08 March 2014

मिशन

{मासिक पत्रिका 'वागर्थ' के फरवरी 2014 अंक में प्रकाशित कहानी}

"जुगनूsss !"
"बरैम-बरैम !"
"जुगनूsss !  रेsss जुगनुआsss !!"
"बरैम-बरैम ! बरैम-बरैम !!"

...जुगनू-जुगनू की ये गुहार बाबासाहेब की थी शाम ढले खैनी की तलब को मिटाने की गरज लिये और जवाब में "बरैम-बरैम" करता हुआ जामुन पेड़ पर रहने वाला भूत | वैसे तो बाबासाहेब के टहल-टिकोरे के लिये उनका ख़ास खवास अच्चक की तैनाती रहती थी, लेकिन जाने क्यों इक रोज अच्चक यादव के नौ वर्षीय इकलौते पुत्र जुगनू के हाथों से लिटाये हुये खैनी खाने के बाद अब उन्हें किसी और के हाथों की लिटायी खैनी चूसने में लुत्फ़ नहीं मिलता था | ...और जब से बाबासाहेब खैनी लिटाने के लिए जुगनू को पुकारने लगे थे, वो जामुन के पेड़ पर रहने वाला भूत भी बरैम-बरैम कर के अपनी उपस्थिती दर्ज़ कराने लगा था | बाबासाहेब की आलीशान बैठकी से सटे विशाल जामुन पेड़ पर रहने वाले भूत को वैसे ना तो किसी ने देखा था ना ही किसी ने उसकी बरैम-बरैम ही सुनी थी कभी, लेकिन भैय्यन की कहानियों से बाहर निकल कर वो भूत कुछ इस कदर जीवंत हो रखा था कि जुगनू समेत बड़का आँगन के तमाम बच्चों की शामें बाबासाहेब की बैठकी और जामुन पेड़ से सटे आँगन के मुख्य द्वार को एक भयावह वर्जित क्षेत्र में परिवर्तित कर देती थीं |

...और आज जाने कितनी सदियों बाद उसी जामुन पेड़ के नीचे अपनी सरकारी बोलेरो के बोनेट पर बैठा सिगरेट पीता हुआ जुगनू...जुगनू यादव...एस॰ पी॰ जुगनू यादव...अपनी चुस्त पूलिस वर्दी में उसी भूत की ही तलाश में आया था या फिर वर्षों पहले के उस बड़का आँगन में अपनी स्मृतियों के अनगिनत प्रेतों से मुलाक़ात करने आया था, कहना असंभव नहीं तो बहुत मुश्किल जरूर था | आई॰पी॰एस॰ एकेडमी से निकलते ही तो झोंक दिया गया था वो नक्सलाइट एरिया में, जहाँ विगत छ-सात सालों के दरम्यान अनगिनत सफल मिशनों को अंजाम देते हुये लगा हुआ था वो कोशिश में अपने गृह-शहर की पोस्टिंग के लिये और अभी पिछले महीने जाकर साकार हुआ था सपना उसका | इस एक महीने में तमाम फाइलों और ऑफिस का चार्ज संभालते हुये ध्यान इधर ही अटका हुआ था तिलाबे धार के किनारे बसे इस छोटे-से गाँव की ओर | हजार-दस हजार साल तो बीत ही गए इस एक महीने में और आज जब इस गुनगुनी धूप वाली गर्मी-सर्दी की चौखट पर खड़ी दोपहर को ऑफिस से निकला तो अपने ड्राईवर और साथ चलने वाली एस्कॉर्ट गाड़ी के नुमाइंदों को चकित करता हुआ सबको पूरे दिन के लिये निजात दे दिया था उसने और अकेला खुद ही
चलाता हुआ आया था अपनी सरकारी बोलेरो| सड़कें कितनी चौड़ी हो गई थीं अब और तिलाबे धार पर की वो चरमराती लकड़ी की पुलिया सिमेंट वाली हो गई थी | पुलिया पर बड़ी देर तक गाड़ी से उतर कर सूख गए धार में पानी की बूंदें ढूँढता रहा था वो...वही तिलाबे धार जो कोसी से निकल कर उसके गाँव को नहलाया करती थी, आज अपने वजूद की शिनाख़्त भी बमुश्किल दे पा रही थीकभी इसी के घाट पर छठ पूजा के दिन जगह छेकने के लिये महायुद्ध हुआ करता था गाँव के चालीस-पचास परिवारों में और कभी इसी धार की लंबाई-चौड़ाई वो पानी में तैरती जल-कुंभियों की गठरी बना कर उसकी आलीशान सवारी करके नापा करता था... तब जब तिलाबे की अथाह जलराशि उसके लिये भूगोल की किताब में चित्रित प्रशांत महासागर से कम नहीं हुआ करती थी और उसकी उछाल भरती लहरों पर जल-कुंभियों की गठरीनुमा किश्ती पर बैठा लहराता-उतराता ईर्ष्या का केंद्र-बिंदू बना फिरता था बड़का आँगन के सारे बच्चों का | 

बड़का आँगन...हाँ, पूरे गाँव में इसी नाम से तो जाना जाता था बाबासाहेब का कुनबा | पाँच बेटों के परिवारों से भरा-पूरा पूरे प्रखंड के गिने-चुने जमींदारों में शुमार बाबासाहेब का आँगन था भी तो इस उपाधि के लिये उपयुक्त | तीन बेटियाँ भी थीं, जो अलग गांवों में ऐसे ही समतुल्य परिवारों में ब्याही गई थीं और जब गर्मी की छुट्टियों में या पर्व-त्योहार पर उनके परिवार भी आ जाते थे , फिर तो बड़का आँगन की रौनक देखने लायक हुआ करती थी | विशालकाय फैला सा आँगन वो... तीन तरफ से पाँच बेटों के अलग-अलग महलनुमा कोठियों से घिरा था और चौथी तरफ थी बाबासाहेब की भव्य कोठी, जिसमें वो दाय जी के साथ रहा करते थे...और उसी कोठी के बाँयी तरफ एक छोटी-सी से कोठली में जुगनू रहता था अपने बाबूजी के साथ | माँ तो उसकी पैदा होने के साल भर बाद ही चली गई थी भगवान के घर और जिसके बाद से वो उसी बड़का आँगन में टौआता हुआ पला था | उसके बाबूजी को तो बाबासाहेब की खवासी से फुरसत मिलने के बाद घैले में भरी हुयी ताड़ी उलझाए रखती थी...ऐसे में भैय्यन का लाड़-दुलार उसे ना मिला होता तो जाने क्या बनता उसका |  बाबासाहेब की कोठी के दूसरे कोने में हुआ करती थी एक छोटी-सी झोपड़ी हुआ...अकेली उदास झोपड़ी, जिसमें भैय्यन रहती थीं... भैय्यन, बाबा साहेब की इकलौती बहन...बाल-विधवा...हमेशा उजली धोती में लिपटी हुई और उस बड़का आँगन में साझा चूल्हे के सिवा जो इकमात्र चूल्हा और जलता था, वो इसी झोपड़ी में जलता था | उन दिनों जुगनू को ये बात बिलकुल समझ में नहीं आती कि भैय्यन बाकी पूरे कुनबे के साथ ही क्यों नहीं खाती थीं खाना|

हमउम्र था वो बाबासाहेब के कई पोते-पोतियों का और बाबासाहेब की अनुकंपा थी कि वो भी उनके पोते-पोतियों के साथ शहर के स्कूल में जाया करता था पढ़ने | सदियों बाद आज जब बचपन की इस दहलीज पर वापस आया था तो सब कुछ ध्वस्त-उजड़ा हुआ था | आई॰पी॰एस॰ के प्रशिक्षण के दौरान ही मालूम हुआ था था उसे कि बड़का आँगन में बाबासाहेब की महलनुमा कोठी भड़भड़ा कर गिर गई है | वही कोठी जो सन उन्नीस सौ चौतीस का भयानक भूकंप झेल चुकी थी और एक दरार तक नहीं आया था जिसकी दीवारों में, एकाकीपन और विरह का जलजला सह नहीं पायी | कैसा तो कैसा हो गया था जुगनू अपनी बोलेरो से उतरने के बाद बाबासाहेब की कोठी के मलवे के पास खड़ा हो उस दृश्य को देख कर | आँगन के बीचों-बीच बना वो खूबसूरत सा मड़वा भी अपने भग्नावशेष में तन्हाई की मर्मांतक दास्तान सुना रहा था | वही मड़वा, जहाँ बाबासाहेब के अनगिनत पोतों का एक साथ जनेऊ संस्कार हुआ था और जुगनू ने चित्कार मार-मार कर पूरा आँगन सर पर उठा लिया था कि उसका भी जनेऊ क्यों नहीं हो रहा बाकी सबके साथ... और तब भैय्यन ही तो आई थीं और ले गई थीं उसे उठा कर अपनी झोपड़ी में | ध्वस्त मड़वे को देखता हुआ जुगनू मुस्कुरा उठा था बचपन की उस रूलाई वाले दृश्य को याद कर |

कितनी कहानियाँ एकदम से सजीव हो उठी थीं आज सदियों बाद एकदम से उस उजड़े-उजड़े बड़का आंगन में | भैय्यन के वो सारे फकरे...गुनगुनाने लगे अनायास ही एस॰ पी॰ साब...
कनहा रे बकतुल्ला तुल्ली
पीपर गाछ पर मारे गुल्ली
कौआ करे काँय-काँय
कबूत्तर बिछ्छे दाना
फकीर तोहर नाना
सुपौल तोहर थाना”

       ...और ज़ोर से ठहाके छूट पड़े एस॰पी॰ साब के, सोचकर कि अभी जो उसके मातहत देख लें उन्हें इस कदर बचपन के फकरे को गुनगुनाते हुये | भैय्यन के पास फकरों और कहानियों का अकूत खजाना हुआ करता था | किसी भी बात को जोड़कर वो बस तुरत-फुरत कहानी बना देती थीं....शाम ढलते ही पिट्टो या आइस-पाइस या गुल्ली-डंडा जैसे धामर-धूसर के पश्चात बाबासाहेब के पोते-पोतियों की जमात के साथ वो भी शामिल हो जाया करता था भैय्यन की झोपड़ी में | उनकी हैरतअंगेज कहानियों में उस जामुन पेड़ पर के भूत वाली कहानी में खुद का भी सपोर्टिंग रोल पाकर महीनों इतराता रहा था वो | ये और बात थी कि बाद में बाबासाहेब की खैनी लिटाने की उनकी पुकार पर वो कई बार बाबासाहेब से विनती कर चुका था कि वो उसका नाम आहिस्ते से पुकारे...नहीं तो जामुन पेड़ वाला भूत किसी रोज उसे उठा कर ले जाएगा उसे खैनी लिटवाने के लिए | बाबासाहेब की हँसी उसके हर इस अनुनय के बाद देर तक गूँजती रहती थी बैठकी में और अकबकाया सा जूगनू भाग कर ताड़ी पिये बेसुध पड़े अपने बाबूजी के पास या अपने बड़े से पलंग पर बैठी जाप करतीं दाय जी के पास आ जाता था बाबासाहेब की शिकायत लिए...ठुनकता हुआ | ...और फिर दाय जी जाप-वाप छोड़ देर तक सुनाती रहती थीं बाबासाहेब को...

       दाय जी की याद आते ही एक अलग ही वात्सल्य रस से भर गए एस॰ पी॰ साब....पूरे प्रखण्ड में उन जैसी भव्य, उन जैसी सुन्दर कोई नहीं थी | आठ-आठ बच्चों की माँ होने के बावजूद भी उनकी खूबसूरती का रौब ठाठ मारा करता था| बाबासाहेब ने एक बहुत ही नामी चित्रकार को उन दिनों कलकत्ता से बुलावा भेजा था और दाय जी की एक खूब बड़ी-सी पेंटिंग बनवाई थी | दाय जी को घंटों एक ही मुद्रा में बैठे रहना पड़ा था उस चित्रकार के सामने | एकदम जीवंत-सी लगा करती थी वो पेंटिंग बाबासाहेब के पलंग के पीछे दीवार पर टंगी | पेंटिंग की याद आते ही जुगनू एक बार फिर से मुड़ गया कोठे के मलवे की ओर, सोचता हुआ कि वो पेटिंग भी क्या इस मलवे में दबी होगी | दस-बारह साल से तो ऊपर ही हो गए कोठी को गिरे हुये...किसी ने अभी तक इसे साफ करने की भी जोहमत नहीं उठाई थी |

       कौन उठाता भी ये जोहमत वैसे....बाबासाहेब का तमाम कुनबा तो विदेशों में जा बसा था | पहले वाले तीन काकाओं का तो देहांत हो चुका था कब का...उनके सारे बच्चे पहले ही अमेरिका में रह रहे थे | चौथे वाले काका भी अपने बच्चों के साथ अमेरिका में ही रहते थे | उनमें से कोई भूल कर भी नहीं आता अब इधर | एक बस छोटे वाले काका और काकी रह गए थे यहाँ, लेकिन उन्होंने भी अपनी कोठी के पीछे बड़ी-सी चारदीवारी डलवा कर आँगन को दरकिनार कर दिया था और अपना अहाता उधर गाँव की सड़क तरफ खुलवा लिया था | बड़का आँगन की देखभाल उसके बाबूजी, जब तक जिंदा रहे करते रहे अपनी सामर्थ्य के हिसाब से | फिर एक दिन उन्हें भी ताड़ी पी गई पूरी की पूरी साबूत | तब कॉलेज में प्रवेश लिया ही था जुगनू ने | वहीं उसी जामुन पेड़ के नीचे दाह-संस्कार किया था उसने अपने पिता का...ठीक वहीं बगल में, जहाँ कभी बाबासाहेब का और दाय जी और बहुत बाद में भैय्यन का दाह-संकार हुआ था |
        
       आँगन में घूमता-टहलता जुगनू भैय्यन की झोपड़ी के अवशेष तलाश रहा था, लेकिन जिसका कोई निशान तक नहीं मिल रहा था विशाल कोठी के मलवे तले | शायद नियति भी तो यही थी उस उदास अकेली झोपड़ी की | बचपन की पहली होश वाली देहरी से लेकर कॉलेज जाने तक भैय्यन वैसी की वैसी ही रहीं उसके लिए | वही छोटा-सा कद, झुकी पीठ ले कर चलते हुये इस आँगन से उस आँगन | तमाम उत्सव-त्योहारों पर दरकिनार कर दी गई अपनी झोपड़ी में...लेकिन बड़का आँगन की ही नहीं, पूरे गाँव के बच्चा पार्टी की नायिका | कई बार उलझ पड़ता था जुगनू दाय जी के साथ और कई बार बाबासाहेब के साथ भी कि भैय्यन क्यों नहीं छठ में सबके साथ घाट पर आती हैं...कि क्यों अनन्या दीदी की शादी में जब सब आँगन में थे, तो भैय्यन उसके बुलाने पर भी नहीं आ रही थीं बाहर...कि क्यों वो हमेशा उजली धोती में लिपटी रहती हैं...कि क्यों बाकी काकी लोग उनको जब तब बेइज्जत करती रहती  हैं...कि क्यों उन्हें हमेशा भात और उबला आलू ही खाते देखता है वो...??? कई बार तो भैय्यन से भी पूछा था उसने, लेकिन भैय्यन जाने किस फकरे से बात शुरू करतीं जवाब में और फिर आ जातीं किसी कहानी पर और वो सब भूल कर सम्मोहित-सा परियों और राजाओं की दुनिया में चला जाता | उस दिन जब बड़के काका की बेटी का जन्म-दिन था, कितना खीड़-पूरी-जलेबी सब बना था और वो चुरा के ले गया था थोड़ी-सा खीड़ और दो जलेबी भैय्यन के लिए और कैसे रोते-रोते उसे अपनी गोद में चिपटा कर देर तक बैठी रही थीं भैय्यन |

       थोड़ी-सी सर्द हो आयी दोपहर दम साधे जुगनू के साथ उस मलवे में एक उदास तन्हा झोपड़ी की कोई निशानी ढूँढ रही थी, जब एकदम से काले-काले मेघ उमड़ आये...सर उठा कर देखा एस॰पी॰ साब ने एक सिगरेट सुलगाते हुये और अचानक ही उन्हें वो तीन मेढ़कों वाली कहानी याद आयी, जिसे भैय्यन बड़े अंदाज़ में बाकायदा मेढ़कों के टर्राने की आवाज़ निकाल कर सुनाया करती थीं | बरसात के दिनों में अक्सर गाँव की कच्ची सड़क के किनारे एक के ऊपर एक बैठे तीन मोटे-मोटे हरे रंग वाले मेढ़कों वाला मंज़र आम हुआ करता था...अपने थूथने के दोनों ओर से कुछ बैलून सा निकालते ओएंक-ओएंक करते हुये ढौंसा बेंग...हाँ, बचपन के उन बेढ़ब बेलौस दिनों में ढौंसा बेंग के नाम से ही प्रचलित थे वो हरे-हरे मोटे मेढ़क | भैय्यन के पास उन एक के ऊपर एक बैठे तीन मेढ़कों वाले दृश्य की बड़ी ही मजेदार कहानी हुआ करती थी | उनके अनुसार वो तीनों मेढ़क टर्राते हुये कुछ इस प्रकार बोलते थे आपस में...
       सबसे ऊपर वाला मस्ती में “ओंक-ओंक”...वो मजे की, असीम आनंद की ओंक-ओंक हुआ करती थी     बीच वाला “तर गुल-गुल ऊपर गुलगुल” 
       और सबसे नीचे वाला “ओं ओं हम तs गेलौsss

       ...और सुनकर सारे बच्चों के साथ वो भी किस कदर लोट-पोट हो जाया करता था |

       एस॰पी॰ साब ने एकदम से शिद्दत की नजर भर कर ऊपर आसमान की तरफ देखा था कि अभी जो बारिश हो जाये तो क्या फिर से वो तीन मेढ़कों वाला दृश्य देख पायेगा अब हजार सदियों बाद भी | काले मेघों का हुजूम उमड़-घुमड़ कर वापस चला गया था, बगैर एक बूंद बरसाये और आसमान को ताकती एस॰पी॰ साब की निगाहें जामुन के पेड़ पर जाकर ठिठक गई थीं | जामुन के पेड़ पर उस बरैम-बरैम वाले भूत के अलावा चिड़ियों का एक परिवार भी रहा करता था उन बेलौस दिनों में...और जब बड़का आँगन के बच्चा पार्टी के छोटे-छोटे हाथों से फेंके गए कंकड़-पत्थर पेड़ पर फले काले-नीले जामुनों को नीचे गिराने में सफल नहीं हो पाते तो भैय्यन का गाया हुआ एक फकरा तमाम बच्चों के समवेत स्वर में गूंजायमान होकर चिड़ियाँ के परिवार से गुहार लगाता...
“चिड़िया के बचबा चिहुलिया रे
दू गो जामुन गिरा
कच्चा गिरेबा त मारबौ रे
दू गो पक्का गिरा”

       पता नहीं उस गुहार पर चिड़िया के चिहुलिया बच्चों ने कभी जामुन गिराया कि नहीं, लेकिन इस वक्त एस॰पी॰ साब की आँखों से आँसू जरूर गिर पड़े थे | माँ के गुज़र जाने के बाद एक तरह से भैय्यन ने ही उसे पाला पोसा था | अच्चक यादव को बाबासाहेब के टहल-टिकोरे से निजात मिलती थी तो ताड़ी का घैला घेर लेता था उसे...और वैसे भी अपने इकलौते बेटे से खार खाये ही रहता था वो | पैदा होते ही कमबख्त उसकी मौगी को खा जो गया था | ऐसे में भैय्यन की झोपड़ी ही आसरा हुआ करती थी उसका | दाय जी की विशाल रसोई में या फिर अन्य काका लोगों के घरों में चाय-पानी के लिए उसके और उसके बाबूजी के लिए कप-प्लेट और ग्लास अलग से रखे रहते थे...चाय का कप तो अक्सर ही टूटी हैंडल वाला हुआ करता था | लेकिन भैय्यन की झोपड़ी में उसके लिए ऐसी कोई बन्दिशें नहीं थीं | अकसार पूछा करता था वो भैय्यन से कि जब वो आंगन के सारे बच्चों के साथ खेल सकता था, उनके साथ स्कूल जा सकता था तो फिर उनके साथ खाना क्यों नहीं खा सकता था | वैसे उसके स्कूल जाने की कहानी भी बड़ी रोचक दास्तान से शुरू हुई थी | बाबूजी को ना फुर्सत होती थी उसे देखने की ना ही कोई चाह...ऐसे में दिन भर आवारगर्दी करता फिरता था वो...कभी गाँव के पूरबी कोने वाले आमों की बुढ़िया गाछी में या फिर तिलाबे धार के किनारों पर | बुढ़िया गाछी के पेड़ों से टपके आम के कच्चे टिकोलों की भुजबी नमक-तेल मिला कर चबाते हुये दिन भर उधम मचती थी तिलाबे किनारे गुवार टोली और मुसहर टोली के लड़कों के साथ | वहीं सीखा था उसने मुसहर टोली के बच्चों से तिलाबे धार की जलकुंभियों को इकट्ठा करके उन्हें खूब कस कर आपस में बांधना और फिर उस पर सवारी करते हुये धार की लंबाई-चौड़ाई नापना | ऐसी ही कोई उकतायी सी दोपहर थी जब वो मुसहर टोली के दो-तीन लड़कों के साथ जलकुंभी यान पर विराजे तिलाबे की सैर कर रहा था और बाबा साहब अपनी जीप पर आए थे चंद मातहतों के साथ किसी जमीन की नपाई के सिलसिले में और देखा था उन्होने जुगनू को तिलाबे की उतंग लहरों पर तैरते हुये | वहीं खड़े-खड़े पहले तो अच्चक को असंख्य गालियों से सुशोभित किया उन्होंने और फिर जुगनू को अपनी जीप पर बिठा कर वापस आ गए थे | अगले दिन ही उसका दाखिला अपने पोतों के साथ  करवा दिया था उन्होंने शहर के नामी स्कूल में ....जुगनू यादव पहली बार नीली पैंट, सफ़ेद शर्ट और नीली टाय लगाए पीठ पर बस्ता टाँगे बाबासाहेब के पोतों के साथ स्कूल जा रहे थे और आने वाले कई महीनों तक पांचों काकियों के तानों का शिकार बनते रहे थे...”ऊँह गुवार का बेटा स्कूल जायेगा” जैसे उछलते जुमले के बीच जुगनू यादव पढ़ रहे थे...लिख रहे थे...और ढ़ेर सारा सीख रहे थे |

       ये नई दुनिया थी नन्हें जुगनू के लिए...अलग सी...हककी-बक्की, लेकिन खूब प्यारी दुनिया | शुरूआत देर से हुयी थी तो वो अपनी कक्षा के बच्चों से थोड़ा बड़ा था...लेकिन कुछ था उसके दिमाग का अतिरिक्त कोना जो उसे सबकुछ जल्दी समझने की ताकत देता था |

       तमाम स्मृतियों के द्वार जैसे एकदम से भड़भड़ा कर खुल गए थे | आने वाले सालों में काकियों के जुमले मंद पड़ते हुये अपने-अपने बेटों के लिए तुलनात्मक फिकरों में बदल गए थे कि जुगनू हर कक्षा में साल-दर-साल अव्वल आता रहा | लेकिन छोटकी काकी जिनकी सिर्फ तीन बेटियाँ ही थीं, बस एक ही सुर अलापे रहती थीं कि पढ़-लिख लेने से क्या होगा...होना तो खवास ही है बाप की जगह और तब भैय्यन के फकरे उसका संबल बनते...किसी कवि की पंक्तियाँ सुनाती थीं वो अक्सर, जो बाद में उसने अपनी किताबों में भी पढ़ा “खड़ा रहा जो अपने पथ पर लाख मुसीबत आने में, मिली सफलता जग में उसको जीने में मर आने में” और संबल बनते बाबासाहेब के उपदेश जो उसे अक्सर थोक के भाव में मिला करते थे खैनी लिटाते समय |

       स्मृतियों के खुले द्वार से टपकता भैय्यन का अविरल स्नेह काले मेघों के पलायन के बाद भी दोपहर को जैसे गीला किए जा रहा था | एस॰पी॰ साब का मन कर रहा था कि खुद ही फावड़े लेकर बैठ जाये उन मलवों के हटाने में और ढूंढ निकाले भैय्यन की झोपड़ी के अवशेष | कई बार पूछता वो कि आपको सब भैय्यन क्यों बुलाते हैं...भला ये क्या नाम हुआ | लेकिन उन्हें अपना ये नाम बहुत ही पसंद था | सबसे अलग...उनकी साथ वाली बचपन की सहेलियाँ जब भी आतीं तो उन्हें उनके वास्तविक नाम गंगा दाय से ही बुलाती थीं | भैय्यन नाम कहीं से अपभ्रंशित होता हुआ बुब्बन से हुआ था | बाबासाहेब अपने बचपन के दिनों में बुबा हुआ करते थे और उनकी छोटी बहन बुब्बन...वहीं कहीं से बिगड़ता हुआ ये कब भैय्यन बन गया, उन्हें खुद भी याद नहीं था | बाल विवाह की प्रचलित परंपरा के अनुसार बाबासाहेब के पिता ने भैय्यन की शादी बगल के गाँव के ही एक नामी जमींदार के बेटे से कर दिया था, जिसकी मौत शादी के दो महीने बाद ही पोखर में डूब कर हो गई थी और भैय्यन वापस आ गयी थीं अपने पैतृक गाँव में |

       उन दिनों कहाँ समझ पाता था जुगनू भैय्यन की उस सफेद लिबास के पीछे छुपे दर्द को | उसे बड़ा मन होता कि भैय्यन भी दाय जी की तरह या फिर बड़का आँगन की काकियों की तरह रंग-बिरंगी साड़ी पहने | छठ पूजा में तो वो कई बार जिद मचा देता...एक बार तो उठा भी लाया था चुपके से दाय जी की एक लाल रंग की साड़ी भैय्यन के लिए, जिसके लिए उसे पहली और आखिरी बार भैय्यन से थप्पड़ खाने को मिले थे | दाय जी ने कैसा हंगामा खड़ा कर दिया था उस बात पर पूरे आँगन में और कैसा दुबका रहा था वो पूरे वक्त भैय्यन की झोपड़ी में | सारी काकियों ने एकजुट होकर भैय्यन के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था | कैसे कैसे ताने सुनने को मिले थे उन्हें | सारा दोषारोपण उनके ही माथे मढ़ दिया गया था कि उन्होंने ही जुगनू को सिखाया होगा | ख़ामोशी की चादर ओढ़े झोपड़ी में अपने खाट पर पड़ी रही थीं भैय्यन जाने कितने दिनों तक...और तब कभी खैनी लिटाते हुये सहमते-सहमते जुगनू ने सारी बात बाबासाहेब को सुना दी थी और सुनकर हुमकता हुआ बाबासाहेब का आक्रोश जो गूंजा था हुंकार बनकर पूरे आँगन में...उफ़्फ़ ! सारी काकियाँ तो सिट्टी-पिटी खोये दुबक ही गई थीं काकाओ के पहलू में और दाय जी के मुंह से कोई बोल नहीं फूट रहा था फिर | कितना खुश हुआ था जुगनू उस दिन | उन्हीं गमज़दा से दिनों के बोझ में सिकुड़ी जा रही भैय्यन ने कितनी बातें की थी जुगनू से...तुम्हें बहुत बड़ा हाकिम बनना है और समाज की इन सब सड़ी रीति-रिवाजों को हटाना है...मुसहर, गुवार सब जाति के लोग एक-दूसरे से खुल कर मिलने-जुलने चाहिए गाँव में, ऐसा कुछ करना है तुम्हें...

       ...और उन्हीं दिनों में कभी दक्षिणवारी टोला के भोटन प्रसाद महतो की छोटी बेटी की शादी के एक साल के बाद ही उसके दूल्हे की मौत हो गई थी साँप काटने से...दीपा नाम था उसका और बड़का आंगन आती-जाती थी वो | उस से दो-एक साल ही तो छोटी होगी | उसे भी वापस आ जाना पड़ा था अपने मायके और अभिशप्त हो गई थी वो भी भैय्यन की तरह ता-उम्र इस सफेद एकाकी जीवन जीये जाने के लिए | भैय्यन लेके गई थी उसे भी अपने साथ भोटन महतो के घर एक दिन, दीपा को देखने के लिए | दीपा को तो कुछ भान भी नहीं था कि उसके साथ क्या बीतने वाली है...बाहर चबूतरे पर वो अट्ठा गोटी खेल रही था अपनी दो सहेलियों के साथ | ...और उसी रात वापस अपनी झोपड़ी में उसे दूध-रोटी खिलाते हुये कहा था भैय्यन ने उसे कि दीपा की शादी करा देना तुम जब बड़का हाकिम बन जाओगे | वहीं दूसरी ओर सब काकियाँ मड़वे पर बैठीं जम के बबली और उसके घर वालों की शिकायतें की जा रहे थीं....कि अभी अभी पति मरा है और महारानी अट्ठा गोटी खेल रही है...उसे कुछ लिहाज नहीं, लेकिन भोटना और उसकी महताइन को तो समझाना चाहिए था...वगैरह-वगैरह और भैय्यन ने कहा था उस से कि बड़े होकर उसे इन सबसे लड़ना है |

       शाम का धुंधलका उतर आया था बड़का आँगन में...और पैकेट की आखिरी सिगरेट का आखिरी कश लगा कर जुगनू चल पड़ा था छोटे काका और काकी से मिलने | अपनी तीनों बेटियों को खूब सारा दहेज-वहेज देकर सम्पन्न ब्राह्मण परिवार में ब्याहने के बाद छोटका काका-काकी यहीं गाँव में ही रहते थे....बड़का आँगन की तरफ एक बड़ी सी दीवार खड़ी करके, उन्होने अपनी कोठी का मुख्य द्वार परली तरफ गाँव की पतली सड़क पर खोल लिया था | बोलेरो को उस ओर घूमाने के बाद एस॰पी॰ साब को खुद ही उतर कर दरवाजा खोलना पड़ा था छोटका काका के विशाल अहाते का और गाड़ी को ज्यों ही अंदर पार्क करने के लिए वो स्टार्ट करने वाला था कि एक झुकी हुई बौनी सी काया दौड़ती हुयी आई थी | “मंगल बा”.... पहचानते हुये जुगनू की हँसी निकल आयी |

       “मंगल बा, पहचाने हमको? हम जुगनू !”

       झुक के पैर छूते ही मंगल बा ने उसे पहचानते हुये भर पाँज कर गले लगा लिया | मंगल बा उसके बाबूजी अच्चक यादव के साथ ही बाबासाहेब के कुनबे में एक बचपन से खवास थे | उनकी बूढ़ी हो आई काया जाने कैसे कमर से एकदम झुक आई थी, लेकिन चुस्ती और फुर्ती जैसे अभी भी वही की वही थी | जुगनू को याद आया कि कैसे बचपन के दिनों में मंगल बा के तेज चलने की अजब-गज़ब कहानियाँ मशहूर थीं... इतना तेज चलते थे वो कि एक बार खेत की मेंड़ से उतरते हुये उन्होंने अपने पैरों तले खेत में पिल्लू खोदते हुये कौये को कुचल दिया था |

       “आ बs ! आ बs, बचबा !! अब तs बड़का हाकिम हो गयील तोहरा के !” ...और बड़े स्नेह से हाथ पकड़े हुए मंगल बा ले गए उसे छोटका काका से मिलवाने |

       लंबे-से साँवले कसरती बदन पर चुस्त पूलिस की वर्दी का रौब कुछ ऐसा छटक रहा था कि छोटकी काकी तो उसे अपलक निहारती ही रह गयीं एक थम से गए लम्हे के लिए | कभी हमेशा जमीन पर ही बिठाये जाने वाला जुगनू आज काका-काकी के साथ ही उनके बगल में सोफे पर बैठा था और जब काकी ट्रे में बाकायदा सजा कर उसे चाय का कप पकड़ाया तो जुगनू अपनी हँसी नहीं रोक पाया | जिस कप में उसे चाय दिया गया था, बिलकुल वैसे ही सुंदर से कप में काका ने भी चाय लिया था और खुद को रोकते-रोकते भी कह ही पड़ा जुगनू काकी से-
       “आज हमारे लिए अलग से कप नहीं, काकी?”
       “अरे जुगनू बेटा, वो सब तो पुरानी बात हो गई | तुम तो बड़े ऑफिसर हो गए हो अब?” काकी के चेहरे पे झेंपी हुई मुस्कान की एक-एक परत स्पष्ट थी |
       “और क्या चल रहा है जुगनू ? सालों बाद आ रहे हो | कैसा है सब कुछ ?” काका बहुत बूढ़े हो चले थे |
       “सब ठीक चल रहा है काका | बड़ी मुश्किल से पोस्टिंग मिली है यहाँ की | अभी दो-तीन साल तो इधर ही रहूँगा |”
       “और शादी-ब्याह का इरादा नहीं है क्या ? अब तो कर लेना चाहिए तुमको |” काकी की आवाज़ में जाने कैसा ममत्व बरस रहा था कि एस॰पी॰ साब द्रवित हुये जा रहे थे |
       “जी काकी, यहाँ आने का एक कारण वो भी है | अब आपलोग ही कुछ बात चलाइए ना |”
       “अरे वाह ! कोई लड़की है मन में क्या ? गाँव की ही है ?”  
       “जी काकी ! वो दीपा... वो भोटन महतो की बेटी |”

       नहीं, बिजली तो नहीं गिरी प्रत्यक्षत आसमान से, लेकिन प्रभाव कुछ ऐसा ही हुआ था कमरे में | छोटका काका और काकी दोनों ही को वो साँप सूँघ जाना जैसा कुछ जो भी होता है, वैसा ही कुछ हो गया था | हमारे यहाँ आज तक ऐसा नहीं हुआ...विधवा का ब्याह निषेध है...पाप चढ़ता है...वगैरह-वगैरह के उद्गार उस साँप सूँघ जाने की स्थिति से उबरने के बाद जो निकलने लगे तो एस॰पी॰ साब उस पर बस स्मित सी मुस्कान बिखेरते अपनी घनी मुंछों के पीछे से, बस हाँ में सर हिलाते रहे | इधर-उधर की बातें और बाकी सब का हाल-चाल ले लेने के बाद जुगनू जब विदा लेकर जाने लगा तो बाहर बरामदे पर चुक-मुक बैठे मंगल बा साथ हो लिए थे बोलेरो तक...दौड़ कर अहाते का दरवाजा खोला था उन्होंने और दोनों हाथ उठाये आशीर्वाद देने की सी मुद्रा में देर तक खड़े रहे थे बोलेरो के रियर व्हयू मिरर में|


       एस॰पी॰ साब की सरकारी बोलेरो धूल उड़ाती निकल पड़ी थी दक्षिणवारी टोला की तरफ भोटन प्रसाद महतो के घर की ओर...अपने अनूठे मिशन पर |

3 comments:

  1. प्रवाहमयी कथा, पूरा जीवन समेट लिया चन्द पंक्तियों में, अन्त और भी सशक्त।

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  2. ग्रामीण परिवेश और मानवीय भावनाओं को बहुत ख़ूबसूरती से उकेरती इस कहानी की जितनी तारीफ की जाय कम है , कथा शैली शिल्प और प्रस्तुतिकरण से विजय दान देथा की याद ताज़ा हो गयी ।

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