(दैनिक जनसत्ता 04 सितम्बर 2016 में आई मेरी एक कहानी)
“क्या बतायें
हम डॉक्टर साब, उसे एके-47 से इश्क़ हो गया और छोड़ कर
चली गई हमको”, कहते-कहते माजीद की आँखें भर आई थीं | माजीद...माजीद अहमद वानी...उम्र करीब सैंतीस-अड़तीस
के आस-पास, मुझसे बस कुछेक साल बड़ा...मेहदी से रंगी हुई सफ़ेद
दाढ़ी पर चढ़े हल्के भूरे रंग की परत उसकी आँखों के
कत्थईपन को जैसे सार्थक करती है | तक़रीबन छह महीने पहले जब क्लीनिक खोली मैंने
अपनी, कुपवाड़ा के मेन मार्केट से ज़्यादा नहीं बस थोड़ा ही आगे, माजीद का फार्मेसी में डिप्लोमाधारी होना मेरे लिए इस दूर-दराज़ इलाक़े में
एकदम से सुकून की साँस लेकर आया था | परिचय यहीं के एडिशनल एसपी ने करवाया था यह
कहते हुये कि अच्छा नौजवान है...आसपास के औसत युवाओं से एकदम अलग सोच वाला और
सुलझा हुआ |
एडिशनल एसपी, सुरेश रैना, ख़ुद ही बड़े ही मिलनसार और सुलझे हुये
निकले...अपने कथित पुलिसिया रौब से परे, बहुत ही सहज और सरल | जम्मू से घर छोड़ते समय, जब पापा और माँ के लाख
समझाने पर भी मैं राज़ी नहीं हुआ था अपनी प्रैक्टिस वहीं घर के आस-पास जमाने के लिए, तो पापा ने अपने बचपन के मित्र का हवाला दिया था |
एडिशनल एसपी साब पापा के उसी मित्र के इकलौते पुत्र थे |
कश्मीर आकर इस सुदूर कुपवाड़ा में क्लीनिक खोलने की मेरी ज़िद के पीछे जहाँ मेडिसीन
के ख़ुदा, हिप्पोक्रेट्स की फिलॉसोफी को अंगीभूत करने का एक
तरह का लाल-गुलाबी-नीला-नीला सा रोमांटिसिज़्म था, वहीं दूसरी
ओर बत्तीस-तैंतीस वर्ष पहले अपने पूर्वजों की ज़मीन से ज़बरन बेदख़ल कर दिये जाने के हरे-हरे
से और काले से प्रतिरोध को आत्म-सात करना
भी था |
नब्बे के दशक
के उन शुरुआती वर्षों के खौफ़ की दास्तान जाने कितनी बार माँ-पापा और दीदी से सुन
चुका हूँ और उनकी आँखों में जीवंत होते देख चुका हूँ | जम्मू के शरणार्थी-शिविर में बीता बचपन और फिर पापा की कश्मीर
यूनिवर्सिटी से छूट गई प्रोफेसरी का जम्मू के एक कॉलेज में लग जाना और माँ के
बुटीक-शॉप का अपना मुक़ाम बनाना, दीदी और मेरी पढ़ाई का खर्चा
व ठीक-ठाक मध्यमवर्गीय जीवन निकाल ले गए |
जम्मू मेडिकल
कॉलेज में मेडिसीन की पढ़ाई के दौरान ही बावरे मन की बावरी बातों में आकर अपनी
प्राइवेट प्रैक्टिस को मैंने कुपवाड़ा जाकर स्थापित करने का निर्णय ले चुका था | दोस्तों ने यूँ तो समझ-समझ-के-समझ-को-समझो की तर्ज़ पर बहुत समझाने की
कोशिश की थी कि कहाँ उस मिलिटेन्सी की तपिश में सुलग रहे इलाक़े में जा रहे हो...कश्मीरी
पंडितों के लिए अभी भी वो हिस्सा सुरक्षित नहीं है...कश्मीर में ही करना है तो
श्रीनगर में बेस बना लो, कुपवाड़ा हॉट है...वगैरह-वगैरह, लेकिन इस जानिब नासमझ सी धुन थी कि बस किसी ज़िद्दी की तरह गले में पैठ गई
थी | फिर काजीगुंड
नाम के किसी गाँव में सेबों का पैतृक बगान और लकड़ियों के बने एक घर, जिनकी धुंधली स्मृतियाँ तीन वर्षीय बालमन के चिलमन से अभी भी इतने सालों
बाद कई बार एकदम से उभर कर आ जाती हैं, की झलक देखने की
इच्छा इस धुन को सप्तम पर लिए जाती थी |
क्लीनिक स्थापित
हुये दूसरा ही तो दिन था और कुपवाड़ा में आए हुये बस एक हफ़्ता ही तो बीता था, जब मार्च की एक ठिठुरती दोपहर को माजीद आया था मिलने मुझसे एडिशनल एसपी
साब के हुक्म पर...
“सलाम वलेकुम, साब ! वो डॉक्टर अशोक भान आप ही हैं ?”, किसी गहरे
कुएं से आती हुई एक अजब सी कशिश से भरी आवाज़ वाला माजीद अहमद वानी उस दिन से मेरा लगभग
सब कुछ हो चुका था...मेरा कम्पाउंडर, मेरा हमसाया...मेरा
फ्रेंड-फिलॉसोफर-गाइड | उसकी आँखों में एक कैसा तो कत्थईपन
था जो हर वक़्त मानो पूरी की पूरी झेलम का सैलाब समाये रखता था अपनी रंगत में और
हाथ इतने सुघड़ कि क्लीनिक का हर हिस्सा हर घड़ी दमकता रहता था | उन सुघड़ हाथों की बनी रोटियाँ जैसे अपनी पूरी गोलाई में स्वाद का हिज्जे
लिखा करती थीं और यही स्वाद जब उसके हाथों से उतर कर करम के साग या फिर मटन के
मार्फत जिह्वा की तमाम स्वाद-ग्रंथियों तक पहुँचता तो मेरा उदर अपने फैले जाने की
परवाह करना छोड़ देता | अभी उस रात जब उसके हाथों के पकाये
वाजवान का लुत्फ़ लेते हुये मैंने कहा कि “माजीद, तेरी बीवी
तो जान छिड़कती होगी तुम्हारे हाथों का रिस्ता और गुश्ताबा खा कर” तो एकदम से जैसे
कत्थई आँखों में हर वक़्त उमड़ती झेलम अपना पूरा सैलाब लेकर कमरे में ही बहने लगी थी
| पहले तो बस पल भर को एक विचित्र सी हँसी हँसा वो...वो हँसी
जो उसके पतले होठों से फिसल कर उसकी मेहदी रंगी दाढ़ी में पहले तो देर तक कुलबुलाती
रही और फिर धच्च से आकर धँस गई मेरे सीने में कहीं गहरे तक |
“क्या बतायें
हम डॉक्टर साब, उसे एके-47 से इश्क़ हो गया और छोड़ कर
चली गई हमको !”, दाढ़ी में कुलबुलाती हँसी के ठीक पीछे-पीछे
चंद हिचकियाँ भी आ गई थीं दबे पाँव |
“क्या मतलब ? क्या कह रहे हो, माजीद ?”,
अगला निवाला मेरे मुँह तक जाते-जाते वापस प्लेट में आकर ठिठक गया था |
“हमारी
मुहब्बत, दो धूप-सी खिली-खिली बेटियाँ, भरा-पूरा घर और आपका ये रिस्ता गुश्ताबा वगैरह कुछ भी तो नहीं रोक पाया
हमारी कौंगपोश को | इन सब पर एके-47 का करिश्मा और नामुराद
जिहाद का जादू ज़ियादा भारी पड़ा, डॉक्टर साब |”
“कौंगपोश ? तुम्हारी बीवी का नाम है ? बड़ा खूबसूरत नाम है ये
तो ! क्या मानी होता है इसका ?”
“जी साब !
केसर का फूल...उतनी ही ख़ूबसूरत भी थी वो, बिलकुल
केसर के फूल की तरह ही !”, हिचकियाँ जिस तरह दबे पाँव आई थीं, उसी तरह विलुप्त भी हो गईं, लेकिन झेलम का सैलाब अब
भी उमड़ ही रहा था अपने पूरे उफ़ान पर |
“हुआ क्या
माजीद ? तुम चाहो तो शेयर कर सकते हो मेरे साथ
सब बात...अब तो हमदोनों दोस्त हैं ना !”
“आप बहुत
अच्छे हो, डॉक्टर साब ! हुआ कुछ नहीं, बस हमारी क़िस्मत को हमारी मुहब्बत से रश्क होने लगा था और हमारी मुहब्बत
ने इस कश्मीर वादी के आवाम की तरह ही एके-47 के आगे अपनी जबीं टेक दी |”
“तुम तो
शायरी भी करते हो माजीद !”, उसे छेड़ते हुये मैंने कहा तो झेलम का
उमड़ता सैलाब थोड़ा-सा थमक गया जैसे |
“मुहब्बत ने
जितने बड़े शायर नहीं पैदा किए होंगे, बेवफ़ाई ने
उससे कहीं ज़ियादा और उससे कहीं बड़े-बड़े शायर दिये हैं इस जहान को | कौंगपोश को शायरी वाले माजीद से ज़ियादा एके-47 वाला उस्मान भाया और वो
चली गई एक दिन हमको छोड़ के |”
सिहरते हुये
सितम्बर की जुम्मे वाली ये रात एक नए माजीद से मिलवा रही थी मुझे, जो इन छ महीनों में अब तक छिपा हुआ था मुझसे | खाना
ख़त्म करके बर्तन वगैरह धुल जाने के बाद, जब वो गर्म-गर्म
कहवा लेकर आया तो उसकी आँखों के कत्थईपन ने अब झेलम के सैलाब को पूरी तरह ढाँप
लिया था | कहवे के कप से इलायची और केसर की मिली-जुली ख़ुशबू
लेकर उठती हुई भाप, कमरे में एकदम से आन टपकी चुप्पी को एक
अपरिभाषित-सा स्टीम-बाथ दे रही थी | फ़र्श पर चुकमुक बैठा
अपने दोनों हाथों से कहवे के कप को थामे हुये माजीद बस अपने लौकिक अवतार में ही
उपस्थित था मेरे साथ...जाने कहाँ विचरण कह रहा था उसका मन |
देर बाद स्वत: ही उसकी आवाज़ ने मुझे कहवे के स्वाद और सुगंध की तिलिस्मी दुनिया से
बाहर खींचा | कुआँ जैसे थोड़ा और गहरा हो गया था...
“उस्मान नाम
है उसका, साब ! हमारे ही गाँव दर्दपुरा का है | दस बरस पहले जिहादी हो गया | उस पार गया था
ट्रेनिंग लेने | गाँव में आता था फ़ौज से छुप-छुपा कर और
कौंगपोश से मिलता था | उसे रुपये-पैसे देता था और उसके लिए
खूब सारे तोहफ़े भी लाता था | हमारे दर्दपुरा की लड़कियों पर
एक अलग ही रौब रहता है, साब, इन
जिहादियों का | तक़रीबन सत्तर घर वाले हमारे गाँव में कोई भी
घर ऐसा नहीं है, जिसका लड़का जिहादी ना हो | एक तरह का रस्म है साब, हमारे दर्दपुरा का | मेरे दोनों बड़े भाई भी जिहादी थे...मारे गये फ़ौज के
हाथों | मुझपे भी बड़ा ज़ोर था, साब, भाई के मरने के बाद...लेकिन मुझे कभी नहीं भाया ये जिहाद-विहाद |”
“हासिल तो
कुछ होना ही नहीं है इस जिहाद से और इस आज़ादी के नारों से, माजीद ! जिस पाकिस्तान की शह पर ये बंदूक उठाए घूमते हैं, उसी पाकिस्तान से अपना मुल्क तो संभलता नहीं !”,
मुझसे रहा नहीं गया तो उबल सा पड़ा था मैं...माँ पापा और दीदी की आँखों में फैला वो
खौफ़ का मंज़र एकदम से नाच उठा मेरे सामने |
“ख़ता हमारे
क़ौम की भी नहीं है, साब | शुरुआत में
जो हुआ सो हुआ...उसके बाद हमारी पीढ़ी के लिए आज़ादी का नारा उस भूत की तरह हो गया
है, जिसके क़िस्से हम बचपन में अपनी नानी-दादी और वालिदाओं से
सुनते आते हैं और बड़े होने के बाद ये समझते-बूझते भी कि भूत-प्रेत कुछ नहीं होते, मगर फिर भी ज़िक्र किए जाते हैं |”
“ख़ता कैसे
नहीं हुई, माजीद ? एक पूरी
क़ौम ने मेरी पूरी क़ौम को जलावतन कर दिया और तुम कहते हो कि ख़ता क़ौम की नहीं है ?”, माँ-पापा की आँखों वाला खौफ़ का वो अनदेखा मंज़र जैसे मैंने ख़ुद देख लिया
हो अभी के अभी इसी वक़्त | माजीद थोड़ा सहम-सा गया था मेरी इस
औचक प्रतिक्रिया पर |
“आपका गुस्सा
सर-आँखों पर डॉक्टर साब ! उस एक ख़ता की जो आपकी क़ौम के साथ हुई...उसकी तो कोई तौबा
ही नहीं साब ! वो जाने किस क़ाबिल शायर ने कहा है ना साब कि लम्हों ने ख़ता की है
सदियों ने सजा पायी...उसी की सजा तो हम भुगत रहे हैं | पूरी की पूरी एक पीढ़ी गुम हो गई है साब | निकाह के
लिए लड़के नहीं हैं अब तो हमारी क़ौम में | आप यक़ीन करोगे साब, हमारे दर्दपुरा में कुंवारी लड़कियों की गिनती लड़कों से दूनी से भी ज़ियादा
है | लड़के बचे ही नहीं इस नामुराद जिहाद के चक्कर में |”, वो गहरा कुआँ जैसे एकदम से भर सा गया था और मुझे ख़ुद पर अफ़सोस होने लगा अपने
इस बेवजह के गुस्से से | ख़ुद पर बरस पड़ी खीझ की भरपाई करने
के लिए, एकदम से कह उठा मैं उस से...
“मुझे अपने
गाँव कभी नहीं ले चलोगे, माजीद ?”
...और माजीद तो जैसे किलक ही पड़ा ये सुनकर | तय हुआ कि कल और परसों सप्ताहांत का फ़ायदा उठाते हुये क्लीनिक को अवकाश
दिया जाये और चला जाये दर्दपुरा |
74.420
डिग्री के अक्षांश और 34.311 डिग्री देशांतर पर बसे इस गाँव तक पहुँचने के लिये
कुपवाड़ा शहर को दायें छोड़ते हुये मुख्य सड़क से फिर से दायीं तरफ उतरना पड़ता है | पहाड़ों पर घूमती कच्ची सड़क पर लगभग साढ़े चार घंटे की हिचकोले खाती ड्राइव
के पश्चात चारों तरफ से पहाड़ों से घिरे इस गाँव तक पहुँचने पर सम्राट जहांगीर के
कहे “गर फ़िरदौस बर रूए ज़मीं अस्त, हमीं अस्त, हमीं अस्त, हमीं अस्त”... का यथार्थ मालूम चलता है | दर्दपुरा, जहाँ आजादी के इन अड़सठ सालों बाद भी
बिजली का खंभा तक नहीं पहुंचा है…जहाँ भेड़ों की देखभाल के
लिये एक देसी डॉक्टर तो है लेकिन इन्सानों के डॉक्टर के लिये यहाँ के बाशिंदों को
लगभग सत्तर किलोमीटर दूर कुपवाड़ा जाना पड़ता है, इतना ख़ूबसूरत
होगा, मेरी कल्पना से परे था | कश्मीर
में टूरिस्ट बस गुलमर्ग और सोनमर्ग के मिडोज़ देखकर जन्नत का ख़्वाब बुन लेते हैं, यहाँ तो जैसे साक्षात जन्नत अपनी बाँह पसारे पहाड़ों के दामन में बैठा हुआ
था | सुबह जब माजीद
के घर पहुँचा तो जैसे पूरे का पूरा गाँव उमड़ा पड़ा था स्वागत की ख़ातिर |
माजीद का
परिवार, जिसमें उसके अब्बू और अम्मी और उसकी दो
छोटी बेटियाँ, हीपोश और शिरीन…जैसे दूर
जम्मू में बैठा हुआ मुझे अपना परिवार यहाँ मिल गया था |
माजीद ने अपनी बड़ी वाली नौ साल की बेटी से बड़े गर्व से मिलवाया और ज़िद की कि मैं
उस से इंगलिश में कुछ पूछूँ | सकुचाहट को बड़े ही अंदाज़ में
साक्षात अवतरित सी करती हुई उस गोरी-चिट्ठी सेब सी लाल-लाल गालों वाली छुटकी से
उसका नाम पूछा तो उसका “माय नेम इज हीपोश...हीपोश अहमद वानी” कहना जैसे इस सदी का
अब तक गुनगुनाया हुआ सबसे ख़ूबसूरत नगमा था |
“एंड व्हाट डज हीपोश मीन माय डियर ?”
“ओ...इट्स अ’ फ्लावर, अंकल ! जेस्मीन फ्लावर !”
मन किया उस
सकुचाई-सी बोलती हुई जेस्मीन के फूल को गोदी में उठा लूँ |
धीरे-धीरे जब
अधिकांश गाँव वाले वहाँ से रुख़सत हुये तो चंद बुजुर्गों के साथ अब मैं माजीद के
परिवार के साथ अकेला था | ये तय कर पाना लगभग असंभव था कि पूरे
परिवार का और ख़ास तौर पर माजीद के अब्बू का मुझ पर उमड़ता स्नेह महज़ इस वज़ह से था
कि मैं उस परिवार के इकलौते कमाने वाले की आय का साधन था या फिर वो स्नेह हर
मेहमान के लिए नैसर्गिक ही था |
दालान में
सबके साथ बैठा नमकीन चाय के दौर पर दौर चल रहे गोल-गोल सख़्त मीठी रोटियों के साथ
का लुत्फ़ उठाता बस चुपचाप सुने जा रहा था मैं वहाँ बैठे बुजुर्गों की बातें | माजीद के अब्बू और उनके हमउम्र बुजुर्गों की क़िस्सागोई जैसे मुझे नब्बे
के दशक से पहले वाले ख़ुशहाल कश्मीर की यात्रा पर ले चली थी |
एक अपनी ही तरह की टाइम-मशीन में बैठा मैं सत्तर और अस्सी के दशक वाले कश्मीर की
यात्रा पर था और तभी नज़र पड़ी मेरी माजीद के अब्बू के बायें हाथ पर | अंगूठे के छोड़ कर बाकी सारी ऊँगलियाँ नदारद थीं उनके बायें हाथ की | एक अजीब सी झुरझुरी दौड़ गई मेरे पूरे वजूद में उस महज़ अंगूठे वाले हाथ को
देखकर | पूछा जब मैंने कि ये कैसे हुआ तो वहाँ बैठे तमाम के
तमाम लोगों का जबर्दस्त मिला-जुला ठहाका गूँज उठा | मैं तो
अकबका कर देखने लगा था क्षण भर को | माजीद भी सबके साथ ठहाके
तो नहीं, एक स्मित सी मुस्कान जरूर बिखेर रहा था ...और तब जो मैंने उन कटी ऊँगलियों की कहानी सुनी तो बस दंग रह गया |
अपने अब्बू
के बायें हाथ की चारों ऊँगालियों को ख़ुद माजीद ने काटा था...वो भी कुल्हाड़ी से और
वो भी तब जब वो बस ग्यारह साल का था | भेड़ पालने
के अलावा माजीद के अब्बू का जंगल से लकड़ी काट कर लाने का भी व्यवसाय था | आतंकवाद का उफ़ान चढ़ा ही था कश्मीर में तब | माजीद
के दोनों बड़े भाई जा चुके थे उस पार पाक अधिकृत कश्मीर के जंगलों में चल रहे किसी
जेहादी ट्रेनिंग कैम्प में और अपनी दो बहनों के साथ माजीद था बस अपने अब्बू और
अम्मी के साथ...अब्बू की भेड़ों की देखभाल में हाथ बँटाते हुये और बचपन की सुहानी
पगडंडी पर एकदम से जवान होते हुये | बर्फ की चादर में लिपटे
सर्दी वाले उन्हीं दिनों में कभी इक रोज़ एक देवदार को अपनी कुल्हाड़ी से धराशायी
करते हुये उसके अब्बू के बायें हाथ की तरजनी के जोड़ में भयानक दर्द उठा था | दो रोज़ लगातार भयानक पीड़ा सहते रहे वो, तर्जनी जहाँ
हथेली से जुड़ी रहती है | अम्मी के चंद एक घरेलू उपचार बेअसर
रहे थे और तीसरे दिन झिमी झिमी गिरते बर्फ के फाहों में बाहर अपनी बहनों के साथ
उधम मचाते माजीद को पकड़ कर ले गए वो भेड़ों के बाड़े में |
पहले से पड़े देवदार के एक कटे तने पर अपनी बायीं हथेली बिछाते हुये उन्होंने अपनी
कुल्हाड़ी की तेज धार को तर्जनी और हथेली के जोड़ पर रखा और माजीद को वहीं पड़ा पत्थर
उठा कर कुल्हाड़े पर प्रहार करने का हुक्म दिया | सहमा सा
माजीद डर से मना करता रहा देर तक, लेकिन फिर एक ना चली उसकी
अब्बू की तेज़ आवाज़ में बार-बार दिये जा रहे हुक्म के आगे |
उधर माजीद के दोनों हाथों से पकड़ा हुआ पत्थर पड़ा कुल्हाड़े पर और उधर तरजनी छिटक कर
अलग हुयी हथेली से | अगली तीन सर्दियों तक ये सिलसिला फिर
फिर से दोहराया गया और तरजनी की तरह ही मध्यमा, अनामिका और
कनिष्ठा अलग होती गईं इम्तियाज़ अहमद वानी की बायीं हथेली से |
दर्दपुरा के
उस बुजुर्ग, इम्तियाज़ अहमद वानी, का ये अपने तरीके का खास उपचार था चिल-ब्लेन्स से निबटने का | एक उस गाँव में, जहाँ आज भी किसी सच के डॉक्टर से
मिलने के लिए सत्तर किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है और वो भी बर्फ़बारी में अगर
रास्ता बंद न हो तब...जहाँ शाम को सूरज ढलने के बाद अब भी लकड़ी की मशाल और कैरोसीन
वाले लालटेन जलते हों, उन कटी हुई ऊँगलियों की हैरतअंगेज़
दास्तान पर मेरी हैरानी को चुपचाप तकता हुआ दर्दपुरा जैसे हौले-हौले मुझे चिढ़ा रहा
था |
अगले दिन, रविवार की उस सिली सी दोपहर को वापसी की यात्रा में गाँव को पलट कर
निहारता हुआ मैं सोच रहा था कि पापा की प्रतिक्रिया क्या होगी, जब मैं उनको बताऊँगा कि मैं अपना क्लीनिक कुपवाड़ा से उठा कर किसी अनाम से
गाँव में स्थान्तरित कर रहा हूँ |
जीप के रियर-व्यू मिरर में पीछे छूटते दर्दपुरा का चिढ़ाना जाने क्यों मुझे एकदम से एक मुस्कुराहट में बदलता नज़र आ रहा था | पलट कर पिछली सीट पर बैठे माजीद को बताने के लिए कि देखो तुम्हारा गाँव मुस्कुरा रहा है, मुड़ा तो सीट की पुश्त पर सिर टिकाये उसका ऊंघना मुझे बस उसे निहारते रहने को विवश कर गया |
---x---
(photo credit to Razaq Vance)
एक दम सजीव, कश्मीर की वादियां ,लोग घटनाक्रम ,उँगलियों की घटना सुन्न कर देती है
ReplyDeleteइस कहानी पर लौट लौट कर आना पड़ेगा
बहुत बहुत शुक्रिया सोनल मैम....दिल से !
Deleteकहानी की शुरुआत से ही वादी की खुशबू आने लगी थी वो अंत तक बरकरार रही ... उन्ग्लियें काटने की घटना और बाद की हंसी बताती है सुदूर के लोगों की जीवन गाथा ....
ReplyDeleteआभार दिगंबर भाई ...दिल से !
Deleteमै कहानी पढ़ते ही रो पडी।मुझे कश्मीर और कश्मीरियत से बहुत प्यार है।नहीं जानती ऐसी विकट परस्थितियों में क्या करना चाहिए।जितनी पेलेट गन से छेदी आँखे घाव करती हैं उतनी ही हरी बर्दी पर हुए पथराव से बहता खून पूरे अस्तित्व को छलनी कर देता है।और आम कश्मीर के बच्चे स्कूल जाने वाले हर बच्चे के बैग से लटके मुह चिढ़ाते हैं।ऐसे में दर्दपुरा ने जहाँ एक तरफ तसल्ली की हल्की सी लकीर बनाई वहीं फक्र को बढ़ा भी दिया।बहुत मार्मिक कहानी
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया गीता मैम !
Deleteमै कहानी पढ़ते ही रो पडी।मुझे कश्मीर और कश्मीरियत से बहुत प्यार है।नहीं जानती ऐसी विकट परस्थितियों में क्या करना चाहिए।जितनी पेलेट गन से छेदी आँखे घाव करती हैं उतनी ही हरी बर्दी पर हुए पथराव से बहता खून पूरे अस्तित्व को छलनी कर देता है।और आम कश्मीर के बच्चे स्कूल जाने वाले हर बच्चे के बैग से लटके मुह चिढ़ाते हैं।ऐसे में दर्दपुरा ने जहाँ एक तरफ तसल्ली की हल्की सी लकीर बनाई वहीं फक्र को बढ़ा भी दिया।बहुत मार्मिक कहानी
ReplyDeleteSudoor vaadiyon ki Khushbu aur dushvaaroyan sametey acchhi kahaani... Saadhuvad Gautam ji :)
ReplyDeleteनवाज़िश डॉली मैम !
DeleteSudoor vaadiyon ki Khushbu aur dushvaaroyan sametey acchhi kahaani... Saadhuvad Gautam ji :)
ReplyDeleteउस "बुरादे " का दर्द आप शिद्दत से महसूस करते हैं इस बात की गवाह ये कहानी है ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार मैम !
Deleteउस "बुरादे " का दर्द आप शिद्दत से महसूस करते हैं इस बात की गवाह ये कहानी है ।
ReplyDeleteशुक्रिया राजश्री मैम !
Deleteहाल की यात्रा के दौरान वादी के दृश्यों को अपन में आत्मसात कर लाया था जो कि कहानी पढ़ कर पुनः जीवित हो उठे। चंद उल्लुओं के उन्माद की सजा सारी नीरीह जनता मिल रही है और जो आजादी की लड़ाई पिछॾेपन से होना चाहिए वो बस एक नाहक उन्माद में बदलकर रह गई है। शानदार कहानी गुरुदेव।
ReplyDeleteशुक्रिया प्यारे !
DeleteNice
ReplyDeleteI also went to Kashmir during floods and organized some camps , I felt delighted by their nice behavior and relationships ..
Nice story reminded me those days of Kashmir ..
thanx Ashutosh ji !
DeleteNice
ReplyDeleteI also went to Kashmir during floods and organized some camps , I felt delighted by their nice behavior and relationships ..
Nice story reminded me those days of Kashmir ..
कोई कैसे लिख लेता है ऐसी कहानी! दर्द्पुरा के पूरे दर्द को आत्मसात करती कहानी. गजब!
ReplyDeleteआपका स्नेह दीदी !
Deleteवाह गौतम भैया.. एक क्षण के लिए भी रुका नहीं पूरा पढ़ कर ही रुका... पढ़ा क्या मन में ७० एमएम का पर्दा जीवंत हो उठा... इससे ज़ियादः कुछ कहने की हैसियत नहीं..
ReplyDeletewww.facebook.com/sandeip.dwivedi
बहुत बहुत शुक्रिया संदीप !
Deleteऎसी कश्मीरियत पर कोई कैसे बहस, जंग या ज़िहाद करे, सिर्फ़ मुहब्बत मुहब्बत मुहब्बत ही की जा सकती है. मानीखेज़ कहानी गौतम भाई.
ReplyDeleteशुक्रिया समीर !
Deleteबहुत अच्छी ,एकदम कश्मीरी कहानी।
ReplyDeleteबहुत अच्छी ,एकदम कश्मीरी कहानी।
ReplyDeleteथैंक्स पल्लवी
Deleteबेहद खूबसूरत, प्यारी सी कहानी ... कश्मीर की खूबसूरत वादियों का मन मोह लेने वाला सजीव चित्रण है वहीँ दर्द्पुरा का दर्द मन को व्यथित करता है ... उंगलियाँ काटने वाली घटना स्तब्ध करती है ..
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार शोभना मैम !
Deleteआप की भावनाओं की, मंसूबों की और हिम्मत की दाद देनी होगी! आपकी पोस्ट वहां के लोगों की मुहब्बतों और जिहाद की हकीकत से भी रूबरू कराती है. कई सवाल भी जहन में छोडती हैं हमारे, आपके, सबके सोचने के लिए.
ReplyDeleteआभार आपका
Deleteलगा ही नहीं कि कहानी पढ़ रही हूँ। कैसे तो एक एक दृश्य सजीव हो उठा है। अपनी रौ में पढ़ती जा रही थी कि अचानक खत्म हो गयी...अभी और पढ़ने का मन था गौतम :)
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया दीदी
Deleteकश्मीर को एक लेखक ...एक आर्मी ऑफिसर की नज़र से देखा. दर्दपुरा के दर्द को महसूस कर रही हूँ.
ReplyDeleteअच्छा लिखते हैं आप
बहुत बहुत शुक्रिया मैम _/\_
Delete