देती हैं, तब सिस्टम को कोसकर पुलिस सुधारक बन जाती हैं. आम-जन की गंध से भी बेहोश हो जाने वाला अंग्रेजीदां हीरो बुढ़ा जाता है तो देहात से चुनाव लड़कर जन-प्रतिनिधि बन जाता है. जन-प्रतिनिधि चुनाव हार जाते हैं तो जनसेवक बन जाते हैं. जिनकी ज़मींदारी बचाए नहीं बचती, वे किसानों के "शोषित" और "धरती-पुत्र" हितैषी बन जाते हैं. जिस नेता को पद नहीं मिलता वह अपना प्रदेश-त्याग करके नया पद सृजित कर लेता है. जो कुछ हम हर जगह करते रहते हैं वही ब्लोगाकाश में भी करते हैं. आखिर स्पैशलाइजेशन का आदर तो करना ही पडेगा न.
ReplyDeleteमाइक टॉयसन और दुश्यंत कुमार की यह जुगल बन्दी अच्छी लगी ।
ReplyDeleteफेंकने दीजीये मैला उन्हें, जो फेंक रहे हैं । आप तो मिश्री बांटिये फिर देखिये खुशीयां कैसे छलकती हैं ।
ReplyDeleteइस ब्लौगाकाश में कोई सूराख बनाने की ख्वाहिश सचमुच ही हिलोर मार रही हो तो उसके लिये यहाँ डटे रहना जरुरी है।
ReplyDeleteबहुत सही.
Abhi to 'I am always with you' ke hi jaadu main gunjan hoon. Bahar niklun to comment karne wapis aata hoon.
ReplyDeleteAur kaha hai to waapis to aaonga hi...
..Bahut kaam pending hai baba !!
Pehle aur darwaje khatkhata aaon.
Main blogging se zayada comment karne ko miss kar raha tha.
I really enjoy commenting.
And here i am.
(Always with you) (Copyright = To copy is always right).
Mail karke ek aagya maangi hai 'Sir'.
Koi Baat chale ki tarz par.
अच्छा लिखा है आपने
ReplyDeleteइस गीत ने तो आधुनिक संगीत का मान
बढ़ा दिया हैः-
दुनिया फिरंगी स्यापा है
फिकर ही गम का पापा है
अपना तो बस यही जापा है
फिकर करें फुकरे
हडिप्पाssssss....
स्म्वेना नहीं, अति सम्वेदना की ही परिणति है ब्लागिंग में उदासीनता, बंदी, खामोशी. दूसरों की बातों या कमेंट्स से आहत होने के अलावा एक समस्या और है------ फलां को मेरे से ज्यादा कमेंट्स कैसे!!! मैं किसी और की बजाय अपना उदाहरण देता हूँ. आज मेरे जानने वालों संख्या ज्यादा है. आज मेरा लेखन पढने वालों की तादाद अधिक है. कमेंट्स सिफ तारीफ में हों, ऐसा क्यों? आलोचना सहने-सुनने का माद्दा रखना जरूरी है. बोक्सिंग में पंच खाए बिना आप आप रह भी नहीं सकते. मैं पता नहीं विषय पर कमेन्ट दे रहा हूँ या......................!!!
ReplyDeleteबहुत अच्छी एवं सुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत -२ आभार
हम किसी और के कहने सुनने से निर्णय लें तो ठीक नहीं. हमें अपनी रुचि से तय करना होगा कि क्या ठीक है. यदि औरों के कटाक्ष हमारे रास्ते तय करें तो हम कहीं पहुंचेगे नहीं.
ReplyDeleteaalekh aisa hai
ReplyDeletek ek baar padhne se
kash.m.kash gher leti hai...
lekin bilkul steek aur spasht
baateiN haiN....
sabhi tippnikaaroN se ittefaaq rakhtaa hoon...
(harkiratji ko chhor kar...)
bs itna kehtaa hooN
"kisi meiN koi khot
kyoN dhoondte ho
kabhi khud ko
darpan dikhaao,to maaneiN"
wah...ye bhi khoob rahi...
ReplyDeleteबहुत सटीक और खरा लिखा है आपने ... खुशामत की है कोशिश की है दुशियंत जी की सिफारिश लगवाई है कोई यह तो नहीं कहेगा लौटने के लिए किसी ने आवाज़ भी नहीं दी...
ReplyDeleteजलती शब भर आँधी में जो
ReplyDeleteलिख उस लौ मद्धिम का किस्सा !!!
Aur kya kahun....bas waah waah waah !!!!
सिस्टम से दूर जाकर, उससे बाहर निकलकर उसे सुधारने की बात महज एक पलायनवादिता है।
100% sahmat hun....
Kyaa likhun??
ReplyDeleteAapne to bahut sundar likhaa hai!!
~Jayant
सिस्टम से दूर जाकर, उससे बाहर निकलकर उसे सुधारने की बात महज एक पलायनवादिता है।
ReplyDelete-बात सही कही
[Sorry..देर से पढ़ा ].. सही मुद्दा उठाया है..लेकिन इस का कोई हाल नज़र आएगा यह कहा नहीं जा सकता.
सभी के विचार अलग होते हैं..सब को एक मत करना बहुत मुश्किल होता है.
यहाँ भी लोकतंत्र ही है.
मैने भी लिखा था,शायद relevant हो!
ReplyDelete"लिखता नहीं हूं शेर मैं अब इस ख्याल से,
किसको है वास्ता यहां अब मेरे हाल से.
चारागर हालात मेरे बेहतर बता गया,
कुछ नये ज़ख्म मिले है मुझे गुजरे साल से.
मासूम लफ़्ज़ कैसे मसर्रत अता करें,
जब भेडिया पुकारे मेमने की खाल से."
Carry on regardless!
_'Ktheleo'@www.sachmein.blogspot.com(A brother in arms)
sahi hai... khush rahne ka kuch "tax" nahi lagta..
ReplyDelete