13 February 2012

नए साल के आलमीरे से झाँकती पुराने साल की किताबें

...पाले हुये अनगिनत रोगों की फ़ेहरिश्त में किताबों ने होश की पहली दहलीज़ से ही शायद सबसे ऊपर वाला क्रमांक बनाए रखा है|  वैसे कितनी दहलीजें होती हैं होश की ? बक़ौल वेद, उपनिषद आदि ...शायद आठ दहलीजें... राजकमल के मुक्ति-प्रसंग के आठ अनुच्छेदों की तरह|

... इधर लगातार उमड़ रहे अनर्गल अलापों की घटाटोप बारिश में अचानक से अपने इस सिरमौर रोग की शिकायती बिजलियों ने कौंध-कौंध कर  किताब वाली आलमारी में पिछले साल की खरीदी किताबों की ओर इशारा किया...कुछ हमारी भी तो बातें करो कभी ! ...तो बातें किताबों की :-)

    खुद से किया हुआ बहुत पुराना वादा था कि साल के हर महीने तीन से चार किताबें खरीदनी ही खरीदनी है| चंद एक उपहार में भी मिल जाती हैं कदरदान शुभेच्छुओं से| शिकायती बिजलियों की कौंधती चमक  ठसाठस भरी आलमारी में 43 किताबें दिखलाती हैं, पिछले साल की खरीदी हुई|  शो टाइम :-


         ज़ोर मारता शौक़ का दरिया  कविताओं और ग़ज़लों के भँवर में ही  डूबो ले जाता है खरीददारी को...प्रायः | पिछले साल भी वही हुआ तमाम सालों की तरह...

          ग़ज़लों में राहत इंदौरी की "चाँद पागल है", बशीर बद्र की "मैं बशीर", शहरयार की "कहीं कुछ कम है" , अदम गोंडवी की "समय से मुठभेड़" , मंसूर उसमानी की "अमानत" , शाज़ तमकनत की "आवाज़ चली आती है" , शाहिद माहुली की "शहर खामोश है" और विकास शर्मा की "बारिश खारे पानी की" ... ने पूरे साल देर रातों, भरी दुपहरियों, उदास शामों को अजब-गजब रंगों से सराबोर किया तो कविताओं-गीतों और नज़्मों में  गुलज़ार की "पंद्रह पाँच पचहत्तर" , यश मालवीय की "एक चिड़िया अलगनी पर..." , लीलाधार मंडलोई की "घर-घर घूमा" , चन्द्रकान्त देवताले की "धनुष पर चिड़िया" , मलखान सिंह सीसोधिया की "कुछ कहा कुछ अनकहा" , बोधिसत्व की "खत्म नहीं होती बात" , शिरीष मौर्य की "पृथ्वी पर एक जगह" , गीत चतुर्वेदी की "आलाप में गिरह" , लाल्टू की "लोग ही चुनेंगे रंग" , वंदना मिश्र की 'कुछ सुनती ही नहीं लड़की" , रंजना जायसवाल की "ज़िंदगी के कागज पर" , अशोक कुमार पाण्डेय की "लगभग अनामंत्रित" , नीलोत्पल की "अनाज पकने का समय" और मनीष मिश्र की "शोर के पड़ोस में चुप सी नदी" ने उन अजब-गजब रंगों को तनिक और चटक किया|  कविताओं से ही जुड़ी चंद अन्य किताबों में राजेश जोशी की "एक कवि की नोटबुक" , विजेंद्र की "कवि की अंतर्यात्रा" , लीलाधर मंडलोई द्वारा संपादित "कविता के सौ बरस" और विश्वरञ्जन द्वारा संकलित "फिर फिर नागार्जुन" ने कविताओं के मेरे सहमे पाठक-मन को ज़रा-ज़रा आश्वस्त किया| 

          उपन्यासों में जहाँ कुणाल सिंह की "आदिग्राम उपाख्यान" , पंकज सुबीर की "ये वो सहर तो नहीं" और मनीषा कुलश्रेष्ठ की "शिगाफ़" ने लेखनी के अविश्वसनीय जादूगरी से रूबरू करवाया तो कहानियों में ज्ञानपीठ का संकलन "लोकरंगी प्रेम-कथाएँ" , अनुज की "कैरियर गर्ल-फ्रेंड और विद्रोह" , नीला प्रसाद की "सातवीं औरत का घर" , जयश्री राय की "अनकही" , सुभाष चंद्र कुशवाहा की "बूचड़खाना" , अखिलेश की "अँधेरा" और मनीषा कुलश्रेष्ठ की "कुछ भी तो रूमानी नहीं"...  इसी जादूगरी को मंत्र-मुग्ध और सम्मोहन की चरम अवस्था में ले गईं| रवीन्द्र कालिया का अनूठा संस्मरण-संकलन "गालिब छूटी शराब" उस चरम अवस्था का अगला पायदान था| 

        इनके अलावा इंगलिश की छ किताबें भी शामिल हैं... तेज़ एन धर द्वारा संकलित "डायरी ऑव एन अननोन कश्मीरी" ,  मोनिका अली की "ब्रिक लेन" , चेतन भगत की "टू स्टेट्स" , औकाय कॉलिन्स की "माय जिहाद" , अरुंधति रॉय द्वारा संकलित "अनटिल माय फ्रीडम हैज कम" और आन्द्रे अगासी की आत्म-कथा "ओपेन"...... 

शो टाइम फ्रौम डिफरेंट एंगल ........



कितनी किताबों के अफ़साने जाने ऐसे कितने ही आलमारियों में बंद पड़े होंगे...सोचा कि कुछ को आज़ाद  करूँ, यूँ ही बैठे-ठाले| क्या करूँ, पुराने का मोह छूटता नहीं ना | जल्द ही इनमें से किसी किताब को लेकर लौटता हूँ... रोगों की फ़ेहरिश्त को तारो-ताजा करने...

17 January 2012

रोज़े-अब्रो-शबे-माहताब में कुछ छुटे हुये पैग पुराने...

     हमेशा से...हमेशा ही से अटका रह जाता है "पुराना" साथ में...जेब में, आस्तीन में, गिरेबान में, स्मृति में, स्पर्श में, स्वाद में, आँखों में, यादों में...मन में| 


     ग़ालिब की छुटी शराब के मानिंद ही रोज़े-अब्रो-शबे-माहताब में इस "पुराने" का छोटा-बडा पैग बनता रहताहै...इत-उत...जब-तब| 


बहुत भाता है पुराना 
कब से जाने

तब से ही तो...

तीन, तीस या तीन सौ...? 
लम्हे, दिन, महीने या साल ...?? 
कितनी पुरानी हो गई हो तुम...??? 
इतराती हो फिर भी  
है ना ? 
कि रोज़ ही नयी-नयी सी लगती हो मुझे... 


रफ़ी के उन सब गानों की तरह 
सुनता हूँ जिन्हें हर सुबह 
हर बार नए के जैसे 


या वही वेनिला फ्लेवर वाली आइस-क्रीम का ऑर्डर हर बार 
कि बटर-स्कॉच या स्ट्रबेरी को ट्राय कर 
कोई रिस्क नहीं लेना...


लॉयेलिटी का भी कोई पैमाना होता है क्या? 
तुम्ही कहो... 


तुम भी तो लगाती हो वही काजल 
रोज़-रोज़ अल-सुबह 
उसी पुरानी डिब्बी से
तेरा वो देखना तो फिर भी 
नया ही रहता है हरदम 


 ...और वो जो मरून टॉप है न तेरा 
जिद चले जो मेरी तो रोज ही पहने तू वही 
अभी चार साल ही तो हुए उसे खरीदे 
अच्छी लगती हो उसमें अब भी 
सच कहूँ, तो सबसे अच्छी 


सुनो तो, 
ग़ालिब के शेरों से नया कोई शेर कहेगा क्या 
हर बार तो कमबख़्त नए मानी निकाल लाते हैं 
जब भी कहो 
जब भी पढ़ो 


बहुत भाता है बेशक पुराना मुझको 
अच्छा लगे है मगर 
तेरा ये रोज़-रोज़ नया दिखना...





         नए साल का छप्पर लगे दो हफ़्ते गुज़र गये, मगर बीता साल है कि अब भी टपक रहा है कई-कई जगहों से बारिश की बूंदों के जैसे| बीस-बारह{2012} की ये पहाड़-सी ऊँचाई शायद घिस-घिस कर कम लगने लगे इसी पुराने के टपकते रहने से| आमीन...!!!

05 December 2011

इक रतजगे की तासीर और सिलवटों में उलझे चंद सवाल...

रात के ढाई बजे (रात के? या सुबह के??...) दूर कहीं पटाखों के फूटने की आवाज़ें आती हैं और किसी अनिष्ट की आशंका से नींद खुलती है चौंक कर| हड़बड़ायी-सी नींद को बड़ा समय लगता है फिर आश्वस्त करने में कि ये कश्मीर नहीं है...छुट्टी चल रही है...घर है, जहाँ तू बेफ़िक्र हो सुकून के आगोश में ख़्वाबों से गुफ़्तगू करती रह सकती है| उचटी हुई नींद का अफ़साना, लेकिन, जाने किस धुन पे बजता रहता है रात भर...वक़्त की उलझनों से परे, समय की दुविधाओं से अलग| सुकून का आगोश फिर कहाँ कर पाता है ख़्वाबों से गुफ़्तगू| किसी असहनीय निष्क्रियता का अहसास जैसे उस आगोश में काँटे पिरो जाता हो...उफ़्फ़ ! अधकहे से मिसरे...अधबुने से जुमले रतजगों की तासीर लिखते रहते हैं करवटों के मुखतलिफ़ रंग से बिस्तर की सिलवटों के बावस्ता...कोई तो कह गया था वर्षों पहले फुसफुसा कर "कश्मीर ग्रोज इन्टू योर नर्व्स"....ओ यस ! इट डज !! इट सर्टेनली डज !!!

सुना है,
छीनना चाहते हो वो हक़ सारे
कभी दीये थे जो तुमने
इस (छद्म) युद्ध को जीतने के लिये

अहा...! सच में?

छीन लो,
छीन ही लो फौरन
कि
सही नहीं जाती अब
झेलम की निरंतर कराहें
कि
देखा नहीं जाता अब और
चीनारों का सहमना

कहो कि जायें अपने घर को
हम भी अब...
खो चुके कई साथी
बहुत हुईं कुर्बानियाँ
और...कुर्बानियाँ भी किसलिये
कि
बचा रहे ज़ायका कहवे का ?
बुनीं जाती रहे रेशमी कालीनें ?
बनीं रहे लालिमायें सेबों की ?
या
बरकरार रहे फिरन के अंदर छुपे
कांगड़ियों के धुयें की गरमाहट...?

लेकिन ये जो एक सवाल है, उठता है बार-बार और पूछता है, पूछता ही रहता है कि...बाद में, बहुत बाद में वापस तो नहीं बुला लोगे जब देखोगे कि वो खास ज़ायका कहवे का तो गुम हुआ जा रहा है फिर से...जब पाओगे कि कालीनों के धागे तोड़े जा रहे हैं दोबारा...जब महसूस करोगे कि सेबों की लालिमा तो दिख ही नहीं रही और तार-तार हुये फिरन में छुपे कांगड़ियों का धुआँ तक नहीं रहा शेष| फिर से बुलाओगे तो नहीं ना वापस ऐसे में? तुम्हें नहीं मालूम कि मुश्किलें कितनी होंगी तब, सबकुछ शुरू से शुरू करने में...फिर से...

...रतजगे की तासीर मुकम्मल नहीं होती और सुबह आ जाती है तकिये पर थपकी देती हुई| नींद को मिलता है वापस सुकून भरा आगोश| सुना है, सुबह में देखे हुये ख़्वाब सच हो जाते हैं...!


26 September 2011

चंद अटपटी ख्वाहिशें डूबते-उतराते ख़्वाबों की...

उथली रातों में डूबते-उतराते ख़्वाबों को कोई तिनका तक नहीं मिलता शब्दों का, पार लगने के लिए| मर्मांतक-सी पीड़ा कोई| चीखने का सऊर आया कहाँ है अभी इन ख़्वाबों को? ...और आ भी जाये तो सुनेगा कौन? हैरानी की बात तो ये है कि यही सारे ख़्वाब गहरी रातों में उड़ते फिरते हैं इत-उत| जाने क्या हो जाता है इन्हें उथली रातों के छिछले किनारों पर| छटपटाने की नियति ओढ़े हुये ये ख़्वाब, सारे ख़्वाब...कभी देवदारों की ऊंची फुनगियों पर चुकमुक बैठ पूरी घाटी को देखना चाहते हैं किसी उदासीन कवि की आँखों से...तो कभी झेलम की नीरवता में छिपी आहों को यमुना तक पहुँचाना चाहते हैं...और कभी सदियों से ठिठके इन बूढ़े पहाड़ों को डल झील की तलहट्टियों में धकेल कर नहलाना चाहते हैं|

...और भी जाने कितनी अटपटी-सी ख्वाहिशें पाले हुये हैं ये डूबते-उतराते ख़्वाब| उथली रातों के छिछले किनारों पर अटपटी-सी ख़्वाहिशों की एक लंबी फ़ेहरिश्त अभी भी धँसी पड़ी है इन ख़्वाबों के रेत में| कश्यप था कोई ऋषि वो| देवताओं के संग आया था उड़नखटोले पर और सोने की बड़ी मूठ वाली एक जादुई छड़ी घूमा कर जल-मग्न धरती के इस हिस्से को किया था तब्दील पृथ्वी के स्वर्ग में| अटपटी ख्वाहिशों की ये फ़ेहरिश्त तभी से बननी शुरू हुई थी| ये बात शायद इन डूबते-उतराते ख़्वाबों को नहीं मालूम| उथली रातों ने वैसे तो कई बार बताना चाहा...लेकिन पार लगने की उत्कंठा या डूब जाने का भय इन ख़्वाबों को बस अपनी ख़्वाहिशों की फ़ेहरिश्त बनाने में मशगूल रखता है|

...फिर ये उथली रातें हार कर बिनने लगती हैं इन ख़्वाबों की अटपटी ख़्वाहिशों को| ख्वाहिशें...पहाड़ी नालों में बेतरतीब तैरती बत्तखों की टोली में शामिल होकर उन्हें तरतीब देने की ख़्वाहिश...चिनारों के पत्तों को सर्दी के मौसम में टहनियो पर वापस चिपका देने की ख़्वाहिश...सिकुड़ते हुये वूलर को खींच कर विस्तार देने की ख़्वाहिश...इस पार उस पार में बाँटती सरफ़िरी सरहदी लकीर को अनदेखा करने की ख़्वाहिश...सारे मोहितों-संदीपों-आकाशों-सुरेशों को फिर से हँसते-गुनगुनाते देखने की ख़्वाहिश...और ऐसे ही जाने कितनी ख़्वाहिशों का अटपटापन हटाने की ख़्वाहिश|

...ऐसी तमाम ख़्वाहिशों को बिनती हुई रात देखते ही देखते गहरा जाती...और इन डूबते-उतराते ख़्वाबों को मिल जाती है उनकी उड़ान वापिस|

11 July 2011

लौटना इक चौक के बचपने का...

उस चौक का बचपना लौट आया था| बचपन जो एक सदी से विकल था ...चौक जो कई युगों से वहीं-का-वहीं बैठा हुआ था बुढ़ाता हुआ| बहुत कुछ बदल गया था वैसे तो...सड़कें चौड़ी हो गई थीं और बारिश का पानी ज्यादा जमने लगा था, साइकिलों-रिक्शों की जगहें चरपहिये घेरने लगे थे और कीचड़ें ज्यादा उछलने लगीं थी
धोतियों-पैजामों पर, पान की दूकानें "जा झाड़ के" बजाय "तेरे मस्त-मस्त दो नैन" बजाने लगी थीं और कैप्सटेन-पनामा के अलावा क्लासिक-ट्रिपल फाइव भी रखने लगी थीं, दो-तीन आइस-क्रीम पार्लर खुल गए थे और उनके पार्किंग स्पेस में स्कूटियों-बाइकों की दिलफ़रेब संगत टीस उठाने लगी थी सामने चाय वाले बाबा के पास जमने वाली शाम की चौपाल में| अब कायदे से इस बदलती रुत में बुढ़ाते चौक की जवानी लौटनी चाहिए थी, लेकिन लौटा कमबख्त बचपन|

हर चौक की तरह इसका कोई नाम नहीं था| बस चौक था वो| शहर तो खूब फैल गया था...बड़ी लाइन की ट्रेनें भी दिल्ली और अमृतसर से आने लगी थीं| कुछ नेताओं, कुछ शहीदों के नाम पर सड़कों तक का नामकरण हो गया था| लेकिन वो चौक बस चौक ही रहा| चौक- इसी पुकारे जाने में अपनी पूरी पहचान समेटे हुये| ...और उस रोज़ अचानक से उसका बुढ़ाना ठहर गया था| सालों बाद...नहीं, युगों बाद मिले थे वो चारों फिर से उसी चौक पर| कुछ भी पूर्वनियोजित नहीं था| बस एक संयोग बना| युगों पहले उसी चौक पर सपने देखते थे वो साथ-साथ| बड़े होने के सपने| बायोलॉजी ग्रुप की लड़कियों के सपने| दुनिया नहीं, बस अपने शहर को बदलने के सपने| साथ-साथ एक अख़बार निकालने के सपने| रणजी ट्राफी के ट्रायल के सपने| स्टेफी ग्राफ और गैब्रियला सबातीनी के सपने| ...और उन दिनों अपनी जवानी पर इतराता वो चौक, उनके सपनों में शामिल होता हर रोज़, दुआएँ करता उन सपनों के सच होने की| फिर एक दिन अपने सपनों की तलाश में वो जो अलग हुये, तब से चौक का बुढ़ाना बदस्तूर जारी था| इस बीच वो बड़े हो गए| बायोलॉजी ग्रुप की लड़कियाँ दो-तीन बच्चों वाली मम्मियाँ बन कर अपने अपने-अपने आँगनों में लापता हो गईं| दुनिया के साथ-साथ शहर भी खूब बदला और शहर से कई सारे अख़बार भी निकलने लगे| रणजी के ट्रायल सिफ़ारिशों की अर्ज़ियाँ तलाशने में जुट गए| स्टेफ़ी को अगासी ले गया और सबातीनी को उसकी अर्जेंटीनियन गर्ल-फ्रेंड|

...और उस शाम, युगों बाद उन चारों का मिलना चौक का बचपना ले आया वापस| जवानी नहीं, बचपना| ट्रिपल फाइव को आसानी से अफोर्ड कर पाने के बावजूद चौक पर फिर से कैपस्टेन ही सुलगा| "तेरे मस्त-मस्त दो नैन" को दरकिनार कर चिल्लाते हुये "जा झाड़ के" गाया गया| आइस-क्रीम पार्लर के पार्किंग स्पेस में दिखती स्कूटियों और बाइकों के बहाने बायोलॉजी ग्रुप वाली तमाम नामों पे न सिर्फ विस्तृत चर्चा हुई, बल्कि नथूने फुलाए गए, भृकुटियाँ टेढ़ी की गईं और बाँहें भी चढ़ाई गईं| बाबा की चाय में लीफ की खुशबू मिली तो बाबा को ढ़ेर सारे उलाहने दिये गए| शहर के बदलने पे खुशी और अफसोस साथ-साथ जताए गए| अखबारों की स्तरियता पर मुट्ठियाँ लहराई गईं हवा में| रणजी ट्रायल की चर्चा पे पूरी क्रिकेट टीम को एक सिरे से गलियाया गया| किन्तु सबसे श्रेष्ठ गालियों का पिटारा आन्द्रे अगासी के लिए खोला गया जो उनकी दिलरुबा स्टेफ़ी को ले भागा था...और अंत में सबातीनी के लेस्बियन निकलने की खबर पर दो मिनट का मौन रखा गया|

चौक उस सामूहिक मातम में बाकायदा शामिल था अपने बुढ़ापे को बिसराए हुये, बच्चा बना हुआ|

शाम का समापन देर रात गए हुआ, उन्हीं पुराने शेरों को गुनगुनाते हुये:-

ख़ुद को इतना भी मत बचाया कर
बारिशें हों, तो भीग जाया कर
धूप मायूस लौट जाती है
छत पे कपड़े सुखाने आया कर