बात सन् 2007 के मार्च महीने की है। शनिवार का दिन...नहीं, दिन नहीं संध्या। माह का तीसरा शनिवार। शाम के आठ बजने वाले थे। अब ये सब बातें, ये दिन, ये समय इतने यकीनी तौर पर मैं इसलिये कह रहा हूँ कि सेना में सबकुछ, सारे कार्यक्रम तयशुदा दिनों में साल-दर-साल चलते रहते हैं। जिस दिन-विशेष का जिक्र मैं यहाँ कर रहा हूँ, उन दिनों मैं देहरादून में अवस्थित भारतीय सैन्य अकादमी में प्रशिक्षक के तौर पर नियुक्त था। प्रशिक्षु कैडेटों का एक पाँच दिनों वाला कठिन ट्रेनिंग-कैम्प संपन्न हुआ था और कैम्प के सफल समापन पर कैडेटों द्वारा धधकती-सुलगती लकड़ियों के इर्द-गिर्द गाना-बजाना हो रहा था। हम कुछेक प्रशिक्षक भी उन्हीं जलती लकड़ियों के समक्ष बैठे उन कैडेटों की हैरतंगेज अन्य प्रतिभाओं से रूबरू हो रहे थे। अब ये जो सेना के तयशुदा कार्यक्रम की बात बता रहा था मैं तो देखिये कि बारह वर्ष पहले जब मैं खुद एक कैडेट था इसी भारतीय सैन्य अकादमी का, तो हमारा भी ये कैम्प मार्च महीने के तीसरे हफ़्ते में हुआ था और ऐसी एक शनिवार थी वो बारह वर्ष पहले की जब मैं कैडेट के तौर पर कैम्प फायर में मस्ती कर रहा था। खैर विषय से न भटकते हुये, एक के बाद एक कैडेट आते जा रहे थे और गीत, डांस, लतीफ़ों के कुछ अचंभित करते प्रदर्शन हमारी आखों के समक्ष प्रस्तुत करते जा रहे थे ...और तब एक पतला-दुबला-सा चश्मा पहने हुये एक कैडेट उठा और उसने हौले से चार पंक्तियाँ गुनगुनायी। उफ़्फ़्फ़्फ़...! एक तो उस कैडेट की आवाज इतनी सम्मोहित करने वाली थी और दूजे उन चार पंक्तियों में कुछ ऐसा था कि रोम-रोम को अपने मैंने सिहरता महसूस किया। वो पंक्तियाँ कुछ यूं थी:-
भ्रमर कोई कुमुदिनी पर मचल बैठा तो हंगामा
हमारे दिल में कोई ख्वाब पल बैठा तो हंगामा
अभी तक डूब कर सुनते थे सब किस्सा मुहब्बत का
मैं किस्से को हक़ीकत में बदल बैठा तो हंगामा
पंक्तियों का जादू कुछ ऐसा था कि मुझे उस कैडेट को हुक्म देना पड़ा दुबारा पढ़ने के लिये और फिर कैम्प-फायर के पश्चात भोजन के दौरान करीब साढ़े तीन सौ कैडेटों की भीड़ में पहले तो उसे ढ़ूंढ़ निकाला और फिर देर तक बतियाता रहा उससे और उस दिन मेरा पहली बार परिचय हुआ डा० कुमार विश्वास के नाम के साथ। उस कैडेट के साथ का वार्तालाप अब भी याद है मुझे...
मैं- you sing very well
वो- thank you sir
मैं- those lines that you sang...you have written them?
वो- oh, come on sir! i wish i could have...there is one kumar vishwas
मैं- where can i get the comlete ghazal from?
वो- you go on google sir, kumar vishwas is there everywhere on internet...he is amazing sir...just amazing...i heard him singing in one of the IIT fests...
...और वो अगले दो-तीन मिनट तक कुमार साब का स्तुति-गान करता रहा। उन दिनों मेरा इंटरनेट से वास्ता हफ़्ते में एक-दो बार मेल चेक कर लेने भर से था। एक वो दिन था और तब से लेकर कुमार विश्वास साब के जाने कितने परफार्मेंस के वीडियो देख चुका हूँ मैं। जितना देखता जाता, उतना दीवाना होता जाता। सोचता था कि कभी इस शख्सियत के साथ मंच पर बैठ पाऊँगा...और जब भी मैं अपनी ये दिली तमन्ना साझा करता, मेरी उत्तमार्ध "dont even think about it, that guy...that kumar vishwas is a show-stealer" का फ़िकरा कस कर मुझे हतोत्साहित कर देती ... और सचमुच शो-स्टीलर ही तो हैं कुमार साब। हिंदी का एक कवि जो वाकई किसी सेलेब्रीटी-स्टेटस का आनंद उठाता है तो हमें अपनी हिंदी पर इतराने का मन करता है।
फिर आयी ये संध्या, जिसके बारे में आपसब पहले ही यहाँ, यहाँ और यहाँ पढ़ चुके हैं और यहाँ अभी किश्त-दर-किश्त पढ़ने वाले हैं। उस कवि-सम्मेलन के दौरान उनके साथ मंच साझा करने का सौभाग्य, अपना प्रथम ग़ज़ल-पाठन, उनका मेरे एक-दो अदने से शेर को बाहुक्म दुबारा-तिबारा पढ़वाना और फिर शायद अभी तक का मुझे मिला सबसे बड़ा कम्प्लीमेंट, जब उन्होंने मुझसे कहा कि "तुम झूठ बोल रहे थे मेजर कि मंच पर पहली बार पढ़ रहे हो, इतना बेहतर कोई पहली बार पढ़ता है क्या"....हायsssss, हम तो वहीं निहाल हो गये।
...और जब वो उठे अपनी कवितायें पढ़ने तो जैसी कि परिपाटी-सी बन चुकी है हर उस कवि-सम्मेलन की जिसमें कुमार साब शिरकत करते हैं और जैसा कि मेरी उत्तमार्ध उन्हें संज्ञा देती हैं शो-स्टीलर का...वही सब कुछ हुआ जो होता आ रहा है हर ऐसे कवि-सम्मेलन में...वो कोई दीवाना, पागल जब उठा तो फिर वो था या थी दर्शकों-श्रोताओं की तालियाँ और वाह-वाही। मंच के अदब-कायदे से अनजान मैं, वरिष्ठ जनों की इजाजत ले मंच को तज कर आ बैठा दर्शक-दीर्घा की पहली कतार वाली कुर्सियों में जिसे अभी-अभी मिडियावालों ने कुमार साब से नाराजगी जाहिर करते हुये खाली किया था{वो एक अलग ही एपिसोड था, जिसकी चर्चा फिर कभी}। हलांकि कुमार साब ने सिर्फ और सिर्फ नयी कवितायें और नये मुक्तक पढ़ने की घोषणा की थी, लेकिन मैंने भी दर्शक-दीर्घा से जिद कर-कर के उनसे अपनी पसंदीदा वो "भ्रमर कोई कुमुदिनी पर" वाला मुक्तक पढ़वा ही लिया। दर-असल ये मुक्तक प्रेम में बौराये और विरोध झेले हुये हर युवामन का संताप समेटे हुये है। तीन साल पहले जब मैंने पहली बार उस कैडेट से ये पंक्तियाँ सुनी थी तो बड़ा अफसोस हुआ था कि ये और दो साल पहले क्यों नहीं सुना मैंने कि मेरे प्रेम-विवाह की घोषणा से नाराज माँ-पापा को सुना पाता तब ये मुक्तक तो शायद उन्हें मनाना तनिक और आसान हो जाता :-)।
किंतु इन सबसे परे, कुमार साब के व्यक्तित्व का दूसरा पहलु जो सामने आया वो था कवि-सम्मेलन के उपरांत उनके संग बैठ कर बिताये गये वो अद्भुत तीन-साढ़े तीन घंटे। उनकी विलक्षण प्रतिभा, समसामयिक घटनाओं पर उनकी बेजोड़ पकड़, गज़ब की प्रत्युत्पन्नमति, एक-से-एक ताजा लतीफ़े और एक ईर्ष्या से जल-भुन जाने लायक स्मृति-भंडार...उफ़्फ़्फ़, विश्वास कीजिये ऐसे डेडली काकटेल का आस्वादन इससे पहले कभी नहीं किया। उनका स्मरण-कोश हैरान करता है। हिंदी के रीतिकालिन कवियों से लेकर ऊर्दु के लगभग हर उन शायरों को जिन्हें आपने पढ़ा है, वो उनकी रचनायें, उनके शेर बकायदा संदर्भ सहित सुना सकते हैं। जान एलिया के एक शेर को उनके सुनाने के अंदाज याद कर-कर के अब तलक लोट-पोट हुआ जा रहा हूँ मैं। जिस अदा से उन्होंने सुनाया कि "यारो कुछ तो बात बताओ उनकी कयामत बाँहों की / वो जो सिमटते होंगे इनमें वो तो मर जाते होंगे"...अभी भी ठठा कर हँस पड़ा हूँ मैं इसे लिखते -लिखते। समसामयिक घटनाओं पर उनकी जबरदस्त पकड़ और तत्काल उसे जोड़ कर एक कोई जुमला बुन लेना, किसी तिलिस्म से कम नहीं थी उनकी अदा। हमने पूछा भी कि कितने जीबी का हार्ड-डिस्क भरवा रखा है उन्होंने अपने मस्तिष्क में...?
शायद पोस्ट बहुत लंबा खिंच जाये जो मैं लिखता रहूँ उस संध्या-विशेष के बारे में और उस मायावी के बारे, जिसे लोग कुमार विश्वास के नाम से जानते हैं। शुक्रगुजार हूँ अपनी नियति का कि उस संध्या का एक तुच्छ-सा हिस्सा मैं भी था। मुझे मालूम है कि कुमार साब को नापसंद करने वाले भी खूब सारे लोग हैं। यहाँ इंटरनेट पर भी मेरे कुछ मित्र नाक-भौं सिकोड़ते हैं उनके नाम पे। लेकिन कमबख्त सुनते सब-के-सब हैं उनको। उनको नापसंद करने वालों को भी कम-से-कम अपनी हिंदी और विशेष कर हिंदी-कविता के लिये तो कुमार साब का शुक्रगुजार होना ही चाहिये कि एक जटिल और क्लिष्ट समझी जाने वाली चीज को कुमार साब ने सामान्य बना कर आमलोगों तक पहुँचाया...इतना सामान्य कि आई.आई.टी. के टेक्निकल ग्रेजुयेट से लेकर इंडियन आर्मी के सोल्जरस तक अब कविता गुनगुनाते हैं।
फिलहाल इतना ही...सिद्धार्थनगर-संस्मरण जारी रहेगा आगे आने वाली प्रविष्टियों में। ...तब तक इस तस्वीर का अवलोकन कीजिये कि एक गुरू कितने स्नेह से निहार रहा है अपने शागिर्द को उसके मेडेन-परफार्मेंस के दौरान:-
...तो अभी विदा अगली प्रविष्टि तक के लिये।
आपने तो रहस्यमय कर दिया है पोस्ट को :)
ReplyDeleteजब भारत गया था तो डॉ कुमार के साथ गोष्टी में बैठा. एक अद्भुत खिंचाव है उनके व्यक्तित्व में और एक अजब सम्मोहन!!
ReplyDeleteलगातार बात होती है..हर बार एक नया डॉ कुमार..अभी अमेरीका होकर गये.
अच्छा लगा आपका संस्मरण...कोई विडियो लिया हो तो लगवाईये.
मेडेन परफ़ार्मेंस धांसू होने की बधाई। बाकी कुमार विश्वास के बारे में सुनने के बारे में कुछ कहेंगे। पोस्ट बड़ी चकाचक है। धांसू!
ReplyDelete.
ReplyDelete.
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प्रिय गौतम,
इतना बढ़िया लिखा है कि अब तो पढ़ना ही होगा डा० कुमार विश्वास को...
'Hero Worship' को महज एक शब्द ही मानता था मैं, पर आपकी इस पोस्ट को पढ़ कर लगा कि यह एक ठोस हकीकत है...खुशकिस्मत हो आप...और बदकिस्मत हैं मुझ जैसे, आज तक अपना हीरो ही नहीं ढूंढ पाये... :(
आपके कवितापाठ के दौरान आदरणीय पंकज सुबीर जी की आंखों से वाकई स्नेह व आशीर्वाद उमड़ रहा है आपके प्रति... आश्वस्त रहिये, बहुत आगे जायेंगे आप... गुरू का आशीष जो प्राप्त है इस शागिर्द को !
आभार!
...
अभी मई में ही कुमार विश्वास का कार्यक्रम अमेरिका में था। मैं कल ही वहाँ से आयी हूँ। वहाँ कुमार विश्वास से मिलना भी हुआ और उनको सुनने का अवसर भी मिला लेकिन उनको सुनने और मिलने से पहले एक कहानी वहाँ चल रही थी खैर वह एक अलग ही प्रकरण है। मैंने अनुभव किया कि उसकी आवाज में बहुत दम है और लतीफो को नये ढंग से गढने में भी मास्टर है। बस एक बात खली जो चाहे तो आप उन तक पहुंचा सकते हैं कि इतनी अच्छा आवाज होने के बाद उन्हें किसी लतीफों की आवश्यकता नहीं है। उस कार्यक्रम में उन्होंने शायद एक या दो कविता ही पढी होगी शेष डेढ घण्टे तक लतीफे ही चलते रहे। यह बात और है कि उन्होंने लोगों का भरपूर मनोंरंजन किया।
ReplyDeleteगौतम भाई,
ReplyDeleteक्या हाल है ?
एक सत्य बताता हूँ ...............आजतक डॉ कुमार को कभी नहीं सुना ना पढ़ा पर अब लगता है पढना पड़ेगा !
पोस्ट बेहद उम्दा है ! शुभकामनाएं !
मेजर
ReplyDeleteसिद्धार्थनगर की वो शाम. काश! कि मैं भी लुत्फ़ उठा पाता...आप सबके सानिध्य का. मगर अफ़सोस !
कंचनजी ने कई बार कहा था मगर ट्रेनिंग की अनिवार्यता ने इस प्रोग्राम पर पानी फेर दिया.
सोचा था कि आप सबसे मुलाकात हो जायेगी मगर सब कुछ सोचा हुआ होता कहाँ है दोस्त.....! और फिर आपसे आपसे मिलने की तो तीव्र उत्कंठा थी ही ...! इस प्रोग्राम में आप सबने जो एन्जॉय किया होगा.....बस उसकी कल्पना कर सकता हूँ. मेजर, सुबीर साहब और डॉ विश्वास की इस त्रिवेणी की कल्पना मैं कर रहा हूँ........! यह भी जानकार सुखद लगा कि आपकी जिस रचना से मैं फैन हूँ उसी रचना को आपने सुनाया...." उड़स ली चाबियाँ"
वाह जी वाह .
मै भी उस दिन अजित गुप्ता जी के साथ गयी थी प्रोग्राम देखने। हास्य कवि सम्मेलन मुझे तो बहुत अच्छा लगा। शायद जिन्दगी मे लगातार इतनी देर कभी नहीं हंसी नतमस्तक हूँ उनकी प्रतिभा के आगे। मगर दुर्भाग्य कि किसी करनवश हमे पहले ही उठ कर आना पडा और मै उन से मिल न सकी। उनके लिये मेरे शुभ कामनायें। अगली कडी का इन्तजार रहेगा। आशीर्वाद।
ReplyDeleteबहुत उम्दा पोस्ट !
ReplyDeleteएक बार पढ़ना शुरू किया तो रुक नहीं पाई ,
अच्छा लगा तुम्हारी और वीनस की पोस्ट से कवि सम्मेलन और कुमार साहब के बारे में जान कर ,
टी.वी पर उन को सुना है ,
मैं भी अजीत जी की बातों से सहमत हूं,ये लतीफ़े सुनाने की वजह से कवि रचनाएं तो कम सुनाता है लतीफ़े ज़्यादा,
भ्रमर कोई कुमुदिनी पर मचल बैठा तो हंगामा
हमारे दिल में कोई ख्वाब पल बैठा तो हंगामा
अभी तक डूब कर सुनते थे सब किस्सा मुहब्बत का
मैं किस्से को हक़ीकत में बदल बैठा तो हंगामा
उन की ये पंक्तियां उन की उम्दा शायरी की परिचायक हैं
इतनी बढ़िया लेखन क्षमता के लिये मुबारकबाद
क़ुबूल करो.
आप कुमार विश्वास साहब की बात कर रहे हैं... मैं तो आपको सुनना चाह रहा हूँ. मुझे वहां होना चाहिए था.
ReplyDeletevedio...
ReplyDeletevedio...
vedio...
vedio....
भाई गौतम आपको अपनी ये पोस्ट यूँ अचानक नहीं ख़तम करनी चाहिए थी...इसे पढ़ते हुए मुझे पुरानी हिंदी फिल्मों का वो सीन याद आ गया जिसमें विलीन हीरो या उसकी माँ को बांध देता है और जब वो पानी पानी चिल्लाता है तो पूरा एक लोटा उसके मुंह के सामने ला कर ढोल देता है...आपकी पोस्ट ने बांधा और जब हम तक हम और और कहते आपने उसे अगली पोस्ट तक के लिए मुल्तवी कर दिया...ये ना इंसाफी है...या तो इतना खूबसूरत लिखा मत करो और अगर लिखो तो एक ही पोस्ट में समापन कर दिया करो...सिद्धार्थ नगर की रिपोर्ट एक मुश्त लिख भेजो अगर ब्लॉग पर संभव न हो तो मेल कर दो भाई.
ReplyDeleteकुमार विश्वास को आपने पास से देखा सुना मिले याने हमारे लिए आप इर्षा का विषय हो गए. बात ख़तम.
नीरज
Vishwas sir, hamare to fav. hain . Even I started writing just because of him. Congratulations Gautam Ji unse mulakaat ke liye......jab aapne hamse unki gazal ki demand ki to hamare pass thi hi nahi so ham kaise dete.......Download video will see.
ReplyDeleteregards,
Priya
आहा क्या संस्मरण है, जाने कितने युगों की प्यास है इसमें.
ReplyDeleteवैसे चित्र में मैं भी आपको निहारता रह गया, अब बोलेंगे.. अब बोलेंगे..
गौतम जी, नमस्कार,
ReplyDeleteआप के ब्लॉग पर पहुंचा किशोरे चौधरी जी के थ्रू . आजकल ब्लॉगर पर किशोरे जी छाये हुए हैं, उनकी सारी पोस्ट्स पढ़ डाली हैं और उनकी तारीफ़ करने वालों तक भी पहुँच रहा हूँ.
हर आदमी में जाने कितने सौ और हैं.. यही शायद एक deadly cocktail है. आज ही आपको follow करना शरू कर रहा हूँ. मेरी खुस्किस्मती है की आज ही आपका ब्लॉग देखा और आज ही आपकी नई पोस्ट आई.
पेशे से दवाई बेचने वाला हूँ. लिखने पढने की आदत बहुत पुरानी है. rajasthan university से Ph .D . करने के बाद जब असल जीवन से रूबरू हुआ तो MR बैग उठा लिया. अभी एक गुजरात based co में Regional Sales का काम देख रहा हूँ.
regards
मनोज खत्री
गोया हम वो ट्रेन मिस कर गये.....गमे -रोजगार की खातिर ...मुंबई की हाजिरी पहले से तय जो थी..........खैर कंचन ओर कुश के बाद आपकी बारी है ...इधर बारिश में भी जल रहे है .कुछ धुआ दिखा आपको......
ReplyDeletei like him.....and you are right आपके गुरुवर की निगाह सिर्फ आप पे है
वाह गौतम क्या समा बांधा है एक साँस में ही पढ़ गयी अच्छा लगा संस्मरण और मेडेन परफार्मेंस
ReplyDeleteक्या कहूँ………।सिर्फ़ इतना ही कह सकती हूँ ख़ कि आपके ब्लोग पर कुमार जी के लिखे चार अशरार तो पढ्ने को मिले वरना हम तो उसी के लिये तरस रहे थे…………अगर सम्भव हो तो कुछ और उनका लिखा भी लगाइयेगा……………बाकी सबने कह ही दिया है।
ReplyDeleteआपकी लेखनी में कमाल का आकर्षण है और रोचकता भी अक ही साँस में पूरी पोस्ट पढ़ ली |अब तो कुमारजी को पढना ही होगा |
ReplyDeleteआपको मंच पर देखकर अच्छा लगा |
अब आपने इतना सब कह दिया तो पढ़ना ही पड़ेगा कुमार साहब को.
ReplyDeleteआपकी इतनी प्रभावी समीक्षा के बाद मैने’यहां’, ’यहां’ और ’यहां’ खोल कर देख लिया है :)
ReplyDeletewill talk after visiting Kumar sahb !
ReplyDeletethnx for sharing !
Yes i've heard about him ,but it has been ages since i attended any Kavi-sammelan . My father tells me about an era when only Gopal Das Neeraj would recite poetry whole night and audience listened with rapt attention,completely awe -struck ! About Dr. Bachchan we hear the same things . So ,itz good to know that someone is there to wear their shoes now ,but the most heartening thing is to see a soldier-poet sing on the stage and i think this is the phenomenon being witnessed after Pauraanik kaal when they wielded the sword and pen with equal ease ! Kudos !!
ReplyDeleteसबसे पहले तो नज़र अटक गयी,"उत्तमार्ध" पर...पता नहीं ये शब्द पहले से प्रचलन में है या आपका अन्वेषण ,पर मैने पहली बार अभी पढ़ा...और बार बार बोल कर प्रैक्टिस कर रही हूँ कि कभी किसीका परिचय ये कहकर करवा सकूँ.(पर लिखना जितना आसान है, बोलना नहीं :( )
ReplyDeleteमैने भी 'कुमार विश्वास' का नाम ब्लॉगजगत में आने के बाद ही सुना.हरिशर्मा जी के अच्छे मित्र हैं उन्होंने एक ब्लॉग भी बनाया है, उनकी कविताओं का.
http//:koideewanakahtahai.blogpost.com
युवा पीढ़ी दीवानी है,उनके विडियो की और आपकी उत्तमार्ध ने सही कहा...शो स्टीलर तो हैं हीं...पर मंच पर लतीफे सुनाने ही पड़ते हैं,सुननेवालों में सब गंभीर कविता प्रेमी नहीं होते. जगजीत सिंह भी गजलों के बीच में लतीफे सुनाते हैं.
आपका भी कविता पाठ शानदार ही रहा होगा...तभी गुरु जी मुग्ध हो निहार रहें हैं....और विश्वा सजी ने भी वाह वाह की..पर माइक बिलकुल रॉक स्टार के अंदाज़ में पकड़ रखा है...:)
कुमार विश्वास को इतना तो नहीं पढ़ा कि उन पर कोई टीका टिप्पणी कर सकूँ। पर जितना पढ़ा है उससे कुछ ज्यादा प्रभावित भी नहीं हूँ। हो सकता है कि आपकी इस श्रृंखला के बाद मेरी सोच में कुछ परिवर्तन आए। इसी इंतज़ार में हूँ।
ReplyDeleteइतनी प्रवाह वाली पोस्ट थी कि पढ़ते ही गये पर जब पोस्ट का जब अंत हुआ तो अच्छा नहीं लगा क्योंकि पढ़ना अच्छा लग रहा था, बस आपके शब्दों से होते हुए वहीं मंच पर पहुँच गये। काश कुछ ऑडियो या वीडियो भी होता तो चार चांद लग जाते।
ReplyDeleteगौतम भाई कवि सम्मेलन के वीडियो की डिमान्ड मे हमारी भी डिमान्ड शामिल की जाय..
ReplyDeleteटीप - [ १ ] ..
ReplyDeleteमेजर साहब ,
काश कुमार विश्वास लोक की ही नहीं शास्त्र की परम्परा से भी कुछ
सीखे होते !हाँ वह शास्त्र जिसमें लोक अभिव्यक्ति पाता है , उसी की
बात कर रहा हूँ ! किसी परलोकी-पुरोहिती शास्त्र की नहीं ! ऐसा होता तो मैं
भी इंज्वाय करता हुजूर की कविता का ! बाकी एक ख़ास प्रवृत्ति के
उनके 'जोक' और 'कोई दीवाना कहता है .... ' वाली कविता इनकी
प्रसिद्धि का मूलधन है जिसपर बाजारवादी बोनस और चिल्लाव भरा
चक्रवृद्धि व्याज चढ़ता चला जा रहा है ! उम्मीद है काल की निर्मम
गति सब मूल्यांकन करेगी किसी न किसी दिन !
कोई ईर्ष्या नहीं , कोई जलन नहीं , नाक - भौं सिकोड़ नहीं ! बस प्रयास
यह है कि साहित्य बाजारू भोक्ता-उपभोक्ता सम्बन्ध से बचा रहे ! क्या
बचाने की दिशा में कुछ कर सकूंगा ? काहे नहीं ! , इकाई स्तर की आवाज
भी तो मायने रखती है , इतना प्रयास क्या कम है , भले ही हासिये का/में हो !
काश आप समालोचना का प्रयास करते ! और खुशी होती !
[ जारी ....]
टीप - [ २ ] ..
ReplyDeleteमेजर साहब ,
मैंने भी सुना है हुजूर को , अनभै - साँचा कह रहा हूँ ! साहित्य के आस्वादन
में भी अपने आलोचनात्मक विवेक को जागृत रखना जरूरी है ! मुझे लगता
है कि अगर आप गजलों को 'मीटर' से नापने की योग्यता रखते हैं तो ' डॉ .
कुमार विश्वास ' के कद को नापने के लिए भी एक 'मीटर' रखना चाहिए ! आप
ही बताइये अगर आप जैसे सभी प्रशंसक कुमार विश्वास साहब की खामियों
को दिखाएँगे तो उनमें सुधार ही होगा ना ! पर जोखिम कौन ले '' अहो रूपं -
अहो ध्वनिः '' के परिवेश में ! .. अभी तक तो नहीं हुआ है पर क्या पता कि
अपनी मौत के पहले देखूं कि अमुक '' ..... विश्वास ''( उदाहरणार्थ ) नामक कवि
साहित्य अकादमी / ज्ञानपीठ पा रहा है क्योंकि उसने पिछले चुनाव में अमुक
सत्तासीन वर्ग का प्रचार-गीत लिखा या सुकंठ गायन किया था ! और सच कहूँ
तो यह बात मीडिया नहीं बताएगा , कहीं कब्र में दफना दिया आदमी मरणोपरांत
बताएगा ! उस दिन खुद पर यकीन नहीं होगा कि मैं 'मैं' हूँ ! , यकीन नहीं होगा कि
यह महाभारत जैसे महाकाव्य की भूमि 'भारत' है ! यकीन नहीं होगा कि मैं
कालिदास-कबीर-ग़ालिब-फैज-निराला-नागार्जुन को पढ़ता आया हूँ !
[ जारी ..... ]
टीप - [ ३ ] ..
ReplyDeleteमेजर साहब ,
किं बहुना ? बस एक वाकया बताना चाहूँगा , आपकी इस बात के '' @ '' के
एवज में -
@ उनको नापसंद करने वालों को भी कम-से-कम अपनी हिंदी और विशेष
कर हिंदी-कविता के लिये तो कुमार साब का शुक्रगुजार होना ही चाहिये ........
--- किस बात का शुक्रगुजार बनूँ ! मेरा एक मित्र दलपत सिंह राजपुरोहित कोलंबिया
यूनिवर्सिटी , अमेरिका में पढाता है ! हिन्दी- उर्दू के विद्यार्थियों को ! उसने मुझसे
कहा - '' यार , भारतीय लोगों ने महान भारतीय कवि के नाम पर कुमार विश्वास को
बुला लिया था , भद्द पिट गयी , इकबाल के शेर को इतना ग़लत पढ़ा कि क्या बताऊँ !
बहुत बुरा लगा ! और फिर वही फूहड़ किस्म के चुटकुले ! ''
मेजर साहब , होना चाहूँ तो भी , मैं किस बात का शुक्रगुजार होऊं ? ? ?
इधर बहुत दिनों बाद नेट पर अपनी लय - रंग में लौटा हूँ , यह मत कहिएगा कि पिछली
प्रविष्टियों को नहीं देखा , आज आ गए ' सेल्फ प्रोजेक्सन ' करने ! जैसा कि ब्लॉग जगत
के कुछ लोग मेरे सन्दर्भ में चिल्लाने लगे हैं ! मुझे उम्मीद है कि आप वैसे नहीं
हैं , इसलिए लिख मारा !
अगर आपको मेरी बातों में कुछ सत्य दिखेगा तो अपने इस टीप-श्रम को सार्थक समझूंगा ! आभार !
[ ...... समाप्त ]
आपने सच लिखा था तब जो अब उद्भाषित हो रहा है।
Deleteबहुत अच्छा लगा ये जान कर की डा. कुमार विश्वास के साथ आपको मंच पर रहने का मौक़ा मिला, और आपकी रचनाएँ उन्हें पसंद आयीं..
ReplyDeleteआप में तो कोई बात है गौतम जी!!!
बहुत सुन्दर.
जयंत
बहुत अच्छा विवरण - संस्मरण लगा ...
ReplyDeleteचलो हम भी मिले लिए अपने प्यारे विश्वास जी से ,अभी तक तो बस youtube पर देखा था
टीवी और अख़बारों के जरिये जाना था कुमार विश्वास जी के बारे में ...जैसा की रश्मि ने बताया हरी शर्मा जी का एक ब्लॉग भी hai उनसे सम्बंधित...
ReplyDeleteआपका लिखने का अंदाज़ रोचक है ...!
suna tha kumaar vishvas ke bare men ki manch loot lete hain...apko padha to soch men pad gaya ...kya vaakai ..! dekhta hoon....
ReplyDeleteजो लोग नही पहुँचे वो लोग तो जल ही रहे हैं। हम तो शामिल हो कर भी जल रहे हैं।
ReplyDeleteक्यो ??
अरे एक हो तो बतायें। किस किस का नाम लीजिये किस किस को रोइये।
फिर भी some salient points of दर्द-ए-ज़िगर निम्नवत हैः
१. गुरू जी हमारी तरफ इस तरह क्यों नही देख रहे ?
२. महफिल ए यार में अपना कहीं भी ज़िक्र नही। सारी आवाज़ें रिकॉर्ड हैं। किसी ने रौब से कहा "अरे तूने विश्वास साब को देख लिये तो हमें ही इग्नोर करने लगी।" :) अब देख रही हूँ लोग ऐसे मगन हैं कि हमें ही इग्नोर कर रहे हैं। अरे सब तो पाँच मिनट में तैयार हुए थे, जिसने ५ x १० का समय लिया था, उसका एक फोटू तो लगाना ही था स्टार ब्लॉगर को। कम से कम कुछ पब्लिसिटी ही मिली ही होती। बुहूहूहूSSS
नये जब लोग मिलते हैं, पुराने भूल जाते हैं।
@ अमरेंद्र जी
ReplyDeleteआप साहित्य के प्रति सच्चाई और ईमानदारी से समर्पित हैं। आपका बयाँ आपके भीतर का दर्द है।
मगर फिर भी मैं कहना चाहूँगी कि काश आप उस शाम का हिस्सा होते।
पूर्वाग्रह हमारे भी थे कुमार जी के लिये। सुना हमने भी बहुत था इनका यशोगान। और हो सकता है कि चार चुटकुले और २ मुक्तक सुना कर अगर वो उस शाम चले गये होते तो हम सब का वक्तव्य होता "मुझे तो पहले से ही पता था। ये बस किस्मत है इसकी कि नाम चल निकला है।"
मगर वो शाम से ले कर सुबह तक का समय ही कुछ ऐसा था कि हम सब के विचार बदल गये। यूँ भी हम चारों ही के पास सुनी सुनायी बाते थीं और कुमार जी को ले कर खाली स्लेट थी। कुछ सुनी बातों के पूर्वाग्रह की कुछ आड़ी तिरछी रेखाएं मात्र के साथ...! मगर शाम जैसे जैसे गहराई वो आड़ी तिरछी रेखाएं मिटती गईं और रंगीन चित्र बनते गये।
और फिर खाने के बाद की उनकी दो घंटे की मुलाकात जिसमें उनकी विलक्षण स्मरण शक्ति से परिचय हुआ। हम अगर उसके बाद भी कुमार जी से प्रभावित ना होते तो शायद तभी जब हम अपने पूर्वाग्रहों पर किसी भी सच्चाई को हावी ना होने देने का स्वभाव रखते।
मैं वीडिओ लगाऊँगी आप देखना कि २ घंटे उन्होने वो सारी कविताएं पढ़ीं जो शायद कभी कभी ही पढ़ी होंगी।
फिर एक बात और याद आ रही है। भईया के एक जानने वाले एक सज्जन महादेवी वर्मा जी के विषय में कहते थे कि "वो जैसा लिखती हैं वैसी सुशील हैं नही।" कारण पूछने पर बताते "हम मिलने गये थे, तो ज्यादा बात नही की।" उन सज्जन का महादेवी जी से पहली और आखिरी मुलाकात का अनुभव जो था महादेवी जी उनके लिये वैसी ही थीं।
कुमार जी के लिये भी हम लोगो का वही हाल है फिलहाल। दोबारा जब कुछ अलग होगा तो वो भी बताया जायेगा। फिलहाल निदा जी का वो शेर
"हम तो अपनी राय रखेंगे, जब हम धोखा खायेंगे" (मिसरे का मूलभाव यही है, हो सकता है शब्द कुछ इधर उधर हों)
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ReplyDeleteबहुत अच्छा संस्मरण..
ReplyDelete"यारो कुछ तो बात बताओ उनकी कयामत बाँहों की / वो जो सिमटते होंगे इनमें वो तो मर जाते होंगे"
यह पढ़ कर तो और भी उनके बारे में जानने की इच्छा हो रही है..
@अमरेन्द्र जी,
ReplyDeleteआपकी प्रतिक्रिया की प्रतिक्षा रहती है मुझे हमेशा। अब आप इसे मेरा स्वार्थ कह सकते हैं...लेकिन लिखना वाकई सार्थक लगता है आपजैसे गिने-चुने बंधुओं की प्रतिक्रिया को देखकर।
कुमार विश्वास के बारे में इस पोस्ट-विशेष पे जो कुछ भी मैंने लिखा है वो मेरा व्यक्तिगत अनुभव है। दूसरे लोगों से और मीडिया से उनके बारे में बहुत कुछ सुन चुका हूँ मैं भी। लेकिन यकीन मानिये अमरेन्द्र जी, कवि-सम्मेलन के बाद भोजनोपरांत उनके साथ बिताये गये तीन घंटे ने एक अलग ही कुमार विश्वास से मिलवाया मुझे। मैं प्रभावित हुआ हूँ उनके अध्ययन से, उनके ज्ञान से।
मंचीय-कविता की एक अलग परिपाटी है जो प्रिंट से बिल्कुल भिन्न है। कवि को वही सुनाना पड़ता है जो मौजूद श्रोता सुनना चाहते हैं। उन तमाम विसंगतियों के बावजूद जिनका आपने जिक्र किया है, कुमार विश्वास तो फिर भी बुलाये जा रहे हैं तमाम सम्मेलनों में।
...और वो जो शुक्रगुजार होने वाली बात मैंने कही वो भी इसलिये कि इंगलिश में सोचने-गुनगुनाने वाली पूरी एक पीढ़ी कम-से-कम कुमार विश्वास के बहाने ही कुछ तो गुनगुनाती है हिंदी में। क्या एक बदलाव-भले कितना ही तुच्छ-सकून देने लायक नही है...?
बाजारवाद तो सबकुछ में आ गया है, फिर कविता इससे कैसे अछूती रह सकती है? ...और कम-से-कम इतने दिनों से मुझे जान लेने के बाद मेरी समालोचनात्मक प्रवृति पर संदेह तो न करें। खुद ही ब्लौगिंग के लिये समय नहीं मिल पा रहा है, किंतु आपकी कमी खल रही थी विशेष कर विगत पोस्ट "एक असैनिक व्यथा" पर।
कुमार विश्वास को सुनना एक सुखद अनुभूति रही ।
ReplyDeleteलिखने से पहले आपकी "ईमानदार और बेबाक" की बात पढ़ ली।
ReplyDeleteआपकी पोस्ट कहीं ज़्यादा अच्छी है, कुमार विश्वास के 'साहित्य' से। लोकप्रियता और कला दो अलग बातें हैं, बिपाशा बसु और मल्लिका शेरावत की तुलना कोनकोना सेन्गुप्ता से नहीं हो सकती, जया बच्चन या शबाना आज़मी, स्मिता पाटिल तो ख़ैर छोड़िए ही।
कुल जमा एक लोकप्रिय रचना, कैशोर्य-मद उफ़ानयुक्त प्रेमदंश की परिणति पुष्पशर उपसना में हो तो त्रिदेव का महत्व कम नहीं हो जाता।
कुमार की मंचीयता सामयिक है, और कालचक्र के निर्मम मूल्यांकन योग्य भी कुछ सृजन कर सकें ये, ऐसी मेरी शुभकामना है, इनके प्रति किसी लगाव से नहीं - बल्कि इसलिए कि बहुत समय से हिन्दी का कोई उत्कृष्ट गीतकार-कवि मञ्चस्थ नहीं है - ऐसे आयोजन भी नगण्य हो चले हैं। अधिकतर "बीड़ी जलइले" समारोह हो रहे हैं, उनके बीच कुमार विश्वास की उपस्थिति उसी तरह राहत देती है जैसे दारू-ठर्रा पार्टी में कोक-थम्सअप भी दिख जाए, न पीने वाले को। इनकी सफलता भी "आइटम कवि" जैसी है, "आइटम गर्ल" की तर्ज पर।
श्री गोपालदास 'नीरज' की मञ्चीय-सफलता और लोकप्रियता इनसे अधिक ही थी, मगर नीरज कभी सस्ते नहीं थे इतने। भले ही इतनी पी लेते रहे हों मञ्च पर ही कि सँभालना पड़ जाए आयोजकों को, मगर क़लाम सस्ता न हुआ कभी।
अब जब इतनी बात ईमानदारी और बेबाक़ी से लिखी है तो यह भी दर्ज करना पड़ेगा - कि मुझे भी पसन्द आते हैं कुमार विश्वास। वर्ना इतना लम्बा टिपियाता?
सुनना तो अच्छा लगता है ...पर साहित्य की इतनी समझ नहीं कि कुछ कह सकूँ ?
ReplyDeleteवैसे विश्वास जी के बारे में जितना श्रोता होने के नाते जानता हूँ ...कह सकता हूँ कई बार गंभीर श्रोताओं को उनके लतीफे खटकते हैं |
....वैसे इसका दूसरा पक्ष भी है श्रोता |
सो श्रोताओं की मांग और पसंद के बीच बेचारे शायर और कवि अपनी मंचीय क्षमता में इस तरह और कैसे तरक्की करने को मजबूर ना हों?
धन्यवाद्
ReplyDeleteसंस्मरण पढ़ कर कुदरत का करिश्मा वाली बात ज्यादा जमती है ... हम जिन लोगों को पसंद करते है.... मिलना चाहते है.... सच्चे दिल से मांगो तो सारी कायनात जुड़ जाती है उसे पूरा करने में... यही दुआ है आपकी सारी ख्वाईशें पूरी हों और हमे आप मिलवाते रहे कवियों से और उनकी प्रतिभा से .... अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा...
ReplyDelete@अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी जी,
ReplyDeleteमेरे एक बुज़ुर्ग चाचाजी हमेशा कुंए का पानी पीते थे। गांव में हैंडपम्प लगा, लेकिन ज़िन्दगी भर ज़िद से ग्रसित चाचाजी हैंडपम्प को गाली देते रहे। मृत्यु-शैया पर थे, तो एक दिन पानी मांगा। किसी बच्चे ने हैंडपम्प का पानी दे दिया, लेकिन cचाचाजी ने यह देखा नहीं। पी कर बोले “अहा! देखो, कितना स्वादिष्ट है कुएं का पानी।“ दम तोड़ते उस बुज़ुर्ग को यह बताना हमने ठीक नहीं समझा, कि पानी हैंडपम्प का था। जिस भ्रम में रहकर सामनेवाला खुश हो, उसको भ्रम में ही जीने देना चाहिए। फिर भी, थोड़ी चर्चा आपके टीप के उपर:
'काल की निर्मम गति' जिस दिन मूल्यांकन करेगी, उस दिन आपके नेक सलाह की ज़रूरत उसको पड़ेगी। उम्मीद है, उस दिन आप काल को 'अपने लय-रंग में' अपने विचार बताऐंगे । बहरहाल, डा कुमार विश्वास के 'जोक और कोई दीवाना कहता…' वाली कविता पर जो ‘बाज़ारवादी बोनस’ और 'चिल्लाव भरा चक्रवृद्धि ब्याज' का भार बढता जा रहा है, उसको आप जैसे 'सेल्फ़ प्रोजेक्शन' न करने वाले अथाह ज्ञान के सागर भी कम नहीं कर पा रहे। सच, आर्कुट पर उनके नहीं, आपके 12,000 प्रशंसक होने चाहिए थे।
आगे यह की ‘बाज़ारू भोक्ता-उपभोक्ता’ बन रहे साहित्य को बचाने के प्रयास के लिये आप जैसे लोग ही साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने के सही हक़दार हैं; भले ही आपका सीमित ज्ञान और विकृत आलोचनात्मक स्वभाव आपको ‘कालिदास-कबीर-ग़ालिब-फैज-निराला-नागार्जुन’ से बाहर नहीं निकलने दे रहा। अब कोई क्या करे… कुएं के पानी में रहने वाले एक जीव-विशेष को क्या पता कि असली दुनिया में क्या हो रहा है। वैसे आप डा कुमार विश्वास को ‘नापने के लिए एक मीटर’ बनाना चाहते हैं, तो कृपया http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=कुमार_विश्वास पर जा कर कुमार विश्वास जी की कविताओं और साहित्य-शिल्प के बारे में अपने ज्ञान को बढाईए।
और हां! जो पीढी लगभग 30 साल तक हिन्दी कविता और कवि-सम्मेलनों से दूर रही, उस पीढी को आप जैसे ‘आलोचनात्मक विवेक को जागृत’ रखने वाले लोग ही मंच तक वापस लाए हैं। हज़ारों-लाखों की भीड़ आपको सुनने के लिए ही तो वहां तक आती है!!
यह जानकर भी खुशी हुई कि अमेरिका में आपके दोस्त भी रहते हैं। आपके वह मित्र डा कुमार विश्वास के काव्य पाठ के श्रोताओं का 0.001 प्रतिशत हिस्सा थे। और उनकी टिप्पणी बाकी के 99.999% श्रोताओं के सामने उतना महत्व रखती है, जितना कि लाखों प्रशंसकों के चहेते “अमुक ..... विश्वास (उदाहरणार्थ) कवि के लिए ‘ईर्ष्या और जलन’ से दूर किसी व्यक्ति की ‘ईकाई स्तर की आवाज़’।
From: Dr.kumar Vishvas
ReplyDeleteTo: gautam rajrishi
Sent: Tue, 6 July, 2010 9:11:57 PM
आभार भाई
लौटने के बाद से लगातार व्यस्त था
आज देखा आप का लेख और उस पर मित्रों कि राय....एक लम्बा संवाद मांगती है इस तरह कि बहस
और जिसे, इस समय मै अपनी विचार प्रक्रिया में सम्मलित नहीं मानता ,अगली बार कभी वैसी महफ़िल जुड़े तो सुबीर भाई के साथ आप लोग इस पर चर्चा करें जो मेरे पास होगा, उत्तर मे प्रस्तुत कर सकूँगा.
वैसे भी मेरा मानना है कि सर्जना और उस कि आलोचना दो अलग सत्य हैं ,और आलोचना के आलोक मै गढ़ा हुआ साहित्य मान्य तो हो सकता है पर उस कि नैसर्गिकता और उस के प्रवाह कि सहजता, काल के सम्मुख सदैव संदिघ्ध रहेगी ...
यह सब सिर्फ तुम्हारे श्रम के नाम लिखा है ,हो सकता है मित्र-गण इस का भी हेतु निकालें.
अस्तु उस शाम मन को सुकून मिला सब से मिल कर ,मेरे होने का एक कारण मेरा खुद मै लौटना भी है .
मेरा प्यार दीजिये सब को .
और अनुज वधु को मेरा अशेष आशीष , उम्मीद है कि जल्दी ही दिल्ली का चक्कर लगोगे तो मिलोगे
तुम्हारा भाई
डॉ कुमार
यदि उचित लगे तो इसे मेरी और से पोस्ट का दें उन्ही प्रर्तिक्रियायों में.
सही लिखा है आपने...
ReplyDeleteडा. कुमार विश्वास लेखन के साथ साथ आवाज़ के भी जादूगर हैं....
जाने कितनी बार सुना...हर बार ताज़गी देता है उनका पुराना कलाम भी.
अमरेन्द्र जी सबसे पहले तो बधाई
ReplyDeleteमतलब आपको डॉ. विश्वास से खासी मोहब्बत है वरना इतनी लम्बी टिपण्णी लिख आप अपना वक़्त क्यों ज़ाया करते :-)
आपने डॉ. विश्वास का गहन अध्ययन किया .......और गौतम राजरिशी की पोस्ट पर प्रतिक्रिया के रूप में इतनी मेहनत की ...शुक्रिया!. डॉ. विश्वास सिर्फ इक साहित्यकार नहीं है वो इक परफोरमर भी हैं.....मानने वाले तो गुलज़ार को भी साहित्यकार नहीं मानते .....क्योंकि उनकी कर्मभूमि फिल्म इंडस्ट्री है ....साहित्यकार का फ़िल्मी होना ही बहुत लोगों को अखरता है लेकिन त्रिवेणी का जों तोहफा उन्होंने हिंदी साहित्य को दिया है वो तो अचूक है .......इसीप्रकार आज की पीढ़ी जों हिंदी कविता में रूचि ही नहीं लेती थी आज वो गुनगुनाती है, हिंदी में लिखती है .....सिर्फ इक व्यक्ति की कविता के कारण ......तो इस तरह के हुए सामाजिक बदलाव को तो आपको समझना ही पड़ेगा. ५०% से ज्यादा युवा है आज देश में ....और उनमें बुद्धिजीवी वर्ग जों देश के उच्च संस्थानों में शिक्षा ग्रहण कर, देश के गौरव और सम्मान को बढ़ा रहे है वो भी इस कवि और उसकी कविता को प्यार करते हैं. कोई माने या ना माने कुछ बात तो है उनमें
रही बात बाज़ारवाद की तो वो समय की मांग है .....लेकिन बाज़ारवाद की दौड़ में मूल्यों से गिरना मैं इसके खिलाफ हूँ.....शुक्र है वो मूल्य और संस्कार डॉ. विश्वास के पास हैं.......वरना सैकड़ो टी.वी. शो में आप उनको देख सकते थे.....क्योंकि वह भी भाषाविहीन कवियों की कमी नहीं है .....ह्युमोर और कॉमेडी के नाम पर जों परोसा जा रहा है सभी जानते हैं
......आप कविता कोष में जाकर उनकी रचनाएँ पढ़िए ....आपकी सोच में परिवर्तन आएगा . और हाँ " कोई दीवाना कहता है " को जहाँ तक कैश करने की बात है तो आपके अनुसार मधुशाला तो आजतक कैश हो रही है और कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे....और बुंदेले हार बोलों के मुह हमने सुनी कहानी थी........किसने मना किया है......कालजयी रचना लिखो तो ....हम तो प्रशंसक है ....आपकी टिपण्णी ने बाध्य किया.....इतना लिखने को......वरना गौतम जी ने इतनी लम्बी टिपण्णी हमारी तो कभी नहीं पढ़ी
सादर, सप्रेम
प्रिया
@
ReplyDeleteफैज़ अहमद फैज़ याद आ रहे हैं ---
'' वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था,
वो बात उन को बहुत नागवार गुज़री है ... ''
मैंने एक पक्ष रखना चाहा था , आलोचना का एक प्रयास था , है और आगे भी जारी रहेगा !
इस पर भी भावनाएं आहत हों तो यह मेरे हाँथ में नहीं है !
एक प्रतिबद्धता है खुद से , इसलिए अपना पक्ष रखता रहूंगा ---
'' प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, प्रतिबद्ध हूँ–
बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त–
संकुचित ‘स्व’ की आपाधापी के निषेधार्थ
अविवेकी भीड़ की ‘भेड़िया-धसान’ के खिलाफ
अंध-बधिर ‘व्यक्तियों’ को सही राह बतलाने के लिए
अपने आप को भी ‘व्यामोह’ से बारंबार उबारने की खातिर
प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, शतधा प्रतिबद्ध हूँ! ''
--- जनकवि नागार्गुन
@ आदरणीय कंचन जी ,
ReplyDeleteकाल की निर्मम गति में विश्वास है मुझे , मैं गलत होउंगा तो काल मुझे नाप देगी , नहीं
तो जो गलत होगा उसे , वह चाहे कुमार विश्वास ही क्यों न हों !
यह सही कहा आपने , "हम तो अपनी राय रखेंगे, जब हम धोखा खायेंगे" , हर व्यक्ति को अपना
अनभै - साँचा कहना चाहिए ! मैंने अपना कहा , आप अपना कहेंगी ! सहमति-असहमति तो छायातप
से जीवन भर होते ही रहते हैं ! संवाद-धर्मिता बनी रहे , बस ! इतना क्या कम है !
वैसे उस दिन की कल्पना नहीं करना चाहता जब कुमार विश्वास को सुनना/सहना/झेलना पड़े ! उनके
कुछ नितांत फूहड़ कमेन्ट आपादमस्तक आग लगाते हैं ! यह मेरा कोई व्यक्तिगत अनुभव नहीं है , पर
एक समूह की पीड़ा ( समूह भले ही छोटा हो ) व्यक्तिगत सा ही अनुभूतता हूँ , इसलिए !
मैंने बस अपनी बात रखी थी - निवेदित की थी ! हर बार मेजर साहब लिखकर ! खुशी हुई की मेजर साहब
ने बुरा तो नहीं माना !
महादेवी वाले प्रसंग के विषय में यही कहूंगा , कि मूल्यांकन में आत्मनिष्ठता से बड़ा मूल्य है
मूल्यात्मक वस्तुनिष्ठता ! आभार !
@ गौतम राजरिशी जी ,
ReplyDeleteआपसे सहज बेहतर की उम्मीद रहती है , वर्ण्य-संतुलन की उम्मीद रहती है , अस्तु लिख
दिया था ! यह उम्मीद आगे भी रहेगी , बस इसी हद तक अपना पक्ष रखूंगा , इससे आगे नहीं
बढूंगा ! यहाँ तक की छूट आप देते हैं यही बहुत ! ब्लॉग-जगत में ८ माह बिताने के बाद
मुझे भी अपनी सीमा का ज्ञान हो गया है !
यहाँ का माहौल देख कर यही लग रहा है कि जैसे मैंने किसी ईश्वर को गाली दे दी हो ! अच्छा है कि
आपने नहीं कहा --- '' गो अवे फ्राम माई साईट एंड नेवर लेट मी सी यू अगेन '' !
बाकी बातें क्या कहूँ .. एक पोस्ट बना दी है कुछ आपत्ति दर्ज करते हुए , आलोचनात्मक ढंग से ..
इससे ज्यादा क्या कर सकता था , हासिये का आदमी हूँ सो , यह है मेरी पोस्ट का पता ---
http://amrendrablog.blogspot.com/2010/07/blog-post.html
"एक असैनिक व्यथा" - पर यथाशीघ्र जाउंगा , आज थोड़ा थक सा गया हूँ , पूरी स्फूर्ति के साथ देखूंगा तो
बेहतर होगा ! आभार !
@ रुचिका जी ,
ReplyDeleteअगर आप स-तर्क संवाद करतीं तो खुशी होती ! आपके व्यंग्य-शर हमें मजबूत ही करते हैं ! मुझे मेरी
स्थिति का अहसास ही कराते हैं ! कहाँ हूँ , किनके बीच हूँ , कैसा हूँ , कब तक रह सकता हूँ , - प्रभृति
अहसास !
आपके कमेन्ट में मुझे एक चीज छूटी लगी .. अंत में - '' सौजन्य से : कुमार विश्वास '' , ऐसी विरल
मेधा और दिव्य तर्कणा का विश्वास किसी कुमार (?) में ही हो सकता है !
फिर भी आभारी हूँ आपका !
@ प्रिया जी ,
आपने शुरू में ही कहा - '' मतलब आपको डॉ. विश्वास से खासी मोहब्बत है वरना इतनी लम्बी टिपण्णी लिख
आप अपना वक़्त क्यों ज़ाया करते ''
यदि टीप की मूल्यवत्ता किसी विचार से नहीं बल्कि वक्त-श्रम आदि से आंकी जाय , तो मौन ही श्रेयस्कर ! आभार !
प्रिय अमरेन्द्र जी,
ReplyDeleteमुझे सब से ज़्यादा खुशी इस बात की हुई, कि मेरी "विरल मेधा और दिव्य तर्कणा" आपको कुमार विश्वास जी के भाषा-संस्कार के समकक्ष लगी। मैं इंटरनेट पर विगत 10 सालों से अत्यंत सक्रिय थी, सोशल नेटवर्किंग पर भी। लेकिन ब्लाग-जगत पर कभी नहीं आई थी। एक मित्र ने मुझे इस ब्लाग का लिंक दिया तो मैंने भी चर्चा में भाग लेने का मन बनाया। मेरे पहले ही टीप पर मेरी भाषा-शक्ति को इतना बड़ा सम्मान मिलना मेरे
लिए अत्यंत प्रसन्नता की बात है।
वैसे मैं जिस संस्थान से पढी हूं, वहां हिन्दी और अंग्रेजी का शब्द-शिल्प इस रूप में होना एक आम बात है। और आप अब तक समझ रहे हैं कि ऐसी भाषा का "विश्वास किसी कुमार में ही हो सकता है !" कभी अपने शांतिवन वाले दक्षिण-दिल्ली की चारदीवारी से बाहर निकलकर देखिएगा… हमारे कोलाहल भरे संस्थान में कई कुमार, सिंह, खान ऐसी भाषा बोलते हुए नज़र आएंगे।
अच्छा है कि कुमार विश्वास जी ने अपने पत्र के ज़रिए (इस चर्चा में उपर उपलब्ध) गौतम जी को अपनी मंशा स्पष्ट कर दी, जहां से आपको यह पता चल जाएगा कि इस तरह की चर्चा और आलोचना से उनको कितनी खरोंच आती है। मैं उनकी इस बात से भी सहमत हूं। मुझे भी इस चर्चा में कूदना अब समय और श्रम की बर्बादी लग रही है। क्योंकि एक कंटीले जंगल की शांति में उन कांटों की प्रेरणा ले कर चर्चा करना आसान है, लेकिन एक प्राईवेट कंपनी में एक महत्वपूर्ण पद पर कार्यरत एक कर्मचारी के लिए इतना समय निकालना सम्भव नहीं… शायद आगे चर्चा ना कर पाऊं…
मतलब वो माचिस जो छोड़ के गया था मैं स्टेज के पीछे उसका बराबर इस्तेमाल कर लिया आपने..
ReplyDeleteमैं जानता हु कि एक जबरदस्त शाम को छोड़ आया था मैंने.. इसका मलाल तो रहेगा ही पर अगली बार और ज्यादा धमाल के लिए तैयारिया भी पहले से होने का फायदा भी है.. मेरी जुबान पे तो पिछले कई दिनों से ऊड़स ली तुने साडी में.. चढ़ा हुआ है.. और उड़ी जब ओधनी वो छोटी छोटी घंटियों वाली.. उसको ढूंढते हुए कविता कोष पे आपको पकड़ लिया और बाकी की ग़ज़ल पढ़ डाली.. अब अगर मेरी लिखी हुई गजलो पे लोगो की गालिया मिली तो आधे हकदार आप भी होंगे.. क्योंकि आप दे या न दे हमने आपसे प्रेरणा ले ली..
बाकी कुमार साहब के बारे में सबको अपनी राय रखने का अधिकार तो होना ही चाहिए.. कोई उनका फैन होगा तो कोई उन्हें मगरूरवा कहता होगा... खैर इन दोनों ही कंडीशन में मेरी थाली की रोटिया कम नहीं होगी.. अमरेन्द्र भाई ने वही लिखा है जैसा उन्होंने देखा है.. आपने वही लिखा जैसा आपने देखा.. मेरे पास भी कुमार विश्वास को नापसंद करने के पर्याप्त कारण है और आप जानते भी है क्यों.. भविष्य में हो सकता है वे मेरे बीच बैठे तो मुझे कोई और कुमार विश्वास नज़र आये.. राय बदलती रहनी चाहिए ये ज़रूरी है..
जल्द ही अगले जश्न की तैयारी करते है.. माचिस तैयार रखना बॉस
इतनी विस्तृत रिपोर्ट पढ़ कर भी
ReplyDeleteजी नहीं भरा है जनाब
आप सब ने जो-जो पढ़ा
उसे सुनवाईये भी............
बधाई स्वीकारें
इसे संयोग कहूँ या तकनीकी धोखा , अक्सर यहाँ पूरी टिप्पणियाँ नहीं दिखतीं , अब दिख रहीं हैं !
ReplyDelete@ रुचिका जी ,
यहाँ पर आपकी अंतिम टीप के पहले खंड की खुशी किसी को भी अनायास ही खुशी कर सकती है !
'कुएं में रहने वाले विशेष जीव ' से इसबार आगे बढ़कर आप 'दिल्ली के शान्ति वन की चारदीवारी ' तक देख पा रही/रहे हैं , तो यह आपके नेत्रों की सफलता है ! कुमार विश्वास ने ससंदिग्ध होकर लिखा है , '' ... हो सकता है मित्र-गण इस का भी हेतु निकालें.'' , इसलिए उनकी बात पर बात बढ़ाना आवश्यक न समझा !
आपने मुझे शुरुआती टीप में मेरी तमाम अक्षमताओं को रेखांकित करते हुए '' सीमित ज्ञान और विकृत आलोचनात्मक स्वभाव '' वाला कहा है , इसी ज़रा सी विकलांग-सीमित-तुच्छ ज्ञानात्मक पूंजी के सहारे आपके महान कवि कुमार विश्वास की यहाँ पर सर्व-प्रशंसित और उद्धृत कविता की सिर्फ एक पंक्ति पर बोल रहा हूँ , अगर बात की तह तक जाकर आप मेरी बात काट देंगी/देंगे तो मैं आभारी होउंगा ---
मैं सिर्फ '' भ्रमर कोई कुमुदिनी पर मचल बैठा तो हंगामा '' पर बात करता हूँ ! 'कुमुदिनी' सफ़ेद कुईं फूल है , रात में चन्द्र-प्रकाश में खिलता है ! इस हेतु चंद्रमा कुमुदिनी-पति भी कहा जाता है ! क्या इस रात में कोई भौंरा किसी कुमुदिनी पर मचलने आयेगा ? भौंरा तो रात में निष्क्रिय रहता है ! .. यह है कुमार विश्वास का अविवेकी काव्य - बोध , इस घटिया 'पोयटिक - सेन्स' की तारीफ़ कैसे की जाय ! सस्ती लोकप्रियता के मूल में छिपी अज्ञानता को बेपर्द होना ही चाहिए ! गलत पोयटिक - सेन्स के साथ कोई कवि तारीफ़ / सहानुभूति का पात्र नहीं हो सकता !
यह बात मैंने इसलिए कही क्योंकि आप मुझे कुमार विश्वास से काव्य-शिल्प का ज्ञान कविताकोश पर जाकर सीखने का उपदेश दे रही थीं /रहे थे ! बातें और भी कही दिखाई जा सकती हैं , पर मैं अपने '' सीमित ज्ञान और विकृत आलोचनात्मक स्वभाव '' का '' 0.001 प्रतिशत हिस्सा '' भी फिजूल के लोगों पर नहीं देना चाहता ! चूंकि बात मैं बढ़ा चुका था , इसलिए यहाँ तक चलता आया ! प्राइवेट कम्पनी में काम करने वाली/वाले को किसी कंटक-प्रेरणा-ग्राही के विरुद्ध भूरिशः कुमार-कृपाएँ और
विश्वास की आपूर्ति हो , यही ईश्वर से कामना कर सकता हूँ ! ... आभार !!!
बहुत खूबसूरत शाम बिताकर आये हैं आप लोग, जिसकी खुश्बू बिखेरी जा रही है। आजकल कहां हैं आप कोई खबर ही नहीं
ReplyDeletemy new blog--kabhi-to.blogspot.com
तुम नहीं आए तो हम चले आए....
ReplyDeleteकंचन के लेख पढ़े, अब आपका पढ़ रही हूँ। एक नाम जिसे मैंने न कभी सुना था उसकी इतनी प्रशंसा सुन रही हूँ । अपनी अनभिज्ञता के बारे में क्या सोचूँ? खैर, इतने बड़े लोगों के बीच आपको अपनी रचना पढ़ने का अवसर मिला और उसे इतना सराहा गया जानकर खुशी हो रही है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
ReplyDeleteकई किश्तों में पढ़े जाने लायक प्रस्तुति,
टिप्पणियों को सलटाने में तो मानों युग बीत जायेगा ।
आता रहूँगा, कई छोटे छोटे ब्रेक के साथ !
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteपहले तो फोटो मे उस गुरू की माँ जैसी नज़र पे सदके जावाँ..जो अपने शिष्य को ’परफ़ार्म’ करते देख तृप्त हो रही है..बाकी कुमार जी के बारे मे पढ़ा और कुछ टीपों के जरिये उन पर बहस और पक्ष-विपक्ष की बातों के बारे मे भी जानकारी मिली..अमरेंद्र जी अच्छे मित्रों मे हैं..और उनकी पूर्णतया ईमानदार(जो इस ब्लॉग-जगत पर सबसे दुर्लभ गुण है) टिप्पणियाँ किसी भी ब्लॉगर के लिये सहेजने और मनन करने लायक होती हैं..इसी आधार पर अपनी अज्ञानता के स्वीकार्य के साथ उनकी कुछ बातों से असहमत होने की इजाज़त लूंगा..कुमार साब को आइ आइ टी मे ही तीन बार सुनने का सुअवसर मिला है..और उनकी पुस्तक के लोकार्पण मे उनसे मिलने का मौका भी...उनकी विद्वत्ता, उनकी प्रत्युत्पन्नमति और उससे भी अधिक उनकी सरलता प्रभावित करती है..आइ आइ टी मे उनकी कविताओं पर पूरे जनसमूह को झूमते हुए एक से ज्यादा बार देखा है..अमरेंद्र जी से बताना चाहूँगा..कि कितने अहिंदी-भाषियों को उनकी कविता का आनंद लेते प्रत्यक्षतः मैने देखा है..उन तमाम लोगों को (हिंदी भाषियों मे भी) भ्रमर का, कुमुदिनी का शब्दकोषीय अर्थ नही पता होता है...मगर वे कविता के भाव से स्वयं को जोड़ पाते है..और उन कविताओं मे अपने जीवन की कोई न कोई प्रतिछवि देख पाते हैं..हम उन्हे बलात् अज्ञेय या शमशेर को पढ़ने के लिये बाध्य नही कर सकते..तमाम गंभीर साहित्यिक कविताएँ उनके ही शब्दों मे ही ’उनके सर के ऊपर से निकल जाती हैं’..सत्यजित राय निर्विवाद रूप से भारत के सर्वश्रेष्ठ सिनेकार हुए हैं..मगर उनकी फ़िल्मे कितने प्रतिशत भारतीयों ने देखी होंगी?..और क्यों सुभाष घई या राजकुमार संतोषी आदि की फ़िल्मों को इतने अधिक दर्शक मिलते हैं?..जबकि यह फ़ि्ल्में स्तर के मामले मे सत्यजित दा के आसपास भी नही ठहरतीं!..मगर इससे सत्यजित दा की श्रेष्ठता कहीं से भी प्रभावित नही होती..साहित्य के बारे मे भी यही बात सही बैठती लगती है..बौद्धिकता का अनावश्यक अतिरेक अक्सर साहित्य को एक सामान्य स्तर के पाठक की पहुँच से दूर कर देता है..और एक अरब से ऊपर की जनसंख्या वाले देश मे जब ’राजभाषा’ मे स्तरीय साहित्यिक पुस्तकों का संस्करण दो हजार प्रतियों को भी नही छू पाता है (जिनमे से आधी परिचितों मे वितरण और समीक्षादि के लिये मुफ़्त देने के काम आती है)..और वायुरुद्ध प्रेक्षाग्रहों मे परस्पर प्रशंसा का आदान-प्रदान करते साहित्यकार हिंदी मे पाठकों की कमी का रोना रोते समय भूल जाते हैं कि इसी भाषा के ’पल्प-साहित्यिक’ उपन्यासों के संस्करण लाखों की संख्या मे छपते और हर नुक्कड़ पर बिकते नजर आते हैं..कभी नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल. महादेवी जी, दिनकर आदि की कविताएँ स्तरीय होने के बावजूद सहजग्राह्य और प्रभावी होने की वजह से सामान्य पाठकों मे आसानी से पैठ बना लेती थी..सो अगर बौद्धिकता के अत्याग्रह से त्रस्त जनता यदि कुमार विश्वास जैसों की कविताओं की मधुरता और सरलता मे खुद को ज्यादा सहज पाती है तो उसका क्या दोष...सुनते हैं कि जब हरिवंशराय या नीरज जी मंचीय सेलेब्रिटी हुआ करते थे तब तत्कालीन साहित्यिक बिरादरी से बहिष्कृत भी थे..मगर समय की परीक्षा पर सफ़ल हो कर वे आज भी चाव से पढ़े जाते हैं..यहाँ पर मेरा आशय कुमार साहब की वकालत करने का नही है बल्कि उनके बहाने सामयिक हिंदी कविता के जनाधार के एक पहलू पर बात रखने की है..हाँ लोकप्रियता और श्रेष्ठता दोनो अलग-अलग प्रतिमान हैं जिन्हे आपस मे जोड़ कर देखने से गलत अर्थ सामने आ सकते हैं..यदि गौतम साहब कुमार साहब को देश का श्रेष्ठतम कवि कहते या उनकी तुलना अज्ञेय या शमशेर जी से करते तो मुझे भी दिक्कतें होती...(खुद कुमार विश्वास भी स्वयं को कभी श्रेष्ठतम कवि नही कहते)..मगर उनकी और उन जैसों की कविताओं को सामान्य जनता का मिलता अपार प्रतिसाद अन्य ’साहित्यिक’ कवियों के जनसाधारण से दूर होते जाने की कथा ही कहता है..अमरेंद्र जी के विरोध और असहमति का मै सम्मान करता हूँ..और आदरणीय रुचिका जी की ’भावनात्मक’ प्रतिक्रिया की भाषा पर भी मुझे आपत्ति है..असहमति पर रचनात्मक तरीके से बात होनी चाहिये..
ReplyDelete@ अपूर्व जी ,
ReplyDeleteकुमार विश्वास के पक्ष में आपके द्वारा रखे गये तर्कों का सम्मान करता हूँ | अब इस सन्दर्भ में और कुछ कहने के लिए अपनी भूमिका को आवश्यक नहीं समझता | आपको पहुंचे यत्किंच दुःख के लिए क्षमाप्रार्थी भी हूँ | आगे इसका भी ख्याल रखूंगा | उम्मीद है कि आपको मुझसे कोई मनभेद नहीं होगा | आभार !
@ गौतम राजरिशी जी ,
आपकी इस खूबसूरत पोस्ट का जायका मेरी आरंभिक तीनों विषाक्त टिप्पणियों की वजह से खराब हुआ | अनायास ही यह अपराध मुझसे हुआ , जिसकी सजा अभी तक भुगत रहा हूँ | मुझे उम्मीद है आप मेरे इस अपराध को माफ़ करेंगे | अब भविष्य में आपके कमेन्ट-एरिया की मर्यादा और आपकी रुचियों के विरुद्ध न जाने की बात का सख्ती से पालन करूंगा | उम्मीद है कि आपको मुझसे कोई मनभेद नहीं होगा | आभार !
@ ....... अन्य सभी लोगों से भी क्षमा माँगता हूँ , जिनसे मैं मंद-मति उलझ पडा अपनी सीमाओं को न देखते हुए | आप सब महान हैं और मैं मूर्ख सा ढीठपाना लगातार करता रहा |
'' सूझ न एकउ अंग उपाऊ।
मन मति रंक मनोरथ राऊ।।
मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी।
चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी।।''[ ~ तुलसीदास ]
इसलिए कहता हूँ कि --- ''छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई'' | आभार !