17 February 2021

किसी सैंड-कैसल सा ढहता हुआ मैं

 

थपेड़े समन्दर के सहता हुआ मैं

किसी सैंड-कैसल सा ढहता हुआ मैं

 

दीवारों सी फ़ितरत मिली है मुझे भी

कि रह कर भी घर में न रहता हुआ मैं

 

धुआँ है या शोला, जो दिखता ग़ज़ल में

सुलगती कहानी है...कहता हुआ मैं

 

उधर हैं वो आँखें...इधर कोई दरिया

यहाँ से वहाँ तक...हूँ बहता हुआ मैं

 

नये ज़ख़्म दो अब कि ऊबा हुआ हूँ

पुराने को कब से ही सहता हुआ मैं




4 comments:

  1. थपेड़े समन्दर के सहता हुआ मैं
    किसी सैंड-कैसल सा ढहता हुआ मैं

    बहुत ख़ूब

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  2. उधर हैं वो आँखें...इधर कोई दरिया
    यहाँ से वहाँ तक...हूँ बहता हुआ मैं
    बहुत खूब गौतम जी!! बेजोड़ अभिव्यक्ति!!

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  3. नये ज़ख़्म दो अब कि ऊबा हुआ हूँ
    पुराने को कब से ही सहता हुआ मैं !
    बहुत खूब !

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