14 July 2010

फटा पोस्टर निकला राइटर...

किसी भी रचनाकार के लिये अपनी रचना को साकार होते हुये देखने से बड़ा सुख शायद और कोई नहीं होता...और इस बात की प्रत्यक्ष गवाह बनीं मेरी आँखें उस रोज । गोरखपुर से तकरीबन नब्बे किलोमीटर दूर बसे उस छोटे-से शहर सिद्धार्थनगर की पचीस जून वाली वो चौदहवीं का चाँद खिलायी हुई शाम, वो सद्यःस्नाता की खूबसूरती समेटे हुये भव्य प्रेक्षागृह, एक जीवट निर्देशक व उसके समर्पित बंधुगण, चंद उत्साहित नौनिहालों का मँजे हुये कलाकारों को भी मात कर देने वाला प्रदर्शन और खचाखच-जैसा कुछ विशेषण लिये हुए दर्शकों की तालियाँ एक रचनाकार के इसी असीम सुख को निहारती मेरी आँखों का मिल-जुल कर साथ दे रहे थें।

...तो मेरी इस कहानी की शुरूआत भी होती है उसी पारंपरिक "एक था राजा और एक थी रानी..." की तर्ज पर। एक था
कुश और एक था विजित।...था ? ओहो, मेरा मतलब है... "है"। तकरीबन दो साल पहले ’कुश की कलम’ से मुलाकात तो हो चुकी थी और इन दो सालों में कुश से मिलने की बेताबी अपने चरम पर थी। मुलाकात तय थी यूँ तो उसी की बारात में शामिल होने पर अभी निकट भविष्य में, जहाँ डा० अनुराग ने बीन बजाना था और मुझे नागिन-डांस करना था...किंतु नियति ने हमारी दुलारी बहन कंचन के हाथों विवश होकर उस निकट भविष्य को एकदम से इस वर्तमान में परिवर्तित कर दिया। विवश नियति का ही खेल था कि स्वयमेव ही मेरा अवकाश भी इसी दौरान तय हो गया। मेरे गृह-शहर सहरसा से गोरखपुर तक ले जाने वाली ट्रेन नियत समय पर पहुँचती तो मैं अर्धरात्रि में गोरखपुर स्टेशन पर होता। ट्रेन में ही अनूप शुक्ल जी{अरे, वही अपने फुरसतिया} के फोन ने प्रसन्न होने की एक और वजह दे दी इस उद्‍घोषणा के साथ कि कुश ने उनका अपहरण कर लिया है और उसे सिद्धार्थनगर ले जा रहा है। ट्रेन हमारी समय से चल रही थी अभी तक तो हमने भी प्रसन्न मुद्रा में फुरसतिया को आश्वस्त कर दिया कि वो घबड़ायें नहीं, मैं उनसे पहले पहुंच जाऊँगा और कुश की अब खैर नहीं। किंतु हमारी ट्रेन ने भारतीय रेल-परंपरा का पूरी तरह निर्वाह करते हुये हमें विलंब से पहुँचाया गोरखपुर। वैसे बाद में पता चला कि ये सब कंचन की मिली-भगत थी नियति के साथ कि गोरखपुर से सिद्धार्थनगर की कष्ट-साध्य यात्रा को सहज बनाने के लिये हमारी ट्रेन को इलाहाबाद से आनेवाले वीनस की ट्रेन के आगमन के साथ मिलाया गया था। भेद तो फिर ढ़ेर सारे खुले कि इस षड़यंत्र में कई और लोग शामिल थे...जैसे कि गोरखपुर से सिद्धार्थनगर ले जाने वाली बस का वो मुआ कंडक्टर जिसने नियत-स्थल से हमें जानबूझ कर दो किलोमिटर दूर उतारा और फिर जहाँ से हम और वीनस ने पद-यात्रा की एक दूसरी बस पकड़ने के लिये, वरूण-देव भी शामिल थे कंचन के इसी षड़यंत्र में कि दो किलोमीटर की इस पद-यात्रा में उन्होंने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। वीनस को लाख कहने पर भी जाने क्यों उस बदमाश ने हमारी एक भी तस्वीर नहीं खिंची उस पद-यात्रा की...जल रहा था कमबख्त कि ब्लौग के लिये मेरा पोस्ट-मैटेरियल उसके पोस्ट-मैटेरियल से "रिच" हो जायेगा।

खैर-खैर मनाते हुए हम पहुँचे कंचन की दीदी के घर जो अभी अगले दो दिनों तक हमसब की शरण-स्थली बनने वाला था। अपने चहेते कार्टूनिस्ट
काजल कुमार जी का एक सटीक और सामयिक कार्टून द्रष्टव्य हो इस संदर्भ में जो मेरे आगे के विवरण को संक्षिप्त रखने में सहायक बनता है। उधर कंचन के षड़यंत्र में बिजली और पानी तक शामिल थे। बरामदे पर खड़ा गंदे-से टी-शर्ट में गंदा-सा वो लड़का जो खड़ा है, कुश ही है वो ना...? देख रहा था मुझे वो मुस्कुराता हुआ कि मैं पहचान पाता हूँ कि नहीं। "hmmm...tha guy has got the LOOKS" सोचते हुये मैंने उसे गले लगाया। ...और फिर क्षणांश में गले में तौलिया लटकाये बहराये अनूप जी बिल्कुल ही अपने फुरसतिया अवतार में और जब उन्होंने हमें गले लगाया तो उनका विशाल आलिंगन मानो हमें किसी बड़े-से थैले में समेट रहा था। अपने विशाल पोस्टों की तरह अनूप जी खुद भी एक विशाल व्यक्तित्व के शहंशाह हैं। उसके बाद की दोपहर का कुल-जमा विवरण यहाँ देखा जा सकता है...वो दोपहरी अद्‍भुत थी- कंचन और उसके परिवार का शब्दों के सामर्थ्य से परे वाला अपनापन लिये दोपहर, दीदी के हाथों का लज़ीज भोजन वाली दोपहर, भाभी का वो स्नेह भरा आतिथ्य संजोये दोपहर, भैया-जीजाजी के अद्‍भुत शेरों का खजाने समेटे दोपहर, अनूप जी के विख्यात असंख्य ’वन-लाइनर’ से सराबोर दोपहर, कुश के कलम जैसी कुश की बातें और उसके शैतान कैमरे पर खिसयाती दोपहर , वीनस को राहत इंदौरी का नकल उतारते देखती दोपहर, कंचन की नान-स्टाप चटर-पटर पे सिर खुझाती दोपहर और थोड़ा-बहुत मुझे झेलती दोपहर...सचमुच अद्‍भुत थी।

फिर संध्या काले जब चाँद अपनी पूरी गोलाई से तनिक अछूता-सा खिला था, एक टुकड़ा भारत साक्षी बनता है संस्कृति-

साहित्य को जीवंत रखने की एक छोटी मगर अलौकिक कोशिश का।
नवोन्मेष...हाँ, यही नाम दिया गया था इस कोशिश को तकरीबन तीन-चार महीने पहले। नाम-करण संस्कार मे मैं भी शामिल हुआ था सुदूर कश्मीर से मोबाइल फोन पर अपनी उपस्थिति जताते हुये। विजित और उसके दोस्तों की एक छोटी-सी टीम ने सिद्धार्थनगर जैसे नामालूम-सी जगह में वो कर दिखाया जो स्वप्न-समान ही था। जहाँ तक अभिनय और मंचीय-प्रदर्शन का सवाल है तो निर्देशन से लेकर अभिनय तक, ये पूरी-की-पूरी टीम नौनिहालों की ही थी...किंतु नाटक की समाप्ति के पश्चात ये ’नौनिहाल’ शब्द ’दिग्गज’ में बदले जाने की माँग कर रहा था। विशेष कर डायरेक्टर और स्क्रीप्ट-राइटर की जोड़ी तो किसी लिहाज से दिग्गज-द्वय से कम नहीं थे। कुश के कलम की विविधता ने मुझे मेरे ब्लौग के शुरूआती दिनों से ही उसका जबरदस्त प्रशंसक बना दिया था और उस पचीस जून की शाम को उसके चुस्त स्क्रीप्ट ने मेरे प्रशंसक ’मैं’ को चमत्कृत कर के रख दिया। अपने स्क्रीप्ट को साकार होते हुये देखते कुश के चेहरे की संतुष्टि और उसकी किलक पर मेरे मुख से अनायास निकला... फटा पोस्टर निकला राइटर...ye! ye!!

रात गये जब हम घर पहुँचे वापस तो ठहरी हुयी हवा और उमस भरी रात ने सब को देर तक जगाये रखा और जगरने में कई कोशिशे हुईं अनूप जी और कुश को अगले दिन भी रोके जाने की ताकि हम उन्हें कवि-सम्मेलन के दौरान अपनी रचनायें झिलवा सकें और लगे हाथों उनके ब्लौग पर एक-दो पोस्ट भी ठिलवा सकें। लेकिन जब दोनों नहीं माने तो फिर तय हुआ कि मुझे सुबह निकलना ही था गुरूजी और उनकी टीम को लाने तो मेरे साथ ही कुश और अनूप जी निकल पड़ेंगे। यूँ तड़के सुबह दोनों को नींद में डूबे देख मैंने तो निर्णय ले लिया था कि दोनों को सोता छोड़कर निकल पड़ूं, लेकिन मेरे इस इकलौते षड़यंत्र में कंचन शामिल न हुईं और उसने बड़ी बेदर्दी से दोनों को जगा दिया। अब कंचन के इस बेदर्द रवैये में कितना अनूप जी के एपेटाइट का योगदान था और कितना दीदी के राशन-बचत की मुहीम शामिल थी, इस सवाल का जवाब उससे ही तलब किया जाये तो बेहतर होगा।

छब्बीस जून की तड़के सुबह सिद्धार्थनगर से बस्ती स्टेशन तक की वो डेढ़ घंटे की यात्रा एक अनूठे ब्लौगर-विमर्श का पर्याय बनी। शायद ही किसी ब्लौगर को छोड़ा होगा हम तीनों ने। अब उस दिन यानि कि छब्बीस जून को सुबह तकरीबन पाँच बजे से साढ़े छः बजे के बीच जिन ब्लौगर भाइयों को जोर की हिचकियाँ आ रही हों, समझ ले कि वो उस विमर्श में शामिल थें।

कुश और अनूप जी को विदा देने के पश्चात हमें सानिध्य मिला अपने
गुरूदेव का। आह...वो सानिध्य तो वर्णनातीत है, कोशिश करूँगा किंतु फिर भी निकट भविष्य में। फिलहाल विदा...

36 comments:

  1. सुंदर वर्णन.
    ब्लागिंग का विस्तार और सहृदय लोगों का आपस में बढ़ता प्यार देखकर खुशी हुई.

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  2. अच्छा लगा विवरण...गुरुदेव से मुलाकात के विवरण का इन्तजार करते हैं.

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  3. गौतम ये तुम लिखते हो या ऊपर वाले ने तुम्हें कोई जादूई लेखनी थमा दी है ,पाठक को इधर उधर होने ही नहीं देते ,
    उचित और सुंदर शब्दों का चयन ,प्रवाह ,सभी कुछ तो है यहां
    बहुत बहुत बधाई

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  4. पढती गयी पढती गयी--- कहानी रोचक सी और जानी पहचानी सी लगी किसी अपने परिवार की ओह अन्त मे पता चला कि ये तो सुबीर जी का ही परिवार है---- और शब्द इतने सधे सधाये किस के हो सकते हैं---- होनहार गौतम के सिवा किसी के नही--- वर्ना तो ये एक रिपोर्ट सी बन कर रह जाती। बहुत अच्छा लगा इस परिवार को बढते फूलते देख कर।सब को बहुत बहुत बधाई और सब से अधिक आपके दीदी और जीजू को। आशीर्वाद।

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  5. रोचक वर्णन ...गुरूजी से मुलाकात का इन्तजार है ...!

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  6. खुमारी बढ़ती ही जा रही है,
    प्योर चीजों से बच कर निकलना कितना मुश्किल होता है.
    सुंदर संस्मरण, बहुत शुभकामनाएं.

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  7. Bahut,bahut maza aaya padhne me! Agali post ka intezaar hai! Jald daalen!

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  8. वाह गौतम भैय्या,
    चमत्कृत कर देने वाला लेखन....................
    ऐसा लग रहा है जैसे मैं आपके साथ मि. इंडिया वाली घडी पहन के चल रहा हूँ, सब कुछ आँखों के आगे से गुज़र गया.
    वीनस ने वो ज़ालिम फोटो ना खींची मुसीबत मोल ले ली, बेचारे को सिद्धार्थनगर से अलाहाबाद जाते वक़्त बहुत अ(सुविधाएँ) मिली, अब आगे किसी की फोटो खींचने से इनकार नहीं करेगा.

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  9. अविस्मर्णीय संस्मरण |और अभी तक तो मै आपके खुबसूरत लेखन के प्रवाह में ही हूँ |
    शुभकामनाये

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  10. Good read. Suggest slightly shorter posts.
    Waiting for your next composition.

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  11. @ कंचन की नान-स्टाप चटर-पटर पे सिर खुझाती ....

    ऐल्लोऽ हम तो कुछ बोल ही नही पाये उस दिन सब के चक्कर में.... शरम आ रही थी ना... इतने लोगो के बीच कैसे बोलते भला....!

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  12. काफी मजेदार भंगिमा रही आपकी। और यह भी दिख रही है कि ब्लागर एक पिरवार के सदस्य सरीखे होते जा रहे हैं।

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  13. वाह गौतम जी, क्या डायरी है. कुछ देर से पन्ने साझा किये आपने...है न? आप लोगों की इस यात्रा और नाट्य-मंचन के बारे में थोड़ा बहुत सुन चुके थे हम, आज विस्तार से जाना. मज़ा आ गया.

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  14. बहुत खूब मेजर साब.....यात्रा वृतांत से लेकर नाटक का विवरण सब कुछ दिल चुरा ले गया.....! कवि सम्मलेन का विवरण तो पहले ही आत्मसात कर चुके हैं......! भई अब ग़ज़ल का बेसब्री से इन्तिज़ार है......!

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  15. बहुत सुंदर विवरण. धन्यवाद

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  16. सुन्दर वर्णन ..
    आपलोग इतनी सक्रियता के साथ लगे रहे , यह तोषद लगा !
    आगे इंतिजार है !

    एक मेल भेजा है आपको , मिला ?

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  17. बड़ी कमाल की पोस्ट रची भैया.. रोचकता का उदाहरण.. कुश को बधाई और कंचन दी को भी..

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  18. गजब के संस्मरण लेखक हो गये हैं मेजर साब! हम तो कंचन के डर से कुछ लिख नहीं पा रहे हैं और बकिया सब हमसे मौज ले रहे हैं। जय हो।

    सिद्धार्थनगर की मुलाकात बहुत स्मरणीय रही। बहुत कुछ याद आ गया यह पोस्ट पढकर।

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  19. bahut badhiya sansmaran !..achhe links bhi mile..aabhar !

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  20. क्या माहौल बनाया है खींचकर बैठा दिया वहीं...मालुम होता है कुश की बारात तो शिवजी की बारात जैसी होगी ...पढ़ने के बाद कंचनजी से बहुत इर्षा हो रही है!!!. :-)

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  21. अभी बहुत सी ख्वाहिशों को पूरा करना है, बस यूँ ही अपना स्नेह और आशीर्वाद बनाये रखियें . जैसा की गुरु जी ने कहा था की सेना जैसी रुखी ज़मीन पे आप कविता जैसी नाजुक चीज की खेती करते है ,तो मै बताना चाहूँगा की सिर्फ आपकी कवितायेँ ही नहीं आपका दिल भी उतना ही नाज़ुक है ,बस उम्मीद यही करता हूँ की आपके इस स्नेही व्योहार में ऐसे ही तरक्की होती रहे और हम सब आपके इस प्रेम वर्षा से इसी प्रकार अभिसिंचित होते रहे . अपने इतने प्रतिष्ठित ब्लॉग में इतना महत्वपूर्ण स्थान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद . (आपका अनुज विजित )

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  22. मेजर कुश ने ओर अनूप जी ने एक बात कही के .एक परिवार ओर एक समूह पूरी लगन ओर कष्ट लेकर .... अपनी पूरी निष्ठां से एक ऐसे कार्यक्रम के आयोजान में जुटा हुआ था जिसमे उसमे कोई स्वार्थनहीं था ..... कलाकार भी कही भावनात्मक रूप से आपस में जुड़ गए थे......उन्होंने कहा नाटक से ज्यादा महत्वपूर्ण ये बाते थी .....मुझे ये बात अच्छी लगी ...मलाल तुमसे न मिलने का भी है ....पर फिर ये भी के इतनी भीड़ में मिलना.भी क्या मिलना

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  23. एक दिन जरूर बेस्ट सेलर बनोगे

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  24. अंकित भाई की जय :)

    क्या धाँसू कमेन्ट किया है, मज़ा आ गया

    सच में, अब किसी की फोटो खीचने से मना नहीं करूँगा

    दरअसल मैं उस समय सोच रहा था की अगर फोटो मैं खीचूँगा तो उस फ्रेम में गौतम जी सारी फुटेज ले लेंगे, फिर मेरा की होंएगा :)

    और ये भी शानदार च यादगार बात है उस दो किलोमीटर की पद यात्रा में मैंने जैसे ही कहा था कि गौतम भैया कम से कम ये तो शुक्र है कि बादल छाए हुए है धूप नहीं है और बारिश भी नहीं हो रही,, और जैसे ही ये कहा बारिश शुरू हो गई और ५ मिनट बाद ही जो धूप निकली हम लोगों का पसीना स्नान हो गया :)

    कुश भाई और अनूपानंद जी की बातें तो इतनी कमाल और धमाल,, कि कुछ कहा ही नहीं जा सकता बस पेट पकड के हसते ही रह गए

    इस श्रृंखला की अगली कड़ी का इंतज़ार है

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  25. बस पढ़े जा रहे हैं... इधर भी, उधर भी.

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  26. मैं ये सब पढ़ कर खुश होने के साथ-साथ गुस्सा भी हो रहे हैं आपसे.. पहले तो मेरा फोन नहीं उठा रहे थे, हम सोचे कि आप व्यस्त होंगे किसी जरूरी काम में.. मगर यहाँ तो फ्री होते हुए भी आपने मुझे फोन नहीं किया.. हद्द है.. :(

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  27. संस्मरण लिखने का यह अंदाज़ भी निराला लगा.कुश के नाटक के चर्चे पढ़-सुन ही चुकी थी,आज और विस्तार से रिपोर्ट पढ़ी.रोचक प्रस्तुति.

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  28. एक अविस्मर्णीय संस्मरण मज़ा आ गया.

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  29. अरे !!!!!!!! गौतम जी ! उस समय तो मै वहीं आपके बगल नेपाल बार्डर पर स्थित बढ़नी शहर मे थी ,...और अनूप जी ने भी नही याद किया ...उन्हे तो मालूम है की मेरा गाँव सिधार्थनगर मे है और 15 मई से जून पूरा मै तकरीबन वहीं बिताती हूँ , मुझे तनिक भी खबर होती तो हम भी शामिल होते,बल्कि दैनिक जगागरण की वह रिपोर्ट मैंने पढ़ी भी थी । खैर .....आपकी कलम से उन क्षणों तक हो आई । बधाई ।

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  30. संस्मरण को अपनी कलम का जादुई ’टच’ दे कर हम सब से शेयर करने का आभार..इतने अलग-अलग क्षेत्रों के प्रतिभाशाली लोगों का एकसाथ मिलना और कुछ सर्जनात्मक करने की प्रेरणा ही किसी के भी जीवन के अनमोल अनुभवों मे से हो जाती है..कुश सा’ब बड़े राइटर हैं..उनका नाटक इतने लोगों के सामूहिक प्रयास से मंच पर अभिनीत हुआ और खासा सराहा गया..यह जानना बहुत सुखद रहा..बाकी आपकी सधी हुई और प्रवाहमय शैली उस शाम के बारे मे और जानने के बारे मे उत्सुकता खुद ही जगा देती है..तो हमारा क्या कसूर..गुरुदेव के सानिध्य के क्षणों को की-बोर्ड पर उतारा जाना बाकी है अभी..याद ही होगा आपको..

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  31. इस प्रस्तुति में सभी ब्लॉगर्स के प्रति आपकी आत्मीयता झलक रही है ।

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  32. आभार इस नेट जगत का कि इसपर लिखा कुछ भी बासी,पुराना नहीं पड़ता....नहीं तो खूब अफ़सोस करती अभी बैठकर कि इतने दिनों बाद यह सब पढ़ा...

    पढ़कर ही जब आनंद के आंच तक इस तरह पहुंची तो प्रत्यक्ष में कैसा आनंद दाई रहा होगा सबकुछ ...अंदाज लगाया जा सकता है...

    ऐसे ही आयोजन होते रहें सदा...

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  33. आज तसल्ली से पढ़ी ये पोस्ट....
    पहले ही आप फॉण्ट बड़ा डाल दिए होते..तो कुछ घिस जाता का...?



    ..किंतु नियति ने हमारी दुलारी बहन कंचन के हाथों विवश होकर उस निकट भविष्य को एकदम से इस वर्तमान में परिवर्तित कर दिया...


    हा हा हा हा ...

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ईमानदार और बेबाक टिप्पणी दें...शुक्रिया !