थपेड़े समन्दर के सहता हुआ मैं
किसी सैंड-कैसल सा ढहता हुआ मैं
दीवारों सी फ़ितरत मिली है मुझे
भी
कि रह कर भी घर में न रहता हुआ
मैं
धुआँ है या शोला, जो दिखता ग़ज़ल में
सुलगती कहानी है...कहता हुआ मैं
उधर हैं वो आँखें...इधर कोई
दरिया
यहाँ से वहाँ तक...हूँ बहता हुआ
मैं
नये ज़ख़्म दो अब कि ऊबा हुआ हूँ
पुराने को कब से ही सहता हुआ
मैं
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार १९ जनवरी २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
थपेड़े समन्दर के सहता हुआ मैं
ReplyDeleteकिसी सैंड-कैसल सा ढहता हुआ मैं
बहुत ख़ूब
उधर हैं वो आँखें...इधर कोई दरिया
ReplyDeleteयहाँ से वहाँ तक...हूँ बहता हुआ मैं
बहुत खूब गौतम जी!! बेजोड़ अभिव्यक्ति!!
नये ज़ख़्म दो अब कि ऊबा हुआ हूँ
ReplyDeleteपुराने को कब से ही सहता हुआ मैं !
बहुत खूब !
आप की पोस्ट बहुत अच्छी है आप अपनी रचना यहाँ भी प्राकाशित कर सकते हैं, व महान रचनाकरो की प्रसिद्ध रचना पढ सकते हैं।
ReplyDeletenice aricle Sir. Motivanonal Quaote
ReplyDeleteThanks for sharing valuable information ! Send Gifts to India Online
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