रमजान के पवित्र महीने की मुबारकबाद आपसब को। कश्मीर में हालात थोड़े सुधरे हैं। पत्थरबाजी इधर तो कम हुई है, किंतु ब्लौगजगत में अभी भी यत्र-तत्र जारी है और ऐसे तमाम पत्थरों से इतना ही कहना है बस कि किसी की विनम्रता को उसकी कमजोरी कदापि न समझा जाये। खैर, बहुत दिन हो गये थे अपनी कोई ग़ज़ल सुनाये हुये ब्लौग पर।...तो एक अदनी-सी ग़ज़ल प्रस्तुत है, जिसे मुफ़लिस जी ने कहने लायक बना दिया है:-
न समझो बुझ चुकी है आग गर शोला न दिखता है
दबी होती है चिंगारी, धुँआ जब तक भी उठता है
बड़े हो तुम कि तुम तो चाँदनी से घर सजाते हो
हमारी झुग्गियों में चाँद भी छन-छन के चुभता है
गया वो इस अदा से छोड़ कर चौखट कि मत पूछो
हर इक आहट पे अब देखो ये दरवाजा तड़पता है
बता ऐ आस्मां कुछ तो कि करने चाँद को रौशन*
तपिश दिन भर लिये सूरज भला क्यूं रोज़ जलता है {*ये शेर खास तौर पर लोकप्रिय कवि लाल्टू को समर्पित है}
बना कर इस कदर ऊँचे महल, तू छीन मत मुझसे
हवा का एक झोंका जो मेरी खिड़की में रहता है
चलो, चलते रहो, पहचान रुकने से नहीं बनती
बहे दरिया तो पानी पत्थरों पर नाम लिखता है
वो बचपन में कभी जो तितलियाँ पकड़ी थीं बागों में
बरस बीते, न अब तक रंग हाथों से उतरता है
कहो मत खोलने मुट्ठी हमारी, देख लो पहले
कि कैसे बंद मुट्ठी से यहाँ तूफ़ान रिसता है
किताबें बंद हैं यादों की जब सारी मेरे मन में
ये किस्से जेह्न में माजी के रह-रह कौन पढ़ता है
कई रातें उनिंदी करवटों में बीतती हैं जब
कि तब जाकर नया कोई ग़ज़ल का शेर बनता है
{त्रैमासिक ’कथन’ के अप्रैल-जून 2010 अंक में प्रकाशित}
...और हमेशा की तरह इस ग़ज़ल की बहरो-वजन पर चर्चित गीतों और ग़ज़लों का जिक्र। मेरा बहुत ही पसंदीदा गीत है एक महेन्द्र कपूर साब का गाया हुआ "किसी पत्थर की मूरत से मुहब्बत का इरादा है" वाला और उन्हीं का गाया एक और गीत याद आता है इसी बहर पर "चलो एक बार फिर से अजनबी बन जायें हमदोनों"।
फिलहाल इतना ही।
गौतम जी, आपकी इतनी बेहतरीन गजल पर टिप्पणी मैं कर सकूं ऐसी मेरी हैसियत नहीं।
ReplyDeleteवो बचपन में कभी जो तितलियाँ पकड़ी थीं बागों में
बरस बीते, न अब तक रंग हाथों से उतरता है।
ऐसे ही इन शेरों के रंग दिल में चस्पा हो गए हैं। बहुत ही बेहतरीन।
बना कर इस कदर ऊँचे महल, तू छीन मत मुझसे
ReplyDeleteहवा का एक झोंका जो मेरी खिड़की में रहता है
गौतम,एक अच्छी ग़ज़ल के दर्शन हुए
ख़ास तौर पर ये शेर
आज कल हर तरफ़ जिस तरह कॉंक्रीट के जंगल उग रहे हैं ये शेर उस स्थिति को सार्थक करता है सामान्य तौर पर भी और अपने गूढ़ अर्थों में भी
बधाई
गौतम भाई कैसे हैं..... ?
ReplyDeleteआज कमेन्ट का श्री गणेश आप ही से कर रहा हूँ..... आजकल तो मेरा भी ब्लॉग पर आना कम हो गया है.... कारण तो आपको मालूम ही है.... यहाँ टाइम ही नहीं मिलता .... एकदम आर्मी जैसा ही डिसिप्लीन है.... अपना तो वही है कि सुबह एक घंटा रात में एक घंटा कमेन्ट के लिए.... और पोस्ट तो टाइप करने का टाइम ही नहीं मिल पा रहा है.... फिर भी थोडा थोडा कर के टाइपिंग चल ही रही है.... अच्छा! मैंने कुछ ग़ज़ल लिख कर रखी हुई है.... लेकिन कॉन्फिडेंस ही नहीं बन पा रहा है कि पोस्ट करूँ.... पिछली बार पोस्ट किया था तो कहीं काफिया के पहलू में अटक गया ... तो कहीं मतले ने पहलू से ही झटक दिया.... अल्टीमेटली ... भाव बना रहा और हम उसे ग़ज़ल कहते रहे... ख़ैर! आपको मेल करूंगा .... एडिटिंग कर के बताइयेगा कैसी बनी है.......अभी हाल ही में दस नोवेल खरीदी हैं.... जिसमें से एक नोवेल है.... Why MARS & VENUS collide..... इसे John Gray ने लिखा है..... पढियेगा ज़रूर .... बहुत अच्छा सेन्स ऑफ़ साइकोलॉजिकल डेवलपमेंट का एहसास होगा.... इट ईज़ हाईली रिकमेंडेड..... या फिर अपना 56/96 APO ...भेज दीजिये मुझे.... मुझे अभी ऊपर एक लाइन जो कि आपने बहुत सही कही है .... अच्छी लगी..... "विनम्रता को उसकी कमजोरी कदापि न समझा जाये।" मैं तो हर मैगजीन पर नज़र रखता हूँ कि कहीं आपकी कोई ग़ज़ल पढने को मिल जाये.... और जो कि अक्सर मिल भी जाती है.... "कथन" मैंने कभी नहीं पढ़ी थी.... अब अपने वेंडर से कह देता हूँ.... आपकी ग़ज़ल्स की बात ही अलग है...
कहो मत खोलने मुट्ठी हमारी, देख लो पहले
कि कैसे बंद मुट्ठी से यहाँ तूफ़ान रिसता है
यह पंक्तियाँ तो बिलकुल मुझ पर सूट करतीं हैं..... कुल मिलाकर बहुत अच्छी लगी आज कि धमाकेदार पोस्ट....
बहे दरिया तो पत्थरों पे नाम लिखता है....
ReplyDeleteकहो मत खोलने मुट्ठी हमारी, देख लो पहले
ReplyDeleteकि कैसे बंद मुट्ठी से यहाँ तूफ़ान रिसता है
आपके हर शब्द में तूफान रिस रहा है। यह ओजस्विता बनी रहे।
सोचा था 'मजाल' ने शैतान का है काम,
ReplyDeleteकमबख्त हर बार आदमी ही निकलता है.
एक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
ReplyDeleteआपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं !
बहुत ही बढ़िया गज़ल...
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल है...... किसी एक शेर की तारीफ़ कैसे करूँ सारे अश`आर ही एक से बढ़कर एक हैं.... बहुत खूब!
ReplyDeleteगौतम जी
ReplyDeleteकौन सा शेर पकडूँ और कौन सा छोडूँ……………………असमंजस मे डाल दिया………………इतनी संजीदगी और गहनता का समावेश सिर्फ़ आप ही कर सकते हैं…………………हर शेर एक चोट सी करता है और सोचने को मजबूर करता है।
बड़े हो तुम कि तुम तो चाँदनी से घर सजाते हो
हमारी झुग्गियों में चाँद भी छन-छन के चुभता है
ओह!विवशता का चित्रण्।
गया वो इस अदा से छोड़ कर चौखट कि मत पूछो
हर इक आहट पे अब देखो ये दरवाजा तड़पता है
दर्द की इम्तिहाँ……………।
बेजोड लेखन्।भावों का उत्कृष्ट समन्वय्।
गौतम राजरिशी जी
ReplyDeleteनमस्कार !
बेहतरीन ग़ज़ल लिखी है …
बधाई आपको भी और आदरणीय मुफ़लिस जी को भी !
पूरी ग़ज़ल शानदार है ! जानदार है !
लेकिन मेरे दिल पर क़ब्ज़ा कर लेने वाले ख़ास अश्'आर मैं उद्धृत किए बिना नहीं रह पा रहा हूं …
गया वो इस अदा से छोड़ कर चौख़ट कि मत पूछो
हर इक आहट पे अब देखो ये दरवाज़ा तड़पता है
बहुत - बहुत गहरी संवेदना है…
क्या ख़ूब है यह शे'र भी …
चलो, चलते रहो, पहचान रुकने से नहीं बनती
बहे दरिया तो पानी पत्थरों पर नाम लिखता है
इस बाकमाल शे'र में एक फ़ल्सफ़ा भी है , हक़ीक़त भी … और प्रेरणा भी ।
ता'रीफ़ के लिए अल्फ़ाज़ कम रह जाएंगे , जितना भी कहूं चाहे !
लेकिन दो शे'र ऐसे भी हैं , जिन पर इस विश्वास के साथ ही बात कर रहा हूं कि बिना बुरा माने सहजता से लेंगे , जैसा कि आपका स्वभाव मैं मानता आया हूं अब तक । … और एक बेहद हुनरमंद ग़ज़लगो के अलावा आपके इस रूप का भी मैं प्रशंसक और मुरीद हूं ।
… तितलियां …… न अब तक रंग हाथों से उतरता है
ऐसा नहीं लगता कि इस कहन में वीभत्सता भी सम्मिलित हो आई है ?
तितली के मसले जाने पर ही तो रंग उतरा होगा !!
शायद यहां फूल , मेंहदी या गुलाल जैसा कोई बिंब ज़्यादा उपयुक्त होता । क्या कहते हैं आप ?
…और ,
कहो मत खोलने मुट्ठी हमारी, देख लो पहले
कि कैसे बंद मुट्ठी से यहां तूफ़ान रिसता है
यहां वाक्य विन्यास अधूरा रह गया है , खोलने क्रिया के साथ ' को ' , ' के लिए ' आने पर ही पूर्णता आती ।
आपके ब्लॉग पर बात कह रहा हूं , इस उम्मीद में कि जवाब ' आप ही से ' मिलेगा !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
बरस बीते, न अब तक रंग हाथों से उतरता है.
ReplyDeleteदिल को छूते आपके शेर गहरे दिल में उतरता है. और भी कुछ खबरे कुछ बाते कहना चाहता हूँ, पर आजकल टिप्पणी लिखने में परेशानी सी है. शायद फोन पर कह पाऊं.
@ राजेन्द्र जी, इसे मेरी सहज प्रतिक्रया ही समझियेगा...
ReplyDeleteतितली वाले शेर पर... मुझे कहन में वीभत्सता नहीं. बल्कि मासूम बचपन की यादें ताज़ा हुई लगती है.
यहाँ शेर पढ़ते के साथ मुझे यकायक वो सारे दृश्य नज़र आने लगे, जब हम भी अपने बगीचों में तितलियों के पीछे दौरा करते थे.
इसके बाद उँगलियों पर रंग देख आश्चर्य करते थे. आज उन दिनों को याद करवाने के लिए मैं ग़ज़ल के इस शेर को बहुत पसंद कर रहा हूँ. मैं जहाँ तक राजरिशी जी को समझता हूँ, वो अपने मौलिक भावो को वही शब्द देते हैं, जो ज़ेहन में आयें हो या घटना से सम्बंधित हो. आपके सुझाओं "फूल , मेंहदी, गुलाल इत्यादि" इस शेर में जरुर फिट हो सकते हैं. वैसे "फूल , मेंहदी, गुलाल" से सामना तो आज भी हो जाता है. परन्तु तितली वाले प्रसंग तो बचपन के साथ ही बीत चुके हैं.... और मेरे ख्याल से यही "Missing moments" इस शेर को प्रभावशाली बना रहा है. ग़ज़ल के अलग अलग शेर अलग अलग मिज़ाज लिए होते हैं, कुछ अत्यंत कोमल, सौम्य होते हैं तो कोई कठोर वीभत्स! परन्तु इस तितली वाले शेर में मुझे कहीं कोई विभत्सता नज़र नहीं आई, ये तो नादान भूले मासूम बचपन के अनमोल तोहफे हैं. जिसके रंग आज भी बरकरार हैं.
- सुलभ
(टिप्पणी का जवाब आपके अंदाज में देने के लिए गुस्ताखी माफ़ करेंगे :) वैसे हम भी आप जैसे अदीबों के संग बैठने से ही कुछ सीख पाते हैं.)
कई रातें उनिंदी करवटों में बीतती हैं जब
ReplyDeleteकि तब जाकर नया कोई ग़ज़ल का शेर बनता है
गौतम भाई समझ सकता हूँ इस ग़ज़ल पर आपने न जाने कितनी रातें खर्च कर दीं होंगी...एक एक शेर आपने बहुत हुनर से तराशा है...वाह...ग़ज़ल जितनी बार पढता हूँ हर बार पहले से ज्यादा मज़ा आ रहा है...कमाल किया है आपने...आपकी शान में सेल्यूट करता हूँ...
नीरज
गया वो इस अदा से छोड़ कर चौखट कि मत पूछो
ReplyDeleteहर इक आहट पे अब देखो ये दरवाजा तड़पता है
पीड़ा को जैसे सलीके से रोप जाता है यह मन में....
बना कर इस कदर ऊँचे महल, तू छीन मत मुझसे
हवा का एक झोंका जो मेरी खिड़की में रहता है..
कितना सच्चा ,कितना सही.....
वो बचपन में कभी जो तितलियाँ पकड़ी थीं बागों में
बरस बीते, न अब तक रंग हाथों से उतरता है..
वाह...बस वाह....
कहो मत खोलने मुट्ठी हमारी, देख लो पहले
कि कैसे बंद मुट्ठी से यहाँ तूफ़ान रिसता है
निःशब्द !!! ....सोच रही हूँ क्या कहूँ इसपर जो की उपयुक्त भाव प्रदर्शन कर सके..
किताबें बंद हैं यादों की जब सारी मेरे मन में
ये किस्से जेह्न में माजी के रह-रह कौन पढ़ता है
क्या बात कही...उफ़ !!!!
लम्बे अरसे बाद पढने का,आनंदित होने का सौभाग्य मिला...लेकिन यह एक बहुत बड़ी तस्सल्ली जरूर दे गया कि अभी वहां के हालात ऐसे जरूर हैं,जिसमे आदमी सांस ले पा रहा होगा..कुछ सोच समझ पा रहा होगा...
हाथ में हथियार हो, सामने धरती माँ को बेईज्ज़त करता आततायी और ऐसे में केवल अस्त्रों का रक्षात्मक उपयोग का आदेश हो....समझ सकती हूँ,क्या मनोदशा हो सकती है...
आपलोगों के धैर्य और शौर्य को शत शत नमन...
बेहतरीन शेर बन पड़े हैं। आपको बधाई।
ReplyDeleteहिज़री कलेण्डर में यदि रमजान के दो चार महीने और होते तो अच्छा होता ।
ReplyDeleteगज़ल बहुत अच्छी है ।
बेहद खुबसूरत रचना है आपकी
ReplyDelete..... आभार
कुछ लिखा है, शायद आपको पसंद आये --
(क्या आप को पता है की आपका अगला जन्म कहा होगा ?)
http://oshotheone.blogspot.com
ग़ज़ल बहुत पसंद आई. एक आम आदमी की ग़ज़ल खास आदमी की ज़ुबां से. मुफलिस साहब को भी इन शेर के सानिध्य में कुछ सोचते समय बहुत सुख नसीब हुआ होगा और उनसे भी बड़ा सुख मुझे नसीब हुआ कि दो दो प्रिय रचनाकारों से संवर कर आये शेर, ताजा कर गए. किसी एक शेर की तारीफ कैसे करूँगा ? सब आपकी प्रतिष्ठा और गंभीर सोच के अनुरूप हैं. लाल्टू... मुझे तो जाने क्यों ये नाम ही बड़ा अच्छा लगता है.
ReplyDeleteफिर से खूबसूरत ग़ज़ल के लिए बधाइयां.
भैया बहुत देर से पढ़ने आ पाया.. मुआफी चाहता हूँ.. सबसे पहले तो यही कहूँगा कि आपको इस अनुज की पोस्ट को पढ़ता देख मन कितना खुश हुआ इसका अंदाजा शायद आपको लिखते हुए भी ना हुआ होगा..
ReplyDeleteआपकी ग़ज़ल के बारे में लिखना तो मेरे लिए वैसा ही है जैसे पहले दर्जे का कोई बच्चा परास्नातक कक्षाओं की कॉपियां जांचे.. हाँ पढ़ के अच्छा बहुत लगा इतना तो कह ही सकता हूँ.. :)
गया वो इस अदा से छोड़ कर चौखट कि मत पूछो
ReplyDeleteहर इक आहट पे अब देखो ये दरवाजा तड़पता है
!!!!!!!!!
लाजवाब शेर !
चलो, चलते रहो, पहचान रुकने से नहीं बनती
ReplyDeleteबहे दरिया तो पानी पत्थरों पर नाम लिखता है
..इस शेर ने मन मोह लिया।
..बेहतरीन गज़ल।
न समझो बुझ चुकी है आग गर शोला न दिखता है
ReplyDeleteदबी होती है चिंगारी, धुँआ जब तक भी उठता है
-बहुत बेहतरीन गज़ल कही है, वाह!! वैसे तो आप हमेशा ही बेहतरीन लिखते हैं.
वो बचपन में कभी जो तितलियाँ पकड़ी थीं बागों में
ReplyDeleteबरस बीते, न अब तक रंग हाथों से उतरता है।
जियो भाई जियो इस कोमलता के क्या कहने। मैनपुरी के बड़े भाई फसाहत अनवर जी का एक शेर याद हो आया-
मेरे होठों पे तितलियां रखदे,
आज की रात मुझपे भारी है।
बड़े हो तुम कि तुम तो चाँदनी से घर सजाते हो
हमारी झुग्गियों में चाँद भी छन-छन के चुभता है
बना कर इस कदर ऊँचे महल, तू छीन मत मुझसे
हवा का एक झोंका जो मेरी खिड़की में रहता है
गया वो इस अदा से छोड़ कर चौख़ट कि मत पूछो
हर इक आहट पे अब देखो ये दरवाज़ा तड़पता है
चलो, चलते रहो, पहचान रुकने से नहीं बनती
बहे दरिया तो पानी पत्थरों पर नाम लिखता है
ग़ज़ल अपनी बुनावट खुद बयां कर रही है। सबसे बड़ी बात इसकी मौलिकता है। रिपीटेशन नहीं, कहीं ऐसा नहीं लगा कि अरे ये तो पहले भी पढ़ा है। बहुत-बहुत बधाई
ग़ज़ल की हुस्न को क्या इस तरह से संवारा जा सकता है ये सोच भी नहीं सकता ........ पढ़ रहा हूँ और गुन रहा हूँ .... बेहद खुबसूरत ग़ज़ल ... दिनों बाद आये मगर क्या खूब आये ...
ReplyDeleteऔर हाँ बहन जी को छूट देदो वो अच्छा लिख रही है देर रात चैटिंग के थ्रू ही सही .. :) :)
अर्श
wah.behad achchi lagi.
ReplyDeleteगौतम जी, आपके विचार और मतले से
ReplyDeleteपूरी तरह सहमति के लिए सबसे पहले अपना एक क़ता अर्ज़ है-
आग को हाथ लगाओगे तो जल जाओगे
अम्न का दीप बुझाओगे तो जल जाओगे
बर्फ़ की वादी है कश्मीर ये माना लेकिन
इसको छूने कभी आओगे तो जल जाओगे
अब बात आपके कलाम की....
पूरी ग़ज़ल उम्दा है....
और....
चलो, चलते रहो, पहचान रुकने से नहीं बनती
बहे दरिया तो पानी पत्थरों पर नाम लिखता है
जनाब,
ये शेर तो आसानी से भूलने वाला नहीं है...
इस उस्तादाना शेर के लिए बधाई स्वीकार करें.
बड़े हो तुम कि तुम तो चाँदनी से घर सजाते हो
ReplyDeleteहमारी झुग्गियों में चाँद भी छन-छन के चुभता है
Aah!
"Bikhare Sitare"pe phir ekbaar aapki tippanee ke zariye aapko yaad kiya hai.."In sitaron se aage 4" me phir ek baar shukriya!
किताबें बंद हैं यादों की जब सारी मेरे मन में
ReplyDeleteये किस्से जेह्न में माजी के रह-रह कौन पढ़ता है
Kya gazab kaa sher hai yah bhi!
ये तो वही है न कवी सम्मलेन वाला ?
ReplyDelete'चलो एक बार' तो मेरा पसंदीदा गीत है.
गौतम जी, बहुत अच्छी गजल है, सभी पंक्तियाँ लाजवाब हैं।
ReplyDeleteराजेन्द्र स्वर्णकार जी टिप्पणी भी गौर करने लायक है।
.
ReplyDelete.
.
प्रिय गौतम,
मतला, मक्ता, काफिया, रकीब, बहर और गिरह आदि के बारे में ज्यादा कुछ जानता नहीं... बरसों पहले एक दोस्त था... वो कहता था कि किसी शेर की ताकत इस बात में है कि उस ने किसी नाजुक या सूक्ष्म भाव/विचार को कितनी नजाकत/नफासत से अभिव्यक्त कर दिया है...संक्षेप में गजल या शेर कहना Understatement का सेलिब्रेशन है...
इसी पैमाने से आज भी देखता हूँ मैं मूढ़मति...इसीलिये दो शेर बहुत पसंद आये...
बड़े हो तुम कि तुम तो चाँदनी से घर सजाते हो
हमारी झुग्गियों में चाँद भी छन-छन के चुभता है
वो बचपन में कभी जो तितलियाँ पकड़ी थीं बागों में
बरस बीते, न अब तक रंग हाथों से उतरता है
और हाँ, बचपन में क्या...तितली दिखे तो आज भी पकड़ता हूँ...रंग उसके पंखों में बिखरा सा होता है...आपके हाथ में आ ही जायेगा वह रंग... तितली के संपर्क में आते ही...चाहो या न चाहो... कोई तितली पकड़ने वाला क्यों कर ऊसे मसलेगा...तितली तो पकड़ते हैं एक खूबसूरत अहसास को थोड़ी देर अपने, बस अपने पास रखने के लिये...और फिर से उड़ा दी जाती हैं...दुनिया को रंगों के ख्वाब दिखलाने के लिये...
आभार!
...
राजेन्द्र जी को प्रणाम,
ReplyDeleteकाश कि आप जैसी बेबाक टिप्पणी सबलोग देने लगे इस ब्लौग-जगत में।
वैसे तो सुलभ और प्रवीण शाह जी ने उस तितली वाले शेर को लेकर मेरा पक्ष पहले ही रख दिया है और जिसके लिये मैं दोनों का शुक्रगुजार हूँ दिल से। ऐसी कितनी ही तितलियाँ होती हैं सर कि जिनके पंख को हाथ लगाते ही रंग उंगलियों पर उतर आता है। ...और जो बात मैं कहना चाह रहा था वो गुलाब या मेंहदी से नहीं आ पाता।
दूसरे शेर की कमी मुझे खुद ही खटक रही थी। "मुट्ठी को" आना उचित होता, लेकिन बात कहने के लिये थोड़ी-सी स्वतंत्रता ले ली मैंने और फिर उस्ताद ने ओके कर दिया तो....
आभारी हूँ आपका। स्नेह बनाये रखें!
गौतम भाई
ReplyDeleteएक सृजनधर्मी और एक इंसान के रूप में आपकी जो कद्दावर छवि मेरे मन में थी उसका कद और बढ़ जाने की बधाई मैं स्वयं को दे रहा हूं ।
… साधुवाद के पात्र हैं स्वयं आप !
शंका निवारण के लिए कृतज्ञ हूं । धन्यवाद !
बहुत शुभकामनाएं हैं …
*** *** *** *** *** *** ***
आपसे संबद्ध किसी विषय पर बात करने के लिए मैं आपके दरवाज़े पर आऊं , ( चाहे आपकी मुझसे मिलने की पूर्व योजना - इच्छा न भी रही हो …) और अचानक कहीं से कोई आ'कर मुझे गाली निकाले , ध्रष्ट कहे … (और आपको भी अकारण धर्मसंकट में डाल कर चलता बने) ऐसी स्थिति की पुनरावृति मेरे साथ न हो , और … इस बार निमित्त आप न बन जाएं … इसी कारण से मैंने "जवाब ' आप ही से ' मिलेगा !" लिखा था ।
प्रवीणजी , सुलभजी से शिकायत नहीं … उन्होंने शालीनता का निर्वहन तो किया ।
आभार !
शुभकामनाएं !!
- राजेन्द्र स्वर्णकार
कभी कभी हम अपने विचारो से बंधे होते है मेजर .....अपने विचारो से बायस ....रस्सी तो बरसों पहले खोल देते है पर एक सिरा थामे रहते है .....जानते बूझते हो दुनिया को....अब ये भी जान गए हो के सफ्हे पे असाधारण दिखते लोग कभी कभी असल में साधारण से मालूम पड़ते है .....
ReplyDeleteकई रातें उनिंदी करवटों में बीतती हैं जब
ReplyDeleteकि तब जाकर नया कोई ग़ज़ल का शेर बनता है
वाह वाह ...एक एक शेर लाजबाब है ..और ये २ गीत महेंदर कपूर की आवाज़ में ...क्या याद दिला दिया आज सारा दिन यही बजेंगे अब.:)
Beeeaasutiful ..! Very beautiful ashaar ... !
ReplyDeleteबड़े हो तुम कि तुम तो चाँदनी से घर सजाते हो
हमारी झुग्गियों में चाँद भी छन-छन के चुभता है
बता ऐ आस्मां कुछ तो कि करने चाँद को रौशन*
तपिश दिन भर लिये सूरज भला क्यूं रोज़ जलता है
बना कर इस कदर ऊँचे महल, तू छीन मत मुझसे
हवा का एक झोंका जो मेरी खिड़की में रहता है
चलो, चलते रहो, पहचान रुकने से नहीं बनती
बहे दरिया तो पानी पत्थरों पर नाम लिखता है
वो बचपन में कभी जो तितलियाँ पकड़ी थीं बागों में
बरस बीते, न अब तक रंग हाथों से उतरता है
किताबें बंद हैं यादों की जब सारी मेरे मन में
ये किस्से जेह्न में माजी के रह-रह कौन पढ़ता है
कई रातें उनिंदी करवटों में बीतती हैं जब
कि तब जाकर नया कोई ग़ज़ल का शेर बनता है
वाह !
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद ईद से पहले ही चाँद निकल आया!!!
ReplyDeleteवो बचपन में कभी जो तितलियाँ पकड़ी थीं बागों में
बरस बीते, न अब तक रंग हाथों से उतरता है।
ग़ज़ल की इक इक बात को महसूस कर रही हूँ और क्या लिखूं .....
ज़बरदस्त रचना... शुभकामनायें...
ReplyDeleteMajor Gautam sahab behad umda gazal prastut kee hai aapne. Aap ka dard , Bharatiya sena ka dard aur aakrosh, Gareeb ka dard sab kuch to hai isme, gagar men sagar.
ReplyDeleteचलो, चलते रहो, पहचान रुकने से नहीं बनती
बहे दरिया तो पानी पत्थरों पर नाम लिखता है
kya khoob.
जब अनायास ही स्क्रीन के सामने देर तक मुस्कुराते रहो तो आस- पास वालों को हेरानी होती है और ख़ुशी की चाबी किसी और के पास देख कर इर्षा..
ReplyDeleteउन्हे क्या मालुम इस मुस्कराहट के पीछे कितनी बड़ी परेशानी छुपी है.... किस शेर को रहने दूँ और किस शेर पर दाद दूँ... :-)
कश्मीर के हालात थोड़े सुधरे हैं ..उम्मीद और प्रार्थना करती हूँ ग़ज़ल कि तरह वह भी रंगीन और खुशबुदार बने ...
ढेरों नायाब टिप्पणियाँ
ReplyDeleteऔर विद्वान् रचनाकारों का अपनापन
आपकी काव्य-कुशलता और क्षमता को
ही प्रमाणित करते हैं ...
माँ सरस्वती जी का अपार आशीष
आप पर यु ही बना रहे ,,
यही प्रार्थना करता हूँ .
बधाई स्वीकारें
तितली वाले शे'र पर सब कुछ वो कहा जा चुका है जो दिल में था...
ReplyDeleteसुलभ जी ने ही पहले बात साफ़ कर दी है....प्रवीन जी का कहना कि जो तितली पकड़ता है..वो उसे क्यूँ मस्लेगा...मन को छू गया...
कहो मत खोलने मुट्ठी हमारी, देख लो पहले
राजेन्द्र जी का कहना सही है..
लेकिन पहले भी इस तरह की छूट बड़े उस्तादों को लेते देखा है..इसलिए अब ये छूट मान्य सी हो गयी लगती है...कम से कम ग़ज़ल के लिए तो सूटेबल है ही....ध्यान नहीं आ रहा अभी कि कहाँ देखा है...मीर जैसा अंदाज लगे है...
हर जानदार शे'र के अलावा...
जान निकालने पे तुला एक शे'र....
गया वो इस अदा से छोड़ कर चौख़ट कि मत पूछो
हर इक आहट पे अब देखो ये दरवाज़ा तड़पता है
सफ्हे पर असाधारण लोग.. क्या बात कही है डाकदर साहब ने..
ReplyDeleteकाश कि मुझमे समझ होती गजलो की तो मैं करता बात शेरो की..
पर फीलिंग्स जो मिली इनमे वो सीधे दिल तक उतरी है..
आप ही ने जवाब देकर अच्छा जवाब दिया.. You also rock boss..!! :)
बड़े हो तुम कि तुम तो चाँदनी से घर सजाते हो
ReplyDeleteहमारी झुग्गियों में चाँद भी छन-छन के चुभता है
अंतर्मन तक छु गई गजल की ये पंक्तिया |
चाँद का चुभना ?बहुत दर्द है |
आभार
यह गज़ल हमने " कथन" में पढ ली थी , यहाँ पढ़कर और भी अच्छा लगा ।
ReplyDeleteबड़े हो तुम कि तुम तो चाँदनी से घर सजाते हो
ReplyDeleteहमारी झुग्गियों में चाँद भी छन-छन के चुभता है
चलो, चलते रहो, पहचान रुकने से नहीं बनती
बहे दरिया तो पानी पत्थरों पर नाम लिखता है
वाह हुजूर क्या शेर कहे हैं आपने दिल बाग बाग हो गया...
वाह जनाब कमाल कर दिया, पूरी ग़ज़ल पढ़ी ओर बार बार पढ़ी,जब टिप्पणी देने की बारी आयी तो देखा की बहुत कुछ कहा जा चूका है मै जो भी कहना चाहता था वह समय के पाबंद सभी सम्मानित साहित्यप्रेमी कह गए इस लिए दोहराव से बचता हूँ एक शेर आपके लिए कहने की हिम्मत बटोरता हूँ
ReplyDelete.....आपकी शायरी सी आपकी शायरी,आपके अदब सा आपका अदब है,
.....सिर्फ अपना ही जोड़ हो आप ज़नाब गौतमजी बेजोड़ आप कब है ?
प्यारेलाल, बहुत दिनों बाद उन घंटियों के समकक्ष आ के बैठे ये आपके अशआर... :) बहुत खूब!
ReplyDeleteजीते रहिये!
बहुत शानदार गजल है।
ReplyDeleteये शेर खासकर बहुत जमे मुझे:
बड़े हो तुम कि तुम तो चाँदनी से घर सजाते हो
हमारी झुग्गियों में चाँद भी छन-छन के चुभता है
वो बचपन में कभी जो तितलियाँ पकड़ी थीं बागों में
बरस बीते, न अब तक रंग हाथों से उतरता है
नया टेम्पलेट भौत जमाऊ है। बधाई!
भाई.....हमें भी कुछ लिखना सिखा दो.....
ReplyDeleteन समझो बुझ चुकी है आग गर शोला न दिखता है
दबी होती है चिंगारी, धुँआ जब तक भी उठता है
इस जानलेवा शेर से जब ग़ज़ल का आगाज़ हो रहा है तो आगे क्या होगा खुदा जाने....
बड़े हो तुम कि तुम तो चाँदनी से घर सजाते हो
हमारी झुग्गियों में चाँद भी छन-छन के चुभता है
वाह वाह.....जिंदाबाद...! मेजर साब यह हुआ शेर .!
गया वो इस अदा से छोड़ कर चौखट कि मत पूछो
हर इक आहट पे अब देखो ये दरवाजा तड़पता है
इधर हम तड़प रहे हैं...! दरवाजा और तड़प क्या अद्भुत नज़ारा है....!
बना कर इस कदर ऊँचे महल, तू छीन मत मुझसे
हवा का एक झोंका जो मेरी खिड़की में रहता है
.....रौशनी वाले मेरे नाम से जलते क्यूँ हैं...किसी भूली ग़ज़ल का शेर जेहन में बरबस कौंध गया इस शेर को पढ़ते ही....!
वो बचपन में कभी जो तितलियाँ पकड़ी थीं बागों में
बरस बीते, न अब तक रंग हाथों से उतरता है
अब खुद ही बताने की जेहमत करें कि इस शेर पर 'लाजवाब' लिखने के अलावा और क्या लिखूं....!
सिंगापुर से लौटने के बाद इतनी बेहतरीन ग़ज़ल पढने को मिली....हमारी करोड़ों दाद...!
यूं तो सारी की सारी गज़ल ही एक खूबसूरत हार है पर ये फूल हमें खास भाया है ।
ReplyDeleteचलो, चलते रहो, पहचान रुकने से नहीं बनती
बहे दरिया तो पानी पत्थरों पर नाम लिखता है
बहोत खूब, मेजर साहब ।
गौतम जी,
ReplyDeleteनमस्कार!
जीवन के मसलों को उसके निर्माण की नींव खोंद कर बाहर निकाल लाने वाली सृजानात्मक ऊर्जा इस ग़ज़ल में दीखती है। इसी उर्जा ने तो लिखवाया है .......... ....
बड़े हो तुम कि तुम तो चाँदनी से घर सजाते हो
हमारी झुग्गियों में चाँद भी छन-छन के चुभता है
कहो मत खोलने मुट्ठी हमारी, देख लो पहले
कि कैसे बंद मुट्ठी से यहाँ तूफ़ान रिसता है
अभी घुमते फिरते एक शे'र पढने को मिला ..आपके ही इधर से...
ReplyDeleteबहुत जानदार लगा...
सर चढ़ के बोलने लगी तिनकों की सरकसी
शोला बने बगैर अब अपना गुजर नहीं
सर चढ़ के दाद निकल रही है ...
Latest Treveni(Continued from Face Book):
ReplyDeleteपुराना हो गया 'उस साल' का सावन मग़र अब भी,
मेरी आँखें बरसती हैं, मेरा ये दिल गरजता है.
तुम्हें इस रूह के मौसम बुलाते हैं, चले आओ.
;)
बहुत सुन्दर! आप दोनों को बधाई!
ReplyDeleteांजित जी ने सही कहा है मगर फिर भी अपनी हैसियत से हम कितनी दफा बाहर निकल जाते हैं एक बार और सही। हर एक शेर लाजवाब इसके आगे निशब्द हूंम। बहुत बहुत आशीर्वाद।
ReplyDeleteबना कर इस कदर ऊँचे महल, तू छीन मत मुझसे
हवा का एक झोंका जो मेरी खिड़की में रहता है। इसे अपने जी मेल के चैट बाक्स मे लगा रही हूँ । अगर एतराज़ हो तो बता दें हटा लूँगी। धन्यवाद।
बहुत अच्छी गज़ल.
ReplyDeleteबहे दरिया तो पानी पत्थरों पर नाम लिखता है
ReplyDeleteआप भी तो दरिया हैं...नाम लिख रहे हैं जहाँ पर
गौतम जी, जी चाहता है कि दो चार और " सिरहाने में से आधा चाहिए " लिख दूं
ReplyDeleteआपने जब से उसे मेरी पसंद में शामिल कर लिया है...
आशा है अच्छी गुजर रही होगी और आप धुंध के दौर से पूरी तरह बाहर निकल गए होंगे..
कविताओं को लोगों तक पहुंचाने की आपकी नयी पहल को सलाम करता हूँ.
बहुत दिनों बाद आपके ब्लॉग पर आया, पूरे अंतराल का आनंद एक साथ पा लिया इस ग़ज़ल के साथ।
ReplyDeleteउम्दा अशआर, उमदा ग़ज़ल।
जब आपकी ये ग़ज़ल सिद्धार्थनगर कवि-सम्मलेन अवं मुशायेरे में सुनी थी तो आपका ब्लॉग छान मारा था कि ये ग़ज़ल मुझसे छूट कैसे गयी मगर इसका निशाँ नहीं मिला फिर आप से पता चला ये अभी ब्लॉग पे आई नहीं है.
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत ग़ज़ल, हर शेर छन छन के ज़ेहनोदिल में उतर रहा है,
wah.bemisal.
ReplyDeleteगौतम जी, लाजवाब कर दिया आपने।
ReplyDelete................
खूबसरत वादियों का जीव है ये....?
लेखनी ये आपकी मुफ़लिस की ये दरियादिली
ReplyDeleteबाग में देखें ग़जल की चॉंदनी कैसी खिली।
मुफ़लिस साहब से क्षमा याचना सहित कि मजबूरी में मुफ़लिस नहीं लिख पाया पहली पंक्ति में।
Gautam ji namaskar apke gazal dil ko choo jate hain
ReplyDeletevisit my blog
http://Kittubihari.blogspot.com
सर जी सबसे पहले तो हंस मे प्रकाशित आपकी ग़ज़ल के लिये बधाई देना है..किस्मत से पिछले माह घर पर ही था और हंस की प्रति मिलते ही बाँच ली..और सच कहूँ तो सम्पादकीय के बाद आपकी ग़ज़ल उसकी सबसे खास हाइलाइट लगी..खासकर धूप वाली..पता चला कि आपका लेवल तो हम सब पढ़ने वाले से बहुत ऊँचा है..सो अब तो तारीफ़ करते भी डर लगेगा..और क्या कहूँ!
ReplyDeleteतितली वाला शे’र सरसरे तौर पर पढ़ने पर पहले तो थोड़ा खटकता है..कि आप जैसे अस्थेटिक सेंस वाले की ग़ज़ल का शेर है..मगर ठीक से पढ़ने पर ही समझ आती है और खुद पे कोफ़्त भी कि जल्दबाजी मे हम खुद की इमेजिनेशन से अपने मुताबिक ही फ़िल-इन-द-ब्लैंक्स कर लेते हैं..मुझे समझ आया कि यह ’रंग’ यहाँ मेटफोरिकल-सेंस मे इस्तेमाल हुआ है..यह रंग मसली तितलियों के पंखों से उतरा संग नही वरन बचपन का वह मासूमियत का रंग है जो तितलियों के रंगों का पीछा करते हुए हमारे हाथों मे खुशी बन कर खिल जाता था..सच मे वह रंग उतारे नही उतरता...खैर वैसे तो झुग्गी मे चाँद के छन-छन के चुभने की कल्पना ही लाजवाब कर जाती है..मगर बस चलता तो इस शेर की आत्मा चुरा कर अपनी पहचान के कालर मे टाँक देता...
ReplyDeleteचलो, चलते रहो, पहचान रुकने से नहीं बनती
बहे दरिया तो पानी पत्थरों पर नाम लिखता है
शानदार मैं इसके शेर फेसबुक पर शेयर कर रहा हूं
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