[ कथादेश के अप्रैल 2018 के अंक में प्रकाशित "फ़ौजी की डायरी" का तेरहवाँ पन्ना ]
ठक-ठक...ठक-ठक ! उम्र की नयी दस्तक सुनवाता हुआ मार्च का महीना हर साल कैसी-तो-कैसी अजब-ग़ज़ब सी अनुभूतियों की बारिश से तर-बतर जाता है पूरे वजूद को | शायद जन्म-दिवस वो इकलौता उपलक्ष्य होता है, जब हम किसी चीज़ के घटने का उत्सव मनाते हैं | उम्र बढ़ती है...कि घटती है ? छुटपन में सोचता था अक्सर बड़ी उम्र वाले आस-पास के लोगों को देखकर कि चालीस के बाद की ज़िन्दगी भी क्या ख़ूब होगी, जब व्यक्ति अपना हर निर्णय लेने को स्वतंत्र होगा | हा हा...स्वतंत्र ? कहाँ पता था तब कि हर बढ़ती उम्र के साथ ये कथित स्वतंत्रता उतनी ही ग़ुलाम होती जाती है...परिस्थितियों की, ज़रूरतों की, रिश्ते-नातों की, वक़्त की, पेशे की, ज़िम्मेदारियों की, जिए जाने के लिए की जा रही अतिरिक्त मेहनतों की, ख़ुद ज़िन्दगी की...ग़ुलाम ! शायद ये नए क़िस्म की ‘फिलॉस्फ़ी’ भी इस चालीस पार उम्र की तरफ़ से विशेष उपहार ही है |
ठक-ठक...ठक-ठक ! उम्र की नयी दस्तक सुनवाता हुआ मार्च का महीना हर साल कैसी-तो-कैसी अजब-ग़ज़ब सी अनुभूतियों की बारिश से तर-बतर जाता है पूरे वजूद को | शायद जन्म-दिवस वो इकलौता उपलक्ष्य होता है, जब हम किसी चीज़ के घटने का उत्सव मनाते हैं | उम्र बढ़ती है...कि घटती है ? छुटपन में सोचता था अक्सर बड़ी उम्र वाले आस-पास के लोगों को देखकर कि चालीस के बाद की ज़िन्दगी भी क्या ख़ूब होगी, जब व्यक्ति अपना हर निर्णय लेने को स्वतंत्र होगा | हा हा...स्वतंत्र ? कहाँ पता था तब कि हर बढ़ती उम्र के साथ ये कथित स्वतंत्रता उतनी ही ग़ुलाम होती जाती है...परिस्थितियों की, ज़रूरतों की, रिश्ते-नातों की, वक़्त की, पेशे की, ज़िम्मेदारियों की, जिए जाने के लिए की जा रही अतिरिक्त मेहनतों की, ख़ुद ज़िन्दगी की...ग़ुलाम ! शायद ये नए क़िस्म की ‘फिलॉस्फ़ी’ भी इस चालीस पार उम्र की तरफ़ से विशेष उपहार ही है |
इसी
नयी-नवेली अर्जित ‘फिलॉस्फ़ी’ की तहों में से एक नये ज्ञान ने अपना सर उठाया हुआ है
आजकल | न देखने का ज्ञान...किसी चीज़ को अनदेखा करने का ज्ञान...जान-बूझ कर नज़र
अंदाज़ करने का ज्ञान | विमर्श करते फेसबुक पोस्ट, शोर मचाते व्हाट्सएप मैसेजेज, हंगामा
खड़ा करते ट्वीटर के नन्हे ट्वीट्स, चीख़ते-चिल्लाते ख़बरिया चैनल्स...इन सबको
नज़र-अंदाज़ करना, इन सबसे एक तरह की बेपरवाही बरतना उम्र की इस बढ़त की एक विशेष
उपलब्धि है, सच मानो डियर डायरी | सोशल मीडिया पर जिस तरह से अपने-अपने वर्ग-विशेष, हित-विशेष, विचारधारा-विशेष
के अनुसार घटित को तर्क-सुविधा-लाभानुसार प्रस्तुत किये जाने का चलन है, वो घातक होता जा रहा है | हैरानी तो तब होती है कि
पढे-लिखे लोगों की एक पूरी की पूरी बिरादरी भी बगैर अपनी परिपक्वता का इस्तेमाल
किये अपने-अपने हिस्से का सच चुन लेती है | बात सिर्फ चुन
लेने तक ही सीमित रहती तो फिर भी ठीक था, उस चुन लेने को लोग
धीरे-धीरे ख़ुद ही सच भी मानने लगते हैं और फिर शुरू हो जाते हैं दूसरों पर उसे
चुने हुए सच को थोपने में...ये डरावना है |
जबसे
इन सबको अनदेखा करना सीखा है, आस-पास और मुल्क में, सर्वत्र शान्ति दृष्टिगोचर हो
रही है अब | सोचता हूँ, डायरी मेरी...कि ये अनदेखा करने वाले और लोग क्यों नहीं
मिलते मुझे दोस्तों में ! ये ना देखने की क्षमता ही क्या एक तरह से दृष्टी रखने की
अवधारणा या संकल्पना नहीं होनी चाहिए ? उम्र का ये तैतालीसवाँ पायदान कुछ ज्यादा
ही बुद्धिमान तो नहीं बना रहा मुझे...!
कैसी
विचित्र सी शय होती है ये तैतालीस की उम्र भी ना...जब तीस की जींस कमर पर कसती है
और बत्तीस वाली ढ़ीली होती है | ये जींस बनाने वाले कमबख्त़ भी इकतीस का कोई विकल्प
ही नहीं रखते !
इधर
विगत कुछ दिनों से बर्फ़बारी थमी हुई है | लेकिन अम्बार इतना जमा हो चुका है सफ़ेद
परतों का कि सोच कर ही बदहवासी फैल जाती है...इतना सारा कुछ पिघलेगा कैसे ? सूर्यदेव
की डिबरी सी टिमटिमाती धूप की क्षमता पर भारी शक-सुबहा का परदा गिरा हुआ है फिलहाल,
जो उठते-उठते ही उठेगा | तब तक इस बर्फ़बारी और हाड़ कपकपाती सर्दी के भीषण आतंक से
जेहाद के सारे भूत-प्रेत बेशक किन्हीं
कंदराओं में छुपे बैठे हों, नतीज़ा ये निकला है कि ब्रिगेड-कमान्डर साब की तरफ़ से
हमारी एक महीने की छुट्टी पर स्वीकृति की मुहर लग चुकी है | तेरह महीने बाद घर जा
रहा हूँ | यदि मौसम खुला रहा यूँ ही कल भी तो रसद लाने वाले हेलीकॉप्टर से श्रीनगर
तक पहुँच जाऊँगा आराम से | नहीं तो, पहले इन तुंग पहाड़ों से नीचे की तरफ़ सात घंटे
की पैदल-यात्रा...फिर बर्फ़ से भीगी सड़क पर श्रीनगर तक की पाँच-छ घंटे तक का
जीप-भ्रमण...और कहीं जाकर पटना तक की हवाई-उड़ान |
छुटकी
इस बीच एक साल और बड़ी हो गयी है अपने पापा के बगैर ही...दस साल की | आठ साल पुरानी
डायरी का पन्ना खुलता है...एक आठ साल पुरानी छुट्टी का ब्योरा मिलता है पन्ने
में...दुश्मन की गोली से हासिल ज़ख़्म और दो साल की छुटकी की मुस्कान का शिनाख्त़
देता हुआ डायरी का पीला पड़ता हुआ पन्ना | कुछ यूँ...
“श्रीनगर
से पटना तक की दूरी एयर-इंडिया के डगमगाते हवाई जहाज द्वारा पीरपंजाल पर्वत-श्रृंखला को लांघते हुए भी महज साढ़े
चार घंटे में पूरी होती है...लेकिन पटना से सहरसा तक की पाँच घंटे वाली दूरी ख़त्म
होने का नाम नहीं लेती है, जबकि नौवां घंटा समापन पर है | ट्रेन की रफ़्तार प्रेरित कर रही है मुझे नीचे
उतर कर इसके संग जॉगिंग करने के लिए | ढ़ाई महीने हॉस्पिटल के उस सफ़ेद चादर वाले
बेड पर लेटे रहने के बाद इस कच्छप गति वाली ट्रेन की कुर्सी भी वैसे सुकून ही दे
रही है | इस ट्रेन के इकलौते एसी चेयर-कार में रिजर्वेशन नहीं है मेरा...लेकिन
कुंदन प्रसाद जी जानते हैं मुझे, बाक़ायदा नाम से | कुंदन
इसी इकलौते एसी कोच के अप्वाइंटेड टीटी हैं और इस बात को लेकर खासे परेशान हैं | मेरा नाम मेरे मुँह से सुनकर वो
चौंक जाते हैं और एक साधुनुमा बाबा को उठाकर मुझे विंडो वाली सीट देते हैं...लेफ्ट
विंडो वाली सीट ताकि मेरा प्लास्टर चढ़ा हुआ बाँया हाथ को किसी तरह की परेशानी ना
हो | चेयर-कार का एसी अपने फुल-स्विंग पर है तो टीस उठने लगती है फिर से बाँये हाथ
की हड्डी में...पेन-किलर की ख्व़ाहिश...दरवाज़ा
खोल कर बाहर आता हूँ टायलेट के पास | विल्स वालों ने ‘क्लासिक’ नाम से किंग-साइज
में कितना इफैक्टिव पेन-किलर बनाया है ये ख़ुद विल्स वालों को भी नहीं मालूम होगा !
कुंदन प्रसाद जी मेरे इर्द-गिर्द मंडरा रहे हैं | मैं भांप जाता हूँ उनकी मंशा और
एक किंग-साइज पेन-किलर उन्हें भी ऑफर करता
हूँ | सकुचाया-सा बढ़ता है उनका हाथ और पहले कश के साथ गुफ़्तगु का सिलसिला शुरू
होता है | मेरे इस वाले इन्काउंटर की कहानी सुनना चाहते हैं जनाब | सच आपसे हजम नहीं होगा और
झूठ मैं कह नहीं पाऊँगा - मेरे इस भारी-भरकम डायलॉग को सुनकर
वो उल्टा और प्रेरित ही होते हैं कहानी सुनने को | इसी
दौरान उनसे पता चलता है कि यहाँ के चंदेक लोकल न्यूज-पेपरों ने हीरो बना दिया है
मुझे और खूब नमक-मिर्च लगा कर छापी है इस मुठभेड़ की कहानी को | कहानी के बाद कुछ
सुने-सुनाये जुमले फिर से सुनने को मिलते हैं...आपलोग जागते हैं तो हम सोते हैं
वगैरह-वगैरह | मुझे वोमिंटिंग-सा फील होता है इन जुमलों को सुनकर...मेरा दर्द बढ़ने
लगता और मोबाइल बज उठता है...थैंक गॉड...कुंदन जी से राहत मिलती है | रात के (या
सुबह के ?) ढ़ाई बज रहे हैं जब ट्रेन सहरसा स्टेशन पर पहुँचती
है | माँ के आँसु तब भी जगे हुये हैं | ये ख़ुदा भी ना, दुनिया
की हर माँ को इंसोमेनियाक आँसुओं से क्यों नवाज़ता है ? पापा
देखकर हँसने की असफल कोशिश करते हैं | पत्नी
थोड़ी कंफ्यूज्ड-सी है कि चेहरा देखे कि प्लास्टर लगा हाथ और छुटकी मसहरी के अंदर तकियों में घिरी बेसुध सो रही है | मैं हल्ला कर जगाता हूँ
| वो मिचमिची आँखों से देर तक घूरती है मुझे और फिर स्माइल देती है...उफ़ ! ये
लम्हा यहीं थमक कर रुक क्यों नहीं जाता है ! वो फिर से स्माइल देती है | वो मुझे
पहचान गयी है छ महीने बाद भी देखने के | याहूsssss !!! वो मुस्कुराती है...मैं मुस्कुराता
हूँ...संक्रमित हो कर ज़िन्दगी मुस्कुराती है | लम्बी यात्रा की थकान भगोड़ी हो जाती
है और प्लास्टर लगे हाथ के दर्द को अब विल्स के उस किंग-साइज पेन-किलर की दरकार
नहीं...
दर्द-सा हो दर्द कोई तो कहूँ कुछ तुमसे मैं
चोट की हर टीस अब तो इक नयी सिसकी हुई”
---x---
हमेशा की तरह आपके लिखने के खास अंदाज़ ने बाँधे रखा। बहुत सुंदर संस्मरण।
ReplyDeleteKeep writing this type of content.
ReplyDeleteFood Questions
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