केमिस्ट्री दोनों किरदारों के बीच शुरू के ही संवाद से शुरू हो जाती है...एक अजब सी कशिश और कसमसाहट भरी केमिस्ट्री, जो पाठकों को थोड़ी सी तिलमिलाती हुई छोड़ देती है आख़िर में कि कुछ तो हुआ ही नहीं | लेकिन हंस के अक्टूबर अंक में प्रकाशित कंचन चौहान की कहानी ‘ईज़’ कोई प्रेम-कहानी तो है नहीं कि इसमें नायक और नायिका के बीच किसी केमिस्ट्री की गुंज़ाइश हो ! फिर भी गौर से देखने पर वो केमिस्ट्री दिखती है, एक विलक्षण केमिस्ट्री, जो बेशक प्रेम को ना स्पर्श करती हो...मगर अपने अनूठे से विमर्श को उठाती हुई ये अद्भुत कहानी अपने पार्श्व में एक छुपे से प्रेम का ट्रेलर भर दिखाती ज़रूर है | अब ये लेखिका का सायास प्रयास है या अनायास ही होता है ऐसा, ये कहना मुश्किल है |
‘ईज़’ कहानी का फ़लक अपने चुस्त और कसे हुए शिल्प में एक ‘सेक्स वर्कर’ और एक ‘बूचर’ के प्रोफेशन की तलहटियों में झाँकते हुए बगैर किसी स्पौन्सर्ड चेष्टा के “गंदा है पर धंधा है ये” की फिलॉस्फ़ी को हौले से...बस हौले से छूता है | बगैर जजमेंटल हुए ! लेखिका को पहले तो इस दुर्लभ थीम पर बधाई देने का मन करता है और फिर इस थीम को इतनी सहजता से ट्रीट करने के लिए फिर-फिर बधाई देने का मन करता है | दुनिया के दो सबसे प्राचीन व्यवसाय आधुनिक शब्दावली का चोगा पहन कर किस तरह एक अलग ही रुतबा जैसा कुछ अपने लिए तैयार करते हैं, ये समझना जितना दिलचस्प है उतना ही ह्रदयस्पर्शी भी | एक जानिब ‘ब्रोदेल’ से ‘एस्कोर्ट सर्विस’ तक का रूपांतरण और दूजी तरफ़ ‘ढ़ाबे’ से ‘रेस्टोरेंट’ ...या फिर 'प्रॉस्टीच्यूट' से 'कॉल-गर्ल' और 'एस्कोर्ट' तक की यात्रा...और कसाई से ‘बूचर’ या ‘नॉनवेज रेस्टोरेंट ओनर’ तक का कायांतरण...एक तरह से जस्टिफाय करने जैसा कुछ | ...और इस तमाम जस्टिफिकेशन या स्वीकृत होने की क़वायद को कहानी जिस खूबसूरती से दोनों प्रोटगोनिस्ट के संवाद के ज़रिये उभार कर लाती है, वो कुछ तिलिस्मी सा है |
इसके अलावा एक छोटे से पैरेलल में एक और अदद किरदार है, जो इस अजब से विमर्श वाली कहानी को तनिक स्त्री-विमर्श का भी पुट देते हुए अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है...कसाई की बीवी | इस तीसरे किरदार के आने से जाने क्यों और कैसे कहानी में डूब चुके मेरे पाठक को एक त्रिकोण सा बनता नज़र आता है...कुछ-कुछ विख्यात हॉलीवुड फिल्म-श्रृंखला “द ट्वाईलाईट सागा” के प्रेम-त्रिकोण की तरह | वेम्पायर, वियरवुल्फ और ह्यूमेन वाला त्रिकोण | यहीं से कहानी के और विस्तृत होने का विकल्प खुलता है | लेकिन जाहिर है कि ये मेरे अतृप्त पाठक मन का अनर्गल सा प्रलाप है, लेखिका की मंशा कुछ और ही थी कहानी बुनते वक़्त |
कहानी की सधी हुई बुनावट, उसका क्रिस्प शिल्प और उसका मारक कथानक...सब मिलजुल कर कंचन चौहान के क़िस्सागो को परिपक्व हो जाने का ऐलान करते हैं | अभी तक सात कहानी - यदि साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होने को मानक रखा जाए - लिख चुकी इस लेखिका की पहली प्रकाशित कहानी से एक पाठक के रूप में जुड़ा होना और उसकी क़िस्सागोई को ग्रो करते देखना, एक विलक्षण अनुभव है अपने में | हम पाठकों को एक बेहतरीन कहानी देने के लिए कंचन चौहान को ढेरम-ढेर धन्यवाद और साथ ही ये भी कि इस कहानी से उनके पाठकों की उम्मीदें अब और बढ़ गयी हैं |
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आपको मै काफी पहले से पढता आ रहा हूँ। जब आप हिन्दयुग्म पर लिखते थे. उम्दा लिखते हैं.
ReplyDeleteबेबाक सरल और सहज समीक्षात्मक दृष्टि है आपकी।
ReplyDeleteबेहद प्रभावशाली विश्लेषण किया आपने कहानी का।
आपको पढ़ना अद्भुत है।
bahut accha laga aapka post
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